रविवार, 27 फ़रवरी 2011

भारतीय नेतृत्व संकट

 २६ फरवरी २०११ को इंडिया अगेंस्ट करप्शन की एक बैठक में भाग लिया जिसमें भारत सरकार पर भृष्टाचार के विरुद्ध एक प्रभावी क़ानून बनाने के लिए दवाब बनाने हेतु एक सुप्रसिद्ध ८७ वर्षीय श्री अन्ना हजारे की ५ अप्रैल २०११ से आरम्भ होने वाली जंतर मंतर, नयी दिल्ली  पर 'आमरण भूख हड़ताल' के लिए समर्थन जुटाने की व्यवस्था की गयी. इस सन्दर्भ में मेरी पीड़ा.

मैंने बैठक में एक प्रश्न उठाया - एक सम्मानित ८७ वर्षीय व्यक्ति का जीवन दांव पर लगाने के स्थान पर उन्हें सुरक्षित रहने के लिए क्यों नहीं समझाया जा रहा है, और जो युवा व्यक्ति इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, वे स्वयं आमरण भूख हड़ताल क्यों नहीं कर रहे हैं?  मुझे तुरंत उत्तर दे दिया गया - अन्ना के जीवन को दांव पर लगाने से तुरंत परिणाम पाने की संभावना है जबकि दूसरों के जीवन दांव पर लगाने से परिणाम पाने में विलम्ब हो सकता है. यह संभव है - की एक अन्ना के जीवन के स्थान पर अनेक लोगों के जीवनों की आवश्यकता हो, अथवा अन्ना की भूख हड़ताल के प्रत्येक दिन के स्थान पर एनी किसी की अनेक दिनों की भूख हड़ताल की आवश्यकता हो. तथापि, मेरी मान्यता है कि वयोवृद्धों की युवाओं द्वारा सेवा की जानी चाहिए न कि युवाओं की स्वार्थ सिद्धि के लिए उनके जीवनों को दांव पर लगाया जाए. बैठक में आन्दोलन के तथाकथित नेताओं द्वारा मुझे चुप कर दिया गया किन्तु मेरी धारणा यही है कि एक वयोवृद्ध जीवन की रक्षा के लिए अनेक युवाओं के जीवन दांव पर लगाया जाना उचित है. अपनी इस धारण के अंतर्गत मैंने अन्ना के स्थान पर अथवा उनके साथ आमरण भूख हड़ताल करने की घोषणा कर दी.   

बहुधा कहा जाता है कि ब्रिटिश भारत में देश के संसाधनों के शोषण के लिए केवल एक 'ईस्ट इंडिया कंपनी' थी किन्तु स्वतंत्र भारत में हमारे जीवनों को अंधकारमय करने के लिए इस प्रकार की हजारों कंपनियां हैं. इससे मेरे मस्तिष्क में एक नवीन समतर्क उभरता है - ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपने जीवन-बलिदान द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए केवल एक गाँधी था और बिना कुछ बलिदान किये स्वतन्त्रता के फल को पाने के लिए लालायित भी केवल एक ही नेहरु था. किन्तु भृष्टाचार के विरुद्ध वर्तमान संघर्ष में जीवन-बलिदान कर भृष्टाचार से मुक्ति पाने हेतु गाँधी (अन्ना) तो एक ही रहा, किन्तु बिना कुछ बलिदान किये फल पाने के लालायित दर्ज़न भर नेहरु उपस्थित हैं. भारत का नेतृत्व इसी से प्रदूषित है - शहीद पडौस में तो हों किन्तु अपने घर में न हो.   

मैं इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़ा रहा हूँ और ३० जनवरी २०११ की रामलीला मैदान से जंतर मंतर मार्च में भी उपस्थित था. तब भी भारत के नेतृत्व संकट से मुझे पीड़ा हुई थी. उसमें नेताओं द्वारा जनसाधारण - स्त्री, पुरुष और बच्चों, से नारे लगाते हुए रामलीला मैदान से जंतर मंतर तक जाने के लिए कहा गया था किन्तु नेता स्वयं अन्य मार्गों से होते हुए अपनी कारों द्वारा जंतर मंतर पहुंचे थे. मुझे याद है ५० के दशक के अपने बचपन का समाजवादी आन्दोलन जिसे मैंने देखा ही नहीं ठाट अपने परिवार के साथ भाग लिया था और जेल गया था. तब सभी नेता अग्रणी पंक्तियों में जनसाधारण के साथ उनका वास्तविक नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ते थे. भारतीय राजनीती के वे स्वर्णिम दिन थे किन्तु अब अंधेरी रात है जब तथाकथित नेता खतरों से बचे रहने के लिए अपना मुंह छिपाए रहते हैं और अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए आम आदमी का जीवन खतरे में डाल रहे हैं.     

1 टिप्पणी:

  1. निश्चय ही आपकी बातें सोचने औए विचार करने योग्य हैं......लेकिन आप क्यों भूल जातें हैं की इन्ही लोगों के बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आपके साथ हर जन संघर्ष में आपके साथ खरा है........अच्छाई और बुराई साथ-साथ चलती है लेकिन संतुलन आवश्यक है ....बस हमसबको इस संतुलन के लिए प्रयास करना चाहिए....इस वक्त असंतुलन की भयावहता है और बुराई अच्छाई को लगभग पूरी तरह लील चूका है......

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