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मंगलवार, 4 जनवरी 2011

हिंदी मानसिकता से निराशा

लगभग १ वर्ष पहले एक मित्र ने प्रोत्साहित किया था हिंदी में ब्लॉग लिखने के लिए, सो एक के बाद एक करके ८ ब्लोगों पर लिखना आरम्भ किया. किन्तु अभी तक के अनुभवों से हिंदी मानसिकता से घोर निराशा हुई है. प्रथम तो हिंदी क्षेत्र में गंभीर विषयों के लिए पाठक ही नहीं हैं, और जो हैं वे अपनी घिसी-पीती मानसिकता के इतने अधिक दास हैं कि किसी नए चिंतन, शोध अथवा मत के लिए उनके मन में कोई स्थान है ही नहीं. उन्हें बस वही चाहिए जो वे जानते हैं और मानते हैं. उनमें विचारशीलता का नितांत अभाव है.


भारत में दीर्घ काल से जंगली जातियों का वर्चस्व रहा है, यह एक उत्तम घटनाक्रम सिद्ध होता यदि ये जंगली जातियां मानवीय सभ्यता और शिष्टाचार अपनातीं और विश्व मानव समुदाय का अंग बनने की ललक रखतीं. किन्तु अपने अनुभवों के आधार पर मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूँ कि इन्हें अपने जंगलीपन पर गर्व है जिसके कारण ये उसी को अपने व्यवहार में बनाए रखने और प्रोन्नत करने में रूचि रखते हैं. इसके फलस्वरूप जो अभद्रता अपने शोधपरक आलेखों पर टिप्पणियों के रूप में मुझे सहन करनी पडी है, वह अशोभनीय ही नहीं अमानवीय भी है.

हिंदी क्षेत्र के लोग इतिहास जैसे तथ्यपरक विषय को भी अपनी भावनाओं के अनुरूप देखना चाहते हैं - कोई हिन्दू है तो हिंदुत्व को गौरवान्वित देखना चाहता है, कोई मुस्लिम है तो इस्लाम को गौरवान्वित देखने की लालसा रखता है ...   ..., चाहे ऐतिहासिक तथ्य इनके विपरीत ही क्यों न हों. कहीं अथवा कभी किसी को मानवीय दृष्टिकोण की चिंता नहीं सताती. इसके अतिरिक्त हिन्दुओं में कोई वामन है, तो कोई क्षत्रीय, कोई वैश्य तो कोई शूद्र, ... हिन्दू कोई नहीं है, और न ही कोई भारतीय है, और बस एक मानव होने या बनने की सभावना दूर-दूर तक नहीं पायी जाती.

लोगों की बस एक जिद है - भारत, इसकी संस्कृति और इसका अतीत महान कही जाब्नी चाहिए, चाहे इनमें कितनी भी विकृतियाँ हों, कितनी भी दुर्गन्ध भरी सडन हो. सच कहा जाएगा तो लोगों की भावनाएं क्षत-विक्षत होंगी और वे झंडे और डंडे के साथ उग्र विरोध करेंगे. इसलिए लोकप्रियता चाहने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी सच कहने का साहस ही नहीं करते. इस कारण से हिंदी लेखन में मौलिकता का नितांत अभाव रहा है, अब भी है और आगे भी ऐसा ही रहेगा.

किसी भी वस्तु अथवा विचार में दोष तभी दूर किया जा सकता है जब उसे पहचाना जाए. इसके लिए यह आवश्यक है कि वस्तु अथवा विचार पर भावुकता का परित्याग करते हुए उसके बारे में लक्ष्यपरक विश्लेषण किया जाए. हिंदी मानसिकता में ऐसा किया नहीं जा रहा है अथवा करने नहीं दिया जा रहा है. इसलिए कालान्तर में मामूली से दोष भी भयंकर व्याधियां बन गए हैं और हिंदी मानसिकता में इनकी पैठ इतनी गहन है कि कठोर प्रहार के बिना इनका उन्मूलन नहीं किया जा सकता.
Orthodoxy

हिंदी लेखन के अपने अनुभवों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मैंने अपने संसाधनों का दुरूपयोग किया है. अतः मैं अपने ८ ब्लोगों में से पांच पर लिखना बंद कर रहा हूँ, शेष तीन पर अभी लिखता रहूँगा. हाँ अपने अंग्रेज़ी के ८ ब्लोगों के लेकन और पाठकों से मुझे पूर्ण संतुष्टि है और मैं उनपर लिखता रहूँगा.

