गुरुवार, 18 मार्च 2010

व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टिकोण

हम में से प्रत्येक व्यक्ति दो प्रकार के उद्देश्यों के लिए कार्य करता है - व्यक्तिगत हितों के लिए तथा सामाजिक व्यवस्था के लिए. इन दो उद्देश्यों के लिए हमारे दायित्व भिन्न होते हैं इसलिए हमारी भूमिकाएं भी भिन्न होनी चाहिए. इसलिए प्रत्येक सभ्य नागरिक को दो भिन्न दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है - व्यक्तिगत और सामाजिक. उदाहरण के लिए, परिवार के पालन-पोषण के लिए व्यक्तिगत दृष्टिकोण का महत्व है जबकि शासन व्यवस्था में मतदान द्वारा योगदान के लिए सामाजिक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक होता है.

सन्दर्भ के अनुकूल दृष्टिकोणों का यह अंतराल वांछित है  किन्तु अधिकाँश व्यक्ति व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए सामाजिक दृष्टिकोण को नकार देते हैं. यही मानव की निर्बलता है जो उसे पशुता की ओर ले जाती है. भारत की शासन व्यवस्था में इसे स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है.

किसी भी व्यक्ति को निजी दायित्वों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और इसके लिए निजी हितों का पोषण करना आवश्यक होता है. साथ ही किसी भी मनुष्य को अपने सामाजिक दायित्वों से भी विमुख नहीं होना चाहिए अन्यथा वह मानवता की एक श्रेष्ठ व्यवस्था - सामाजिकता, से लाभान्वित नहीं हो सकता, साथ ही सामाजिक व्यवस्ता को प्रदूषित कर समाज के दूसरे सदस्यों के लिए भी कठिनाइयाँ उत्पन्न करता है. इन दोनों भूमिकाओं के सफल निर्वाह के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति अपने अपने सामाजिक दायित्व निर्वाह में भी अपने निजी हितों की संतुष्टि को समझे. सामाजिक दायित्व निर्वाह से सामाजिक व्यवस्था स्वस्थ बनी रहती है जिससे समाज के सभी अंगों के हित साधित होते हैं. निजी स्वार्थों के लिए इनकी बलि देने से व्यक्ति स्वयं सामाजिक व्यवस्था को प्रदूषित कर अपना भी अहित करता है.

सामाजिक व्यवस्था के प्रदूषण के दुष्प्रभाव को व्यक्ति इसलिए अनुभव नहीं करता क्योंकि इनका प्रभाव उस पर अल्प किन्तु उसकी भावी पीढ़ियों पर गंभीर होता है. चूंकि भावी पीढ़ियों का हित भी व्यक्ति के निजी हितों का पोषण होता है इसलिए वस्तुतः सामाजिक हित चिंतन भी निजी हितों का सुदूर पोषण होता है.

व्यक्ति की आयु का उस पर निजी हितों के भार का सीधा सम्बन्ध होता है  आयु वृद्धि के साथ-साथ निजी दायित्व न्यून होते जाते हैं और आदर्श स्थिति में ५० वर्ष की आयु में ये शून्यस्थ हो जाने चाहिए. इसलिए, अतः युवा अवस्था में व्यक्ति पर निजी दायित्वों का भार अधिक होता है, ऐसी अवस्था में उसके द्वारा सामाजिक दायित्वों की अवहेलना होना संभव है इसके लिए उसे पूर्णतः दोषी नहीं ठहराया जा सकता, सामाजिक व्यवस्था की तत्कालीन स्थिति भी इसके लिए दोषी हो सकती है जो समाज के ज्येष्ठ वर्ग और व्यत पीढ़ियों की देन होती है. किन्तु आयु वृद्धि के साथ भी यदि व्यक्ति सामाजिक दायित्वों की अवहेलना करता है तो उसका अपराध अक्षम्य होता है. ऐसा व्यक्ति अपनी पशुता के कारण मानवता के ऊपर अवांछित भार होता है.

अविकसित तथा भारत जैसे अर्ध-विकसित देशों में जनसाधारण अपनी पशुता से ऊपर नहीं उठ पाए हैं, यदा कदा जो सुधार होते हैं, सामाजिक व्यवस्था के प्रदूषण से वे पुनः विलुप हो जाते हैं. ऐसे समाजों में पशु गुण संपन्न व्यक्तियों को ही मानव कहा जाने लगता है. इस कारण से जो व्यक्ति पूरी सावधानी से अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हैं वे महामानवता के पथ पर अग्रसर कहे जा सकते हैं. आधुनिक विश्व में लेव तोल्स्तोय, महात्मा गाँधी, सुभाष बोस, अब्राहम लिंकन, आदि महामानव बनते रहे हैं. 

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