विद्युत शक्ति आधुनिक मानव की जीवन-रेखा है. इसका अभाव जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है. यही उत्तर प्रदेश में होता रहा है. अतः यहां लोग भरपूर जीवन नहीं रहे, बस अपना जीवन-काल व्यतीत कर रहे हैं. इसमें शासन का दोष तो है ही लोग भी कम दोषी नहीं हैं. प्रदेश का विद्युत संकट यहां के लोगों के सुख एवं सम्पन्नता से ही सम्बन्ध नहीं रखता, अपितु उनकी मानसिकता एवं चरित्र भी गहन सम्बन्ध रखता है. अतः विद्युत संकट के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक तीनों पक्ष हैं।
समय-समय पर की गयी राजकीय उद्घोषणाओं के अनुसार प्रदेश में पंजीकृत विद्युत भार लगभग लगभग ८००० मेगावाट है तथा विद्युत शक्ति की उपलब्धि लगभग ७००० मेगावाट रहती है. अतः इसके अनुसार प्रदेश के प्रत्येक अधिकृत उपभोक्ता को लगभग २० घंटे प्रतिदिन विद्युत उपलब्ध जानी चाहिए, जबकि वास्तविकता है कि सामान्य अधिकृत उपभोक्ताओं को औसतन केवल ६ घंटे प्रतिदिन विद्युत उपलब्ध कराई जा रही है.
प्रदेश में सतत कुशासन के कारण यहां के आम लोग सुखी और संपन्न नहीं हैं. वे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती भी नहीं कर पाते हैं. किन्तु अच्छे जीवन की अभिलाषा उनमें भी है, जिसके लिए वे अपने चरित्र को भी दांव पर लगाने को तत्पर हैं. इस चारित्रिक पतन का जहां एक जहां एक और विद्युत संकट का सम्बन्ध है, वहीं दूसरी और यह संकट का एक कारण भी है.
विद्युत चोरी
उत्तर प्रदेश का जन-सामान्य विद्युत की चोरी कर रहा है और यह इतने लम्बे समय चल रहा है कि लोग इसे अपना अधिकार मान बैठे हैं. इसके विरुद्ध कुछ कहना अथवा करना जन-विरोधी माना जाने लगा है. लम्बे समय से चली आ रही प्रदेश की तुच्छ राजनीति ने इस दूषित मानसिकता को पनपाया है. कोई भी राजनेता इसे रोकने का प्रयास नहीं करता, अपितु प्रत्येक इसे अधिक वोट पाने का माध्यम मानता है.
चूंकि चोरी कोई मानदंड तथा प्राकलन नहीं किया जा सकता, इसलिए प्रदेश में सक्षम विद्युत आपूर्ति का कोई नियोजन भी नहीं किया जा सकता. अतः विद्युत संकट स्वाभाविक है. प्रदेश का शासन एवं विद्युत प्रशासन स्थिति में कोई सुधार करने के स्थान पर दायित्वधारी व्यक्ति निजी स्वार्थों हेतु इसका अनुचित लाभ उठाते रहे हैं. विद्युत प्रशासनिक अधिकारी-धंधों द्वारा विद्युत चोरी करवाते हैं अपनी जेबें भरते हैं. इसमें से हिस्सा राजनेताओं को भी जाता है. इस प्रकार से प्रदेश के विद्युत संकट में शासन-प्रशासन के निहित स्वार्थ विकसित हो गए हैं. इसलिए इस संकट के निराकरण में दायित्वधारियों को कोई रूचि नहीं है. इसका स्पष्टतम प्रमाण यह है कि प्रदेश में विद्युत उपभोक्ताओं से प्राप्त राजस्व विद्युत खपत का केवल ३५ प्रतिशत के लगभग रहता है, तथापि विद्युत चोरी रोक कर इसे अधिक करने के कोई प्रयास नहीं किये जाते.
