जन-साधारण सदैव भीड़ के अंग बने रहकर सुरक्षित अनुभव करते हैं जब कि विशिष्ट व्यक्ति वही सिद्ध हो पाते हैं जो भीड़ तथा एकांत में भी सामान्य व्यवहार बनाये रखते हैं. यहाँ भीड़ में रहने में यह भी सम्मिलित है कि वे अपने व्यवहार तथा स्वरुप को भी अधिकाँश लोगों की तरह का बनाये रखते हैं, इन के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने से भी वे कतराते हैं जब कि विशिष्ट व्यक्ति अपने रूप और व्यवहार से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने हेतु सदैव प्रयासरत रहते हैं. ऐसी पहचान बनाने के लिए साहस की आवश्यकता होती है जो सभी में नहीं होता. इस प्रकार की पहचान ही व्यक्ति की सामाजिक परिभाषा होती है.
जैसा कि ऊपर कहा गया है व्यक्ति की सामाजिक परिभाषा के दो पहलू होते हैं - स्वरुप और व्यवहार. इन दोनों के संयुक्त योगदान को ही व्यक्तित्व कहा जाता है. स्वरुप की दृष्टि से व्यक्ति की पहचान अनेक प्रकार से बनती है - उसके प्राकृत अंगों की विशिष्टता से, यथा उसके बैठने, खड़े होने अथवा चलने की शैली से, उसके बात करने की शैली से, उसकी विशिष्ट आदतों से, उसकी केश-सज्जा से, तथा उसकी वेशभूषा से. चूंकि व्यक्ति के व्यवहार से पूर्व उसका स्वरुप उसका प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए व्यक्ति का प्राथमिक प्रभाव उसके स्वरुप से संचालित होता है. इसमें उसके शारीरिक सौन्दर्य का कोई महत्व न होकर उसकी विशिष्ट शैली का महत्व होता है, यद्यपि शारीरिक सौन्दर्य का भी अपना महत्व होता है.
विशिष्टता के लिए लिए व्यक्ति का स्वरुप ऐसा होना चाहिए कि अन्य लोगों में उसे देखते ही उसके बारे में जिज्ञासा जागृत हो यही जिज्ञासा ही उसे समाज में प्राथमिक स्तर पर विशिष्ट व्यक्ति बनाती है किन्तु उसके व्यवहार से इस विशिष्टता की पुष्टि होनी अनिवार्य होती है, अन्यथा उसके स्वरुप की विशिष्टता से स्थापित विशिष्टता खोखली रह जाती है. इसलिए व्यक्ति का विशिष्ट व्यवहार ही उसकी विशिष्टता को स्थायित्व प्रदान करता है. विशिष्ट व्यवहार का स्रोत व्यक्ति का चरित्र होता है जिससे उसका मंतव्य निर्धारित होता है, और मंतव्य ही उसके प्रयासों का जनक होता है. अतः मूल रूप से सुचरित्र व्यक्ति ही समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बना पाते हैं.
स्वरुप और व्यवहार की दृष्टि से विशिष्ट व्यक्ति भी तीन प्रकार के होते हैं - विकृत, असामान्य और असाधारण. यद्यपि शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति भी विकृत होते हैं किन्तु सामाजिक दृष्टि से मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति ही विकृत माने जाते हैं. ये समाज में स्वीकार्य नहीं होते. असामान्य व्यक्ति वे होते हैं अन्य लोगों से स्वरुप अथवा व्यवहार में भिन्न होते हैं किन्तु उनकी समाज को कोई देन नहीं होती, इसलिए समाज में इनका भी कोई विशेषत महत्व नहीं होता. समाज में विशिष्टता की स्थापना के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्ति का मानव समाज और सभ्यता के विकास में कुछ योगदान हो. ऐसे व्यक्ति समाज में असाधारण माने जाते हैं और समाज इन्हें विशिष्ट मान्यता प्रदान करता है. इसमें व्यक्ति के स्वरुप का कोई विशेष महत्व न होकर उसके व्यवहार का ही महत्व होता है. किन्तु उसका स्वरुप उसके विशिष्ट व्यवहार के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है.
किसी भी व्यक्ति के विशिष्ट होने में उसके मंतव्य, प्रयास और परिणामों का सम्मिलित योगदान होता है. यद्यपि मंतव्य से प्रयास और प्रयास से परिणाम उगते हैं तथापि परिस्थितियां मंतव्य, प्रयासों और परिणामों में अंतराल ला देती हैं. व्यक्ति अपने स्तर पर अपना मंतव्य ही निर्धारित कर सकता है जिसके अनुरूप प्रयास करना भी अंशतः उसकी पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है. समाज प्रायः व्यक्ति के मंतव्य को महत्व न देकर उसके द्वारा उत्पादित परिणाम ही देख पाता है. इसके कारण अनेक असाधारण व्यक्ति भी समाज में अपनी विशिष्ट पहचान नहीं बना पाते यद्यपि उनके मंतव्य विशिष्ट होते हैं.
रविवार, 31 अक्टूबर 2010
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
जनतांत्रिक चुनावों में जनमत की कसौटियां
यद्यपि भारत में सरकार के चयन हेतु आयोजित जनतांत्रिक चुनावों में जनसाधारण द्वारा अपने मत प्रकट करने की परम्परा स्वस्थ कभी नहीं रही है, किन्तु अभी समापित उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में जनतंत्र की स्थिति बुरी तरह प्रदूषित है और यह बदतर होती जा रही है. पंचायत चुनावों द्वारा केवल ग्राम, विकास खंड और जनपद स्तर की पंचायतों के लिए जन प्रतिनिधियों को चुना जाता है जिनकी शासन में कोई विशेष भूमिका नहीं होती, मात्र कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह किया जाता है और जनहित हेतु आबंटित कुछ सार्वजनिक धन की बन्दर-बाँट की जाती है. तथापि इसके माध्यम से तुच्छ लाभों को प्राप्त करने के लिए जो भीषण संघर्ष होते हैं और उनमें भारतीय जनमानस की जो दयनीय स्थिति उजागर होती है उन्हें देखकर प्रत्येक सम्मानित भारतीय का सिर शर्म से झुक जाता है. उक्त चुनावों में जो पाया गया, आइये उसके कुछ पहलुओं पर दृष्टि डालें.
