गुरुवार, 10 जून 2010

स्वतन्त्रता और अनुशासन

स्वतन्त्रता और अनुशासन का गहनतम सम्बन्ध यह है कि केवल अनुशासित व्यक्ति ही स्वतन्त्रता पाने का अधिकारी होता है. स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कार्य करने या न करने के लिए किसी के बंधन में ना रहे. व्यक्तिगत स्तर पर इस प्रकार की स्वतन्त्रता में कोई दोष प्रतीत नहीं होता, किन्तु यह स्वतन्त्रता सामाजिक स्तर पर मानवता के लिए निश्चित रूप से घातक है. मानव जाति के समाजीकरण ने उसे अनेक लाभ प्रदान किये जिनके कारण ही मानव सभ्यता विकसित हुई है और मानव जाति  पृथ्वी की सभी जीव-जातियों से श्रेष्ठ बन पाई है. इसके साथ ही समाजीकरण का प्रथम प्रतिबन्ध यह है कि प्रत्येक मनुष्य सामाजिक अनुशासन का अनुपालन करे. इस अनुशासन से उसकी स्वतन्त्रता सीमित होती है.

इस स्वतन्त्रता परिसीमन अथवा सामाजिक अनुशासन का प्रयोजन यह है कि कोई भी मनुष्य किसी अन्य की अनुशासित स्वतन्त्रता को आघात न पहुंचाए और सभी मनुष्य यथासंभव परस्पर सहयोग करें. प्रत्येक व्यक्ति के दो स्वरुप होते हैं - भौतिक शरीर और उसका मानस. चूंकि आघात इन दोनों स्वरूपों को पहुंचाए जा सकते हैं, इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उस पर अनुशासन भी उसके इन दोनों स्वरूपों पर वांछित होते हैं.

प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता चाहता है किन्तु व्यक्तिगत स्वार्थों वश उसका सदुपयोग नहीं कर पाता है, इसी कारण स्वतन्त्रता के साथ-साथ उस पर सामाजिक अंकुश लगने की भी आवश्यकता होती है. जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित नहीं होते, वे पूर्ण स्वतन्त्रता को उद्दंडता में परिवर्तित कर सामाजिक संरचना को क्षति पहुंचाते हैं. इसलिए उनकी स्वतन्त्रता को सीमित करना समाज के हित में अनिवार्य होता है.  इस से यह सिद्ध होता है कि जो व्यक्ति किसी प्राप्त सुविधा का दुरूपयोग करते हैं, उनसे वह सुविधा छीन ली जाती है - यह एक प्राकृत सिद्धांत है.

स्वतन्त्रता को सीमित और अनुशासित करने हेतु ही राष्ट्र स्तर पर वैधानिक व्यवस्थाएं बनायी जाती हैं जिनके क्रियान्वयन के लिए पुलिस और न्याय व्यवस्था की आवश्यकता होती है जो स्वयं मानवीय अर्थ-व्यवस्था के ऊपर अनावश्यक भार होती हैं. यह भार समाज के अवयव व्यक्तियों की अनुशासनहीनता के समानुपाती होता है. विडम्बना यह है कि समाज में कुछ व्यक्तियों की उद्दंडता के कारण पूरे समाज को यह अनावश्यक भार वहन करना पड़ता है.
The Practicing Mind: Bringing Discipline and Focus Into Your Life

जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित होते हैं उन पर किसी अंकुश की आवश्यकता नहीं होती, और वे पूर्ण स्वतन्त्रता की अनुभूति कर पाते हैं. अतः मानव समाज में व्यक्तियों के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करना संभव नहीं है, किन्तु स्वयं अनुशासित होकर इसकी मात्र अनुभूति की जा सकती है. 

2 टिप्‍पणियां:

  1. बंसल साहब नमस्कार ,
    विडम्बना यह है कि समाज में कुछ व्यक्तियों की उद्दंडता के कारण पूरे समाज को यह अनावश्यक भार वहन करना पड़ता है.

    मेरे समझ से अगर इस वाक्य को ऐसे लिखा जाता की भ्रष्ट,चरित्रहीन और अयोग्य व्यक्तियों के वैधानिक व्यवस्था में लगातार बढ़ोतरी से पूरे समाज को अब यह व्यवस्था एक अनावश्यक भार सा लगने लगा है | क्या यह ठीक नहीं रहता ? क्योकि किसी व्यवस्था को ही भार कहना ठीक नहीं है ,वैसे आप हमसे ज्यादा अनुभवी है और ज्यादा ज्ञानी हैं, हम आपका हार्दिक आदर भी करते है ,लेकिन हमने अपना विचार रखा है !

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  2. @honesty project democracy
    आपकी बात भी सही है. और यदि दोनों का सामंजस्य किया जाए तो कहना होगा, "उद्दंड लोगों के व्यवस्थापक बनने से समाज को इनका और व्यवस्था का अनावश्यक भार वहन करना पड़ रहा है".

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