उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से ऐसे कुशल नेतृत्व का अभाव रहा है जो प्रदेश के लोगों के विकास की आवश्यकताओं और दिशा को समझ सके। श्री चन्द्र भान गुप्त के बाद के सभी मुख्य मंत्री वैभव भोग, स्वयं के परिवार अथवा ग्राम की प्रगति अथवा अपना समय व्यतीत करते रहने में रूचि रखते रहे हैं। इसके कारण पर्याप्त साधन संपन्न होने पर भी प्रदेश देश के पिछड़े राज्यों में गिना जाता रहा है।
यहाँ गंगा और यमुना सहित अनेक नदियां हैं, जो भूमि को उर्वरा बनाते हुए पुरे प्रदेश को जल संसाधनों से पुष्ट रखती हैं। इन नदियों के तटों पर प्राचीन काल से ही भव्य पर्यटन तथा ऐतिहासिक स्थल हैं, जो प्रदेश को विश्व-स्तरीय पर्यटक आकर्षण बनाने में समर्थ हैं। यहाँ के लोगों की शारीरिक संरचना तथा सक्षमता देश के औसत मानदंडों से अधिक श्रेष्ठ है। प्रदेश परंपरागत रूप में ललित और हस्त्य कलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है किन्तु इनकी दीर्घकाल से हो रही अवहेलना ने इन्हें लुप्तप्राय कर दिया है। प्रदेश कृषि उत्पादन की विविधता, गुणता एवं उत्पादकता में अग्रणी रहा है, तथापि यहाँ के कृषक निर्धन होते जा रहे हैं। जिसके प्रमुख कारण सरकार द्वारा उनकी अवहेलना, धार्मिक प्रचारकों द्वारा उनका शोषण और जनसँख्या वृद्धि हैं।
नेतृत्व स्थिति
प्रदेश में पर्याप्त प्राकृत सम्पदा है, यहाँ की भूमि सर्वाधिक उर्वरा है, जल के भरपूर स्रोत हैं, लोगों में पारिश्रमिक सामर्थ्य है, उनमें बौद्धिक बल है, प्रदेश भौगोलिक दृष्टि से लाभकर स्थिति पर है, आवश्यकता केवल इन संसाधनों के सदुपयोग की है जो कुशल नेतृत्व के बिना संभव नहीं है।
प्रदेश में नेतृत्व अभाव का सबसे बड़ा कारण परिवारवाद रहा है जिसमें जहाँ मुलायम सिंह सबसे आगे रहे हैं वहीँ कल्याण सिंह भी बहुत पीछे नहीं रहे हैं। यहाँ के नेतृत्व का दावा करने वाले राजनेता अपने कृत्यों से अपने-अपने ग्रामों अथवा चुनाव-क्षेत्रों के विकास तक सीमित रहे हैं। इनमें नेहरू परिवार के सदस्य, मुलायम सिंह, मायावती, आदि अति उल्लेखनीय हैं। इनमें से किसी में पूरे प्रदेश के नेतृत्व की सुयोग्यता नहीं है।
सामाजिक-राजनैतिक स्थिति
उत्तर प्रदेश के लोग बहुतायत में परम्परावादी हैं, इसके कुछ लाभ तथा अनेक हानियां हैं। वे सरलता से किसी से भी सहमत होते प्रतीत होते हैं किन्तु वास्तविकता कुछ भिन्न भी हो सकती है जिसका ज्ञान वे दूसरे व्यक्ति को नहीं होने नहीं देते। इसका एक अर्थ अर्थ यह भी है कि वे असहमत होने का साहस नहीं करते अथवा असहमति दर्शा कर दूसरे को नाराज नहीं करते अथवा अपने मनोभाव स्वयं तक ही सीमित रखते हैं। व्यक्तिगत सच्चाई कुछ भी हो, वे सरल स्वभाव के तथा बुद्धिवादी नहीं हैं। इसलिए उन्हें समझना दुष्कर होता है तथापि छल-कपट से बहकाना सरल होता है। इसका भरपूर लाभ कपटी राजनेता तथा धार्मिक प्रचारक उठाते रहे हैं और उनका शोषण करते रहे हैं। प्रदेश के विकास में यह एक विशेष बाधा है जिससे मनोवैज्ञानिक तरीके से ही निपटा जा सकता है, सीधी सरल स्पष्टवादिता से नहीं। प्रदेश के दो बड़े समुदाय यहाँ की राजनीति के महत्वपूर्ण अंग हैं।