जातीयता
भारत का समाज सदैव जातियों में विभाजित रहा है किन्तु इस विभाजन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत की राजनीति पर होता है जिसमें चुनावों के लिए प्रत्याशियों के चयन से लेकर मतदान तक व्यक्ति की जाति को प्रमुख आधार बनाया जाता है तथा व्यक्ति की पद हेतु सुयोग्यता को ताक पर रख दिया जाता है. चूंकि मूर्ख और अशिक्षित व्यक्ति अधिक बच्चे जनते हैं इसलिए इस प्रकार की जातियां ही देश की बहुसंख्यक होती रही हैं और अपने प्रतिनिधि भी इसी प्रकार के चुनते रहे हैं. इसी कारण से अनेक आपराधिक प्रवृत्तियों वाली परम्परागत जातियां भी देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं.
आरक्षण
बुद्धिहीन और आपराधिक प्रवृत्तियों वाली जातियों द्वारा सत्ता प्राप्त करते रहने के कारण ही देश में राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर स्वयं को सत्तासीन करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो आरम्भ में सीमित थी और केवल १० वर्ष की अवधि के लिए पर्याप्त मानी गयी थी. किन्तु अब स्वतन्त्रता के ६० वर्ष होने पर भी इसे केवल सतत ही नहीं रखा गया इसका विस्तार भी किया जाता रहा है. वर्तमान में प्रत्येक राजनैतिक और प्रशासनिक पद के लिए दो-तिहाई स्थान आरक्षित कर दिए गए हैं जिनमें महिला आरक्षण भी सम्मिलित है.
राजनीति में आरक्षण करने की मूर्खता इससे भी स्पष्ट होती है कि देश की पिछड़ी और दलित जातियां बहुमत में हैं और वे जनतांत्रिक पद्यति से अपने बहुमत के कारण देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं और उन्हें किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है. इसी प्रकार महिलाओं की संख्या लगभग ५० प्रतिशत होने कारण वे भी अपने प्रतिनिधि छनने में सक्षम हैं और उन के लिए भी आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है.
बुद्धिहीन भावुकता
अभी हुए पंचायती चुनावों में एक जाने-माने अपराधी ने कानूनी फंदे से अपनी जान बचाने की गुहार देते हुए मतदाताओं के पैरों में सिर रख-रख कर उन्हें भावुकता का शिकार बनाया और उनके मत प्राप्त कर लिए. इस प्रकार एक अपराधी भी सत्ताधिकारी बन गया. जन साधारण को उस पर दया आयी जिसके कारण उसे अपने मत दे दिए किन्तु किसी ने भी उसे अपनी कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं दी जिससे उसे अपराध करने की आवश्यकता न हो. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे अपने मतों का महत्व नहीं जानते किन्तु अपनी व्यक्तिगत संपदाओं का महत्व जानते हैं. इससे सिद्ध यही होता है कि भारतीय जनमानस अभी भी जनतंत्र हेतु वांछित सुयोग्यता प्राप्त नहीं कर पाया है.
इसी प्रकार की बुद्धिहीन भावुकता के कारण ही स्वतन्त्रता के बाद से देश की राजनैतिक सत्ता केवल एक परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.
शराबखोरी
चुनावों में मत पाने के लिए जिस वस्तु का सर्वाधिक उपयोग होता है वह शराब है जिसका प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क वितरण किया जाता है. यह मात्र एक दूषित परम्परा है जिससे मत प्राप्त नहीं होते केवल कुछ दुश्चरित्र लोगों को खुश कर प्रत्याशी के पक्ष में वातावरण बनाया जाता है. इस प्रकार के शराबी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं जिन्हें खुश रखना प्रत्येक प्रत्याशी के लिए आवश्यक होता है. केवल शराब के वितरण पर ही प्रत्येक औसत ग्राम में २० लाख रुपये व्यय कर दिया जाता है.
जातीयता
भारत का समाज सदैव जातियों में विभाजित रहा है किन्तु इस विभाजन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत की राजनीति पर होता है जिसमें चुनावों के लिए प्रत्याशियों के चयन से लेकर मतदान तक व्यक्ति की जाति को प्रमुख आधार बनाया जाता है तथा व्यक्ति की पद हेतु सुयोग्यता को ताक पर रख दिया जाता है. चूंकि मूर्ख और अशिक्षित व्यक्ति अधिक बच्चे जनते हैं इसलिए इस प्रकार की जातियां ही देश की बहुसंख्यक होती रही हैं और अपने प्रतिनिधि भी इसी प्रकार के चुनते रहे हैं. इसी कारण से अनेक आपराधिक प्रवृत्तियों वाली परम्परागत जातियां भी देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं.
आरक्षण
बुद्धिहीन और आपराधिक प्रवृत्तियों वाली जातियों द्वारा सत्ता प्राप्त करते रहने के कारण ही देश में राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर स्वयं को सत्तासीन करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो आरम्भ में सीमित थी और केवल १० वर्ष की अवधि के लिए पर्याप्त मानी गयी थी. किन्तु अब स्वतन्त्रता के ६० वर्ष होने पर भी इसे केवल सतत ही नहीं रखा गया इसका विस्तार भी किया जाता रहा है. वर्तमान में प्रत्येक राजनैतिक और प्रशासनिक पद के लिए दो-तिहाई स्थान आरक्षित कर दिए गए हैं जिनमें महिला आरक्षण भी सम्मिलित है.
