इस स्वतन्त्रता परिसीमन अथवा सामाजिक अनुशासन का प्रयोजन यह है कि कोई भी मनुष्य किसी अन्य की अनुशासित स्वतन्त्रता को आघात न पहुंचाए और सभी मनुष्य यथासंभव परस्पर सहयोग करें. प्रत्येक व्यक्ति के दो स्वरुप होते हैं - भौतिक शरीर और उसका मानस. चूंकि आघात इन दोनों स्वरूपों को पहुंचाए जा सकते हैं, इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उस पर अनुशासन भी उसके इन दोनों स्वरूपों पर वांछित होते हैं.
प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता चाहता है किन्तु व्यक्तिगत स्वार्थों वश उसका सदुपयोग नहीं कर पाता है, इसी कारण स्वतन्त्रता के साथ-साथ उस पर सामाजिक अंकुश लगने की भी आवश्यकता होती है. जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित नहीं होते, वे पूर्ण स्वतन्त्रता को उद्दंडता में परिवर्तित कर सामाजिक संरचना को क्षति पहुंचाते हैं. इसलिए उनकी स्वतन्त्रता को सीमित करना समाज के हित में अनिवार्य होता है. इस से यह सिद्ध होता है कि जो व्यक्ति किसी प्राप्त सुविधा का दुरूपयोग करते हैं, उनसे वह सुविधा छीन ली जाती है - यह एक प्राकृत सिद्धांत है.
स्वतन्त्रता को सीमित और अनुशासित करने हेतु ही राष्ट्र स्तर पर वैधानिक व्यवस्थाएं बनायी जाती हैं जिनके क्रियान्वयन के लिए पुलिस और न्याय व्यवस्था की आवश्यकता होती है जो स्वयं मानवीय अर्थ-व्यवस्था के ऊपर अनावश्यक भार होती हैं. यह भार समाज के अवयव व्यक्तियों की अनुशासनहीनता के समानुपाती होता है. विडम्बना यह है कि समाज में कुछ व्यक्तियों की उद्दंडता के कारण पूरे समाज को यह अनावश्यक भार वहन करना पड़ता है.
जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित होते हैं उन पर किसी अंकुश की आवश्यकता नहीं होती, और वे पूर्ण स्वतन्त्रता की अनुभूति कर पाते हैं. अतः मानव समाज में व्यक्तियों के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करना संभव नहीं है, किन्तु स्वयं अनुशासित होकर इसकी मात्र अनुभूति की जा सकती है.