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

जनतांत्रिक चुनावों में जनमत की कसौटियां

यद्यपि भारत में सरकार के चयन हेतु आयोजित जनतांत्रिक चुनावों में जनसाधारण द्वारा अपने मत प्रकट करने की परम्परा स्वस्थ कभी नहीं रही है, किन्तु अभी समापित उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में जनतंत्र की स्थिति बुरी तरह प्रदूषित है और यह बदतर होती जा रही है. पंचायत चुनावों द्वारा केवल ग्राम, विकास खंड और जनपद स्तर की पंचायतों के लिए जन प्रतिनिधियों को चुना जाता है जिनकी शासन में कोई विशेष भूमिका नहीं होती, मात्र कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह किया जाता है और जनहित हेतु आबंटित कुछ सार्वजनिक धन की बन्दर-बाँट की जाती है. तथापि इसके माध्यम से तुच्छ लाभों को प्राप्त करने के लिए जो भीषण संघर्ष होते हैं और उनमें भारतीय जनमानस की जो दयनीय स्थिति उजागर होती है उन्हें देखकर प्रत्येक सम्मानित भारतीय का सिर शर्म से झुक जाता है. उक्त चुनावों में जो पाया गया, आइये उसके कुछ पहलुओं पर दृष्टि डालें.

जातीयता
भारत का समाज सदैव जातियों में विभाजित रहा है किन्तु इस विभाजन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत की राजनीति पर होता है जिसमें चुनावों के लिए प्रत्याशियों के चयन से लेकर मतदान तक व्यक्ति की जाति को प्रमुख आधार बनाया जाता है तथा व्यक्ति की पद हेतु सुयोग्यता को ताक पर रख दिया जाता है. चूंकि मूर्ख और अशिक्षित व्यक्ति अधिक बच्चे जनते हैं इसलिए इस प्रकार की जातियां ही देश की बहुसंख्यक होती रही हैं और अपने प्रतिनिधि भी इसी प्रकार के चुनते रहे हैं. इसी कारण से अनेक आपराधिक प्रवृत्तियों वाली परम्परागत जातियां भी देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं.

आरक्षण
बुद्धिहीन और आपराधिक प्रवृत्तियों वाली जातियों द्वारा सत्ता प्राप्त करते रहने के कारण ही देश में राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर स्वयं को सत्तासीन करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो आरम्भ में सीमित थी और केवल १० वर्ष की अवधि के लिए पर्याप्त मानी गयी थी. किन्तु अब स्वतन्त्रता के ६० वर्ष होने पर भी इसे केवल सतत ही नहीं रखा गया इसका विस्तार भी किया जाता रहा है. वर्तमान में प्रत्येक राजनैतिक और प्रशासनिक पद के लिए दो-तिहाई स्थान आरक्षित कर दिए गए हैं जिनमें महिला आरक्षण भी सम्मिलित है.

राजनीति में आरक्षण करने की मूर्खता इससे भी स्पष्ट होती है कि देश की पिछड़ी और दलित जातियां बहुमत में हैं और वे जनतांत्रिक पद्यति से अपने बहुमत के कारण देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं और उन्हें किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है. इसी प्रकार महिलाओं की संख्या लगभग ५० प्रतिशत होने कारण वे भी अपने प्रतिनिधि छनने में सक्षम हैं और उन के लिए भी आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है.

