रविवार, 20 जून 2010

राजनैतिक लूट और बौद्धिक नैतिकता का संघर्ष

भारत की वर्तमान स्थिति ऐसी है जिसे राजनेताओं द्वारा जनता की लूट कहा जा सकता है, इसी लूट को भारत की वर्तमान 'राजनीति' कहा जा सकता है. ऐसी स्थिति में बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना हेतु इस राजनीति से बौद्धिक नैतिकता को कड़ा संघर्ष करना होगा. वस्तुतः यह संघर्ष छुट-पुट अवस्था में चारों ओर दिखाई भी देने लगा है, आवश्यकता बस इन संघर्षों के समन्वय की है, जिसमें अनेक कठिनाइयाँ हैं. इनके निराकरण के लिए निम्नांकित विचारणीय बिंदु हैं -

उद्येश्य और प्रक्रिया 
भारत को वस्तुतः दूसरे स्वतन्त्रता संग्राम की आवश्यकता है ताकि देश की व्यवस्थाओं को सुधार जा सके. इस उद्येश्य पर सभी सहमत हैं किन्तु इसके लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाये इस पर कुछ मतभेद हो सकते हैं. इस बारे में मेरा सुविचारित मत यह है कि भारत की वर्तमान राजनैतिक स्थिति इतनी दूषित हो चुकी है कि इसमें छुट-पुट परिवर्तनों से कोई अपेक्षित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए हमें आमूल-चूल परिवर्तनों के लिए संघर्ष करना होगा. तथापि मेरी यह जिद न होकर मात्र आग्रह है. इस पर गहन विचार विमर्श की आवश्यकता है. 

अपना संगठन
भारत में किसी प्रकार की पुनर्व्यवस्था लागू करने के लिए अथवा इस हेतु संघर्ष के लिए बौद्धिक वर्ग के एक समन्वित संगठन की आवश्यकता है, इस पर कोई मतभेद नहीं है. इसी पवित्र उद्येश्य हेतु अनेक बुद्धिवादियों ने संगठनों के निर्माण भी किये हुए हैं. किन्तु दुःख इस बात का है कि ऐसे अधिकाँश संगठन वर्तमान राजनैतिक दलों की भांति व्यक्तिगत जमींदारियों की तरह बनाए गए और संचालित किये जा रहे हैं, जिनमें अन्य व्यक्तियों को अपनत्व का बोध नहीं मिल पाता. होता यह है कि कुछ विचारक मिलते हैं और एक संगठन का नामकरण कर स्वयं के मध्य उसके पदों का वितरण कर लेते हैं. इसके बाद अन्य व्यक्तियों को अनुयायियों के रूप में भर्ती होने के लिए आमंत्रित किये जाते हैं. इस प्रक्रिया से संगठन को न तो जन-समर्थन प्राप्त हो पाता है और न ही उसका आगे विकास हो पाता है.

वस्तुतः होना यह चाहिए कि आरंभिक विचारक संगठन की रूपरेखा तो बनाएं किन्तु उसके पदों का वितरण न करें और मुक्त भाव से उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाएं, जिनकी संख्या पर्याप्त होने पर ही उनमें से जनतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा सीमित अवधि के लिए संगठन के पदाधिकारी चुनें. इस प्रकार के संगटन पर किसी व्यक्ति अथवा समूह का एकाधिकार नहीं होगा और सभी लोगों को उसमें रूचि बनी रहेगी.   

