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रविवार, 6 मार्च 2011

भारत का नेतृत्व - बलिदान के स्थान पर शोषण

जनता द्वारा सम्मान पाते हुए नेतृत्व करने के लिए आत्म-बलिदान की आवश्यकता होती है, जैसा की गाँधी, सुभाष, आदि ने किया. इसके साथ ही इन आत्म-बलिदानियों के बलिदानों का लाभ उठाने के लिए नेहरु भी होते रहे हैं जो इन का और जनता का शोषण करते रहने की ताक में रहते हैं. परिणामस्वरूप गाँधी और सुभाष अपने जीवनों से हाथ धो बैठते हैं और नेहरु सत्ता सुख भोगते हैं. ऐसा हुआ है क्योंकि दीर्घावधि से दासता की जंजीरों में जकड़ी जनता इस सबके बारे में अनभिज्ञ और निष्क्रिय रही है. मामला यहीं समाप्त न होकर दूरगामी परिणामों वाला सिद्ध हुआ है. 

स्वतंत्र भारत के नेताओं ने उक्त उदाहरण से यह मान लिया कि जनता उसी प्रकार सुषुप्त और निष्क्रिय रहेगी और वे शोषण करते हुए अपना नेतृत्व बनाए रख सकते हैं. अतः स्वतंत्र भारत में उभरे अधिकाँश नेता केवल शोषण को ही अपने नेतृत्व का आधार बनाये हुए रहे हैं. इन नेताओं में राजनैतिक नेता तो सम्मिलित रहे ही हैं, वे भी इसी प्रकार के होते रहे हैं जो उक्त भृष्ट राजनेताओं का विरोध करते रहे हैं. इस प्रकार देश में नेतृत्व की परिभाषा के साथ शोषण अभिन्न रूप में जुड़ गया है. इसी का परिणाम है देश में चरम सीमा तक पहुंचा राजनैतिक भृष्टाचार, जिसका अनुमान देश में विभिन्न स्तरों के जनतांत्रिक चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा किये गए औसत व्यय से लगाया जा सकता है -

ग्राम प्रधान - ५ से १० लाख रुपये,
विकास खंड प्रमुख - २५ से ५० लाख रुपये,
जिला पंचायत अध्यक्ष - ५० लाख से १ करोड़ रुपये,
विधान सभा सदस्य - १ करोड़ से २ करोड़ रुपये,
संसद सदस्य - २ से ५ करोड़ रुपये, आदि, आदि...

यह धन जनता को निष्क्रिय बनाये रखने के लिए व्यय किया जाता है जिससे कि वह अपने शोषण के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद न कर सके. और देश की जनता इतनी मूर्ख सिद्ध हो रही है कि वह शासन में अपने मत का महत्व अभी तक नहीं समझ पायी है. उक्त धन व्यय करने के बाद चुनाव में विजयी अथवा परास्त होने के बाद प्रत्याशियों को अपना धन वापिस पाने की इच्छा होना स्वाभाविक है, जिसके लिए वे अपना गठजोड़ बनाते हैं और अपने भृष्ट आचरणों द्वारा जनता का शोषण करने में जुट जाते हैं. जिसके परिणामस्वरूप एक ओर जनता की गरीबी बढ़ती है दूसरी ओर महंगाई. इस कुचक्र में फंसा जन-साधारण अपने जीवन को बनाये रखने की चिंताओं में इतना निमग्न हो जाता है कि उसे अपने शोषण को समझने और उसके विरुद्ध कुछ करने का होश ही नहीं रहता. 

नेतृत्व द्वारा अन्य लोगों का शोषण केवल आर्थिक ही नहीं होता, यह मनोवैज्ञानिक भी होता है. जनसाधारण के मनोवैज्ञानिक शोषण में तथाकथित धर्मात्मा भी राजनेताओं के सहयोगी होते हैं जो सब मिलकर जनता को समस्याग्रस्त, दीन-हीन और निर्बल बनाये रखते हैं. इससे जनता देश के पूरे घटनाक्रम की मात्र दर्शक बन कर रह जाती है, और विभिन्न स्टारों पर शोषण गहन होता जाता है.