राजनीति में आरक्षण करने की मूर्खता इससे भी स्पष्ट होती है कि देश की पिछड़ी और दलित जातियां बहुमत में हैं और वे जनतांत्रिक पद्यति से अपने बहुमत के कारण देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं और उन्हें किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है. इसी प्रकार महिलाओं की संख्या लगभग ५० प्रतिशत होने कारण वे भी अपने प्रतिनिधि छनने में सक्षम हैं और उन के लिए भी आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है.
बुद्धिहीन भावुकता
अभी हुए पंचायती चुनावों में एक जाने-माने अपराधी ने कानूनी फंदे से अपनी जान बचाने की गुहार देते हुए मतदाताओं के पैरों में सिर रख-रख कर उन्हें भावुकता का शिकार बनाया और उनके मत प्राप्त कर लिए. इस प्रकार एक अपराधी भी सत्ताधिकारी बन गया. जन साधारण को उस पर दया आयी जिसके कारण उसे अपने मत दे दिए किन्तु किसी ने भी उसे अपनी कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं दी जिससे उसे अपराध करने की आवश्यकता न हो. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे अपने मतों का महत्व नहीं जानते किन्तु अपनी व्यक्तिगत संपदाओं का महत्व जानते हैं. इससे सिद्ध यही होता है कि भारतीय जनमानस अभी भी जनतंत्र हेतु वांछित सुयोग्यता प्राप्त नहीं कर पाया है.
इसी प्रकार की बुद्धिहीन भावुकता के कारण ही स्वतन्त्रता के बाद से देश की राजनैतिक सत्ता केवल एक परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.
शराबखोरी
चुनावों में मत पाने के लिए जिस वस्तु का सर्वाधिक उपयोग होता है वह शराब है जिसका प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क वितरण किया जाता है. यह मात्र एक दूषित परम्परा है जिससे मत प्राप्त नहीं होते केवल कुछ दुश्चरित्र लोगों को खुश कर प्रत्याशी के पक्ष में वातावरण बनाया जाता है. इस प्रकार के शराबी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं जिन्हें खुश रखना प्रत्येक प्रत्याशी के लिए आवश्यक होता है. केवल शराब के वितरण पर ही प्रत्येक औसत ग्राम में २० लाख रुपये व्यय कर दिया जाता है.
धन का लालच
इस चुनाव से सिद्ध हो गया है कि अब मतदाताओं को खुश करने के लिए केवल शराब पिलाना पर्याप्त नहीं रह गया है, उन्हें नकद धन भी दिया जाने लगा है. मेरे गाँव में ही ग्राम प्रधान पद के दो प्रत्याशियों ने डेढ़-डेढ़ लाख रुपये वितरित किये जिनमें से एक ने विजय पायी. इन चुनावों में जनपद पंचायत के प्रत्येक प्रत्याशी ने अपने प्रचार और मतदाताओं को खुश करने के लिए २० से ५० लाख रुपये तक व्यय किये जिसमें से अधिकाँश शराब के वितरण पर व्यय हुआ.
बाहरी प्रभाव
मूल रूप से गाँव के निवासी शिक्षित और साधन संपन्न होकर दूर शहरों में जा बसते हैं जहां उनके स्थायी घर, राशन कार्ड, मताधिकार आदि सभी कुछ होते हैं तथापि वे अपने गाँवों में भी अपने घर, राशन कार्ड तथा मताधिकार बनाए रखते हैं. इस प्रकार ये देश के दोहरे नागरिक होते हैं और दोनों स्थानों से सुविधाएं प्राप्त करते रहते हैं. इनकी तुलना में ग्रामवासी प्रायः निर्धन होते हैं इसलिए उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ मानते हुए चुनावों में उनके मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं. इस प्रकार ग्रामों के ये अवैध नागरिक गाँवों पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं और पंचायत चुनावों को अपने हित में प्रभावित करते हैं.
मेरे ग्राम में भी इस प्रकार के लगभग ४०० अवैध मतदाता हैं जो गाँव के लगभग १६०० वैध मतदाताओं को मूर्ख समझते और बनाते रहे हैं. उक्त पंचायत चुनावों से पूर्व मैंने उत्तर प्रदेश के चुनाव आयुक्त को लिखित निवेदन भेजा था कि ऐसे मतदाताओं के नाम गाँव की मतदाता सूची से हटाने की व्यवस्था की जाए किन्तु इस पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी.
उक्त कारणों से कहा जा सकता है कि भारत में अभी तक कोई जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित नहीं हो पायी है और इस नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब धोखाधड़ी है. इसमें बुद्धिमानी अथवा सुयोग्यता का कोई महत्व नहीं है.
लेबल:
आरक्षण,
जनतांत्रिक व्यवस्था,
जातीयता,
दोहरे नागरिक,
भावुकता,
शराबखोरी
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
न्यायोचित पथ - मंद अनुपालन
प्रत्येक समाज में जन साधारण का आधिक्य होता है जो प्रायः तुच्छ प्रलोभनों के वशीभूत होते हैं, तथापि किसी अन्य द्वारा सद्मार्ग पर चलने की प्रशंसा करते हैं. इसका अर्थ यह है कि वे कुमार्ग और सद्मार्ग को पहचानते हैं और उनकी आतंरिक इच्छा सद्मार्ग पर चलने की होती है किन्तु अपनी पारिस्थिक विवशताओं, सांस्कारिक दोषों और चारित्रिक निर्बलताओं के कारण ऐसा नहीं कर पाते. अतः, जन-साधारण की विवशताओं को दूर कर, संस्कारों को परिष्कृत कर और इन के चरित्रों को संबल प्रदान करके समाज को सद्मार्ग पर चलाया जा सकता है यह एक क्लिष्ट और मंद प्रगति वाला कार्य है तथापि समाज के परिष्कार हेतु आवश्यक है.
