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सोमवार, 22 नवंबर 2010

आदर्श और वास्तविकता में सामंजस्य स्थापन

अधिकाँश लोग अपनी वास्तविकताओं से दूर भागने के प्रयासों में अपने आदर्श की कल्पनाओं में निमग्न रहते हैं. यही उनके दुखों का कारण बनता है. शोधों में पाया गया है कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अपनी वास्तविकता से अधिक असंतुष्ट रहती हैं. साथ ही यह भी पाया गया है कि पुरुषों के आदर्शों में स्त्रियों के आदर्शों की तुलना में अधिक भिन्नता होती है, जिसका अर्थ यह है कि पुरुष भिन्न प्रकार से सोचते हैं जब कि सभी स्त्रियाँ लगभग एक जैसा  सोचती हैं. इसका अर्थ यह भी है कि पुरुष अपनी वास्तविकताओं से समझौता करने में अधिक निपुण होते हैं. फलस्वरूप पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक दुखी रहती हैं. 


इसके निराकरण के दो उपाय हैं - अपनी वास्तविकता को ही अपना आदर्श बनाएं अथवा अपने आदर्श को अपनी वास्तविकता बनायें. सीधे रूप में ये दोनों प्रक्रियाएं ही दुष्कर प्रतीत होती हैं. इसका दूसरा उपाय अधिक व्यवहारिक है जो हमें पुरुष प्रकृति से प्राप्त होता है - अपने आदर्श को अधिकतम व्यापक बनाएं जिससे कि अधिकतर वास्तविकताएं इसके घेरे में आ जाएँ. प्राकृत रूप से पुरुष इसमें अधिक समर्थ होते हैं, स्त्रियों के लिए कुछ दुष्कर है. इसका कारण है स्त्रियों की सुकोमलता और उनमें समर्पण भाव का आधिक्य, जो दोनों ही सकारात्मक गुण हैं. अतः इन्हें भी निर्बल नहीं किया जाना चाहिए. 


आदर्श प्रमुखतः दो प्रकार के होते हैं - मुझे कैसा बनना है, और मुझे क्या चाहिए. किन्तु दोनों का मूल पारस्परिक अनुकूलता है. अतः प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श उसकी दूसरों से अनुकूलता द्वारा निर्धारित होता है. इसलिए आदर्श की व्यापकता के लिए हम सोचें कि हम किस-किस के अनुकूल हैं न कि हमारे अनुकूल कौन है और साथ ही हम अपनी अनुकूलता को अधिकाधिक व्यापक करें. अनुकूलता की व्यापकता चारित्रिक लचक प्रतीत होती है किन्तु यह उससे से भिन्न है. व्यक्ति अपने चरित्र और स्वभाव पर अडिग रहते हुए भी अपनी अनुकूलता को व्यापक कर सकता है, अधिकाधिक अध्ययन से - लोगों का, समाज का, वस्तुओं का, और सर्वोपरि स्वयं के व्यक्तित्व, जीवन शैली और बाहरी प्रस्तुति का.  
Personality: Theory and Research



व्यक्ति क्या है - एक शरीर और तदनुसार उसका मन, एक बुद्धि और तदनुसार उसका व्यवहार, एक संकल्प और तदनुसार उसके कार्य-कलाप, एक रूप और तदनुसार उसकी प्रभाविता, और एक सार्वभौमिक इच्छाशक्ति - जीवन का आनंद, आदि, आदि.. स्वयं का अध्ययन करें, अन्वेषण करें और अपने परिभाषा को व्यापक स्वरुप दें. आदर्श की व्यापकता के लिए इनमें से किसी को भी लचकदार बनाने की आवश्यकता नहीं है अपितु इन सभी के समावेश की आवश्यकता होती है. 

शनिवार, 8 मई 2010

व्यक्तित्त्व और आदर्शवादिता

प्रत्येक व्यक्ति के अन्तः में उसके दो स्वरुप उपस्थित होते हैं - एक वह जो वह वास्तव में होता है, तथा दूसरा वह जो वह होना चाहता है. प्रथम स्वरुप उसकी परिस्थितियों पर निर्भर करता है जबकि दूसरा उसके आदर्शों पर. इन दोनों स्वरूपों में अंतराल हो सकता है क्योंकि सभी समय व्यक्ति की परिस्तितियाँ उसे उसके मनोनुकूल नहीं होने देतीं. इसी व्यवहारिक अंतराल के कारण कुछ दुष्ट प्रवृत्ति वाले लोगों ने भाग्य का नाम दिया और उसके अध्ययन एवं सुधार के नाम पर ज्योतिष का व्यवसाय किया. 

बहुत सारे व्यक्ति मिलकर समाज बनाते हैं, और समाज की दीर्घकालिक स्थिति से प्रत्येक व्यक्ति की परिस्थितियां बनती हैं. इन्हें अनुकूल बनाने के प्रयास किये जा सकते हैं किन्तु इनकी सफलता सुनिश्चित नहीं की जा सकती. इसीलिये मनुष्य को परिस्थितियों का दास कहा जाता है. कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का स्वयं निर्माता होता है अथवा उन्हें अपने नियंत्रण में रख सकता है. किन्तु ऐसा कदापि संभव नहीं होता. ऐसी अवस्था में जो सर्वश्रेष्ठ किया जा सकता है वह परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को अभीष्ट रूप में संचालित किया जाये.

मनुष्य का शरीर और मन मिलकर एक इकाई के रूप में कार्य करते हैं जिससे उसकी जो छबि प्रत्यक्ष होती है उसे व्यक्ति का व्यक्तित्त्व कहा जाता है.  मनुष्य का मस्तिष्क उसके मन से प्रथक और स्वतंत्र रूप में कार्य करता है जिसमें उसकी स्मृति और चिंतन प्रमुख कर्म होते हैं.  इस प्रकार मन और मस्तिष्क में अंतर होता है. इन्ही मस्तिष्कीय कर्मों द्वारा व्यक्ति अपनी आदर्श धारणाएं विकसित करता है जो सामाजिक दृष्टि से अच्छी अथवा बुरी हो सकती हैं. इन आदर्श धारणाओं के अनुपालन के प्रयासों को व्यक्ति की आदर्शवादिता कहा जाता है.

अपने इन दो आतंरिक स्वरूपों के अतिरिक्त भी व्यक्ति का तीसरा स्वरुप होता है जो वह दूसरों को दर्शाना चाहता है, चाहे वह वास्तव में वैसा हो अथवा नो हो, या वैसा बनाने का प्रयास भी करता हो अथवा नहीं. व्यक्ति के इस तीसरे स्वरुप को उसका आडम्बर कहा जा सकता है. सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह होता है जिसके व्यक्तित्त्व, आदर्श और आडम्बर में समरूपता हो. चूंकि परिस्थितियोंवश ऐसा सभी समय संभव नहीं होता, इसलिए श्रेष्ठ व्यक्ति उसे माना जाता है जिसके आदर्श और आडम्बर में अंतराल न हो. जिनके आदर्श और आडम्बर में अंतराल होता है उन्हें पाखंडी कहा जाता है और ये व्यक्ति निम्न कोटि के होते हैं.

व्यवहारिक स्तर पर व्यक्ति के आदर्श और उसके व्यक्तित्त्व में अंतराल बना रहता है किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यक्ति को इस अंतराल को कम करने के प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं होती. श्रेष्ठ व्यक्ति इस अंतराल को न्यूनतम करने के सतत प्रयास करते रहते हैं, अर्थात वे सदैव परिस्थितियों से संघर्ष में रत रहते हैं.