मनोवैज्ञानिक शोषण दो उदाहरण मुझे ध्यान आते हैं - राजीव गाँधी को देश का प्रधान मंत्री पद इस लिए दे दिया गया क्योंकि उसकी माँ की हत्या कर दी गयी थी. जबकि नित्यप्रति अनेक माँ अपनी जान खोती रहती हैं और उनके पुत्रों को न्याय तक नहीं मिलता. राजीव को प्रधान मंत्री चुनते समय कभी किसी ने यह विचार नहीं किया की वह इस पद के योग्य भी था या नहीं.

दूसरा उदाहरण मेरे क्षेत्र में अभी हाल में हुए जिला पंचायत सदस्यटा का चुनाव का है जिसमें एक जाने-माने अपराधी को जनता द्वारा इसलिए चुन दिया गया क्योंकि वह अपने अपराधों के कारण पुलिस से भयभीत था और मतदाताओं से दया की भीख मांगता था. इसके लिए वह प्रत्येक मतदाता के चरण उस समय तक पकडे रहता था जब तक की उसे मत देने का वचन न दिया जाता. इस चुनाव में भी प्रत्याशी की सुयोग्यता पर कभी कोई विचार नहीं किया गया. ये दोनों उदाहरण जन-साधारण के मनोवैज्ञानिक शोषण को दर्शाते हैं.

गाँधी के आत्म-बलिदान और नेहरु के शोषण के समतुल्य ही एक वर्तमान उदाहरण हमारे समक्ष है. देश में भृष्टाचार के विरुद्ध प्रभावी विधान की मांग करने के लिए एक प्रमुख गांधीवादी श्री अन्ना हजारे ने ५ अप्रैल से देल्ली के जंतर मंतर पर आमरण भूख हड़ताल करने की घोषणा की है जिसका भृष्टाचार विरोधी नेताओं ने पुरजोर स्वागत किया है. इस विषयक प्रथम बैठक में मैं इन नेताओं से आग्रह किया था कि अन्ना जी हम सबके लिए पितातुल्य हैं और वे अपने जीवन का बलिदान करें और हम सब तमाशा देखते रहें यह हम सबके लिए लज्जाजनक है. इसलिए हम सब बड़ी संख्या में आमरण भूख हड़ताल करें और अन्ना जी को ऐसा न करने के लिए राजी कर लें. किन्तु यह नेहरु प्रकार के नेताओं को पसंद नहीं आया और उन्होंने मेरे सुझाव की अवहेलना कर दी. इस मैंने स्वयं ५ अप्रैल से जंतर मंतर पर आमरण भूख हड़ताल की घोषणा कर दी और अन्ना जी से आग्रह किया है की भूख हड़ताल न करें और मेरे पास मेरे मार्गदर्शक की रूप में उपस्थित रहें.
The Effective Public Manager

अब आन्दोलन के उक्त नेता खूब जोर-शोर से अन्ना जी की आमरण भूख हड़ताल का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं ताकि वे इससे पीछे न हट पायें.           

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

भारतीय नेतृत्व संकट

 २६ फरवरी २०११ को इंडिया अगेंस्ट करप्शन की एक बैठक में भाग लिया जिसमें भारत सरकार पर भृष्टाचार के विरुद्ध एक प्रभावी क़ानून बनाने के लिए दवाब बनाने हेतु एक सुप्रसिद्ध ८७ वर्षीय श्री अन्ना हजारे की ५ अप्रैल २०११ से आरम्भ होने वाली जंतर मंतर, नयी दिल्ली  पर 'आमरण भूख हड़ताल' के लिए समर्थन जुटाने की व्यवस्था की गयी. इस सन्दर्भ में मेरी पीड़ा.