प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युत खपत के मापन हेतु उपभोक्ता स्तर पर मीटर नहीं लगाये जाते. इससे भी विद्युत खपत और राजस्व का कोई सीधा सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता। आकलनों में ग्रामीण क्षेत्रों को उतनी विद्युत प्रदायित मान ली जाती है जितनी कि पूर्व-नियोजित दर्शायी जाती है। किन्तु वास्तविक प्रदत्त शक्ति घोषित शक्ति के २५ प्रतिशत ही होती है। इस प्रकार से बचाई गयी विद्युत को अधिकारी-वर्ग द्वारा निजी उद्योगों को अवैध रूप में दे दिया जाता है और व्यक्तिगत लाभ उठाये जाते हैं। इसी कारण से राजस्व घाटे के लिए विद्युत प्रशासनिक अधिकारियों के अधिकार-क्षेत्र स्तर पर उनके दोष निर्धारित निर्धारित नहीं किये जाते. इसका भी वे अनुचित लाभ उठाते हैं, अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह बने रहकर भृष्ट, तानाशाही और वैभव पूर्ण जीवन व्यतीत हैं।
चूंकि चोरी की कोई सीमा नहीं होती, अतः प्रदेश की विद्युत स्थिति के बारे में कोई नियोजन अथवा प्रयोजन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि चोरी पर अंकुश न लगाया जाए। इसकी इच्छाशक्ति शासन-प्रशासन में तब तक जागृत नहीं हो सकती जब तक कि उनके स्वयं के आचरण स्वच्छ न हों। इस प्रकार से प्रदेश के विद्युत संकट का कोई समाधान वर्त्तमान शासन व्यवस्था में संभव नहीं है।
विद्युत गुणता
कहने को तो उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग ने उपभोक्ताओं को प्रदत्त विद्युत की गुणता के बारे में आदर्श नियम निर्धारित किये हुए हैं जिनमें विद्युत कटौती तथा वोल्टेज सम्मिलित हैं। किन्तु ये नियमन केवल कागज़ी हैं, वास्तविकता से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। आयोग इनकी अवहेलना के के बारे में उपभोक्ताओं की कोई शिकायत स्वीकार नहीं करता और न ही स्वयं इनके अनुपालन की जाँच-पड़ताल करता है। इस कारण से इस आयोग पर खर्च किया जा रहा सार्वजनिक धन केवल व्यर्थ की बर्बादी है।
प्रदेश में घोषित और वास्तविक विद्युत कटौतियों का कोई सम्बन्ध नहीं है, यह पूर्णतः स्थानीय विद्युत अधिकारीयों पर निर्भर करता है। अतिरिक्त विद्युत लाइनों तथा अन्य उपकरणों की जर्जर स्थिति भी उपभोक्ताओं को समुचित विद्युत सप्लाई के योग्य नहीं है चूंकि इनकी कोई नियमित देखरेख नहीं की जाती, केवल संकट के समय काम-चलाऊ मरम्मत कर दी जाती है। थोड़ी सी हवा, पानी, गर्मी अथवा सर्दी संकट उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त होती है। अतः उपलब्धि हेतु घोषित समय पर भी विद्युत का उपलब्ध होना निश्चित नहीं होता। इसके पीछे भी अधिकारीयों के व्यक्तिगत स्वार्थ निहित हैं। इस प्रकार से वे जो विद्युत खपत से बचाते हैं उसे उद्योगों को व्यक्तिगत लाभ के लिए प्रदान कर देते हैं।
विद्युत गुणता का दूसरा पक्ष विद्युत वोल्टेज है जो उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग द्वारा निर्धारित 230 वोल्ट से केवल 6 प्रतिशत तक विचलित होना चाहिए। किन्तु अनियमित विद्युत भार एवं उपकरणों की जर्जर स्थिति के कारण उपभोक्ताओं को प्राप्त विद्युत वोल्टेज 100 से 400 वोल्ट तक विचलित होता रहता है। इससे उपभोक्ता उपकरण ठीक कार्य नहीं करते तथा क्षतिग्रस्त होते रहते हैं।
विद्युत गुणता में उपरोक्त खामियों के कारण उपभोक्ताओं के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे अपने-अपने स्तर पर अपने उपकरणों से पहले वोल्टेज रेगुलेटर लगाएं तथा वांछित समय पर विद्युत प्राप्ति के लिए अपने-अपने घरों में बैटरी तथा इन्वर्टर स्थापित करें। जिनके लिए यह करना संभव है वे ऐसा कर रहे हैं। उपभोक्ता स्तर पर इन अतिरिक्त उपकरणों के कारण उपभोक्ता द्वारा वास्तविक विद्युत खपत उसके वास्तविक उपयोग से लगभग दो गुनी हो जाती है। इस कारण से भी प्रदेश का विद्युत संकट गहराया है।
उपभोक्ता शोषण
प्रदेश में सार्वजनिक शोषण और भृष्टाचार जितना विद्युत अधिकारियों द्वारा किया जा रहा है उतना किसी अन्य विभाग द्वारा नहीं किया जा रहा। विद्युत के क्षेत्र में प्रत्येक सार्वजनिक मामले में रिश्वतखोरी का बोलबाला है। प्रत्येक नया विद्युत कनेक्शन, लाइनों की टूटफूट के बाद प्रत्येक मरम्मत कार्य, विद्युत बिलों में निगम कर्मियों द्वारा की गयी त्रुटियों में सुधार, आदि रिश्वतखोरी के प्रमुख माध्यम हैं। यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में मीटर न लगाये जाने पर भी निगम उपभोक्ताओं से मीटर के मूल्य वसूल रहा है।
उक्त स्रोतों से प्राप्त आय में निगम के समस्त कर्मी, अधिकारी, और सम्बंधित राजनेता भी हिस्सा पा रहे हैं। तथापि कोई भी उपभोक्ताओं के प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है। उपभोक्ताओं के पास इन विविध शोषणों का शिकार बनने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
उपभोक्ता नैतिक पतन
विद्युत अधिकारियों की कार्यशैली ने आम लोगों में चरित्र का हनन किया है। अधिकृत विद्युत उपभोक्ता बनकर विविध प्रकार के शोषणों का शिकार बनने के स्थान पर लोग विद्युत चोरी करना अधिक लाभकर पाते हैं। किन्तु वे नहीं जानते कि अपने बच्चों के समक्ष अथवा उनके माध्यम से विद्युत चोरी करके वे बच्चों को प्रदूषित संस्कार देते हैं जिसका दुष्प्रभाव उनके वंशों में अनेकों पीढ़ियों तक बना रह सकता है। ऐसे लोग विद्युत चोरी को चोरी नहीं मानते और इसे अपना अधिकार मान लेते हैं जो चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा है। वस्तुतः यह एक मानसिक दुष्प्रवृत्ति बन जाती है। उत्तर प्रदेश की बहुत बड़ी जनसँख्या इस रोग से पीड़ित है। देश के राजनेताओं के भृष्ट आचरणों से ऐसे रोगिओं को सम्बल प्राप्त होता है।
और चोरी रोकने का एक नाटक
प्रदेश के राजनेता और विद्युत अधिकारी यह जानते हैं कि विद्युत संकट से निदान के लिए विद्युत चोरी रोकना नितांत अनिवार्य है किन्तु अपने-अपने निहित स्वार्थों के कारण ये चोरी रोकना नहीं चाहते, तथापि अन्य लोगों को दर्शाने के लिए चोरी रोकने का नाटक किया जाता है। 1 जुलाई से 15 जुलाई तक का बुलंदशहर जनपद में विद्युत चोरी रोकने के अभियान की योजना बनाई गयी जिसका खूब प्रचार किया गया। जब सब विद्युत चोरों को अभियान की सूचना दे दी गयी तब अधिकारी दल निकले चोरों को पकड़ने के लिए। अतः चोरी रोकने में कोई सफलता मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, अधिकारीयों द्वारा कुछ उपभोक्ताओं की ठगी, तथा अभियान के नाम पर सरकारी खर्च अवश्य हो गया।
उपभोक्ता शोषण
प्रदेश में सार्वजनिक शोषण और भृष्टाचार जितना विद्युत अधिकारियों द्वारा किया जा रहा है उतना किसी अन्य विभाग द्वारा नहीं किया जा रहा। विद्युत के क्षेत्र में प्रत्येक सार्वजनिक मामले में रिश्वतखोरी का बोलबाला है। प्रत्येक नया विद्युत कनेक्शन, लाइनों की टूटफूट के बाद प्रत्येक मरम्मत कार्य, विद्युत बिलों में निगम कर्मियों द्वारा की गयी त्रुटियों में सुधार, आदि रिश्वतखोरी के प्रमुख माध्यम हैं। यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में मीटर न लगाये जाने पर भी निगम उपभोक्ताओं से मीटर के मूल्य वसूल रहा है।
उक्त स्रोतों से प्राप्त आय में निगम के समस्त कर्मी, अधिकारी, और सम्बंधित राजनेता भी हिस्सा पा रहे हैं। तथापि कोई भी उपभोक्ताओं के प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है। उपभोक्ताओं के पास इन विविध शोषणों का शिकार बनने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
उपभोक्ता नैतिक पतन
विद्युत अधिकारियों की कार्यशैली ने आम लोगों में चरित्र का हनन किया है। अधिकृत विद्युत उपभोक्ता बनकर विविध प्रकार के शोषणों का शिकार बनने के स्थान पर लोग विद्युत चोरी करना अधिक लाभकर पाते हैं। किन्तु वे नहीं जानते कि अपने बच्चों के समक्ष अथवा उनके माध्यम से विद्युत चोरी करके वे बच्चों को प्रदूषित संस्कार देते हैं जिसका दुष्प्रभाव उनके वंशों में अनेकों पीढ़ियों तक बना रह सकता है। ऐसे लोग विद्युत चोरी को चोरी नहीं मानते और इसे अपना अधिकार मान लेते हैं जो चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा है। वस्तुतः यह एक मानसिक दुष्प्रवृत्ति बन जाती है। उत्तर प्रदेश की बहुत बड़ी जनसँख्या इस रोग से पीड़ित है। देश के राजनेताओं के भृष्ट आचरणों से ऐसे रोगिओं को सम्बल प्राप्त होता है।
और चोरी रोकने का एक नाटक
प्रदेश के राजनेता और विद्युत अधिकारी यह जानते हैं कि विद्युत संकट से निदान के लिए विद्युत चोरी रोकना नितांत अनिवार्य है किन्तु अपने-अपने निहित स्वार्थों के कारण ये चोरी रोकना नहीं चाहते, तथापि अन्य लोगों को दर्शाने के लिए चोरी रोकने का नाटक किया जाता है। 1 जुलाई से 15 जुलाई तक का बुलंदशहर जनपद में विद्युत चोरी रोकने के अभियान की योजना बनाई गयी जिसका खूब प्रचार किया गया। जब सब विद्युत चोरों को अभियान की सूचना दे दी गयी तब अधिकारी दल निकले चोरों को पकड़ने के लिए। अतः चोरी रोकने में कोई सफलता मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, अधिकारीयों द्वारा कुछ उपभोक्ताओं की ठगी, तथा अभियान के नाम पर सरकारी खर्च अवश्य हो गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
केवल प्रासंगिक टिप्पणी करें, यही आपका बौद्धिक प्रतिबिंब होंगी