प्रत्येक समाज में जन साधारण का आधिक्य होता है जो प्रायः तुच्छ प्रलोभनों के वशीभूत होते हैं, तथापि किसी अन्य द्वारा सद्मार्ग पर चलने की प्रशंसा करते हैं. इसका अर्थ यह है कि वे कुमार्ग और सद्मार्ग को पहचानते हैं और उनकी आतंरिक इच्छा सद्मार्ग पर चलने की होती है किन्तु अपनी पारिस्थिक विवशताओं, सांस्कारिक दोषों और चारित्रिक निर्बलताओं के कारण ऐसा नहीं कर पाते. अतः, जन-साधारण की विवशताओं को दूर कर, संस्कारों को परिष्कृत कर और इन के चरित्रों को संबल प्रदान करके समाज को सद्मार्ग पर चलाया जा सकता है यह एक क्लिष्ट और मंद प्रगति वाला कार्य है तथापि समाज के परिष्कार हेतु आवश्यक है.
समाज को न्यायोचित पथ पर चलाने के लिए प्रणेता को असीम धैर्य की आवश्यकता होती है क्योंकि लोग इस मार्ग पर चलाने से पूर्व चिंतन करते हैं जिसमें समय लगता है. इस चिंतन द्वारा ही लोग अपने प्रलोभनों और स्वार्थों से मुक्त होते हैं. किन्तु यह केवल एक बार के प्रयास से संभव नहीं होता. उनके चिंतन के परिपक्व होने तक ऐसे लोगों को बार-बार मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है. साथ ही इन्हें प्रलोभन देने वाले कारणों से दूर रखना आवश्यक होता है, अन्यथा ऐसे लोग असमंजस की अवस्था में आकर प्रलोभनों की ओर आकर्षित हो जाते हैं.
लोगों को चिंतन का अभ्यस्त बनाना और उन्हें न्यायोचित मार्ग पर चलाने में कोई विशेष अंतर नहीं है, दोनों का अंततः प्रभाव एक समान ही होता है. इससका तात्पर्य यह है कि चिंतन करने वाला व्यक्ति सुमार्ग का ही अनुपालन करता है. जन-साधारण प्रायः अपने जीवन को बनाये रखने की समस्याओं में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें किसी विषय पर गंभीर चिंतन के लिए समय ही प्राप्त नहीं हो पाता. यहाँ यह स्पष्ट करना भी प्रासंगिक है कि चिन्तनशीलता का धनाढ्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है. अनेक धनाढ्य व्यक्ति अपने धन को बहुगुणित करने में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि वे चिंतन को समय का दुरूपयोग मानते हैं. चिंतन की दृष्टि से ऐसे धनाढ्य भी जन-साधारण वर्ग में ही सम्मिलित होते हैं.
चिन्तनशीलता का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की रचनाधर्मिता से है. लेखक, कवि, चित्रकार, वैज्ञानिक, आदि रचनाधर्मी होते हैं और चिंतन के भी अभ्यस्त होते हैं. ऐसे व्यक्ति प्रायः न्यायोचित पथ का अनुगमन करते हैं, जिसके कारण ये प्रायः निर्धन भी होते हैं किन्तु इनकी निर्धनता इन्हें चिंतन-शीलता से दूर नहीं करती. ये अपनी निर्धनता में भी प्रसन्न रहते हैं. इसे समझने के लिए हमें निर्धनता के मूल पक्ष पर ध्यान देना होगा. वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निर्धन वह व्यक्ति होता है जिसे सदैव कुछ और धन की लालसा बनी रहती है. जिसे ऐसी लालसा नहीं होती वह संतुष्ट होता है और निर्धन नहीं कहा जा सकता भले ही वह भौतिक स्तर पर धनाढ्य न हो.
यदि आपका मार्ग न्यायोचित है तो स्वार्थी समाज में आपके अनुयायी अल्प होंगे और इसके लिए भी उन्हें मानना कठिन होगा. इसके लिए धीमे चलिए और लोगों को सोच-विचार का पूरा अवसर दीजिये. इसके विपरीत, दोषपूर्ण मार्ग पर चलने के लिए लोगों पर तुरंत निर्णय लेने के लिए जोर डालिए ताकि वे चिंतन न कर सकें और आपके कुमार्ग का अनुगमन करने लगें.
चिन्तनशीलता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
चिन्तनशीलता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
मंगलवार, 9 मार्च 2010
महामानव का अनिवार्य लक्षण और लक्ष्य
तीन विशेषण शब्द - ठीक, सामान्य और साधारण, प्रायः एक दूसरे के पर्याय के रूप में उपयोग किये जाते हैं. इन के अंग्रेजी समतुल्य शब्द - normal , common और ordinary, भी लगभग पर्याय मने जाते हैं. किन्तु इन तीन शब्दों के विलोम शब्द - बेठीक (abnormal), असामान्य (uncommon) और असाधारण (एक्स्ट्रा-ordinary), एक दूसरे के पर्याय न होकर बहुत अधिक भिन्न अर्थ रखते हैं. शब्दों के इस भेद में हमारे सीखने के लिए बहुत हुछ छिपा है.
प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ सामर्थवान है, स्वयं को उन दूसरों से भिन्न दर्शाना चाहता है जिन्हें वह ठीक, सामान्य तथा साधारण मानता है. इस चाह में कभी वह बेठीक हो जाता है, कभी असामान्य तो कभी असाधारण, जबकि उसकी वास्तविक चाह 'असाधारण' होने की होती है. प्रत्येक महामानव न तो बस ठीक होता है, न सामान्य और न ही साधारण. इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रत्येक सामर्थवान व्यक्ति महामानव होने की चाह रखता है तथा इसकी सक्षमता रखता है.