संविधान की पुनर्रचना

प्रायः प्रत्येक भारतीय बुद्धिवादी देश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति पर चिंतित है, और सभी परिवर्तन चाहते हैं. किन्तु यह परिवर्तन कैसे हो इस पर गहन मतभेद हैं. इस दृष्टि से बुद्धिवादियों को अनेक वर्गों में रखा जा सकता है. एक वर्ग ऐसा है जो वर्तमान संविधान को सही मानता है किन्तु इसके कार्यान्वयन में दोष देखता है. दूसरा वर्ग वह है जो संविधान को ही दोषी मानता है जिसके कारण ही उसका सही कार्यान्वयन नहीं हो सका है. इस के समर्थन में तर्क यह है कि जो अपेक्षित परिणाम न दे सके, उसमें दोष है अतः उसे बदला जाना चाहिए. संविधान के दोषपूर्ण होने का एक संकेत यह भी है कि इसके विभिन्न प्रावधानों में बार बार संशोधन करने पड़े हैं. ऐसे अनेक संशोधन भी राजनैतिक विकृति के परिणाम हैं जिनसे कुछ लाभ होने के स्थान पर हानि ही हो रही है. उदाहरण के लिए एक नौसिखिया प्रधान मंत्री ने मताधिकार की न्यूनतम आयु २१ वर्ष से घटाकर १८ वर्ष कर दी, जबकि सभी मानते हैं कि १८ वर्ष का बालक राष्ट्रीय दायित्व वहन करने योग्य नहीं होता. यहाँ तक कि उसे अपनी वैवाहिक दायित्व के लिए भी अयोग्य मानते हुए उसके विवाह की न्यूनतम आयु २१ वर्ष रखी गयी है. राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह हेतु व्यक्ति में वैचारिक परिपक्वता की अनिवार्यता होती है जो २५ वर्ष आयु से पूर्व अपेक्षित नहीं है. इसी प्रकार देश में प्रचलित आरक्षण व्यवस्था पर गहन मतभेद हैं और इससे देश को हानि ही हो रही है. इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत का वर्तमान संविधान में इस प्रकार की अनेक विसंगतियां हैं.
Original Intent: The Courts, the Constitution, & Religion 
संवैधानिक विसंगतियों का एक विशेष कारण यह है कि स्वतन्त्रता संग्राम के समय यह कभी विचार नहीं किया गया कि हम स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश की व्यवस्था कैसे करेंगे. इस कारण से स्वतन्त्रता प्राप्ति पर कुछ इधर-उधर से और अधिकांशतः गुलाम देशों के लिए प्रचलित ब्रिटिश संविधान की नक़ल कर डाली गयी जिसमें बार-बार राजनैतिक स्वार्थों के लिए संशोधन किये गए. अतः भारत की कुशल व्यवस्था के लिए एक नवीन संविधान की आवश्यकता है. इस नए संविधान के रूप रेखा के रूप में इस संलेख में बौद्धिक जनतंत्र हेतु सुझाये गए विविध प्रावधानों पर विचार किया जा सकता है.

बुधवार, 16 जून 2010

गुंडागर्दी और पुलिस की लापरवाही

अंततः विगत सप्ताह मेरे साथ वह हुआ जिसकी मुझे लम्बे समय से आशा थी. मेरे गाँव खंदोई, पुलिस थाना नर्सेना, जनपद बुलंदशहर में गुंडों का एक समूह है जो आरम्भ में तो काफी बड़ा था किन्तु अब उसके अनेक सदस्यों की हत्याओं अथवा गाँव छोड़ देने से कुछ छोटा होगया है. यह समूह चोरी, डकैती, बलात्कार, राहजनी, आदि के साथ-साथ गाँव में अपना वर्चस्व भी बनाये रखता है जिसके लिए गाँव के प्रधान पद पर भी अधिकार करने की प्रत्येक बार कोशिश करता है और इसमें दो बार सफल भी हुआ है. इस समूह को आशा थी कि सितम्बर-अक्टूबर, २०१० में होने वाले पंचायत चुनावों में भी उनका प्रत्याशी विजयी होगा और वे गाँव पर एक-क्षत्र शासन करते रहेंगे.

गाँव में मेरे सक्रिय होने और अनेक क्रांतिकारी सुधार किये जाने के कारण गाँव के अधिकाँश लोगों ने मुझसे प्रधान बनकर गाँव के सुधार के साथ-साथ गुंडागर्दी की समाप्ति का आग्रह किया. जनमत के समक्ष मुझे यह स्वीकार करना पडा किन्तु मेरी प्रथम शर्त यह है कि मैं किसी भी व्यक्ति को उसका मत पाने के लिए शराब अथवा कोई अन्य लालच नहीं दूंगा. लोगों ने यह भी स्वीकार कर लिया और वे स्वयं ही पारस्परिक चर्चाओं के माध्यम से मेरा प्रचार करने लगे. अनुमानतः गाँव के ७० प्रतिशत मतदाता मेरे पक्ष में हैं. मेरी लोकप्रियता से गुंडों में खलबली मची हुई है और वे किसी न किसी तरह मुझे गाँव से भगाने के प्रयासों में लगे हुए हैं.
 
