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सोमवार, 20 दिसंबर 2010

आस्तिकता, नास्तिकता और अज्ञता

तीन प्रचलित वाद - आस्तिवाद, नास्तिवाद, और अज्ञवाद, मानवता में प्रचलित हैं. आस्तिवाद मनुष्य के कर्म और उसके अस्तित्व की अवहेलना करता है और सब कुछ ईश्वर के अधीन मानते हुए उसी के ऊपर छोड़ने के पक्ष में है. इसके विपरीत नास्तिवाद है जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता और मनुष्य के कर्म और अस्तित्व को ही महत्व देता है. तीसरा वाद बहुत अधिक प्रचलित नहीं है क्योंकि इसे समझने में विरोधाभास हैं. आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही इसे अपने-अपने पक्ष में मानते हैं. इसलिए इस विषय पर कुछ विशेष चर्चा वांछित है. यहीं स्पष्ट कर दूं कि मैं निश्चित रूप से सुविचारित नास्तिवादी हूँ.


अज्ञवाद भारत के एक प्राचीन ऋषि अगस्त्य की दें है जिसके अनुसार सृष्टि और इसके रचयिता के बारे में जानना असंभव है क्योंकि यह इतनी पुरानी है कि इसके उदय के समय के बारे में मनुष्य जाति को कोई ज्ञान होना असंभव है. अज्ञवाद की इस धारणा को आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही स्वीकारते हैं किन्तु इसकी व्युत्पत्तियों पर एक दूसरे के विरोधी हैं.

आस्तिवादियों का मत है कि अनंत सृष्टि और सृष्टा के बारे में मनुष्य की सीमित बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त करना असंभव है इसलिए मनुष्य को स्वयं को तुच्छ स्वीकारते हुए सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए. आस्तिवाद के मत के विपरीत नास्तिवाद का मत है कि जिस सृष्टि और सृष्टा के बारे में कुछ जाना नहीं जा सकता, मनुष्य ने उसकी परिकल्पना कैसे और क्यों की. वस्तुतः उसके बारे में तो मनुष्य को निश्चिन्त और निरपेक्ष ही रहना चाहिए. एक ऐसी समस्या को अपने समक्ष खडी करना जिसका वह समाधान नहीं कर सकता, मूर्खता ही है.

उपरोक्त में जो कुछ भी कहा गया है वह वर्तमान में प्रचलित है, किन्तु पूरी तरह सच नहीं है. आस्तिक, नास्तिक और अज्ञ शब्द जिन स्रोतों से लिए गए हैं वे वेद और शास्त्र हैं. उनकी रचना के समय मनुष्य जाति ने ईश्वर के वर्तमान में मान्य स्वरुप की कोई कल्पना नहीं की थी. इसलिए ये शब्द ईश्वर के अस्तित्व से निरपेक्ष हैं. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उस समय मनुष्य जाति नास्तिवादी थी. वस्तुतः उसे नास्तिवादी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उस समय तक आस्तिवाद उपस्थित नहीं था. मनुष्य बस मनुष्य था और उसका कोई धर्म था तो वही था जिसे आज मानवतावाद कहा जाता है, जिसमें मनुष्य को बस नैतिक होने की आवश्यकता थी और अपने समाज के साथ सहयोग करना था.

इसलिए 'आस्ति' शब्द का मूल अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' न होकर केवल 'अस्तित्व' है जिसका आधुनिक अर्थ 'शरीर' अथवा 'भौतिक स्वरुप' है. इसी प्रकार 'नास्ति; शब्द का अर्थ 'अस्तित्वहीनता' अथवा 'कल्पना' है. इसी आधार पर 'स्वास्ति' का अर्थ वही है जो आज 'स्वास्थ' का है.

मानवता का विभाजन तब आरम्भ हुआ जब कुछ मनुष्यों ने बस्ती बनाकर समाज के रूप में संगठित रहना आरम्भ किया. यह देव जाति थी. शेष सभी आदिमानव की तरह जंगलों में विचरण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे. ये जंगली अपनी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए देव बस्तियों में लूट-पाट करने लगे जिससे वे देवों के शत्रु बन गए. यहाँ से मनुष्य जाति में प्रतिस्पर्द्धा की भावना विकसित हुई.
Co-Opetition : A Revolution Mindset That Combines Competition and Cooperation : The Game Theory Strategy That's Changing the Game of Business