बुद्धिहीन भावुकता
अभी हुए पंचायती चुनावों में एक जाने-माने अपराधी ने कानूनी फंदे से अपनी जान बचाने की गुहार देते हुए मतदाताओं के पैरों में सिर रख-रख कर उन्हें भावुकता का शिकार बनाया और उनके मत प्राप्त कर लिए. इस प्रकार एक अपराधी भी सत्ताधिकारी बन गया. जन साधारण को उस पर दया आयी जिसके कारण उसे अपने मत दे दिए किन्तु किसी ने भी उसे अपनी कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं दी जिससे उसे अपराध करने की आवश्यकता न हो. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे अपने मतों का महत्व नहीं जानते किन्तु अपनी व्यक्तिगत संपदाओं का महत्व जानते हैं. इससे सिद्ध यही होता है कि भारतीय जनमानस अभी भी जनतंत्र हेतु वांछित सुयोग्यता प्राप्त नहीं कर पाया है.

इसी प्रकार की बुद्धिहीन भावुकता के कारण ही स्वतन्त्रता के बाद से देश की राजनैतिक सत्ता केवल एक परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.

शराबखोरी
चुनावों में मत पाने के लिए जिस वस्तु का सर्वाधिक उपयोग होता है वह शराब है जिसका प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क वितरण किया जाता है. यह मात्र एक दूषित परम्परा है जिससे मत प्राप्त नहीं होते केवल कुछ दुश्चरित्र लोगों को खुश कर प्रत्याशी के पक्ष में वातावरण बनाया जाता है. इस प्रकार के शराबी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं जिन्हें खुश रखना प्रत्येक प्रत्याशी के लिए आवश्यक होता है. केवल शराब के वितरण पर ही प्रत्येक औसत ग्राम में २० लाख रुपये व्यय कर दिया जाता है.


धन का लालच
इस चुनाव से सिद्ध हो गया है कि अब मतदाताओं को खुश करने के लिए केवल शराब पिलाना पर्याप्त नहीं रह गया है, उन्हें नकद धन भी दिया जाने लगा है. मेरे गाँव में ही ग्राम प्रधान पद के दो प्रत्याशियों ने डेढ़-डेढ़ लाख रुपये वितरित किये जिनमें से एक ने विजय पायी. इन चुनावों में जनपद पंचायत के प्रत्येक प्रत्याशी ने अपने प्रचार और मतदाताओं को खुश करने के लिए २० से ५० लाख रुपये तक व्यय किये जिसमें से अधिकाँश शराब के वितरण पर व्यय हुआ.  

बाहरी प्रभाव
मूल रूप से गाँव के निवासी शिक्षित और साधन संपन्न होकर दूर शहरों में जा बसते हैं जहां उनके स्थायी घर, राशन कार्ड, मताधिकार आदि सभी कुछ होते हैं तथापि वे अपने गाँवों में भी अपने घर, राशन कार्ड तथा मताधिकार बनाए रखते हैं. इस प्रकार ये देश के दोहरे नागरिक होते हैं और दोनों स्थानों से सुविधाएं प्राप्त करते रहते हैं. इनकी तुलना में ग्रामवासी प्रायः निर्धन होते हैं इसलिए उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ मानते हुए चुनावों में उनके मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं. इस प्रकार ग्रामों के ये अवैध नागरिक गाँवों पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं और पंचायत चुनावों को अपने हित में प्रभावित करते हैं. 
Jana Sanskriti: Forum Theatre and Democracy in India

मेरे ग्राम में भी इस प्रकार के लगभग ४०० अवैध मतदाता हैं जो गाँव के लगभग १६०० वैध मतदाताओं को मूर्ख समझते और बनाते रहे हैं. उक्त पंचायत चुनावों से पूर्व मैंने उत्तर प्रदेश के चुनाव आयुक्त को लिखित निवेदन भेजा था कि ऐसे मतदाताओं के नाम गाँव की मतदाता सूची से हटाने की व्यवस्था की जाए किन्तु इस पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी.  

उक्त कारणों से कहा जा सकता है कि भारत में अभी तक कोई जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित नहीं हो पायी है और इस नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब धोखाधड़ी है. इसमें बुद्धिमानी अथवा सुयोग्यता का कोई महत्व नहीं है.