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शनिवार, 20 नवंबर 2010

भारतीय समाज में अवसरवादिता का विष

भारत में मानवीय चरित्र का संकट है और गन्तार होता जा रहा है. इस चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लोगों के किसी भी विषय पर अपने मत नहीं होते, इसलिए वे सभी मतों से सामयिक तौर पर सरलता से सहमत प्रतीत होने लगते हैं. साथ ही दृष्टि से ओझल होते ही अपनी सहमति को भूल जाते हैं तथा किसी विरोधी मत से भी तुरंत सहमत हो सकते हैं. इसका मूल कारण बुद्धिहीनता है किन्तु इस प्रकार के लोग इसे कूटनीति अथवा डिप्लोमेसी कहते हैं जिसमें व्यक्ति जो कहता है उसका मंतव्य वह नहीं होता अपितु कुछ और होता है. अर्थात कूटनीति में मानवीय मौलिकता एवं नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता. इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग किसी विषय में अपना कोई मत नहीं रखते, वे कूटनीतिज्ञ हो सकते हैं.

व्यवसाय प्रबंधन की पुस्तकों में सफल व्यवसाय का मूल मन्त्र पढ़ा है - अवसरों का शोषण व्यवसायिक सफलता की कुंजी है. यह सच है किन्तु केवल व्यवसाय के लिए, क्योंकि व्यवसाय व्यक्ति नहीं होता, उसमें भावनाएं नहीं होतीं. इसके दोनों शब्द 'अवसर' तथा 'शोषण' मानवीयता शब्दकोष के बाहर के हैं. मानव जीवन अवसरों का लाभ उठाने के लिए नहीं, उनकी रचना करने के लिए अभिकल्पित है, और शोषण तो 'कोरी स्वार्थपरता है जबकि मानवीयता शोषणविहीन समाज के सपने को व्यवहार में लाने के लिए विकसित हुई. किन्तु ये दोनों ही भूतकाल की बातें हैं.

अभी जनतांत्रिक चुनाव हुए, उनमें अधिकाँश लोगों का विचार था कि वे उसी प्रत्याशी को अपना मत देंगे जो विजयी होता प्रतीत होगा. कितनी बड़ी मूर्खता है यह. वस्तुतः विजय मतों से होती है किन्तु यहाँ तो विजय के कारण मत प्राप्त होते हैं. ऐसे मतदाता आधुनिक समाज के अग्रणी हैं, जिनका कोई अपना मत नहीं है प्रत्याशियों के पक्ष अथवा विपक्ष में. इनके यहाँ अच्छे- बुरे, योग्य-अयोग्य, चतुर-चालाक, बुद्धिमान-मूर्ख, आदि विरोधाभासी शब्द युगलों का कोई महत्व नहीं है. यही अवसरवाद है जो पूरी तरह अमानवीय है. मैं इससे भिन्न मत रखता हूँ - एकनिष्ठ, किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में - उसके गुणों के आधार पर, चाहे वह जीते अथवा हारे. उसको मत देकर मुझे संतुष्टि प्राप्त होती है - उसके हारने पर भी. किन्तु आधुनिक समाज के मानदंड के अनुसार पराजित प्रत्याशी को डाला गया मत व्यर्थ चला गया. इसी मूर्खतापूर्ण अवसरवादिता के कारण भारत के जनतांत्रिक चुनावों में मूर्ख विजयी होते रहे हैं और बुद्धिमान पिछड़ते जा रहे हैं. उदाहरण सामने हैं - मेरे क्षेत्र का संसद सदस्य निरक्षर है जो एक सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी को पराजित करके विजयी हुआ. मेरा जिला पंचायत सदस्य एक जाने माने अपराधी की पत्नी है. भारत में महिला आरक्षण ने महिलाएं चुनी जाती हैं और उनके पति पदासीन होते हैं - हम जनतांत्रिक न होकर जनतंत्र की लाश ढो रहे हैं.

मूर्खों के किसी भी विषय में अपने कोई विचार नहीं होते, वे अवसरानुसार किसी से भी सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं, इसलिए ये शीघ्र ही और अकारण ही एकता के सूत्र में बंध जाते हैं. जबकि बुद्धिमान अपने-अपने विचार रखने के कारण उनपर तर्क-वितर्क करते हुए बिखरे हुए रह जाते हैं. यही समाज और यही अवसरवादिता जनतंत्र को मूर्खों का शासन सिद्ध करता है.
Opportunism(s) kills
एक सभा हुई समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिए. कुछ बुद्धिसम्पन्न लोगों ने अपने-अपने विचार रखे और उनमें आपस में बहस छिड़ गयी. एक मूर्ख उठा और बोला एकता के लिए हमें केवल हुआ-हुआ पुकारना है. जो ऐसा करेंगे वे सब एकता के सूत्र में बंधे माने जायेंगे, उनमें कभी कोई मतभेद नहीं होगा क्योंकि उनमें से किसी का कोई विचार नहीं होगा, बस हुआ-हुआ का शोर करना होगा. ऐसा ही हुआ और सभी मूर्ख अकारण ही एक स्वर से हुआ-हुआ करने लगे और एक हो गए. इस शोरगुल में बुद्धिसम्पन्न लोगों के विचार तिरोहित हो गए. यही है भारतीय समाज का सच, और यही है भारतीय जनतंत्र की वस्तुस्थिति, और यही है हमारी प्रगति की दिशा,. और यही है हमारी महान भारतीय संस्कृति.

