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मंगलवार, 2 नवंबर 2010

राजनीति : स्वतंत्रता के बाद

भारत स्वतंत्र हुआ क्योंकि अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषण के लिए तब यहाँ कुछ शेष नहीं बचा था, तथापि स्वतन्त्रता की मांग की गयी और उसे स्वीकार कर लिया गया. किन्तु स्वतन्त्रता की मांग करने वालों ने कभी यह नहीं सोचा कि वे स्वतंत्र होने के बाद देश कैसे चलाएंगे. मेरे विचार से भारत के इतिहास की यह भयंकरतम भूल थी जिसका मूल्य हम अब तक चुकाते रहे हैं और न जाने कब तक चुकाते रहेंगे. उक्त भूल का परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता के बाद से ही भारत पर षड्यंत्रों का शिकंजा कसा जाने लगा जिन्हें 'राजनीति' कहा गया. नाम मात्र के लिए जन्तात्न्त्र की स्थापना की गयी किन्तु शासन उन परिवारों को सौंप दिया गया जो स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश शासन के पक्षधर रहे थे. अतः स्वतन्त्रता के बाद भी शासन की रीति-नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. सत्ता के गलियारों में जो परिवर्तन हुआ वह यह था कि अनुशासित ब्रिटिश लोगों का स्थान अनुशासनहीन भारतीयों ने ले लिया.

कोई देश हो अथवा उसकी राजनीति, सुचारू अर्थ व्यवस्था के बिना अपने पैरों पर खडी नहीं रह सकती. यह सार्वभौमिक सत्य भारतीय राजनीति के आदि-पुरुष विष्णुगुप्त चाणक्य ने जान लिया था और अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र के माध्यम से उन्होंने भारत की अर्थ व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सुदृढ़ नींव रख दी थी. उन्होंने समाज का एक वर्ग, जो उस समय शासक वर्ग भी था, इसी कार्य में लगा दिया था. यह वर्ग आज भी अर्थ व्यवस्था में लगा हुआ है किन्तु इसके अहिंसक होने के कारण शासन में इसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है. इसी वर्ग की देन है कि भारत की राजनीति में भीषण उतार-चढ़ाव होने पर भी इसकी सकल अर्थ व्यवस्था सदैव सुदृढ़ रही है.

भारत में एक जाति ऐसी रही है जो सदैव सत्तासीन जातियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखती रही है, अधिकांशतः राजगुरु बनकर. इस कारण से यह जाति भारत पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन सदा बनाये रही है. अतः यह स्वभावतः सत्ताच्युत रहना पसंद नहीं करती. विगत २००० वर्षों से इस जाति ने भारतीय समाज को इस प्रकार विभाजित किया कि इसका वर्चस्व सदा बना रहे. समाज में अछूत, दलित, कमीन, आदि वर्ग इसी जाति की देन हैं. स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति में यह जाति अग्रणी रही और अपनी शोषण-परक रीति-नीतियों के कारण भारतीय राष्ट्र की संपदा पर अपना प्रभुत्व बढाती रही. आज भी यह जाति समाज की अग्रणी और धनाढ्य है जबकि अर्थ व्यवस्था चलाने में इसका कोई योगदान नहीं रहा है.

स्वतंत्र भारत के संविधान में दीर्घ काल से पद-दलित वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि ये शिक्षित और सभ्य होकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकें. किन्तु शासकों ने इन्हें न शिक्षा लेने दी और न ही किसी अन्य प्रकार से सुयोग्य होने दिया. इनके कल्याण और विकास के नाम पर इन्हें जो भिक्षा दी गयी, उसके माध्यम से इन्हें पारंपरिक भिखारी बना दिया जो विगत ६० वर्षों से शासकों द्वारा दी जाने वाली भीख पर पल रहे हैं और भारत की अर्थ व्यवस्था पर एक भारी बोझ हैं. इन्हीं में से कुछ लोग इनकी वोटों के ठेकेदार बनते रहे हैं और सत्ताधारी लोगों के साथ रंगरेलियां मनाते रहे हैं. शासकों और इनके ठेकेदारों का हित इसी में है कि वे इन दलितों को दलित ही बनाए रखकर इनकी वोटों के माध्यम से सत्तालाभ प्राप्त करते रहें. इसके लिए इन्हें निरंतर भीख दिए जाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी है. विगत ६० वर्षों में आरक्षण व्यवस्था का विस्तार इसी भीख दिए जाने की व्यवस्था का अंग है. 

विगत २५०० वर्षों में भारत में अनेक विदेशी जाति बसती रही हैं जिनमें से अनेक जंगली जातियां थीं और जो स्वभावतः हिंसक थीं जिसके लिए जिन्हें सैनिक जातियां कहा जाता है. भारत में ये सैनिक जातियां युद्ध के लिए आयी थीं और इनका किसी मानवीय गुण से कोई परिचय नहीं था. मानवीय शासन के अधीन रहकर ये युद्ध करने में पारंगत सिद्ध होती थीं किन्तु स्वतंत्र रहकर ये अपने मूल हिंसक स्वभाव के कारण अपने जंगली व्यवहार पर उतर आती थीं. इनकी स्थिति आज भी ऐसी ही है और ये भारत की वर्तमान राजनीति में सक्रिय हैं और राजनीति में वही होता है जो ये जातियां चाहती हैं. .
Kautilya's Arthashastra/The Way of Fianancial Management and Economic Governance

स्वतन्त्रता के बाद अनुशासनहीन भारतीयों के शासन में स्वतन्त्रता ने उद्दंडता का रूप ले लिया, जनतंत्र पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी, जिससे भारतीय राजनीति में हिंसा - मनोवैज्ञानिक, भौतिक, आर्थिक, आदि - का स्थान सर्वोपरि हो गया. जनतंत्र के नाम पर जो चुनाव होते हैं वे भी शोषण और हिंसा के साए में होते हैं जिनमें वोटों को बलपूर्वक प्राप्त किया जाता है अथवा धन प्रदान कर खरीदा जाता है. यह प्रक्रिया निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत से लेकर शीर्षस्थ स्तर भारतीय संसद तक चल रही है जिसमें कोई भी मानवीय तत्व विद्यमान नहीं है.

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

बौद्धिक अर्थव्यवस्था

बौद्धिक जनतंत्र में अर्थव्यवस्था को विशेष स्थान दिया गया है जिसका मूल बिंदु देश का सकल घरेलु उत्पाद न होकर देश के प्रत्येक नागरिक का समग्र विकास है. सभी कुछ कहीं भी करना या सबकुछ केवल शहरों में केन्द्रित करना बौद्धिक जनतंत्र के लक्ष्य के बाहर है. अतः बौद्धिक जनतंत्र आर्थिक गतिविधियों का देश में समान रूप से वितरित करता है जिसके लिए विविध गतिविधियों को विशिष्ट स्तरों और विशिष्ट केन्द्रों से संचालित करता है.  

  1. ग्राम-स्तर : कृषि, कुटीर उद्योग,
  2. विकास खंड-स्तर : सामाजिक वानिकी, कृषि विकास,
  3. क़स्बा-स्तर : उपभोक्ता-वस्तु व्यापार, कलाएँ एवं हस्तकलाएँ, सड़क परिवहन आगार,
  4. जनपद स्तर : सार्वजनिक सम्पदा विकास एवं संरक्षण,
  5. नगर : औद्योगिक इकाइयां एवं व्यापार,
  6. प्रांत-स्तर : औद्योगिक विकास, सड़क परिवहन,
  7. महानगर-स्तर : पर्यटन, विदेश व्यापार, चलचित्र, उद्योग एवं व्यवसाय कार्यालय, वायु परिवहन आगार
  8. राष्ट्र-स्तर : सम्यक विकास, वायु परिवहन, रेल परिवहन. .

बौद्धिक जनतंत्र व्यवस्था के लिए समस्त आर्थिक गतिविधियों को पांच विशिष्ट वर्गों में रखता है -
  • कृषि एवं पशुपालन,
  • विकासीय ढांचा,
  • खनिज एवं प्रसाधन उद्योग, 
  • अन्य उद्योग,
  • कुटीर उद्योग 
 इन वर्गों के उन्नयन के लिए सामान्य निदेशक बिंदु निम्नांकित हैं -
  1. भारत का विकास स्थानीय संसाधनों एवं प्रयासों पर ही आधारित होगा. विदेशी सहयोग केवल उन क्षेत्रों में ही अनुमत होगा जिन में स्थानीय संसाधनों का अभाव है. 
  2. विदेशी उद्योगों को स्थानीय उद्योगों से प्रतिस्पर्द्धा नहीं करने दी जायेगी और वे वही उत्पादन कर सकेंगे जिनका वे निर्यात कर सकें. 
  3. भारत को विदेशी उद्योगों का बाज़ार नहीं बनाने दिया जायेगा एवं अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय उत्पादन से की जायेगी. इसके लिए आयात केवल नयी प्रोद्योगिकी, उत्पादक मशीनरी तक ही सीमित किया जायेगा. 
  4. स्थानीय उत्पादन प्राथमिक रूप में स्थानीय आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए होगा. मांग तथा उत्पादन में ऐसा संतुलन रखा जायेगा किन अधिक प्रतिस्पर्द्धा हो और किसी वस्तु का अभाव. निर्यात प्राथमिकता से बाहर होगा. 
  5. औद्योगिक सिद्धांत 'जो आज उपलब्ध है उसी को पर्याप्त समझना है' होगा. कल की अभिलाषाएं औद्योगिक विकास से संतुष्ट की जायेंगी. 
  6. एक राष्ट्रीय आयोग भारत के व्यवसायियों और राज्नाताओं के विदेशी संपर्कों पर निगरानी रखेगा और इनको नियमित करेगा. 
  7. राष्ट्रीय गुणवत्ता आयोग देश के उत्पादन की गुणवत्ता निर्धारित एवं नियमित करेगा और किसी को भी घटिया उत्पादन की अनुमति नहीं होगी. 
  8. यद्यपि देश के अंतर्गत सभी व्यापार नियंत्रण और कर मुक्त होंगे किन्तु इसमें मध्यस्थों की भूमिका न्यूनतम राखी जायेगी ताकि उत्पादन लागत एवं उपभोलता मूल्यों में न्यूनतन अंतर हो.