गाँव के अधिकाँश लोग विगत ४० वर्षों से बिजली की बेधड़क चोरी कर रहे थे, जिससे बिजली उपकरण जर्जर अवस्था में थे और वोल्टेज सामान्य २३० के स्थान पर ५०-१०० रहता था. मैं लगभग ५ वर्ष पूर्व गाँव में अपने कंप्यूटर के साथ आया था और उपलब्ध वोल्टेज पर कंप्यूटर चलाया नहीं जा सकता था. इसलिए मैंने विद्युत् अधिकारियों से वोल्टेज में सुधार के साथ मुझे नियमानुसार विद्युत् कनेक्शन देने का आग्रह किया. विगत ५ वर्षों के मेरे सतत संघर्ष के बाद अब गाँव विद्युत् की स्थिति ठीक कहने योग्य है. इसी संघर्ष में अनेक विद्युत् चोरियां पकड़ी गयीं जिनके लिए गाँव वाले मुझे दोषी मानते हैं. इस पर भी मेरे आग्रहों पर १०० परिवारों ने विद्युत् के वैध कनक्शन करा लिए हैं. गुंडों को मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार के लिए यह एक बड़ा कारण स्वतः प्राप्त हो गया है.

गुंडों ने उक्त सुधरी विद्युत् व्यवस्था को विकृत करने का प्रयास किया जिसे मैंने कठोरता से रोक दिया. इस पर वे मुझसे और भी अधिक क्रुद्ध हो गए हैं. पिछले सप्ताह मैं गाँव में एक स्थान पर बैठ था कि शराब में धुत एक गुंडे ने आकर मुझे गालियाँ देना आरम्भ कर दिया जिसका मैंने अपनी स्वाभाविक सौम्यता से प्रतिकार किया. इस पर उसने मुझे पीट-पीट कर गाँव से भगा देने की धमकी भी दी. मेरे कुछ समर्थकों के अतिरिक्त शेष गाँव चुप है, किसी का साहस नहीं है जो मेरे साथ आकर खडा हो जाए. कोई भी व्यक्ति गुंडों द्वारा अपमानित नहीं होना चाहता.

 यह समूह गाँव में की गयी अनेक हत्याओं में भी लिप्त रहा है और नित्यप्रति अवैध गतिविधियाँ करता रहता है. स्वयं के बचाव के लिए यह समूह स्थानीय पुलिस से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखता है जबकि जनसामान्य पुलिस से दूरी बनाये रखता है. पुलिस कर्मी बहुधा इस समूह के साथ शराब आदि की दावतों में सम्मिलित होते रहते हैं. यही समूह गाँव के लोगों को झूठे आरोपों में फंसाकर पुलिस को आय भी कराता रहता है. इस कारण से पुलिस इस समूह के विरुद्ध किसी शिकायत पर ध्यान नहीं देती.

गाँव में फ़ैली गुंडागर्दी और मेरे विरुद्ध किये गए उक्त दुर्व्यवहार की शिकायत मैंने नर्सेना पुलिस थाने में १२ जून को की थी, साथ ही गाँव के ७ भद्र लोगों का प्रतिनिधि भी पुलिस थाने के प्रभारी से मिला था. किन्तु आज तक पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी है. ज्ञात हुआ है कि एक विधायक ने पुलिस को कार्यवाही न करने का निर्देश दिया है जिसका संरक्षण गुंडों को प्राप्त है. मेरे पारिवारिक इतिहास के कारण अनेक राजनेताओं से मेरे भी सम्बन्ध हैं किन्तु मैं उनका उपयोग अपने निजी स्वार्थों में नहीं करना चाहता.

क्या कोई पाठक मुझे सुझायेंगे कि मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करते हुए गाँव की सेवा कैसे करूं. मैं किसी भी मूल्य पर गाँव छोड़ने को तैयार नहीं हूँ. मुझे कोई भय भी नहीं है किन्तु मैं क़ानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहता किन्तु गुंडागर्दी की समाप्ति के लिए कृतसंकल्प हूँ.

रविवार, 13 जून 2010

दैनन्दिनी, संलेख और साहित्य

अभी-अभी चिट्टाचर्चा पर एक आलेख देखा 'कौन है सर्वश्रेष्ठ ब्लोगेर?' यह देखकर आश्चर्य हुआ कि किसी एक ने कह डाला कि ब्लॉग (संलेख) तो लेखक की डायरी (दैनन्दिनी) होता है, बस अनेक टिप्पणीकारों ने भी इसे ही स्वीकार कर लिया, मैं समझता हूँ, बिना सोचे-विचारे. क्योंकि भारत में सोचने-विचारने की परम्परा नहीं है और यदि कभी थी तो लोगों द्वारा सबको खुश करने के प्रयासों में अब दम तोड़ चुकी है. इसी से बाध्य हो गया इस बारे में कुछ लिखने के लिए.

दैनन्दिनी मूलतः व्यक्तिगत अन्तरंग भावों को केवल व्यक्तिगत उपयोग हेतु संजो कर रखने का एक माध्यम होती है. इसे सार्वजनिक करना अनेक प्रकार से घातक सिद्ध हो सकता है - विशेषकर अंतर-मानवीय संबंधों के लिए. तथापि कुछ दैनान्दिनियों का सार्वजनिक प्रकाशन भी किया जाता रहा है - मनोवैज्ञानिक शोधों के लिए, लेखक की मृत्यु के पश्चात उस पर शोध के लिए, अथवा सामाजिक उत्प्रेरण के लिए.

चूंकि दैनन्दिनी का उपयोग अति संकीर्ण होता है, इसलिए उसपर तुच्छ संसाधन का ही उपयोग किया जाना चाहिए, यथा - लेखन पृष्ठों का. इसके विपरीत अंतर्संजोग (इन्टरनेट) एक सशक्त माध्यम है जिसका उपयोग भी सार्वजनिक रूप से सार्थक उपयोगों में ही किया जाना चाहिए. यह संसाधन चूंकि निःशुल्क उपलब्ध है इसलिए भी इसका दुरूपयोग तो नहीं ही होना चाहिए.  यहाँ एक प्राकृत सिद्धांत को दोहरा दूं, 'जो व्यक्ति किसी संसाधन का दुरूपयोग करते हैं, प्रकृति उनसे वह संसाधन छीन लेती है.'

संलेख प्रायः सार्वजनिक पठन हेतु होते हैं तथापि लेखक उन्हें निजी उपयोग के लिए भी संरक्षित रख सकता है किन्तु यह उनका संकीर्ण उपयोग ही कहा जायेगा. इस प्रकार संलेखन कदापि दैनन्दिनी की रूप में उपयोग हेतु नहीं है. यह इस संसाधन का सरासर दुरूपयोग है. वस्तुतः संलेख आधुनिक साहित्य हैं जिसे प्रायः 'समाज का दर्पण' कहा जाता रहा है. इस प्रकार संलेख समाज के दर्पण होते हैं जिनका उपयोग समाज को नवीन दिशा देने हेतु भी किया जा सकता है.

लेखन और पठन का भाषा विकास से गहन सम्बन्ध है, दूसरे शब्दों में, लेखन और पठन भाषा विकास के माध्यम होते हैं. इसी कारण समस्त भाषाएँ साहित्य विकास से ही विकसित होती रही हैं. संलेख भी साहित्य की तरह ही लेखन के उत्पाद होते हैं और इनका उपयोग पठन के लिया किया जाता है, इसलिए इन्हें भाषा विकास के आधुनिक साधन कहा जा सकता है.  मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि संलेखन का एक उद्येश्य सार्वजनिक स्तर पर भाषा विकास भी होना चाहिए.

प्रत्येक भाषा जनसाधारण के उपयोग में आती हुई नए शब्दों के उद्भवन द्वारा विकसित भी होती है और उसमें शब्दार्थ दुरुपयोगों के कारण विकृतियाँ भी आती हैं. अतः साहित्यकारों की तरह  संलेखकारों का भी दायित्व है कि वे जनसाधारण द्वारा नव-उद्भवित  शब्दों का अपने लेखन में उपयोग करते हुए भाषा का विकास करें, और साथ ही शब्दार्थों के दुरूपयोग से उपजी भाषाई विकृतियों का निराकरण भी करते रहें.

प्रत्येक समाज कालांतर के साथ पथ-भृष्ट होता रहा है अतः समाज को सतत मार्ग-दर्शन की आवश्यकता होती है. जिन समाजों को स्वच्छ मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हो पाता है वे गहन गर्त में पतित हुए बिना नहीं रह पाते. भारत की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है जहां जन-साधारण को पथ-भृष्ट करने वाले अनेक तथा उसे सुमार्ग चलने को प्रेरित करने वाले बहुत अल्प रहे हैं. परिणाम हम सब के समक्ष है - पथ-भृष्ट समाज जिसमें सर्वोत्कृष्ट मानवीय संपदा - बुद्धि द्वारा चिंतन के लिए भी कोई स्थान नहीं रह गया है. संलेख इस दिशा में कारगर सिद्ध हो सकते हैं किन्तु यह सन संलेखकों पर निर्भर करता है.
The Huffington Post Complete Guide to Blogging

यदि हम अंग्रेज़ी और हिंदी भाषाओं के संलेखों की तुलना करते हैं तो पाते है कि जहां अंग्रेज़ी के संलेखों में गंभीरता होती है, वहीं हिंदी के अधिकाँश संलेख फुल-झड़ियाँ छोड़ रहे दिखाई पड़ते हैं. इसी लिए मैंने आरम्भ में कहा कि भारत में सोचने-विचारने की परम्परा नहीं है

बौद्धिक जनतंत्र में तुरंत क्या किया जायेगा


बौद्धिक जनतंत्र संपूर्ण रूप में एक नवीन व्यवस्था है जिसमें शोषण के लिए कोई स्थान नहीं है. अतः अनेक शक्तिशाली लोग इसका विरोध भी करेंगे जिसके कारण संपूर्ण व्यवस्था को कारगर बनाने में कुछ समय लगेगा. दूसरे इसके लिए संविधान की नए सिरे से रचना की जायेगी जिसके लिए भी समय की अपेक्षा है. तथापि सुधरी व्यवस्था के अवसर प्राप्त होते ही जो कदम तुरंत उठाये जायेंगे वे निम्नांकित हैं -
  •  देश की न्याय व्यवस्था के प्रत्येक कर्मी को उस समय तक ८ घंटे प्रतिदिन एवं ७ दिन प्रति सप्ताह कार्य करना होगा जब तक कि ऐसी स्थिति न आ जाये कि वाद की स्थापना के तीन माह के अन्दर ही उसका निस्तारण न होने लगे. प्रत्येक न्यायालय को प्रतिदिन न्यूनतम एक दावे पर अपना निर्णय देना होगा.  
  • केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो को सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कर वर्तमान राजनेताओं के कार्यकलापों के अन्वेषण कार्य पर लगाया जाएगा जिनके दोषी पाए जाने पर उनकी सभी सम्पदाएँ राज्य संपदा घोषित कर दी जायेंगी.
  • राजकीय पद के दुरूपयोग को राष्ट्रद्रोह घोषित किया जायेगा जिसके लिए त्वरित न्याय व्यवस्था द्वारा मृत्यु दंड दिए जाने का प्रावधान किया जाएगा जिससे भृष्टाचार पर तुरंत रोक लग सके.
  • देश में अनेक राजकीय श्रम केंद्र खोले जायेंगे जहाँ उत्पादन कार्य होंगे. ये केंद्र कारागारों का स्थान लेंगे. वर्तमान कारागारों में सभी बंदियों पर एक आयोग द्वारा विचार किया जाएगा, जिनमें से निर्दोषों को मुक्त करते हुए शेष को श्रम केन्द्रों पर अवैतनिक श्रम हेतु नियुक्त कर दिया जाएगा.
  •  देश में सभी प्रकार नशीले द्रव्यों के उत्पादन एवं वितरण पर तुरंत रोक लगा दी जायेगी जिसके उल्लंघन पर मृत्युदंड का प्रावधान होगा.
  • सभी शहरी विकास कार्यों पर तुरंत रोक लगाते हुए उनकी केवल देखरेख की जायेगी. इसके स्थान पर ग्रामीण विकास पर बल दिया जाएगा और वहां सभी आधुनिक सुविधाएँ विकसित की जायेंगी. 
  • कृषि उत्पादों के मूल्य उनकी सकल लागत के अनुसार निर्धारित कर कृषि क्षेत्र को स्वयं-समर्थ लाभकर व्यवसाय बनाया जायेगा जिससे कि भारतीय अर्थ व्यवस्था की यह मेरु सुदृढ़ हो. इससे खाद्यान्नों के मूल्यों में वृद्धि होगी, जिसको ध्यान में रखते हुए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित की जायेगी.
  • विकलांगों और वृद्धों के अतिरिक्त शेष जनसँख्या के लिए चलाई जा रही सभी समाज कल्याण योजनायें बंद कर दी जायेंगी और इससे बचे धन के उपयोग से ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य प्रसाधन और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया जायेगा ताकि छोटे कृषकों को दूसरी आय के साधन प्राप्त हों और उन्हें अपनी कृषि भूमि विक्रय की विवशता न हो और भूमिहीनों को घर बैठे ही रोजगार उपलब्ध हों.
  • ६५ वर्ष से अधिक आयु के सभी वृद्धों को सम्मानजनक जीवनयापन हेतु पेंशन दी जायेगी, तथा राजकीय सेवा निवृत कर्मियों की सभी पेंशन बंद कर दी जायेंगी. साथ ही सेना और पुलिस के अतिरिक्त राजकीय सेवा से निवृत्ति की आयु ६५ वर्ष कर दी जायेगी.  
  • पुलिस और सेना के प्रत्येक कर्मी की कठोर कर्मों हेतु शारीरिक शौष्ठव का प्रति वर्ष परीक्षण अनिवार्य होगा जिसमें अयोग्य होने पर उन्हें सेवा निवृत कर दिया जायेगा. 
  • प्रांतीय विधान सभा सदस्यों के वेतन ५,००० रुपये प्रतिमाह, प्रांतीय मंत्रियों, राज्यपालों एवं संसद सदस्यों के वेतन ६,००० रुपये प्रतिमाह, केन्द्रीय मंत्रियों के वेतन ७,००० रुपये प्रतिमाह, तथा राष्ट्राध्यक्ष का वेतन ८,००० रुपये प्रतिमाह पर ५ वर्ष के लिए सीमित कर दिए जायेंगे. इसके अतिरिक्त इनके राजकीय कर्तव्यों पर वास्तविक व्ययों का भुगतान किया जाएगा अथवा निःशुल्क सुविधाएं दी जायेंगी.
  • राज्य कर्मियों के न्यूनतम एवं अधिकतम सकल वेतन ७,००० से १०,००० के मध्य कर दिए जायेंगे. इसके अतिरिक्त उन्हें कोई भत्ते देय नहीं होंगे. राज्य कर्मियों के लिए सभी आवासीय कॉलोनियां नीलाम कर दी जायेंगी और उन्हें निजी व्यवस्थाओं द्वारा जनसाधारण के मध्य रहना होगा. साथ ही कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के सभी पद समाप्त होंगे.   
  • राजनैतिक दलों को प्राप्त मान्यताएं और अन्य सुविधाएं समाप्त कर दी जायेंगी, तथापि वे स्वयं के स्तर पर संगठित रह सकते हैं. 
  •  देश में सभी प्रकार की आरक्षण व्यवस्थाएं समाप्त कर दी जायेंगी.
  • निजी क्षेत्र की सभी शिक्षण संस्थाएं बंद कर दी जायेंगी तथा राज्य संचालित सभी संस्थानों में सभी को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जायेगी. आवश्यकता होने पर नए संस्थान खोले जायेंगे. 
  • सेना देश की रक्षा के अतिरिक्त सार्वजनिक संपदाओं, जैसे वन, भूमि, जलस्रोत आदि के संरक्षण का दायित्व सौंपा जाएगा जिससे उस पर किये जा रहे भारी व्यय का सदुपयोग हो सके. इसके अंतर्गत सार्वजनिक संपदाओं पर व्यक्तिगत अधिकार के लिए सैन्य न्यायालयों में कार्यवाही की जा सकेगी. 
  • सभी धर्म, सार्वजनिक धार्मिक अनुष्ठानों एवं संस्थानों पर पूर्ण रोक लगा दी जायेगी और धर्म स्थलों को शिक्षा संस्थानों में परिवर्तित कर दिया जायेगा. सार्वजनिक स्तर पर प्रत्येक मनुष्य को केवल मनुष्य बन कर रहना होगा.        
हम जानते हैं कि इनमें से अनेक प्रावधानों का घोर विरोध होगा किन्तु यह सब राष्ट्र हित में होने के कारण बौद्धिक जन समुदाय पर जन साधारण को सुशिक्षित करने का भारी दायित्व आ पड़ेगा. आवस्यकता होने पर सेना की सहायता ली जायेगी. 

    गुरुवार, 10 जून 2010

    अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा का आडम्बर

    भारत में जब किसी परिवार को भर पेट भोजन मिलने लगता है तब वह अपने बच्चों को अच्छे शिक्षा प्रदान करने की इच्छा रखने लगता है. ऐसे लोगों को ललचाने के लिए देश भर में अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों की भरमार है, जिनके विविध स्तर और शिक्षा प्रदायन के मूल्य हैं, किन्तु ये निश्चित रूप में देसी भाषा माध्यम शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों की तुलना में १०० से १००० गुणित तक महंगे हैं. ऐसे बहुत से विद्यालयों के महलों जैसे भवन हैं जिनसे वे धनी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. इन्हें पब्लिक स्कूल कहा जाता है जबकि देश की पब्लिक से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता.

    गाँव में रहकर मैं कुछ ऐसे बच्चों का मार्गदर्शन भी करता हूँ जिनके माता-पिता उनकी शिक्षा के प्रति गंभीर प्रतीत होते हैं. मेरे संपर्क में आने वाले इस प्रकार के बच्चों में अधिकाँश बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों में शिक्षा पा रहे होते हैं. इससे मैं यह निष्कर्ष निकालता हूँ कि शिक्षा के प्रति गंभीर सभी माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों में शिक्षा प्रदान कराना चाहते हैं. इनमें से भी अधिकाँश वे होते हैं जो अभी या कभी राजकीय वेतनभोगी रहे हैं, क्योंकि देश का यही मध्यम वर्ग अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा का आर्थिक भार सहन करने में समर्थ है.

    इस प्रकार के अनुभवों से कुछ शिक्षाप्रद तथ्य मेरे हाथ लगे हैं -
    • शिक्षा में माता-पिता की गंभीरता केवल आर्थिक भार सहन करने की क्षमता होती है, ना कि बच्चों को मार्ग दर्शन देने की क्षमता. 
    • माता-पिता की गंभीरता यह अर्थ कदापि नहीं है कि बच्चे भी अपनी शिक्षा में गंभीर हों. अतः माता-पिता पर आर्थिक भार बच्चों की अच्छी शिक्षा में निश्चित रूप से परिवर्तित नहीं होता. 
    • अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा के अत्यधिक महंगी होने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि विद्यालय बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करने में रूचि रखते हैं अथवा वे इसमें समर्थ होते हैं. किन्तु निश्चित रूप से इनमें शिक्षा प्रदान करने का आडम्बर उच्च स्तर का होता है. 
    • अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों में अंग्रेज़ी के पाठ्यक्रम ऐसे होते हैं जिन्हें ९० प्रतिशत बच्चे समझ ही नहीं सकते. ऐसे अनेक विद्यालयों में अंग्रेज़ी के अध्यापक भी पाठ्यक्रम को समझने में असमर्थ होते हैं. इन कारणों से बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ने की मात्र औपचारिकता पूरी की जाती है जिसके लिए उनकी पुस्तकों में केवल चिन्हित अंशों को रटाने की परम्परा है. इस कारण से इन विद्यालयों के ९० प्रतिशत बच्चों का अंग्रेज़ी भाषा ज्ञान लगभग शून्यस्थ ही रहता है जिसके कारण वे प्रायः विद्यालय अथवा शिक्षा का परित्याग करते रहते हैं. 
    • ऐसे विद्यालयों में अन्य विषयों की शिक्षा भी अंग्रेज़ी माध्यम से होती है. अतः ९० प्रतिशत बच्चे इन विषयों के प्रश्नों को भी समजने में असमर्थ रहते हैं इसलिए समुचित उत्तर भी नहीं दे पाते. इसके कारण भी बच्चे प्रायः विद्यालय अथवा शिक्षा का परित्याग करते रहते हैं.         
    कुछ उदाहरण यहाँ प्रासंगिक हैं. मेरे वर्त्तमान संपर्क में कक्षा ८ के एक बच्चे की अंग्रेज़ी पुस्तक का प्रथम पाठ शेक्सपिअर की एक गूढ़ दार्शनिक कविता है. विद्यालय जनपद में अति प्रतिष्ठित है जिसकी शिक्षा शुल्क ही ६०० रुपये प्रतिमाह है तथा होस्टल आदि का सकल व्यय लगभग ३००० रुपये प्रति माह है. विगत अप्रैल माह में इस पुस्तक के ५ पाठों को पढ़ा दिया गया मान लिया गया है जिनमें से बच्चे को ग्रीष्मावकाश में करने हेतु होम वर्क दे दिया गया है, जबकि बच्चे की समझ में कुछ भी नहीं आया है.
    Education in the Emerging India 
    एक अन्य बच्ची कक्षा ९ की है जो आरम्भ से ही अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय में पढ़ती रही है. उसे कभी भी अंग्रेज़ी-हिंदी अनुवाद तथा अंग्रेज़ी व्याकरण नहीं पढाई गयी इसलिए उसका अंग्रेज़ी ज्ञान शून्यस्थ है जिसके कारण वह गणित के प्रश्नों को भी नहीं समझ सकती. तथापि कक्षा ८ की परीक्षा में उसने ७० प्रतिशत अंक प्राप्त किये थे. माता-पिता को बच्ची  के अच्छे अंकों पर बहुत गर्व है. मेरे समक्ष वह अंग्रेज़ी की पुस्तक खोलने से भी कतराती है. इस भय के कारण उसका स्वास्थ भी खराब है.  

    स्वतन्त्रता और अनुशासन

    स्वतन्त्रता और अनुशासन का गहनतम सम्बन्ध यह है कि केवल अनुशासित व्यक्ति ही स्वतन्त्रता पाने का अधिकारी होता है. स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कार्य करने या न करने के लिए किसी के बंधन में ना रहे. व्यक्तिगत स्तर पर इस प्रकार की स्वतन्त्रता में कोई दोष प्रतीत नहीं होता, किन्तु यह स्वतन्त्रता सामाजिक स्तर पर मानवता के लिए निश्चित रूप से घातक है. मानव जाति के समाजीकरण ने उसे अनेक लाभ प्रदान किये जिनके कारण ही मानव सभ्यता विकसित हुई है और मानव जाति  पृथ्वी की सभी जीव-जातियों से श्रेष्ठ बन पाई है. इसके साथ ही समाजीकरण का प्रथम प्रतिबन्ध यह है कि प्रत्येक मनुष्य सामाजिक अनुशासन का अनुपालन करे. इस अनुशासन से उसकी स्वतन्त्रता सीमित होती है.

    इस स्वतन्त्रता परिसीमन अथवा सामाजिक अनुशासन का प्रयोजन यह है कि कोई भी मनुष्य किसी अन्य की अनुशासित स्वतन्त्रता को आघात न पहुंचाए और सभी मनुष्य यथासंभव परस्पर सहयोग करें. प्रत्येक व्यक्ति के दो स्वरुप होते हैं - भौतिक शरीर और उसका मानस. चूंकि आघात इन दोनों स्वरूपों को पहुंचाए जा सकते हैं, इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उस पर अनुशासन भी उसके इन दोनों स्वरूपों पर वांछित होते हैं.

    प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता चाहता है किन्तु व्यक्तिगत स्वार्थों वश उसका सदुपयोग नहीं कर पाता है, इसी कारण स्वतन्त्रता के साथ-साथ उस पर सामाजिक अंकुश लगने की भी आवश्यकता होती है. जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित नहीं होते, वे पूर्ण स्वतन्त्रता को उद्दंडता में परिवर्तित कर सामाजिक संरचना को क्षति पहुंचाते हैं. इसलिए उनकी स्वतन्त्रता को सीमित करना समाज के हित में अनिवार्य होता है.  इस से यह सिद्ध होता है कि जो व्यक्ति किसी प्राप्त सुविधा का दुरूपयोग करते हैं, उनसे वह सुविधा छीन ली जाती है - यह एक प्राकृत सिद्धांत है.

    स्वतन्त्रता को सीमित और अनुशासित करने हेतु ही राष्ट्र स्तर पर वैधानिक व्यवस्थाएं बनायी जाती हैं जिनके क्रियान्वयन के लिए पुलिस और न्याय व्यवस्था की आवश्यकता होती है जो स्वयं मानवीय अर्थ-व्यवस्था के ऊपर अनावश्यक भार होती हैं. यह भार समाज के अवयव व्यक्तियों की अनुशासनहीनता के समानुपाती होता है. विडम्बना यह है कि समाज में कुछ व्यक्तियों की उद्दंडता के कारण पूरे समाज को यह अनावश्यक भार वहन करना पड़ता है.
    The Practicing Mind: Bringing Discipline and Focus Into Your Life

    जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित होते हैं उन पर किसी अंकुश की आवश्यकता नहीं होती, और वे पूर्ण स्वतन्त्रता की अनुभूति कर पाते हैं. अतः मानव समाज में व्यक्तियों के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करना संभव नहीं है, किन्तु स्वयं अनुशासित होकर इसकी मात्र अनुभूति की जा सकती है.