समाज को न्यायोचित पथ पर चलाने के लिए प्रणेता को असीम धैर्य की आवश्यकता होती है क्योंकि लोग इस मार्ग पर चलाने से पूर्व चिंतन करते हैं जिसमें समय लगता है. इस चिंतन द्वारा ही लोग अपने प्रलोभनों और स्वार्थों से मुक्त होते हैं. किन्तु यह केवल एक बार के प्रयास से संभव नहीं होता. उनके चिंतन के परिपक्व होने तक ऐसे लोगों को बार-बार मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है. साथ ही इन्हें प्रलोभन देने वाले कारणों से दूर रखना आवश्यक होता है, अन्यथा ऐसे लोग असमंजस की अवस्था में आकर प्रलोभनों की ओर आकर्षित हो जाते हैं.
लोगों को चिंतन का अभ्यस्त बनाना और उन्हें न्यायोचित मार्ग पर चलाने में कोई विशेष अंतर नहीं है, दोनों का अंततः प्रभाव एक समान ही होता है. इससका तात्पर्य यह है कि चिंतन करने वाला व्यक्ति सुमार्ग का ही अनुपालन करता है. जन-साधारण प्रायः अपने जीवन को बनाये रखने की समस्याओं में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें किसी विषय पर गंभीर चिंतन के लिए समय ही प्राप्त नहीं हो पाता. यहाँ यह स्पष्ट करना भी प्रासंगिक है कि चिन्तनशीलता का धनाढ्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है. अनेक धनाढ्य व्यक्ति अपने धन को बहुगुणित करने में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि वे चिंतन को समय का दुरूपयोग मानते हैं. चिंतन की दृष्टि से ऐसे धनाढ्य भी जन-साधारण वर्ग में ही सम्मिलित होते हैं.
चिन्तनशीलता का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की रचनाधर्मिता से है. लेखक, कवि, चित्रकार, वैज्ञानिक, आदि रचनाधर्मी होते हैं और चिंतन के भी अभ्यस्त होते हैं. ऐसे व्यक्ति प्रायः न्यायोचित पथ का अनुगमन करते हैं, जिसके कारण ये प्रायः निर्धन भी होते हैं किन्तु इनकी निर्धनता इन्हें चिंतन-शीलता से दूर नहीं करती. ये अपनी निर्धनता में भी प्रसन्न रहते हैं. इसे समझने के लिए हमें निर्धनता के मूल पक्ष पर ध्यान देना होगा. वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निर्धन वह व्यक्ति होता है जिसे सदैव कुछ और धन की लालसा बनी रहती है. जिसे ऐसी लालसा नहीं होती वह संतुष्ट होता है और निर्धन नहीं कहा जा सकता भले ही वह भौतिक स्तर पर धनाढ्य न हो.
यदि आपका मार्ग न्यायोचित है तो स्वार्थी समाज में आपके अनुयायी अल्प होंगे और इसके लिए भी उन्हें मानना कठिन होगा. इसके लिए धीमे चलिए और लोगों को सोच-विचार का पूरा अवसर दीजिये. इसके विपरीत, दोषपूर्ण मार्ग पर चलने के लिए लोगों पर तुरंत निर्णय लेने के लिए जोर डालिए ताकि वे चिंतन न कर सकें और आपके कुमार्ग का अनुगमन करने लगें.
समाज को न्यायोचित पथ पर चलाने के लिए प्रणेता को असीम धैर्य की आवश्यकता होती है क्योंकि लोग इस मार्ग पर चलाने से पूर्व चिंतन करते हैं जिसमें समय लगता है. इस चिंतन द्वारा ही लोग अपने प्रलोभनों और स्वार्थों से मुक्त होते हैं. किन्तु यह केवल एक बार के प्रयास से संभव नहीं होता. उनके चिंतन के परिपक्व होने तक ऐसे लोगों को बार-बार मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है. साथ ही इन्हें प्रलोभन देने वाले कारणों से दूर रखना आवश्यक होता है, अन्यथा ऐसे लोग असमंजस की अवस्था में आकर प्रलोभनों की ओर आकर्षित हो जाते हैं.
लोगों को चिंतन का अभ्यस्त बनाना और उन्हें न्यायोचित मार्ग पर चलाने में कोई विशेष अंतर नहीं है, दोनों का अंततः प्रभाव एक समान ही होता है. इससका तात्पर्य यह है कि चिंतन करने वाला व्यक्ति सुमार्ग का ही अनुपालन करता है. जन-साधारण प्रायः अपने जीवन को बनाये रखने की समस्याओं में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें किसी विषय पर गंभीर चिंतन के लिए समय ही प्राप्त नहीं हो पाता. यहाँ यह स्पष्ट करना भी प्रासंगिक है कि चिन्तनशीलता का धनाढ्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है. अनेक धनाढ्य व्यक्ति अपने धन को बहुगुणित करने में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि वे चिंतन को समय का दुरूपयोग मानते हैं. चिंतन की दृष्टि से ऐसे धनाढ्य भी जन-साधारण वर्ग में ही सम्मिलित होते हैं.
चिन्तनशीलता का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की रचनाधर्मिता से है. लेखक, कवि, चित्रकार, वैज्ञानिक, आदि रचनाधर्मी होते हैं और चिंतन के भी अभ्यस्त होते हैं. ऐसे व्यक्ति प्रायः न्यायोचित पथ का अनुगमन करते हैं, जिसके कारण ये प्रायः निर्धन भी होते हैं किन्तु इनकी निर्धनता इन्हें चिंतन-शीलता से दूर नहीं करती. ये अपनी निर्धनता में भी प्रसन्न रहते हैं. इसे समझने के लिए हमें निर्धनता के मूल पक्ष पर ध्यान देना होगा. वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निर्धन वह व्यक्ति होता है जिसे सदैव कुछ और धन की लालसा बनी रहती है. जिसे ऐसी लालसा नहीं होती वह संतुष्ट होता है और निर्धन नहीं कहा जा सकता भले ही वह भौतिक स्तर पर धनाढ्य न हो.
यदि आपका मार्ग न्यायोचित है तो स्वार्थी समाज में आपके अनुयायी अल्प होंगे और इसके लिए भी उन्हें मानना कठिन होगा. इसके लिए धीमे चलिए और लोगों को सोच-विचार का पूरा अवसर दीजिये. इसके विपरीत, दोषपूर्ण मार्ग पर चलने के लिए लोगों पर तुरंत निर्णय लेने के लिए जोर डालिए ताकि वे चिंतन न कर सकें और आपके कुमार्ग का अनुगमन करने लगें.
लेबल:
कुमार्ग,
चिन्तनशीलता,
जन-साधारण,
धनाढ्यता,
सद्मार्ग
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
विवश बाल श्रमिक
विश्व के अनेक देशों की तरह ही भारत भी एक आदर्श, सभ्य और संपन्न समाज की संरचना की कल्पनाओं में निमग्न है. इस लालसा में भारत में १८ वर्ष से कम आयु के बच्चों से मजदूरी कराना अपराध है. अतः १८ वर्ष के बच्चों के लिए संगठित उद्योगों और व्यवसायों में रोजगार पाना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है जिसके परिणामस्वरूप ये विवश बच्चे कूड़े दानों में से कुछ व्यावसायिक रूप से उपयोगी कचरा बीनने, भीख माँगते, ढाबों और चाय की दुकानों पर झूठे बर्तन मांजते प्रायः देखे जा सकते हैं. भारत की सरकारें इन बच्चों के लिए आदर्श स्थिति की कल्पना तो करती हैं किन्तु ऐसी स्थिति उत्पन्न करने में कोई रूचि नहीं रखती, बल्कि इसके विपरीत बहुत कुछ करती रही हैं.
बल श्रमिक प्रतिबंधित करने की पृष्ठभूमि में कल्पना यह है कि देश के प्रत्येक बच्चे को समुचित शिक्षा पाने का अधिकार है इसलिए इस अबोध आयु में उससे श्रमिक के रूप में कार्य लेना अमानवीय है और इसे अवैध घोषित कर दिया गया है. किन्तु इन बच्चों के समक्ष आजीविका हेतु श्रमिक बनाने की विवशता न हो इसके लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है.
बल श्रमिक प्रतिबंधित करने की पृष्ठभूमि में कल्पना यह है कि देश के प्रत्येक बच्चे को समुचित शिक्षा पाने का अधिकार है इसलिए इस अबोध आयु में उससे श्रमिक के रूप में कार्य लेना अमानवीय है और इसे अवैध घोषित कर दिया गया है. किन्तु इन बच्चों के समक्ष आजीविका हेतु श्रमिक बनाने की विवशता न हो इसके लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है.
सर्व प्रथम प्रत्येक परिवार की इतनी आय सुनिश्चित की जानी चाहिए थी कि माता-पिता अपने बच्चों को श्रमिक बनाने की विवशता न हो तथा वे उन्हें समुचित शिक्षा की व्यवस्था करने में समर्थ हों. दूसरे, देश के राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जहां बच्चों को भेजकर माता-पिता तथा स्वयं बच्चे उससे संतुष्ट हों तथा कुछ सार्थक शिक्षा पा सकें. तीसरे, देश की सामाजिक व्यवस्था ऐसी हो जहां बच्चों का दुरूपयोग न किया जा सके.
आज भी भारत की लगभग ४० प्रतिशत जनसँख्या निर्धना सीमा रेखा के नीचे है जिसका अर्थ है कि इन परिवारों की दैनिक औसत आय ५० रुपये से कम है और इसमें परिवार के सदस्यों को पेट भार भोजन पाना भी दुष्कर है. कोई भी व्यक्ति भूखे पेट स्वस्थ नहीं रह सकता और उसे शिक्षित करना असंभव होता है. ऐसे परिवारों की विवशता हो जाती है कि उनके बच्चे श्रमिकों के रूप में कार्य करके परिवार की आय में संवर्धन करें.
इसी सन्दर्भ में यह भी सत्य है कि इन परिवारों के पास मनोरंजन के कोई साधन उपलब्ध नहीं होते जिसके कारण स्त्री-पुरुषों का यथासंभव नित्यप्रति सम्भोग में लिप्त होना ही मनोरंजन होता है, जिसके परिणामस्वरूप इन परिवारों में बच्चों की संख्या को सीमित करना असंभव हो जाता है जिससे परिवार को और भी अधिक आय की आवश्यकता हो जाती है.
पूरे भारत में प्राथमिक शिक्षा राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों के अतिरिक्त निजी संस्थानों द्वारा भी दी जा रही है. इन दोन व्यवस्थाओं में इतने विशाल गुणात्मक अंतर हैं कि राज्य-पोषित विद्यालयों में शिक्ष व्यवस्था नष्ट-भृष्ट ही कही जानी चाहिए. राज्य-पोषित विद्यालयों में नियमित अध्यापकों के वेतनमान सरकारों द्वारा इतने अधिक कर दिए गए हैं कि स्वयं सरकारें भी पर्याप्त संख्या में अध्यापकों की व्यवस्था करने में असमर्थ हो गयी हैं. इस अभाव की पूर्ति हेतु ये सरकारें शिक्षा मित्रों के रूप में अस्थायी और अल्प वेतन पर अध्यापक नियुक्त कर रही हैं जिनमें प्रायः योग्यता, अनुभव और सर्वोपरि शिक्षा प्रदान करने में रूचि का अभाव होता है. इसके परिणामस्वरूप राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा की औपचारिकता मात्र पूरी की जा रही है. निर्धन माता-पिता ऐसे विद्यालयों में अपने बच्चों को शिक्षा पाने हेतु भेजना निरर्थक मानते हैं और निजी विद्यालयों में बच्चों को भेजना उनकी समर्थ के बाहर होता है. यह स्थिति और भी अधिक उग्र हो गयी है जब वे देखते हैं कि धनाढ्य परिवारों के बच्चे निजी विद्यालयों में अच्छी शिक्षा पा रहे हैं.
भारत की सरकारें ही राजस्व प्राप्त करने के लिए देश में शराब तथा अन्य नशीले द्रव्यों के सेवन को प्रोन्नत करने में लिप्त हैं. साथ ही देश में भृष्टाचार का इतना बोलबाला है कि जन-साधारण का जीवनयापन दूभर हो गया है और वह तनावों में जी रहा है. भृष्टाचार के कारण ही तथाकथित जनतांत्रिक चुनावों में मतदाताओं को प्रसन्न कर उनके मत पाने के लिए धन का दुरूपयोग किया जाता है जिसका बहुलांश लोगों को निःशुल्क शराब पिलाने में व्यय किया जाता है, जिसके कारण प्रत्येक चुनाव में अनेक व्यक्ति नए शराबी बन जाते हैं. धनवान लोग तो इसके दुष्प्रभाव को सहन कर लेते हैं किन्तु निर्धन लोग इसमें इतने डूब जाते हैं कि उनका ध्यान परिवार के पालन-पोषण पर न होकर स्वयं के लिए शराब की व्यवस्था करने में लगा रहता है. ऐसे परिवारों के प्रमुख अपने बच्चों और स्त्रियों को विवश करते हैं कि वे उनकी शराब की आपूर्ति के लिए मजदूरी करें. इस कारण से भी बच्चों की विशाल संख्या शिक्षा से वंचित रहकर श्रमिक बनाने हेतु विवश होती है.
देश के बच्चों के समक्ष श्रमिक बनाने की उक्त विवशताओं और बाल-श्रमिकों की घोषित अवैधता के कारण बच्चे ऐसे दूषित कार्य करने के लिए विवश हैं जिनमें उनके स्वास्थ दुष्प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते. वस्तुतः भारत भविष्य अंधकारमय है.
लेबल:
जनतांत्रिक चुनाव,
नशीले द्रव्य,
बाल श्रमिक,
भारत भविष्य,
विद्यालय,
शिक्षा
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
क्रोध, असहमति एवं तार्किकता
मानव समाज क्रोध की भावना को व्यक्तित्व का एक दुर्गुण मानता है इसीलिये क्रोधी व्यक्ति का प्रायः तिरस्कार किया जाता है. इस बारे में कहा जाता है कि 'बुद्धिमान क्रोध करते हैं किन्तु मूर्ख इसका प्रदर्शन करते हैं'. क्रोध का स्रोत सदैव सम्बंधित व्यक्तियों के मध्य असहमति ही होती है जिसे अभिव्यक्त करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है, जो सभी में नहीं होता. इससे सिद्ध होता है कि क्रोधी व्यक्ति में 'बौद्धिक साहस' अथवा 'साहसिक बुद्धि' होती है. इसके विपरीत असहमति में भी सहमत हो जाना सरल होता है, इसमें न क्रोध की आवश्यकता होती है और न ही किसी संग्राम की. इस प्रकार की सहमति के लिए न तो बुद्धि की आवश्यकता होती है और न ही किसी साहस की.
जब कोई व्यक्ति क्रोध करता है तो वह जानता होता है कि उसे दुरूह स्थिति का सामना करना होगा और वह अपनी तार्किक बुद्धि और वाक् शास्त्रों के उपयोग हेतु तत्पर होता है. ऐसा तभी संभव है जब व्यक्ति विरोधी की तर्क-विसंगति और स्वयं की तार्किकता के बारे में सुनिश्चित होता है. इसलिए क्रोध व्यक्ति को अधिक तर्कसंगत बनाता है. यह मनोवैज्ञानिक शोधों से पाया गया है.
क्रोध का आवेश व्यक्ति के चिंतन को दुष्प्रभावित करता है, उसकी निष्पक्षता पर प्रश्न लगाता है, व्यक्ति को पूर्वाग्रह से आवेशित करता है, और उसे आक्रामक बनता है. किन्तु ये सभी दुष्प्रभाव उसी समय होते हैं जब व्यक्ति अपने क्रोध को तीक्ष्णता से प्रकट करता है. प्रत्येक असहमति में क्रोध का प्रदर्शन अनिवार्य नहीं होता किन्तु व्यक्ति में आतंरिक क्रोध की उपस्थिति अनिवार्य होती है. इस कारण से असहमति और क्रोध में गहन सम्बन्ध होते हुए भी इनमें अंतर होता है जो क्रोध के प्रदर्शन में गंभीर हो जाता है.
वस्तुतः क्रोध व्यक्ति को जधिक सावधान और विरोधी मत के बारे में अधिक तर्क-संगत बनाता है ताकि वह अपना मत तर्कपूर्ण तरीके से प्रस्तुत कर सके. इसलिए आदतन क्रोधी व्यक्ति आदतन तर्क-संगत भी होते हैं. उनका दोष बस इतना होता है कि वे कूटनीति नहीं जानते एवं अपनाते, जिसे आधुनिक समाज में एक सद्गुण माना जाता है तथापि यह नैतिक दृष्टि से एक दुर्गुण है.
मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि जब कोई व्यक्ति क्रोध के आवेश में होता है तब वह अधिक सावधान और तर्क-संगत होता है. इस प्रकार क्रोध व्यक्ति विश्लेषणात्मक और निर्णय लेने की सामर्थ्य का संवर्धन करता है. वह सम्बंधित सूचनाओं को अधिक सावधानी से विश्लेषित करता है. तथापि क्रोध में व्यक्ति निर्णय लेने में अनावश्यक शीघ्रता प्रदर्शित कर सकता है तथा कुछ सूचनाओं की अनदेखी कर सकता है.
उक्त चर्चा का सार यह है कि स्वभाव से क्रोधी व्यक्ति अपने शांत क्षणों में अन्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक अच्छे निर्णायक होते हैं. इसलिए स्वभावतः क्रोधी व्यक्ति के शांत क्षण मानवता और समाज के लिए बहुमूल्य निधि सिद्ध होते हैं जबकि स्वभावतः शांत व्यक्ति मानवता और समाज के लिए अनुपयोगी सिद्ध होते हैं.
यहाँ क्रोध करने और तृस्त होने में अंतर को समझना भी प्रासंगिक है. व्यक्ति अपने भरसक प्रयासों की असफलता के कारण तृस्त होता है जिससे वह निष्क्रिय एवं निराशावादी बनता है जब कि क्रोध किसी अन्य जीव के व्यवहार से असहमति पर आता है जिससे उसकी मनोदशा प्रतिक्रियात्मक सक्रियता एवं चिंतन के लिए उद्यत होती है.
जब कोई व्यक्ति क्रोध करता है तो वह जानता होता है कि उसे दुरूह स्थिति का सामना करना होगा और वह अपनी तार्किक बुद्धि और वाक् शास्त्रों के उपयोग हेतु तत्पर होता है. ऐसा तभी संभव है जब व्यक्ति विरोधी की तर्क-विसंगति और स्वयं की तार्किकता के बारे में सुनिश्चित होता है. इसलिए क्रोध व्यक्ति को अधिक तर्कसंगत बनाता है. यह मनोवैज्ञानिक शोधों से पाया गया है.
क्रोध का आवेश व्यक्ति के चिंतन को दुष्प्रभावित करता है, उसकी निष्पक्षता पर प्रश्न लगाता है, व्यक्ति को पूर्वाग्रह से आवेशित करता है, और उसे आक्रामक बनता है. किन्तु ये सभी दुष्प्रभाव उसी समय होते हैं जब व्यक्ति अपने क्रोध को तीक्ष्णता से प्रकट करता है. प्रत्येक असहमति में क्रोध का प्रदर्शन अनिवार्य नहीं होता किन्तु व्यक्ति में आतंरिक क्रोध की उपस्थिति अनिवार्य होती है. इस कारण से असहमति और क्रोध में गहन सम्बन्ध होते हुए भी इनमें अंतर होता है जो क्रोध के प्रदर्शन में गंभीर हो जाता है.
वस्तुतः क्रोध व्यक्ति को जधिक सावधान और विरोधी मत के बारे में अधिक तर्क-संगत बनाता है ताकि वह अपना मत तर्कपूर्ण तरीके से प्रस्तुत कर सके. इसलिए आदतन क्रोधी व्यक्ति आदतन तर्क-संगत भी होते हैं. उनका दोष बस इतना होता है कि वे कूटनीति नहीं जानते एवं अपनाते, जिसे आधुनिक समाज में एक सद्गुण माना जाता है तथापि यह नैतिक दृष्टि से एक दुर्गुण है.
मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि जब कोई व्यक्ति क्रोध के आवेश में होता है तब वह अधिक सावधान और तर्क-संगत होता है. इस प्रकार क्रोध व्यक्ति विश्लेषणात्मक और निर्णय लेने की सामर्थ्य का संवर्धन करता है. वह सम्बंधित सूचनाओं को अधिक सावधानी से विश्लेषित करता है. तथापि क्रोध में व्यक्ति निर्णय लेने में अनावश्यक शीघ्रता प्रदर्शित कर सकता है तथा कुछ सूचनाओं की अनदेखी कर सकता है.
उक्त चर्चा का सार यह है कि स्वभाव से क्रोधी व्यक्ति अपने शांत क्षणों में अन्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक अच्छे निर्णायक होते हैं. इसलिए स्वभावतः क्रोधी व्यक्ति के शांत क्षण मानवता और समाज के लिए बहुमूल्य निधि सिद्ध होते हैं जबकि स्वभावतः शांत व्यक्ति मानवता और समाज के लिए अनुपयोगी सिद्ध होते हैं.
यहाँ क्रोध करने और तृस्त होने में अंतर को समझना भी प्रासंगिक है. व्यक्ति अपने भरसक प्रयासों की असफलता के कारण तृस्त होता है जिससे वह निष्क्रिय एवं निराशावादी बनता है जब कि क्रोध किसी अन्य जीव के व्यवहार से असहमति पर आता है जिससे उसकी मनोदशा प्रतिक्रियात्मक सक्रियता एवं चिंतन के लिए उद्यत होती है.
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता
इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.
इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.
भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.
महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.
यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.
आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.
समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.
इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.
भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.
महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.
यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.
आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.
समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.
इतिहास, भावुकता और असहिष्णुता
इतिहास प्रायः कटु सत्यों का विषय होता है, न कि भावनाओं का. किन्तु इसको लोग प्रायः अपनी भावनाओं से जोड़ने लगते हैं. ऐसा करके वे इतिहास विषयक शोधों में व्यवधान उत्पन्न करते हैं. शोधों के आधार पर बड़े से बड़े और स्थापित वैज्ञानिक सत्य भी बदलते रहते हैं तो ज्ञात इतिहास में त्रुटि क्यों नहीं खोजी जानी चाहिए. भारत के ज्ञात इतिहास में इतनी भयंकर त्रुटियाँ हैं कि इसे विश्व स्तर पर विश्वसनीय नहीं माना जा रहा है. इसलिए हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि हम इस पर शोध करें और इसे विश्वसनीय बनाएं. केवल भावनाओं के आधार पर इस विषय में कट्टरता दिखने से कोई लाभ नहीं होने वाला.
इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.
भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.
महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.
यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.
आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.
समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.
इस विषय में दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इतिहास किसी जाति अथवा धर्म का पक्षधर बने रहने से सही रूप में नहीं रचा जा सकता, इसके लिए धर्म और जाति से निरपेक्ष होने की आवश्यकता है. भारत के महाभारतकालीन इतिहास के बारे में तो यह अतीव सरल और सहज इसलिए भी है कि उस समय भारत का मौलिक समाज किसी वर्तमान धर्म अथवा जाति से सम्बद्ध नहीं था.
भारत सहित विश्व के सभी भाषाविद और इतिहासकार जानते और मानते हैं कि वैदिक संस्कृत, जिसमें भारत के वेद और शस्त्र रचे हुए हैं, आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है. तथापि आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि वैदिक संस्कृत को जाना जाए. इसका कारण और प्रमाण यह है कि आज तक वेदों और शास्त्रों का कोई ऐसा अनुवाद नहीं किया गया जो आधुनिक संस्कृत पर आधारित न हो. इस कारण से इन प्राचीन ग्रंथों के कोई भी सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास की सत्यता को प्रमाणित किया जा सकता. जो भी इतिहास संबंधी सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं वे उक्त भृष्ट अनुवादों से ही प्राप्त हुई हैं. इसी लिए वे भी भृष्ट हैं और विश्वसनीय नहीं हैं.
महर्षि अरविन्द ने 'वेद रहस्य' नामक पुस्तक में वैदिक संस्कृत के बारे में कुछ अध्ययन किया है और संकेत दिए हैं कि वैदिक संस्कृत की शब्दावली लैटिन और ग्रीक भाषाओं की शब्दावली से मेल खाती है. इस आधार पर मेने भी कुछ अध्ययन किये और पाया कि हम लैटिन और ग्रीक भाषाओँ के शब्दार्थों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के सही अनुवाद प्राप्त कर सकते हैं. चूंकि मैं लैटिन और ग्रीक भाषाओँ का महर्षि अरविन्द की तरह ज्ञानवान नहीं हूँ तथापि इन भाषाओँ के शब्दकोशों के आधार पर वेदों और शास्त्रों के कुछ अंशों के अनुवाद पाने में समर्थ हो पाया हूँ, जिसके आधार पर भारत के इतिहास के पुनर्रचना आरम्भ की है. इसमें दूसरों का भी सहयोग मिले इसी आशा से वैदिक और शास्त्रीय शब्दावली के अर्थ भी प्रकाशित करने आरम्भ किये हैं. यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि में वैदिक संस्कृत के बारे में दोषपूर्ण है तो वह यह अपने विचार से सही अवधारणा प्रतिपादित करे न कि केवल दोष निकालने को ही अपना कर्तव्य समझे. किन्तु ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया है.
यहाँ यह भी सभी को स्वीकार्य होगा कि 'महाभारत' युद्ध विश्व का भीषणतम सशस्त्र संग्राम था जिसमें तत्कालीन विश्व के अधिकाँश देश सम्मिलित थे. इसकी भीषणता सिद्ध करती है कि दोनों पक्षों की जीवन-शैली, चरित्र और विचारधारा में अत्यंत गहन अंतराल थे. एक परिवार के ही दो पक्ष तो बन सकते हैं, और दोनों के मध्य स्थानीय स्तर का संघर्ष भी हो सकता है किन्तु उनके कारण विश्व व्यापक सशस्त्र संघर्ष नहीं हो सकता. वस्तुतः यह युद्ध पृथ्वी का प्रथम विश्व-युद्ध था किन्तु भारत के इतिहास को विश्वसनीयता प्राप्त न होने के कारण इसे इतिहास में कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह भी हम भारतीयों को अपनी त्रुटि सुधारने का पर्याप्त कारण होना चाहिए यदि हम में लेश मात्र भी आत्म-सम्मान की भावना शेष है. आखिर भारत के इतिहास में कहीं तो कुछ ऐसा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं और लकीर के फ़कीर बने गलत-सलत अवधारणाओं को गले लगाये बैठे हैं और मूर्खतापूर्ण आत्म-संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं.
आर्य विश्व स्तर की एक महत्वपूर्ण जाति थी जिसका भारत से गहन सम्बन्ध था, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता. किन्तु भारत के इतिहास के त्रुटिपूर्ण होने के कारण आर्यों के बारे में भी अभी तक इतिहासकार एक मत नहीं हो पाए हैं. यह भी हमारे लिए डूब मरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था.
समस्त विश्व सिकंदर को महान कहता है तथापि उसके बारे में शोधों से ज्ञात हुआ है कि वह समलिंगी था जिसे अभी हाल में बनी हॉलीवुड फिल्म 'अलैक्सैंदर' में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु उसे महान कहने वाले किसी व्यक्ति ने इस फिल्म पर उंगली नहीं उठायी क्योंकि विश्व भार के समझदार लोग इतिहास को भावुकता से प्रथक रखते हैं और इस बारे में शोधों को महत्व देते हैं. इसी व्यक्ति के बारे में इंटरपोल द्वारा की गयी छान-बीनों के आधार पर सिद्ध किया गया कि सिकंदर बेहद शराबी और नृशंस व्यक्ति था जो उसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. इसे भी डिस्कवरी चैनल पर बड़े जोर-शोर से प्रकाशित किया गया. इसी प्रकाशन में यह संदेह भी व्यक्त किया गया कि सिकंदर की हत्या उसके गुरु अरस्तू ने की थी. किन्तु उसका भी भावुकता के आधार पर कोई विरोध नहीं किया गया क्यों कि इसमें भी शोधपूर्ण दृष्टिकोण को महत्व दिया गया.
मेरे आलेखों का कुछ भावुक लोग विरोध कर रहे हैं किन्तु इस बारे में वे कोई शोधपरक तर्क न देकर केवल अपनी भावनाओं को सामने ले आते हैं, जो उग्रता है न कि मानवीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण. अतः मेरा निवेदन है कि वे कुछ शोध करें विशेष कर वैदिक संस्कृत और आधुनिक संस्कृत के अंतराल पर और जब भी वे इस अंतराल को समझ सकें उसके आधार पर शास्त्रों के अनुवाद करें, तभी कोई सार्थक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)