मुस्लिम समुदाय : परंपरागत रूप से अशिक्षित तथा निर्धन एवं स्वभाव से कट्टर तथा हिंसक मुस्लिम समुदाय प्रायः एकजुट होकर वोट देता है, अतः किसी भी चुनावी रणनीति के लिए महत्वपूर्ण होता है। यह इस समुदाय का केवल राजनैतिक पक्ष है, तथापि पूर्ण सत्य नहीं है। इस समुदाय के लोग परिश्रमी, कलाकार तथा तकनीकी कौशल रखते हैं। किन्तु कपटी राजनेता तथा धर्म-प्रचारक इनके इन सद्गुणों की अवहेलना करते हुए इनकी निर्बलताओं का लाभ उठाने में रूचि रखते रहे हैं और इन्हें केवल वोट पाने के लिए ठगते रहे हैं। कभी इनके सद्गुणों को विकसित नहीं होने देते। इन्हें केवल धर्मावलम्बी वोटर के रूप में देखा जाता है, परिश्रमी कुशल कलाकार के रूप में नहीं।
दलित समुदाय : प्रदेश की जनसँख्या का एक विशाल भाग परंपरागत रूप से अभावग्रस्त, साधनविहीन एवं अशिक्षित रहा है जिसकी आजीविका के परंपरागत स्रोत सामायिक परिवर्तनों की चपेट में समाप्त हो गए हैं। स्वतंतंत्रता के बाद की अम्बेदकर-नेहरू नीत राजनीति ने इन्हें स्वयं-सिद्ध स्वावलम्बी बनाने के स्थान पर राजसत्ता की दया पर निर्भर भिखारी-तुल्य बना दिया और इनके जीवन की आशा के प्रतीक स्वरुप आरक्षण का सुदूर दीपक इन्हें दिखा दिया जिसमें सत्ताधारी तेल की कुछ बूँदें समय-समय पर डालते रहते हैं। इस प्रकार राजसत्ता की दया ही इनके जीवन का आश्रय बनकर रह गया है। इस समुदाय के कुछ परिवार आरक्षण का सतत लाभ उठाते रहे हैं जिन्हें सत्ताधारी अपने निकट बनाये रखते हैं ताकि पूरे समुदाय को मुर्ख बनाते हुए उसके वोट पाते रहें। यही दलित राजनीति का प्रधान सूत्र बन गया है।
इस प्रकार प्रदेश की राजनीति का प्रधान अंग मुस्लिम एवं दलित वर्गों का मनोवैज्ञानिक शोषण बनकर रह गया है। ये दो वर्ग प्रदेश की जनसँख्या का ५० प्रतिशत से अधिक भाग हैं। धनात्मक राजनीति में इन दोनों वर्गों का समुचित विकास किया जाना चाहिए था। इसके लिए सर्वप्रथम इनकी परंपरागत सुयोग्यताओं के अनुसार इनके लिए आजीविका के साधन विकसित किये जाने चाहिए। इसके बाद इनकी समुचित शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए ताकि प्रदेश की यह विशाल जनसँख्या सभी के समान स्वावलम्बी सम्मानित नागरिक प्रदान कर सके। आरक्षण को प्रयासों के उत्प्रेरक के रूप में लिया जाना चाहिए, न कि आजीविका के साधन के रूप में।
प्रबलतम समस्याएं
उत्तर प्रदेश की विकरालतम समस्या जनसँख्या वृद्धि है जिसका मूल कारण अशिक्षा और अशिक्षा का मूल कारण आर्थिक विपन्नता है। प्रदेश के दलित और मुस्लिम समुदायों में जनसँख्या वृद्धि की दर शेष वर्गों से बहुत अधिक है, जिसके कारण प्रदेश में निर्धनता और अशिक्षा का सतत प्रसार होता रहा है। बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। बेरोजगारी के निराकरण के लिए प्रदेश की सरकारें राज्य में सरकारी कर्मियों की भर्ती करती रही हैं। इससे बेरोजगारी की समस्या का निदान नहीं है, किन्तु प्रदेश की आर्थिक विपन्नता का प्रसार है।
बेरोजगारी के निराकरण के लिए जनसँख्या नियंत्रण एवं लोगों में स्वावलम्बन की भावना का विकास है। प्रदेश में शिक्षा तंत्र जर्जर स्थिति में है जिससे अशिक्षा, बेरोजगारी और जनसँख्या वृद्धि की समस्याएं उग्र हुई हैं।
विकास का स्वरुप
उत्तर प्रदेश अभी भी कृषि प्रधान प्रदेश है। चूंकि कृषि उत्पाद सार्वजनिक आवश्यकता - भोजन, प्रदान करते हैं, इसलिए यह व्यवसाय कम सेवा अधिक है। भोजन के मूल्यों पर नियंत्रण रखना सभी सभी के हित में होता है, इसलिए कृषि को विशुद्ध व्यवसाय के रूप में नहीं जाना जाना चाहिए, अपितु समाज की एक मूलभूत आवश्यकता पूर्ति के माध्यम के रूप में लिया जाना चाहिए। इसलिए समाज में जहाँ आर्थिक विषमताएं अधिक हों वहां कृषि आजीविका का सम्पूर्ण साधन नहीं बन सकती, केवल सह-साधन बनी रहनी चाहिए। इस कारण से उत्तर प्रदेश की कृषि प्रधानता वहां के लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन का कारण है। देश के जो राज्य विकसित हैं उनके आर्थिक आधार उद्योग-धंधे हैं। उत्तर प्रदेश को भी आर्थिक सुदृढ़ता के लिए औद्योगीकरण को अपनाना होगा।
प्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए प्रयास किये गए हैं किन्तु ये सब राज-तंत्र के भृष्टाचार की बलि चढ़ते रहे हैं। जो व्यक्ति उद्योगों में सफल कहे जा सकते हैं वे सभी भृष्टाचार की छत्रछाया में पनपे हैं, साथ ही जो विशाल जनसँख्या उद्योग-धंधों में असफल रही है वह प्रदेश में व्याप्त भृष्टाचार के कारण असफल रही है। इस प्रकार सफल और असफल दोनों ही वर्ग राज्य और लोगों को आर्थिक सम्पन्नता प्रदान करने में असफल रहे हैं, कुछ ने भृष्टाचार का पोषण किया है तो अन्य ने स्वयं आर्थिक विपन्नता पाई है।
प्रदेश शासन-प्रशासन में व्याप्त भृष्टाचार का दूसरा व्यापक प्रभाव सामाजिक है। इसके कारण प्रत्येक व्यक्ति सरकारी नौंकरी पाने के प्रयासों में लगा रहता है, क्योंकि उसे सम्पन्नता का इससे सरल उपाय कोई दूसरा नहीं लगता, जो एक भूतलीय यथार्थ है। प्रदेश में केवल वही लोग संपन्न हैं जो येन केन प्रकारेण सरकारी नौंकरी पाने में सफल रहे हैं।
सरकारी नौंकरी में भृष्टाचरण के माध्यम से संपन्न होने की लालसा ने लोगों में स्वावलम्बी भावना का हनन किया है। अधिकांश लोग अपने उद्योग-धंधे के नाम से ही भयभीत हो जाते हैं। प्रदेश के आर्थिक पिछड़ेपन का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है जिसका निराकरण राज्य तंत्र से भृष्टाचार का उन्मूलन है। विगत 50 वर्षों में प्रदेश के प्रत्येक शासन ने भृष्टाचार का पोषण ही किया है, जिसमें अनेक बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव का सर्वाधिक योगदान है। अतः उत्तर प्रदेश के विकास का सूत्र औद्योगीकरण है जिसका मूलमंत्र राज्य शासन-प्रशासन से भृष्टाचार का उन्मूलन है। इसके लिए प्रदेश को कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है।
प्रदेश में विद्युत संकट है जो यहाँ के औद्योगीकरण में बाधक है किन्तु इस संकट का मूल कारण भी भृष्टाचार ही है।
दलित समुदाय : प्रदेश की जनसँख्या का एक विशाल भाग परंपरागत रूप से अभावग्रस्त, साधनविहीन एवं अशिक्षित रहा है जिसकी आजीविका के परंपरागत स्रोत सामायिक परिवर्तनों की चपेट में समाप्त हो गए हैं। स्वतंतंत्रता के बाद की अम्बेदकर-नेहरू नीत राजनीति ने इन्हें स्वयं-सिद्ध स्वावलम्बी बनाने के स्थान पर राजसत्ता की दया पर निर्भर भिखारी-तुल्य बना दिया और इनके जीवन की आशा के प्रतीक स्वरुप आरक्षण का सुदूर दीपक इन्हें दिखा दिया जिसमें सत्ताधारी तेल की कुछ बूँदें समय-समय पर डालते रहते हैं। इस प्रकार राजसत्ता की दया ही इनके जीवन का आश्रय बनकर रह गया है। इस समुदाय के कुछ परिवार आरक्षण का सतत लाभ उठाते रहे हैं जिन्हें सत्ताधारी अपने निकट बनाये रखते हैं ताकि पूरे समुदाय को मुर्ख बनाते हुए उसके वोट पाते रहें। यही दलित राजनीति का प्रधान सूत्र बन गया है।
इस प्रकार प्रदेश की राजनीति का प्रधान अंग मुस्लिम एवं दलित वर्गों का मनोवैज्ञानिक शोषण बनकर रह गया है। ये दो वर्ग प्रदेश की जनसँख्या का ५० प्रतिशत से अधिक भाग हैं। धनात्मक राजनीति में इन दोनों वर्गों का समुचित विकास किया जाना चाहिए था। इसके लिए सर्वप्रथम इनकी परंपरागत सुयोग्यताओं के अनुसार इनके लिए आजीविका के साधन विकसित किये जाने चाहिए। इसके बाद इनकी समुचित शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए ताकि प्रदेश की यह विशाल जनसँख्या सभी के समान स्वावलम्बी सम्मानित नागरिक प्रदान कर सके। आरक्षण को प्रयासों के उत्प्रेरक के रूप में लिया जाना चाहिए, न कि आजीविका के साधन के रूप में।
प्रबलतम समस्याएं
उत्तर प्रदेश की विकरालतम समस्या जनसँख्या वृद्धि है जिसका मूल कारण अशिक्षा और अशिक्षा का मूल कारण आर्थिक विपन्नता है। प्रदेश के दलित और मुस्लिम समुदायों में जनसँख्या वृद्धि की दर शेष वर्गों से बहुत अधिक है, जिसके कारण प्रदेश में निर्धनता और अशिक्षा का सतत प्रसार होता रहा है। बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। बेरोजगारी के निराकरण के लिए प्रदेश की सरकारें राज्य में सरकारी कर्मियों की भर्ती करती रही हैं। इससे बेरोजगारी की समस्या का निदान नहीं है, किन्तु प्रदेश की आर्थिक विपन्नता का प्रसार है।
बेरोजगारी के निराकरण के लिए जनसँख्या नियंत्रण एवं लोगों में स्वावलम्बन की भावना का विकास है। प्रदेश में शिक्षा तंत्र जर्जर स्थिति में है जिससे अशिक्षा, बेरोजगारी और जनसँख्या वृद्धि की समस्याएं उग्र हुई हैं।
विकास का स्वरुप
उत्तर प्रदेश अभी भी कृषि प्रधान प्रदेश है। चूंकि कृषि उत्पाद सार्वजनिक आवश्यकता - भोजन, प्रदान करते हैं, इसलिए यह व्यवसाय कम सेवा अधिक है। भोजन के मूल्यों पर नियंत्रण रखना सभी सभी के हित में होता है, इसलिए कृषि को विशुद्ध व्यवसाय के रूप में नहीं जाना जाना चाहिए, अपितु समाज की एक मूलभूत आवश्यकता पूर्ति के माध्यम के रूप में लिया जाना चाहिए। इसलिए समाज में जहाँ आर्थिक विषमताएं अधिक हों वहां कृषि आजीविका का सम्पूर्ण साधन नहीं बन सकती, केवल सह-साधन बनी रहनी चाहिए। इस कारण से उत्तर प्रदेश की कृषि प्रधानता वहां के लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन का कारण है। देश के जो राज्य विकसित हैं उनके आर्थिक आधार उद्योग-धंधे हैं। उत्तर प्रदेश को भी आर्थिक सुदृढ़ता के लिए औद्योगीकरण को अपनाना होगा।
प्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए प्रयास किये गए हैं किन्तु ये सब राज-तंत्र के भृष्टाचार की बलि चढ़ते रहे हैं। जो व्यक्ति उद्योगों में सफल कहे जा सकते हैं वे सभी भृष्टाचार की छत्रछाया में पनपे हैं, साथ ही जो विशाल जनसँख्या उद्योग-धंधों में असफल रही है वह प्रदेश में व्याप्त भृष्टाचार के कारण असफल रही है। इस प्रकार सफल और असफल दोनों ही वर्ग राज्य और लोगों को आर्थिक सम्पन्नता प्रदान करने में असफल रहे हैं, कुछ ने भृष्टाचार का पोषण किया है तो अन्य ने स्वयं आर्थिक विपन्नता पाई है।
प्रदेश शासन-प्रशासन में व्याप्त भृष्टाचार का दूसरा व्यापक प्रभाव सामाजिक है। इसके कारण प्रत्येक व्यक्ति सरकारी नौंकरी पाने के प्रयासों में लगा रहता है, क्योंकि उसे सम्पन्नता का इससे सरल उपाय कोई दूसरा नहीं लगता, जो एक भूतलीय यथार्थ है। प्रदेश में केवल वही लोग संपन्न हैं जो येन केन प्रकारेण सरकारी नौंकरी पाने में सफल रहे हैं।
सरकारी नौंकरी में भृष्टाचरण के माध्यम से संपन्न होने की लालसा ने लोगों में स्वावलम्बी भावना का हनन किया है। अधिकांश लोग अपने उद्योग-धंधे के नाम से ही भयभीत हो जाते हैं। प्रदेश के आर्थिक पिछड़ेपन का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है जिसका निराकरण राज्य तंत्र से भृष्टाचार का उन्मूलन है। विगत 50 वर्षों में प्रदेश के प्रत्येक शासन ने भृष्टाचार का पोषण ही किया है, जिसमें अनेक बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव का सर्वाधिक योगदान है। अतः उत्तर प्रदेश के विकास का सूत्र औद्योगीकरण है जिसका मूलमंत्र राज्य शासन-प्रशासन से भृष्टाचार का उन्मूलन है। इसके लिए प्रदेश को कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है।
प्रदेश में विद्युत संकट है जो यहाँ के औद्योगीकरण में बाधक है किन्तु इस संकट का मूल कारण भी भृष्टाचार ही है।
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