मैंने बैठक में एक प्रश्न उठाया - एक सम्मानित ८७ वर्षीय व्यक्ति का जीवन दांव पर लगाने के स्थान पर उन्हें सुरक्षित रहने के लिए क्यों नहीं समझाया जा रहा है, और जो युवा व्यक्ति इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, वे स्वयं आमरण भूख हड़ताल क्यों नहीं कर रहे हैं?  मुझे तुरंत उत्तर दे दिया गया - अन्ना के जीवन को दांव पर लगाने से तुरंत परिणाम पाने की संभावना है जबकि दूसरों के जीवन दांव पर लगाने से परिणाम पाने में विलम्ब हो सकता है. यह संभव है - की एक अन्ना के जीवन के स्थान पर अनेक लोगों के जीवनों की आवश्यकता हो, अथवा अन्ना की भूख हड़ताल के प्रत्येक दिन के स्थान पर एनी किसी की अनेक दिनों की भूख हड़ताल की आवश्यकता हो. तथापि, मेरी मान्यता है कि वयोवृद्धों की युवाओं द्वारा सेवा की जानी चाहिए न कि युवाओं की स्वार्थ सिद्धि के लिए उनके जीवनों को दांव पर लगाया जाए. बैठक में आन्दोलन के तथाकथित नेताओं द्वारा मुझे चुप कर दिया गया किन्तु मेरी धारणा यही है कि एक वयोवृद्ध जीवन की रक्षा के लिए अनेक युवाओं के जीवन दांव पर लगाया जाना उचित है. अपनी इस धारण के अंतर्गत मैंने अन्ना के स्थान पर अथवा उनके साथ आमरण भूख हड़ताल करने की घोषणा कर दी.   

बहुधा कहा जाता है कि ब्रिटिश भारत में देश के संसाधनों के शोषण के लिए केवल एक 'ईस्ट इंडिया कंपनी' थी किन्तु स्वतंत्र भारत में हमारे जीवनों को अंधकारमय करने के लिए इस प्रकार की हजारों कंपनियां हैं. इससे मेरे मस्तिष्क में एक नवीन समतर्क उभरता है - ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपने जीवन-बलिदान द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए केवल एक गाँधी था और बिना कुछ बलिदान किये स्वतन्त्रता के फल को पाने के लिए लालायित भी केवल एक ही नेहरु था. किन्तु भृष्टाचार के विरुद्ध वर्तमान संघर्ष में जीवन-बलिदान कर भृष्टाचार से मुक्ति पाने हेतु गाँधी (अन्ना) तो एक ही रहा, किन्तु बिना कुछ बलिदान किये फल पाने के लालायित दर्ज़न भर नेहरु उपस्थित हैं. भारत का नेतृत्व इसी से प्रदूषित है - शहीद पडौस में तो हों किन्तु अपने घर में न हो.   

मैं इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़ा रहा हूँ और ३० जनवरी २०११ की रामलीला मैदान से जंतर मंतर मार्च में भी उपस्थित था. तब भी भारत के नेतृत्व संकट से मुझे पीड़ा हुई थी. उसमें नेताओं द्वारा जनसाधारण - स्त्री, पुरुष और बच्चों, से नारे लगाते हुए रामलीला मैदान से जंतर मंतर तक जाने के लिए कहा गया था किन्तु नेता स्वयं अन्य मार्गों से होते हुए अपनी कारों द्वारा जंतर मंतर पहुंचे थे. मुझे याद है ५० के दशक के अपने बचपन का समाजवादी आन्दोलन जिसे मैंने देखा ही नहीं ठाट अपने परिवार के साथ भाग लिया था और जेल गया था. तब सभी नेता अग्रणी पंक्तियों में जनसाधारण के साथ उनका वास्तविक नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ते थे. भारतीय राजनीती के वे स्वर्णिम दिन थे किन्तु अब अंधेरी रात है जब तथाकथित नेता खतरों से बचे रहने के लिए अपना मुंह छिपाए रहते हैं और अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए आम आदमी का जीवन खतरे में डाल रहे हैं.