जोर से बोलो, शोर से बोलो - 'हुआ-हुआ'. इति शुभम.

सोमवार, 26 जुलाई 2010

जंगली व्यवहार, दंड व्यवस्था और वास्तविक दोषी

गाँव के एक युवा ने मेरे साथ जो अशोभनीय व्यवहार किया था, उसका उसे कड़ा दंड मिला था - पुलिस द्वारा और प्रकृति द्वारा भी. उसे न्यायालय से जमानत करानी पडी और अब कुछ समय तक बार-बार न्यायालय में उपस्थित होना होगा. इसके अतिरिक्त प्रकृति ने उसे और भी अधिक कड़ा दंड दिया - उसे बंदी बनाये जाने के दो दिन बाद उसके पिताजी की ह्रदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गयी जो एक सज्जन एवं सहृदय व्यक्ति थे. गाँव के लोगों का मानना है कि उनके पुत्र द्वारा किये गए दुर्व्यवहार और बंदी बनाये जाने पर परिवार का अपमान उन्हें सहन नहीं हुआ. यद्यपि उन्हें ह्रदय की समस्या पहले से थी.

उक्त दोनों डंडों के कारण युवा को परिवार में बहुत विरोध झेलना पडा और उस पर उसके भाइयों द्वारा दवाब दिया गया कि वह शराब पीनी छोड़ दे अन्यथा वे उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लेंगे. इसी शराब के कारण वह उद्दंडता करता था, लोगों को अपमानित करता था और इसी के कारण उसे उपरोक्त दोहरे दंड मिले. परिणाम बहुत आशाजनक हुए हैं - लगभग एक माह से अधिक समय से उसने शराब नहीं पी है और अब वह गाँव में निरंकुश नहीं घूमता है, तथा अपने परिवार के कृषि व्यवसाय पर पूरा ध्यान देता है. इस सब से गाँव के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

उपरोक्त विवरण देने का मेरा तात्पर्य यह है कि निरंकुश प्रकृति को अनुशासित करने के लिए दंड दिया जाना एक प्रभावी उपाय है. यद्यपि क्षमा भी सीमित प्रभाव रखती है किन्तु दंड की तुलना में यह प्रभाव तुच्छ होता है.

प्रत्येक व्यक्ति की मूल प्रकृति उद्दंडता है, किन्तु सामाजिकता, और दंड के भय से मनुष्य अनुशासित रहता है. अधिकाँश मनुष्य सामाजिकता के कारण स्वतः ही अनुशासित रहते हैं किन्तु शराब आदि के नशे में अथवा किसी लोभ वश, अथवा किसी विवशता में लोग उद्दंड व्यवहार करते हैं. इन तीन कारणों में से दो - नशा तथा विवशता, समाज की ही देनें हैं. शराब आदि नशीले द्रव्य सरकार द्वारा राजस्व लाभ के लिए प्रचारित, प्रसारित किये जा रहे हैं.जबकि इनका प्रभाव राष्ट्र को आर्थिक तथा सामाजिक क्षति पहुंचा रहा है. किन्तु देश के शासक-प्रशासक इस यथार्थ से अनभिज्ञ बने बैठे हैं.

कुछ वर्ष पूर्व हरियाणा के मुख्य मंत्री श्री बंसीलाल ने एक सराहनीय कदम उठाते हुए अपने राज्य में शराब पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसके परिणामस्वरूप अगले चुनाव में लोगों ने उन्हें सताच्युत कर दिया था. इस से सिद्ध होता है कि हमारा समाज एक गलत दिशा में इतना आगे बढ़ गया है कि अब उसकी समझ में गलत और सही का अंतराल मिट गया है. समाज का यही पतन कुछ लोगों को शराब आदि को इतना अधिक अभ्यस्त बना देता है कि वे मानवीय सभ्यता को त्याग जंगली व्यवहार करने लगते हैं. फिर यही विकृत समाज व्यवस्था उन्हें दंड देती है.
The Business of Spirits: How Savvy Marketers, Innovative Distillers, and Entrepreneurs Changed How We Drink 
अतः आवश्यकता इस की है कि हम समाज की दिशा बदलें और एक सशक्त जन मत का विकास कर सरकारों को विवश करें कि वे नशीले द्रव्यों के दुश्चक्र से समाज को बचाने के ओर साहसिक कदम उठायें. बिना जन मत के सरकार इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाएंगी.