जनता द्वारा सम्मान पाते हुए नेतृत्व करने के लिए आत्म-बलिदान की आवश्यकता होती है, जैसा की गाँधी, सुभाष, आदि ने किया. इसके साथ ही इन आत्म-बलिदानियों के बलिदानों का लाभ उठाने के लिए नेहरु भी होते रहे हैं जो इन का और जनता का शोषण करते रहने की ताक में रहते हैं. परिणामस्वरूप गाँधी और सुभाष अपने जीवनों से हाथ धो बैठते हैं और नेहरु सत्ता सुख भोगते हैं. ऐसा हुआ है क्योंकि दीर्घावधि से दासता की जंजीरों में जकड़ी जनता इस सबके बारे में अनभिज्ञ और निष्क्रिय रही है. मामला यहीं समाप्त न होकर दूरगामी परिणामों वाला सिद्ध हुआ है.
स्वतंत्र भारत के नेताओं ने उक्त उदाहरण से यह मान लिया कि जनता उसी प्रकार सुषुप्त और निष्क्रिय रहेगी और वे शोषण करते हुए अपना नेतृत्व बनाए रख सकते हैं. अतः स्वतंत्र भारत में उभरे अधिकाँश नेता केवल शोषण को ही अपने नेतृत्व का आधार बनाये हुए रहे हैं. इन नेताओं में राजनैतिक नेता तो सम्मिलित रहे ही हैं, वे भी इसी प्रकार के होते रहे हैं जो उक्त भृष्ट राजनेताओं का विरोध करते रहे हैं. इस प्रकार देश में नेतृत्व की परिभाषा के साथ शोषण अभिन्न रूप में जुड़ गया है. इसी का परिणाम है देश में चरम सीमा तक पहुंचा राजनैतिक भृष्टाचार, जिसका अनुमान देश में विभिन्न स्तरों के जनतांत्रिक चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा किये गए औसत व्यय से लगाया जा सकता है -
ग्राम प्रधान - ५ से १० लाख रुपये,
विकास खंड प्रमुख - २५ से ५० लाख रुपये,
जिला पंचायत अध्यक्ष - ५० लाख से १ करोड़ रुपये,
विधान सभा सदस्य - १ करोड़ से २ करोड़ रुपये,
संसद सदस्य - २ से ५ करोड़ रुपये, आदि, आदि...
यह धन जनता को निष्क्रिय बनाये रखने के लिए व्यय किया जाता है जिससे कि वह अपने शोषण के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद न कर सके. और देश की जनता इतनी मूर्ख सिद्ध हो रही है कि वह शासन में अपने मत का महत्व अभी तक नहीं समझ पायी है. उक्त धन व्यय करने के बाद चुनाव में विजयी अथवा परास्त होने के बाद प्रत्याशियों को अपना धन वापिस पाने की इच्छा होना स्वाभाविक है, जिसके लिए वे अपना गठजोड़ बनाते हैं और अपने भृष्ट आचरणों द्वारा जनता का शोषण करने में जुट जाते हैं. जिसके परिणामस्वरूप एक ओर जनता की गरीबी बढ़ती है दूसरी ओर महंगाई. इस कुचक्र में फंसा जन-साधारण अपने जीवन को बनाये रखने की चिंताओं में इतना निमग्न हो जाता है कि उसे अपने शोषण को समझने और उसके विरुद्ध कुछ करने का होश ही नहीं रहता.
नेतृत्व द्वारा अन्य लोगों का शोषण केवल आर्थिक ही नहीं होता, यह मनोवैज्ञानिक भी होता है. जनसाधारण के मनोवैज्ञानिक शोषण में तथाकथित धर्मात्मा भी राजनेताओं के सहयोगी होते हैं जो सब मिलकर जनता को समस्याग्रस्त, दीन-हीन और निर्बल बनाये रखते हैं. इससे जनता देश के पूरे घटनाक्रम की मात्र दर्शक बन कर रह जाती है, और विभिन्न स्टारों पर शोषण गहन होता जाता है.
मनोवैज्ञानिक शोषण दो उदाहरण मुझे ध्यान आते हैं - राजीव गाँधी को देश का प्रधान मंत्री पद इस लिए दे दिया गया क्योंकि उसकी माँ की हत्या कर दी गयी थी. जबकि नित्यप्रति अनेक माँ अपनी जान खोती रहती हैं और उनके पुत्रों को न्याय तक नहीं मिलता. राजीव को प्रधान मंत्री चुनते समय कभी किसी ने यह विचार नहीं किया की वह इस पद के योग्य भी था या नहीं.
दूसरा उदाहरण मेरे क्षेत्र में अभी हाल में हुए जिला पंचायत सदस्यटा का चुनाव का है जिसमें एक जाने-माने अपराधी को जनता द्वारा इसलिए चुन दिया गया क्योंकि वह अपने अपराधों के कारण पुलिस से भयभीत था और मतदाताओं से दया की भीख मांगता था. इसके लिए वह प्रत्येक मतदाता के चरण उस समय तक पकडे रहता था जब तक की उसे मत देने का वचन न दिया जाता. इस चुनाव में भी प्रत्याशी की सुयोग्यता पर कभी कोई विचार नहीं किया गया. ये दोनों उदाहरण जन-साधारण के मनोवैज्ञानिक शोषण को दर्शाते हैं.
गाँधी के आत्म-बलिदान और नेहरु के शोषण के समतुल्य ही एक वर्तमान उदाहरण हमारे समक्ष है. देश में भृष्टाचार के विरुद्ध प्रभावी विधान की मांग करने के लिए एक प्रमुख गांधीवादी श्री अन्ना हजारे ने ५ अप्रैल से देल्ली के जंतर मंतर पर आमरण भूख हड़ताल करने की घोषणा की है जिसका भृष्टाचार विरोधी नेताओं ने पुरजोर स्वागत किया है. इस विषयक प्रथम बैठक में मैं इन नेताओं से आग्रह किया था कि अन्ना जी हम सबके लिए पितातुल्य हैं और वे अपने जीवन का बलिदान करें और हम सब तमाशा देखते रहें यह हम सबके लिए लज्जाजनक है. इसलिए हम सब बड़ी संख्या में आमरण भूख हड़ताल करें और अन्ना जी को ऐसा न करने के लिए राजी कर लें. किन्तु यह नेहरु प्रकार के नेताओं को पसंद नहीं आया और उन्होंने मेरे सुझाव की अवहेलना कर दी. इस मैंने स्वयं ५ अप्रैल से जंतर मंतर पर आमरण भूख हड़ताल की घोषणा कर दी और अन्ना जी से आग्रह किया है की भूख हड़ताल न करें और मेरे पास मेरे मार्गदर्शक की रूप में उपस्थित रहें.
अब आन्दोलन के उक्त नेता खूब जोर-शोर से अन्ना जी की आमरण भूख हड़ताल का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं ताकि वे इससे पीछे न हट पायें.
मनोवैज्ञानिक शोषण दो उदाहरण मुझे ध्यान आते हैं - राजीव गाँधी को देश का प्रधान मंत्री पद इस लिए दे दिया गया क्योंकि उसकी माँ की हत्या कर दी गयी थी. जबकि नित्यप्रति अनेक माँ अपनी जान खोती रहती हैं और उनके पुत्रों को न्याय तक नहीं मिलता. राजीव को प्रधान मंत्री चुनते समय कभी किसी ने यह विचार नहीं किया की वह इस पद के योग्य भी था या नहीं.
दूसरा उदाहरण मेरे क्षेत्र में अभी हाल में हुए जिला पंचायत सदस्यटा का चुनाव का है जिसमें एक जाने-माने अपराधी को जनता द्वारा इसलिए चुन दिया गया क्योंकि वह अपने अपराधों के कारण पुलिस से भयभीत था और मतदाताओं से दया की भीख मांगता था. इसके लिए वह प्रत्येक मतदाता के चरण उस समय तक पकडे रहता था जब तक की उसे मत देने का वचन न दिया जाता. इस चुनाव में भी प्रत्याशी की सुयोग्यता पर कभी कोई विचार नहीं किया गया. ये दोनों उदाहरण जन-साधारण के मनोवैज्ञानिक शोषण को दर्शाते हैं.
गाँधी के आत्म-बलिदान और नेहरु के शोषण के समतुल्य ही एक वर्तमान उदाहरण हमारे समक्ष है. देश में भृष्टाचार के विरुद्ध प्रभावी विधान की मांग करने के लिए एक प्रमुख गांधीवादी श्री अन्ना हजारे ने ५ अप्रैल से देल्ली के जंतर मंतर पर आमरण भूख हड़ताल करने की घोषणा की है जिसका भृष्टाचार विरोधी नेताओं ने पुरजोर स्वागत किया है. इस विषयक प्रथम बैठक में मैं इन नेताओं से आग्रह किया था कि अन्ना जी हम सबके लिए पितातुल्य हैं और वे अपने जीवन का बलिदान करें और हम सब तमाशा देखते रहें यह हम सबके लिए लज्जाजनक है. इसलिए हम सब बड़ी संख्या में आमरण भूख हड़ताल करें और अन्ना जी को ऐसा न करने के लिए राजी कर लें. किन्तु यह नेहरु प्रकार के नेताओं को पसंद नहीं आया और उन्होंने मेरे सुझाव की अवहेलना कर दी. इस मैंने स्वयं ५ अप्रैल से जंतर मंतर पर आमरण भूख हड़ताल की घोषणा कर दी और अन्ना जी से आग्रह किया है की भूख हड़ताल न करें और मेरे पास मेरे मार्गदर्शक की रूप में उपस्थित रहें.
अब आन्दोलन के उक्त नेता खूब जोर-शोर से अन्ना जी की आमरण भूख हड़ताल का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं ताकि वे इससे पीछे न हट पायें.