भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय कांग्रेस की बागडोर महात्मा गाँधी के हाथ में थी जिन्होंने जनसाधारण को उस समय उपलब्ध वस्त्र केवल एक लंगोटी को अपनी वेशभूषा बनाया. इसके प्रभाव में पूरे देश में गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए एक जन-आन्दोलन छिड़ गया. जनसाधारण जैसा बनकर रहना उस समय के कांग्रेस नेताओं और पार्टी की संस्कृति थी.
स्वतन्त्रता के बाद जवाहर लाल नेहरु के प्रथम प्रधान मंत्री बनाने पर उन्होंने जनसाधारण को तिलांजलि देते हुए उन शाही परिवारों को कांग्रेस में सम्मिलित कर लिया जो ब्रिटिश भारत में देश की स्वतंत्रता के विरोधी और अंग्रेजी शासन के पक्षधर थे. इन परिवारों के लोग स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों को बंदी बनवाने में अंग्रेजी शासकों का साथ देते थे. इस प्रकार के लोगों को कांग्रेस में लाकर नेहरु ने कांग्रेस की संस्कृति में आमूल-चूल परिवर्तन आरम्भ कर दिया जिससे शासक और शासितों में वैसा ही अंतराल आने लगा जैसा की ब्रिटिश शासन में था.
इस अंतराल का प्रत्यक्षीकरण अभी मेरे गाँव के निकट के गाँव ऊंचागांव में हुआ. यहाँ के एक बड़े जमींदार और भारत की स्वतन्त्रता के घोर विरोधी कुंवर सुरेन्द्र पाल सिंह को नेहरु ने सन १९५७ में कांग्रेस में आमंत्रित करके उन्हें संसदीय चुनाव में कांग्रेस का प्रत्याशी बनाया था. इसके बाद वे केंद्रीय सरकार में अनेक बार मंत्री बने किन्तु उन्होंने खेत्र के विकास के लिए कोई प्रयास नहीं किये. इस कारण से यह खेत्र रेलवे आदि की सुख सुविधाओं से अभी तक वंचित है जब की कुंवर सुरेन्द्र पल सिंह एक बार रेल मंत्री भी रहे थे.
अभी हाल में उनकी मृत्यु हुई और २० दिसम्बर को उनके मृत्यु-भोज में सम्मिलित होने के लिए लगभग १०,००० लोगों को आमंत्रित किया गया. इसकी व्यवस्था कुंवर साहेब के पुत्र ने की जो आज कांग्रेस के प्रदेश स्तरीय नेता हैं. आमंत्रित लोग दो प्रकार के थे - वर्त्तमान शासक तथा शासित. जहाँ शासक वर्ग के लोगों की सुख-सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा गया वहीं शासित वर्ग को भोजन पाने की भी समुचित व्यवस्था नहीं की गयी. शासक वर्ग के भोजन पान के लिए महल में विशेष व्यवस्था की गयी तथा उनकी कारें किले के अन्दर विशेष भोज-स्थल तक ले जाई गईं ताकि वे जनसाधारण के कोलाहल से किसी प्रकार का व्यवधान अनुभव न करें.
दूसरी ओर लगभग १०,००० जनसाधारण लोगों के लिए एक पंडाल में भोजन पाने की खुली व्यवस्था की गयी जिसका आकार इतना ही था जैसा की शादी-विवाहों में ५०० लोगों के भोजन के लिए होता है. परिणामस्वरुप भूखे लोगों में भोजन पाने के लिए कड़ा संघर्ष होता रहा जिसमें अनेक लोगों के वस्त्र दूषित हो गए तथा अनेकों को भूखे ही लौटना पड़ा. परिस्थिति ऐसी थी जिसमें जिसको जो भी प्राप्त हो पाता उसी पर संतोष करता. किसी को पूड़ी नहीं तो किसी को सब्जी नहीं. किसी को मिष्टान्न नहीं तो किसी को क्खाली पलते भी नहीं मिल पायीं.
इस घटनाक्रम में दो बातें सामने आती हैं - एक व्यवस्था करने की सक्षमता की तथा दूसरी व्यवस्थापकों की सामंतवादी प्रवृति की. जो व्यक्ति अपने निवास पर इतनी छोटी सी व्यवस्था कर पाने में सक्षम नहीं हैं, वे इस देश को कैसे चला पाएंगे. दूसरे लोकतंत्र में शासक जन-सेवक कहे जाते हैं और होने भी चाहिए. इनका जनसाधारण से इस प्रकार दूरी बनाये रखना इस देश के जनतंत्र पर प्रश्नचिन्ह लगाता है.
इसका तीसरा एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि लोगों को भोजन के लिए आमंत्रित करके उनके लिए समुचित व्यवस्था न करना आमंत्रित लोगों का घोर अपमान है. संभवतः व्यवस्थापकों का यह भी उद्देश्य हो ताकि क्षत्र के जनसाधारण कभी उनकी सामंतशाही के समक्ष सर न उठा सकें.
bhakti ka dhakosla me aapke vichar purntah sarthak aur tarksangat hai
जवाब देंहटाएंis bindu me bhi aapke vichar aaj ke sthiti se mel khate hai
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