सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

क्रोध, असहमति एवं तार्किकता

मानव समाज क्रोध की भावना को व्यक्तित्व का एक दुर्गुण मानता है इसीलिये क्रोधी व्यक्ति का प्रायः तिरस्कार किया जाता है. इस बारे में कहा जाता है कि 'बुद्धिमान क्रोध करते हैं किन्तु मूर्ख इसका प्रदर्शन करते हैं'. क्रोध का स्रोत सदैव सम्बंधित व्यक्तियों के मध्य असहमति ही होती है जिसे अभिव्यक्त करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है, जो सभी में नहीं होता. इससे सिद्ध होता है कि क्रोधी व्यक्ति में 'बौद्धिक साहस' अथवा 'साहसिक बुद्धि' होती है. इसके विपरीत असहमति में भी सहमत हो जाना सरल होता है, इसमें न क्रोध की आवश्यकता होती है और न ही किसी संग्राम की. इस प्रकार की सहमति के लिए न तो बुद्धि की आवश्यकता होती है और न ही किसी साहस की.



जब कोई व्यक्ति क्रोध करता है तो वह जानता होता है कि उसे दुरूह स्थिति का सामना करना होगा और वह अपनी तार्किक बुद्धि और वाक् शास्त्रों के उपयोग हेतु तत्पर होता है. ऐसा तभी संभव है जब व्यक्ति विरोधी की तर्क-विसंगति और स्वयं की तार्किकता के बारे में सुनिश्चित होता है. इसलिए क्रोध व्यक्ति को अधिक तर्कसंगत बनाता है. यह मनोवैज्ञानिक शोधों से पाया गया है. 


क्रोध का आवेश व्यक्ति के चिंतन को दुष्प्रभावित करता है, उसकी निष्पक्षता पर प्रश्न लगाता है, व्यक्ति को पूर्वाग्रह से आवेशित करता है, और उसे आक्रामक बनता है. किन्तु ये सभी दुष्प्रभाव उसी समय होते हैं जब व्यक्ति अपने क्रोध को तीक्ष्णता से प्रकट करता है. प्रत्येक असहमति में क्रोध का प्रदर्शन अनिवार्य नहीं होता किन्तु व्यक्ति में आतंरिक क्रोध की उपस्थिति अनिवार्य होती है. इस कारण से असहमति और क्रोध में गहन सम्बन्ध होते हुए भी इनमें अंतर होता है जो क्रोध के प्रदर्शन में गंभीर हो जाता है.


वस्तुतः  क्रोध व्यक्ति को जधिक सावधान और विरोधी मत के बारे में अधिक तर्क-संगत बनाता है ताकि वह अपना मत तर्कपूर्ण तरीके से प्रस्तुत कर सके. इसलिए आदतन क्रोधी व्यक्ति आदतन तर्क-संगत भी होते हैं. उनका दोष बस इतना होता है कि वे कूटनीति नहीं जानते एवं अपनाते, जिसे आधुनिक समाज में एक सद्गुण माना जाता है तथापि यह नैतिक दृष्टि से एक दुर्गुण है. 


मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि जब कोई व्यक्ति क्रोध के आवेश में होता है तब वह अधिक सावधान और तर्क-संगत होता है. इस प्रकार क्रोध व्यक्ति विश्लेषणात्मक और निर्णय लेने की सामर्थ्य का संवर्धन करता है.  वह सम्बंधित सूचनाओं को अधिक सावधानी से विश्लेषित करता है. तथापि क्रोध में व्यक्ति निर्णय लेने में अनावश्यक शीघ्रता प्रदर्शित कर सकता है तथा कुछ सूचनाओं की अनदेखी कर सकता है. 


How to Take the Grrrr Out of Anger (Laugh And Learn)उक्त चर्चा का सार यह है कि स्वभाव से क्रोधी व्यक्ति अपने शांत क्षणों में अन्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक अच्छे निर्णायक होते हैं. इसलिए स्वभावतः क्रोधी व्यक्ति के शांत क्षण मानवता और समाज के लिए बहुमूल्य निधि सिद्ध होते हैं जबकि स्वभावतः शांत व्यक्ति मानवता और समाज के लिए अनुपयोगी सिद्ध होते हैं. 


यहाँ क्रोध करने और तृस्त होने में अंतर को समझना भी प्रासंगिक है. व्यक्ति अपने भरसक प्रयासों की असफलता के कारण तृस्त होता है जिससे वह निष्क्रिय एवं निराशावादी बनता है जब कि क्रोध किसी अन्य जीव के व्यवहार से असहमति पर आता है जिससे उसकी मनोदशा प्रतिक्रियात्मक सक्रियता एवं चिंतन के लिए उद्यत होती है.     

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता

इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.

इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.

भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.

महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.

यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता  सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.

आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.

समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
The World Wars

मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.    

इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता

इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.

इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.

भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.

महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.

यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता  सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.

आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.

समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
The World Wars

मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.    

सोमवार, 27 सितंबर 2010

पुलिस और क़ानून व्यवस्था - अंग्रेज़ी राज से अब तक

भारत लम्बे समय तक अंग्रेजों के अधीन रहा और उनके शासन का मुख्य उद्येश्य आर्थिक शोषण था जिससे कि ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था सुद्रढ़ रहे और वह विश्व पर अपना शासन रख सके. भारत पर शासन से ब्रिटेन को विश्व स्तर पर किसी राजनैतिक लाभ की आशा नहीं थी, सिवाय इसके कि भारत का विशाल क्षेत्र भी उसके शासन में कहा जाए. इस शोषण के कारण भारत में पर्याप्त संसाधन होते हुए भी आर्थिक विपन्नता व्याप्त थी.

भारत तब से अब तक गाँवों का देश रहा है इसलिए आर्थिक शोषण में गाँवों का शोषण भी अनिवार्य रहा. गाँवों की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था जो आज भी है. इसलिए ब्रिटिश शोषण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत के कृषकों पर पड़ता था जिसके लिए जमींदारी व्यवस्था को एक माध्यम के रूप में स्थापित किया गया. इस व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य जमींदारों द्वारा  कृषकों की भूमि हड़पना रहा जिसके लिए जमींदार अधिकृत थे और इसके लिए वे ब्रिटिश सरकार को धन प्रदान करते थे. यद्यपि जमींदार कृषकों से भी भूमिकर वसूल कर ब्रिटिश सरकार को प्रदान करते थे किन्तु ब्रिटिश आय में इसका अंश अल्प था. इस प्रक्रिया में जमींदार और अधिक धनवान और बड़े भूस्वामी बनते गए और कृषक निर्धन और भूमिहीन.

उक्त जमींदारी व्यवस्था के सञ्चालन में लोगों में पुलिस का आतंक भी सम्मिलित था जिससे कि लोग उक्त आर्थिक शोषण के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद करने योग्य ही न रहें. इसके लिए पुलिस को निरंकुश शक्तियां प्रदान की गयीं जिनका उपयोग जमींदारों के पक्ष में किया जाता था. इसी प्रकार न्याय व्यवस्था भी जन साधारण के आर्थिक शोषण हेतु ही नियोजित थी. अपनी दमनात्मक शक्तियों के कारण उस समय पुलिस और न्याय व्यवस्था ही जन साधारण के विरुद्ध ब्रिटिश प्रशासन के प्रमुख शस्त्र थे. इस कारण से सभी क़ानून केवल शोषण-परक बनाये गए थे.

१९४७ में भारत द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय स्वतन्त्रता की मांग करने वालों के पास अपनी शासन व्यवस्था स्थापित करने हेतु कोई रूपरेखा उपलब्ध नहीं थी. इसलिए शीघ्रता में एक संविधान रचा गया जो प्रमुखतः शोषण-परक ब्रिटिश शासन तंत्र पर आधारित रखा गया. यही संविधान आज तक भारत पर लागू है जो पूरी तरह दमनात्मक और शोशंपरक है. अंतर केवल इतना है कि उस समय दमन और शोषण ब्रिटेन के लिए जाते थे जबकि आज उसी प्रकार के दमन और शोषण भारतीय शासकों और प्रशासकों के हित में किये जा रहे हैं.

यद्यपि जन साधारण को प्रसन्न करने के लिए जमींदारी व्यवस्था समाप्त कर दी गयी किन्तु तत्कालीन जमींदार परिवारों को भारत की शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भागीदारी दे दी गयी ताकि वे अपना शोषण पूर्ववत  जारी रख सकें. इस प्रकार भारत की स्वतन्त्रता केवल उक्त जमींदार एवं अन्य शासक परिवारों तक सीमित रही, जन साधारण को इसका कोई सीधा लाभ नहीं मिल पाया. आज भी न्यायालयों और पुलिस को ब्रिटिश काल की निरंकुश शक्तियां प्राप्त हैं जिसका वे पूरी तरह उपयोग कर रहे हैं.
Mother India

अभी विगत सप्ताह ही मेरे क्षेत्र के उप जिला मजिस्ट्रेट ने मुझे बिना किसी पर्याप्त कारण मेरे विरुद्ध धार्मिक कट्टरपंथी होने का आरोप लगाते हुए अपने न्यायालय में एक वाद स्थापित कर दिया जबकि मैं लिखित साक्ष्यों के अनुसार एक धर्म-निरपेक्ष नास्तिक हूँ. इसके अंतर्गत मुझसे कहा गया कि मैं कारागार से बचने के लिए एक बंधक पत्र पर हस्ताक्षर कर अपना दोष स्वीकार करूं, जबकि कोई क़ानून मुझे इसके लिए बाध्य नहीं करता है किन्तु उक्त मजिस्ट्रेट की निरंकुश शक्तियां मुझे बाध्य करने हेतु पर्याप्त हैं.  

सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का नियमन

सघन एवं बहुविध पारस्परिक निर्भरता के कारण व्यक्तिगत और सामाजिक प्रगति के लिए आवागमन परमावश्यक हो गया है जब कि सभी इसके लिए निजी वाहनों की व्यवस्था नहीं कर सकते. इससे समाज में आर्थिक अंतराल का संवर्धन होगा यदि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त न हो. इसके सुचारू होने से सभी को अपनी आय में वृद्धि के अवसर प्राप्त होंगे जिससे सामाजिक और आर्थिक असमानता पर स्वतः नियंत्रण हो सकेगा.

भारत में अन्य व्यवस्थाओं की तरह ही सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लगभग ७० प्रतिशत भारतीय बसते हैं. इस कारण से अधिकाँश लोगों को व्यक्तिगत वाहन रखना आवश्यक हो गया है जिसमें व्यक्तिगत और सार्वजनिक धन का अपव्यय हो रहा है. बौद्धिक जनतंत्र सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुचारू करने की भव्य योजना रखता है ताकि लोगों को व्यक्तिगत वाहनों की न्यूनतम आवश्यकता हो.

व्यक्तिगत वाहन एक ओर सभी के लिए असंभव हैं, दूसरी ओर ये व्यक्तिगत और राष्ट्र स्तरों पर आर्थिक अपव्यय होते हैं. तीसरे इनकी अधिकता से सडकों पर भार वृद्धि होती है जिससे उनकी देख-रेख पर अधिक धन व्यय होता है. चौथे, इनकी अधिकता मार्गों पर यातायात अवरोध उत्पन्न करती है. इस सबका निदान यही है कि भारत में सार्वजनिक यात्री परिवहन व्यवस्था को सुचारू किया जाये. बौद्धिक जनतंत्र में सार्वजनिक यात्री परिवहन को सुचारू बनाने के लिए तीन मूलभूत सिद्धांत निश्चित किये हैं -

  • सरकार किसी व्यावसायिक गतिविधि में लिप्त नहीं होगी,
  • सरकार प्रत्येक व्यावसायिक गतिविधि को जनहित में बनाये रखने के लिए उस का नियमन करेगी.
  • सुचारू बनाये रखने के नियमन में सरकार का जो व्यय होगा वह उसी व्यवसाय से वित्तपोषित किया जाएगा. 
तदनुसार, यात्री परिवहन के लिए सरकार मार्गों का निर्माण स्वयं एक यात्रा प्राधिकरण के माध्यम से करायेगी, तथा उनपर वाहनों के आवागमन के समय, यात्री किराए, आदि का नियमन इस प्रकार करेगी कि प्रत्येक मार्ग पर यात्रियों को उच्च कोटि की परिवहन सेवा उपलब्ध हो. इसके लिए प्राधिकरण प्रत्येक मार्ग पर लगभग २० किलोमीटर के अंतराल से वाहन-स्थलों का निर्माण करेगा और उनसे उस मार्ग पर चलने वाले सभी सार्वजनिक यात्री वाहनों के आवागमन के समयों और यात्री किरायों का नियमन किया जाएगा. इन वाहन-स्थलों के अतिरिक्त, प्रत्येक ५ किलोमीटर के अंतराल से यात्री वाहनों के प्रार्थना पर रोके जाने की व्यवस्था होगी जहां से यात्री वाहनों पर सवार हो सकेंगे अथवा उनसे उतर सकेंगे.
Our Social Insecurity

सरकार अथवा प्राधिकरण अपने वाहनों का सञ्चालन नहीं करेगी किन्तु मार्गों पर चलने के लिए प्राधिकरण निजी क्षेत्र के यात्री वाहनों को अनुमति देगा और उनसे मार्ग कर वसूल करेगा जिस धन से मार्गों और वाहन-स्थलों का निर्माण, देखरेख एवं सञ्चालन होगा. 

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

एक नया संघर्ष

जब से मैंने गाँव में आकर रहना आरम्भ किया है, तब से ही उन लोगों को बड़ी परेशानी हो रही है जो विगत ३० वर्षों से गाँव के लोगों के आपराधिक शोषण करते रहे थे और उनके विरुद्ध कोई आवाज़ बुलंद नहीं होती थी. पिताजी के गाँव से चले जाने के बाद यह आवाज शांत हो गयी थी और मेरे आने के बाद पुनः झंकृत होने लगी है. ये आपराधिक प्रवृत्ति के लोग एक समूह बनाकर रहते हैं और गाँव में चोरी, राहजनी, मार-पिटाई, बलात्कार आदि अपराध करते रहे हैं और इनकी स्थानीय पुलिस से घनिष्ठ सांठ-गाँठ के कारण लोग चुपचाप यह सब सहन करते रहे हैं. मेरे आने के बाद बलात्कार आदि के अनेक मामले पूरी कठोरता के साथ उठाये गए हैं और दोषियों को दंड दिए गए हैं अथवा दंड की कार्यवाही की गयी है. इसीसे मैं इनकी आँख की किरकिरी  बना हुआ हूँ. इसलिए ये कोई ऐसा अवसर नहीं छोड़ते जब भी इन्हें मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचने का अवसर मिले.

अयोध्या मामले को लेकर प्रशासन ने जन-सामान्य के मस्तिष्क में एक हऊआ खडा कर दिया है और उसे इस बारे में जागृत कर ड़ोया है. अन्यथा जन-सामान्य अपनी व्यक्तिगत समस्याओं में इतना उलझा हुआ है कि उसे इन सब बातों से कोई लेना देना नहीं है. किन्तु राजनेताओं ने अपना महत्व बनाये रखने के लिए इसे एक हऊए के रूप में जनता के सामने लाकर खडा कर दिया है.

इस के परिपेक्ष्य में देश भर के प्रत्येक गाँव, कसबे एवं नगर से पुलिस प्रशासन को  उन लोगों लोगों की सूची तैयार करने को कहा गया है जो किसी भी प्रकार से सक्रिय रहते हैं और उन्हें धार्मिक कट्टरपंथी घोषित किया गया है. यह मेरे विरोधियों के लिए एक सुनेहरा अवसर था जब वे अपने पुलिस के साथ संपर्कों का उपयोग कर मुझे एक धार्मिक कट्टरपंथी घोषित करा सकते थे और उन्होंने ऐसा करा ही दिया. स्थानीय पुलिस ने पूरे गाँव में मुझ अकेले को एक धार्मिक कट्टरपंथी घोषित कर प्रशासन को इसकी सूचना भेज दी. जब कि पूरा क्षेत्र तथा मेरा इन्टरनेट नेटवर्क जानता है कि मैं एक कट्टर नास्तिक हूँ और इस बारे में मैं अपना मत यथासंभव प्रकट करता रहता हूँ  इसी विषय पर मेरा एक ब्लॉग भी है. तथापि पुलिस और प्रशासन के अनुसार मैं एक धार्मिक कट्टरपंथी हूँ.

कल २२ सितम्बर को मुझे उप जिला मजिस्टेट, सियाना, बुलंदशहर का एक नोटिस मिला कि मैं २३ सितम्बर को न्यायालय में उपस्थित होकर स्पष्टीकरण दूं कि क्यों न मुझसे एक लाख रुपये का बंधक पत्र भरवाया जाये. इस पर मैंने पुलिस थाना प्रभारी सुभाष चंद राठोड से फोन पर बातें की कि मेरे नाम से ऐसी भद्दी रिपोर्ट क्यों की गयी जिसपर उसने बताया कि यह कोई गंभीर मामला नहीं है और किसी ने रिपोर्ट लिख दी होगी जिसकी उसे कोई जानकारी नहीं थी. इस थाना प्रभारी का अब स्थानांतरण हो गया है.

तदनुसार आज मैं न्यायालय में उपस्थित हुआ जहां उप जिलाधिकारी एवं न्यायाधीश श्री राजेश कुमार सिंह धारा १०७/११६ के अंतर्गत मुझे बंधक पत्र देने का निदेश दिया जिससे मैंने इनकार कर दिया और स्पष्ट किया कि मैं एक नास्तिक हूँ और मुझे धार्मिक कट्टरपंथी कहना मेरा घोर अपमान है और इस बारे में मुझसे बंधक पत्र की मांग करना मेरे आत्मसम्मान पर आक्रमण है. इस पर मेरे विरुद्ध वारंट जारी करने की धमकी दी गयी जिस पर मैं स्वयं ही कारागार भेजे जाने के लिए प्रस्तुत हो गया. इसके साथ ही मेरे अधिवक्ता ने स्पष्ट किया कि न्याय व्यबस्था के अनुसार धरा १०७/११६ के अंतर्गत मुझे बंधक पत्र के लिए बाध्य नहीं दिया जा सकता. किन्तु न्यायाधीश का मत था कि वे किसी को भी बंधक पत्र के लिए बाध्य कर सकते हैं जिसको मैंने तथा मेरे अधिवक्ता ने चुनौती दी.

इस सब चर्चा के बाद मुझे अगली दिनांक ४ अक्टूबर को पुनः उपस्थित होने का निर्देश दिया गया, साथ ही मेरे आवेदन पर पुलिस को पुनः जांच कर अपनी रिपोर्ट देने का निर्देश भी दे दिया गया, जो मेरी आंशिक विजय है.

इसके बाद मैंने स्थानीय पुलिस में सिपाही ताहिर अली तथा उपनिरीक्षक चेतराम सिंह से संपर्क किया जिनकी इस रिपोर्ट पर मुझे कट्टरपंथी घोषित किया गया कि मैं धार्मिक उन्माद फैला रहा था. इसमें सिपाही पूरी तरह निर्दोष पाया गया क्योंकि उसे इस बारे मैं कोई जानकारी नहीं थी. रिपोर्ट में उसका नाम उपनिरीक्षक ने उसको कोई सूचना दिए बिना ही लिख दिया था. उपनिरीक्षक चेतराम सिंह ने मुझे बताया कि उसे रात्रि में ९ बजे थाना प्रभारी ने विवश किया था कि वह उसी समय किसी एक व्यक्ति के नाम कट्टरपंथी होने के रिपोर्ट तैयार करे. पुलिस थाने की पंचायत चुनाव संबंधी काली सूची में मेरा नाम सर्वोपरि था जो मेरे विरोधियों ने एक अन्य उपनिरीक्षक नरेश कुमार शर्मा से मिलकर तैयार कराई थी. इसलिए उसने मेरे नाम से ही वह रिपोर्ट तैयार कर दी जब कि उस समय तक सिपाही ताहिर अली तथा उपनिरीक्षक चेतराम सिंह मुझे जानते भी नहीं थे.
Unquestionable Presence (Dlx)

पुलिस थाने में लम्बी चर्चाओं के बाद ज्ञात हुआ कि पुलिस कोई भी कार्य गंभीरता से नहीं करके केवल औपचारिकतावश अपने अनेक कार्य करती रहती है और मुझे आश्वासन दिया गया कि मेरे विरुद्ध उक्त रिपोर्ट निरस्त कर दी जायेगी. किन्तु स्थानीय पुलिस में कोई भी विश्वसनीय नहीं है और न ही कोई अपने कर्तव्यों के प्रति गंभीर अथवा निष्ठांवान है. किसी के भी साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है.