प्रतिस्पर्द्धा देवों की शत्रु जातियों के हित में थी इसलिए उन्होंने इस को आगे विकसित करने के लिए ईश्वर के आधुनिक अर्थ की कल्पना की और उसके आधार पर विभिन्न धर्म बनाए. धर्मों ने मनुष्य जाति को और भी अधिक विभाजित किया और प्रतिस्पर्द्धा मनुष्य का एक प्रमुख गुण बन गया. 'आस्ति' शब्द को नया अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' दिया गया जिससे 'आस्तिवाद' विकसित हुआ, और इसका विरोध करने के लिए 'मानवतावादियों ने 'नास्तिवाद' प्रचलित किया. वस्तुतः 'नास्तिवाद' और कुछ न होकर विशुद्ध 'मानवतावाद' ही है.

रविवार, 2 मई 2010

मांग पूर्वाकलन एवं उत्पादन नियोजन

मानव जाति ने अपना समाजीकरण पारस्परिक सहयोग हेतु किया ताकि जंगली प्रतिस्पर्द्धा भावना को समाप्त किया जा सके. समाज बनाकर और सभ्यता विकास कर प्रतिस्पर्द्धा को अपनाना मानव जाति के लिए हानिकर एवं अवांछित है. ऐसी स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब किसी वस्तु की मांग और आपूर्ति में असंतुलन हो, जिसे समुचित नियोजन से समाप्त किया जा सकता है. 

प्रतिस्पर्द्धाएं मानवीय ऊर्जाओं का दुरूपयोग करती हैं जिससे उत्पादन क्षमता का ह्रास होता है और मानव समाज प्रगति पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र मानव समाज से प्रतिस्पर्द्धा को विलुप्त करने हेतु कृतसंकल्प है जिसके लिए प्रतिस्पर्द्धा के मूल कारण मांग और आपूर्ति में असंतुलन को समाप्त किया जायेगा. बौद्धिक शासन व्यवस्था में इसके हेतु एक संवैधानिक आयोग - मांग पूर्वाकलन एवं उत्पादन नियोजन आयोग, का गठन होगा जो प्रत्येक वस्तु एवं सेवा की मांगों का पूर्वाकलन कर देश में तदनुसार उत्पादन का नियोजन करता रहेगा.

उक्त आयोग शासन एवं उद्योगों के लिए एक परामर्शदाता के रूप में कार्य करेगा जिससे उत्पादन इकाइयां अपने उत्पादन नियोजित करने हेतु स्वतंत्र होंगी किन्तु उन्हें समुचित लाभ एवं प्रतिस्पर्द्धा से बचे रहने हेतु मार्गदर्शन उपलब्ध रहेगा.  किन्तु शासन नियोजित निःशुल्क सेवाएँ जैसे स्वास्थ, शिक्षा, न्याय, आदि इसी मार्गदर्शन के अनुरूप संचालित की जायेंगी ताकि इनमें प्रतिस्पर्द्धा पूरी तरह से अनुपस्थित रहे और जन-संसाधनों का समुचित उपयोग किया जा सके. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि असंतुलन के साथ अधिकतम सकल राष्ट्रीय उत्पाद भी लाभकर होने के स्थान पर संसाधनों के दुरूपयोग होने के कारण हानिकर सिद्ध होता है.

बौद्धिक जनतंत्र में निर्यात संवर्धन को कोई महत्व नहीं दिया जाएगा, अपितु इसके स्थान पर प्रत्येक नागरिक को सभी आवश्यक वस्तुएं और सेवाएँ प्राप्त कराना शासन का लक्ष्य होगा. विदेशी व्यावसायिक घराने देश में उत्पादन केवल निर्यात हेतु ही कर सकंगे जिससे कि वे स्थानीय उद्योगों से प्रतिस्पर्द्धा न कर सकें. इसी प्रकार वस्तुओं के आयात को न्यूनतम रखा जायेगा जिसके लिए जो वस्तुएं देश में उपलब्ध है उन्ही को पर्याप्त माना जायेगा अथवा मांग के अनुसार उत्पादन किया जायेगा. सभी नियोजन तदनुसार ही होंगे. केवल तकनीकी के आयात ही सामान्यतः अनुमत होंगे ताकि उनके उपयोग से देश में आधुनिक वस्तुओं के उत्पादन किये जा सकें और लोगों को उपलब्ध कराये जा सकें.    

