प्रायः 'दरिद्रता' और 'निर्धनता' को पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है किन्तु इन दोनों शब्दों में भारी अंतराल है. 'निर्धनता' एक भौतिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति के पास धन का अभाव होता है किन्तु इससे उसकी मानसिक स्थिति का कोई सम्बन्ध नहीं है. निर्धन व्यक्ति स्वाभिमानी तथा परोपकारी हो सकता है. 'दरिद्रता' शब्द भौतिक स्थिति से अधिक मानसिक स्थिति का परिचायक है जिसमें व्यक्ति दीन-हीन अनुभव करता है जिसके कारण उसमें और अधिक पाने की इच्छा सदैव बनी रहती है. अनेक धनवान व्यक्ति भी दरिद्रता से पीड़ित होते हैं.
निर्धनता व्यक्ति की व्यक्तिगत स्थिति होती है, किन्तु दरिद्रता व्यक्ति की सामाजिक स्थिति होती है और उसी से पनपती है. किसी समाज में सदस्यों की आर्थिक स्थिति में अत्यधिक अंतराल होने से समाज में दो प्रकार से दरिद्रता विकसित होती है. प्रथम, धनाढ्य व्यक्ति निर्धनों का शोषण करते है और उन्हें पीड़ित करते हैं, जिससे पीड़ितों में दरिद्रता का भाव पनपने लगता है. द्वितीय, व्यक्ति अपने से अधिक धनवान व्यक्तियों से अधिक धनवान होने की चाह में पर्याप्त धनवान होते हुए भी अपने अन्दर दरिद्रता का भाव विकसित करने लगती है.
गुप्त काल के प्राचीन भारत सर्वांगीण रूप से धनवान था. समाज में जो धनी नहीं भी थे, वे भी प्रसन्न रहते थे क्योंकि कोई उनका शोषण नहीं करता था. इस लिए कुछ लोग निर्धन अवश्य रहे होंगे किन्तु कोई भी दरिद्र नहीं था. गुप्त वंश के शासन के बाद भारत में शोषण का युग आरम्भ हुआ, समाज को वर्णों और जातियों में विभाजित किया गया, कुछ लोगों से बलात तुच्छ कार्य कराकर उन्हें अस्पर्श्य घोषित किया गया. समाज के धर्म और विधानों को कुछ प्रतिष्ठित वर्गों के हित में बनाया गया, जिससे कुछ साधनविहीन वर्गों का बहु-आयामी शोषण करके उन्हें दरिद्र बना दिया गया. यह क्रम तब से स्वतन्त्रता पर्यंत चलता रहा. अतः निर्धन वर्ग दरिद्र भी बन गया, जिसके कारण 'निर्धन' और 'दरिद्र' शब्द परस्पर पर्याय माने जाने लगे.
स्वतन्त्रता के बाद यद्यपि शासन तथाकथित प्रतिष्ठित वर्गों के हाथों में ही रहा, तथापि सामाजिक स्थिति में अंतर लाया गया किन्तु इस अंतर को सकारात्मक नहीं कहा जा सकता. विदेशियों द्वारा शोषण का अंत हुआ इसलिए देश की सकल सम्पन्नता विकसित हुई जो कुछ वर्गों में ही वितरित रही. अन्य भारतीय समाज के वर्ग इस सम्पन्नता से वंचित ही रहे. तथापि देश के संपन्न वर्गों के उपभोगों का अपरोक्ष प्रभाव अन्य वर्गों की सम्पन्नता पर भी पड़ा जिससे अन्य वर्गों की निर्धनता भी घटने लगी. आज भारत केव अधिकाँश लोगों को भर पेट भोजन, तन ढकने को वस्त्र और शरण हेतु भवन उपलब्ध हैं इसलिए देश में निर्धनता कम हुई है. तथापि दरिद्रता का असीमित विकास हुआ है.
स्वतन्त्रता के बाद की सरकारों ने दलित वर्गों के उत्थान के नाम पर एवं भृष्टाचार के माध्यम से स्वयं और अधिक धनवान बनने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चलायी हैं जिनके माध्यम से दलितों को भिक्षा के रूप में कुछ आर्थिक सहायता देकर उनकी निर्धनता को घटाया अवश्य है किन्तु उनमें भिखावृत्ति विकसित करते हुए दरिद्रता का विकास किया है. अब वे सदैव यही आस लगाये बैठे रहते हैं कि शासक वर्ग उनपर कुछ और कृपा करेंगे. इन वर्गों को शिक्षित कर स्वावलंबी बनने के कोई प्रयास नहीं किये गए हैं. इससे इनकी दरिद्रता दूर होती. यह भृष्ट शासक वर्ग के प्रतिकूल सिद्ध होता.
स्वतंत्र भारत के शासक वर्ग ने भृष्टाचार के माध्यम से निर्धनों का ही नहीं धनवान लोगों का भी शोषण किया है. जिससे धनवान लोगों में भी असुरक्षा की भावना विकसित हुई है जिसके निराकरण के लिए वे और अधिक धन कमाने का प्रयास करते हैं जो शासक वर्ग द्वारा उनसे हड़प लिया जाता है. इस असुरक्षा की भावना तथा और अधिक धन कमाने की लालसा ने धनवान वर्गों को भी दरिद्र बना दिया है यद्यपि उनके पास धन का नितांत अभाव नहीं है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में सकल सम्पन्नता विकसित होने के बाद भी राजनैतिक अव्यवस्था के कारण दरिद्रता का सतत विकास हो रहा है जो समाज के निर्धन वर्ग के साथ-साथ धनवान वर्ग को भी ग्रसित कर रही है.
बहुत सटीक विश्लेषण.....
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