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

शोषण और प्रतिस्पर्द्धा का विलोप

प्रत्येक व्यक्ति प्राकृत रूप में भी अपनी आवश्यकता से बहुत अधिक उत्पादित करने की क्षमता रखता है  सभ्यता और वैज्ञानिक विकास कार्यों ने इस उत्पादन क्षमता को और भी अधिक संवर्धित किया है. इसलिए मानब जाति सही दिशा में चलने पर कभी अभावग्रस्त नहीं हो सकती. तथापि, आज विश्व की आधी से अधिक जनसँख्या अभावग्रस्त है और अभावों से सतत जूझ रही है. इसका कारण कुछ दुष्ट लोगों द्वारा राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सत्ताओं पर अधिकार कर अन्य लोगों का सतत शोसन करते रहना. अतः शोषण ही आधुनिक विश्व की गंभीरतम विडम्बना है. महामानव सदैव शोषण-विहीन समाज की संरचना के प्रयासों में लगे रहते हैं ताकि कोई भी अभावग्रस्त न रहे और अन्य सभी मनुष्य मानवीय जीवन जी सकें.

विश्व में शोषण व्यवस्था का उद्गम धर्मों के रूप में हुआ जब चतुर लोगों ने जनसाधारण को ईश्वर के नाम से आतंकित करके उनपर अपने मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित किये. विश्व के सभी अभावग्रस्त लोग धर्मान्धता के कारण ही आज भी पिछड़े हैं और चतुर लोगों के चंगुल में शोषण के शिकार हो रहे हैं.

आधुनिक विश्व में जो लोग अपनी चिन्तनशीलता के कारण धर्मान्धता के शिकार होने से बच गए, दुष्टों ने उनपर दूसरा मनोवैज्ञानिक प्रहार किया और उनमें यह धारणा पनपायी कि प्रतिस्पर्द्धा ही विकास की जननी होती है. इसे अंतर-मानव और अंतर-वर्ग संघर्ष पल्लवित और पुष्पित हुए जिनका लाभ दुष्ट लोग उठाते रहे हैं.

प्रतिस्पर्द्धा सदैव आवश्यकता और उपलब्धि के असंतुलन से पनपती है और यह असंतुलन नियोजन में त्रुटियों के कारण उत्पन्न होता है. उदाहरण के लिए भारत में इंजीनियर समुदाय अपनी रचनात्मकता के कारण प्रतिष्ठा के शीर्ष पर रहा है. किन्तु अभी शासन की रीति-नीति और नियोजन दोषों के कारण इस समुदाय का एक बड़ा भाग बेरोजगारी का शिकार बना दिया गया है. देश को अभी केवल ५०,००० इंजीनियरों के प्रति वर्ष उत्पादन की आवश्यकता है जबकि मूर्ख एवं दुष्ट शासकों ने ३,००,००० प्रति वर्ष इंजीनियरों के उत्पादन की व्यवस्था कर दी. इससे देश के बहुमूल्य संसाधनों की भी बर्बादी की जा रही है.

समुचित नियोजन से देश के संसाधनों का ही सदुपयोग नहीं होता, प्रत्येक नागरिक प्रतिस्पर्द्धा एवं शोषण विहीन होकर सुखपूर्वक जीवनयापन कर सकता है. किन्तु यह शासकों के हित में नहीं होता इसलिए वे कदापि ऐसा नहीं होने देते. धर्मों के माध्यम से शासन ने ही राजनैतिक शासन की नींव डाली है. इसलिए ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जैसा कि शोषण और प्रतिस्पर्द्धा का परस्पर सम्बन्ध है. ये सभी असंतुलन से ही जन्म लेते हैं और उसी से पनपते हैं.

असंतुलन उत्पन्न होने के दो कारण संभव हैं - दुष्टता और बुद्धिहीनता. नियोजन का अभाव अथवा दोष इन्ही दोनों कारणों से जन्म लेते हैं, और यही दो कारण मानवता के अभिशाप हैं. प्रतीत ऐसा होता है कि ये दो कारण एक दूसरे से निरपेक्ष हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि इन दोनों का घनिष्ठ है. प्रत्येक बुद्धि-संपन्न व्यक्ति चिंतनशील होता है और वह कदापि दुष्ट नहीं हो सकता. इसलिए दुष्टता केवल बुद्धिहीनता का परिचायक होती है और इसे इन दोनों में से किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है. महामानव इन दोनों का विरोध करता है.