प्रचलित मान्यताओं के अनुसार किसी व्यक्ति के बेठीक, असामान्य अथवा असाधारण समझे जाने में उस व्यक्ति विशेष की भूमिका नगण्य होती है, किन्तु दूसरों के दृष्टिकोण बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. एक समर्थवान व्यक्ति को उसके समाज के कुछ लोग बेठीक मानते हैं, कुछ अन्य उसे असामान्य वर्ग में रखते हैं तो कुछ उसे असाधारण समझते हैं. इस प्रकार ये तीन विशेषण लक्श्यपरक न होकर व्यक्तिपरक सिद्ध होते हैं चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार ही दूसरों का आकलन करता है. अतः प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि दूसरों से भिन्न होती है तथा वह इसकी परिभाषा भी दूसरों की परिभाषा से भिन्न रखता है. ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति के बारे में दूसरों के आकलन महत्वहीन हो जाते हैं. यही जागतिक यथार्थ है.
उपरोक्त से सिद्ध होता है कि सामर्थवान व्यक्ति का अपने बारे में आकलन ही सर्वोपरि एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है जबकि बस-ठीक, सामान्य और साधारण व्यक्तियों के लिए दूसरों के आकलन महत्वपूर्ण होते हैं. यही अंतराल है - महामानव और मानव का. यहीं से आरम्भ होते हैं महामानव के विशिष्ट गुण - आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, अत्म्संकल्प, और सर्वोपरि उसके द्वारा अपने लिए चुनी गयी राह. इस सबके लिए उसे दूसरों के उसके बारे में मतों और आकलनों से निरपेक्ष होना अनिवार्य हो जाता है जिसके लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है. जो ऐसा साहस कर पाते हैं वही महामानव बनाने की संभावना रखते हैं. यहाँ यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि सभी अदम्य साहसी व्यक्ति महामानव नहीं बन सकते. अतः महामानाव्में उपरोक्त गुणों के अतिरिक्त एक अन्य विशेष गुण की भी आवश्यकता होती है.
प्रत्येक अपराधी भी साहसी होता है, अपने अपराध के बारे में दूसरों के आकलन से निरपेक्ष रहता है, और उसे बस-ठीक, सामान्य अथवा साधारण भी नहीं कहा जा सकता. तथापि वह महामानव का पूर्णतः विलोम होता है. तो फिर क्या है वह गुण जो महामानव को एक अपराधी से भिन्न बनाता है? यह गुण है उसकी चिन्तनशीलता जो उसे अपराधी बनाने की अपेक्षा महामानावारा की ओर मोड़ती है. चिन्तनशीलता ही मनुष्यों को अन्य जीवों सी प्रथक करती है और यही मानुष-मनुष्य में अंतराल उत्पन्न करती है, और यही कुछ व्यक्तियों को महामानव बनाती है. कोई भी व्यक्ति व्यक्तिपरक होने से बच नहीं सकता, किन्तु विभिन्न व्यक्तियों के लक्श्यपरक होने के परिमाण भिन्न होते हैं. इस प्रकार महामानव की चिन्तनशीलता व्यक्तिपरक होने के साथ-साथ उछ परिमाण की लक्श्यपरण होती है.
. .
साधारण से साधारण व्यक्ति भी स्वयं को चिन्तनहीन स्वीकार नहीं करता क्योंकि सभी चिंतन करते हैं मनुष्य के मस्तिष्क के प्राकृत रूप में चिंतनशील होने के कारण. किन्तु विभिन्न व्यक्तियों के चिंतन विषय तथा उनके स्तर भिन्न होते हैं. इसमें व्यक्ति के सरोकारों का बहुत महत्व होता है - कुछ व्यक्तियों के सरोकार स्वयं के लिए रोटी, कपड़ा और मकान पाने तक सीमित होते हैं, कुछ वैभवपूर्ण जीवनशैली अपनाने को समर्पित होते हैं, तो कुछ असीमित संपदा संग्रह को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाते हैं. कुछ सामाजिक लोकप्रियता को ही अपना सर्वोपरि सरोकार बनाते हैं. किन्तु महामानव के सरोकार इन सबसे भिन्न होते हैं.
महामानव मानवता के शीर्ष के ओर अग्रसर होता है इसलिए उसका सर्वोपरि सरोकार ऐसे मानवीय गुणों का विकास होता है जिनसे मानव सभ्यता आगे जाती है. मानव सभ्यता विकास के बारे में भी मतान्तर हो सकते हैं, किन्तु इसका मानदंड केवल एक है जो मानव को अन्य जीवों से भिन्न बनाता है. सभी जंगली जीवों में सशक्त द्वारा निर्बलों का शोषण प्राकृत गुण के रूप में विद्यमान है, यही उनके अपने जीवन का आधार होता है. मनुष्य प्राकृत जीव नहीं राह गया है, इसने विकास किया है - परस्पर शोषण से विमुख होकर परस्पर सहयोग की भावना विकसित करके और इसके लिए समुचित व्यवस्थाएं करके. अतः शोषण-विहीन समाज की संरचना ही मानव सभ्यता के विकास की परिचायक है और यही प्रत्येक महामानव का लक्ष्य होता है.
प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ सामर्थवान है, स्वयं को उन दूसरों से भिन्न दर्शाना चाहता है जिन्हें वह ठीक, सामान्य तथा साधारण मानता है. इस चाह में कभी वह बेठीक हो जाता है, कभी असामान्य तो कभी असाधारण, जबकि उसकी वास्तविक चाह 'असाधारण' होने की होती है. प्रत्येक महामानव न तो बस ठीक होता है, न सामान्य और न ही साधारण. इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रत्येक सामर्थवान व्यक्ति महामानव होने की चाह रखता है तथा इसकी सक्षमता रखता है.
प्रचलित मान्यताओं के अनुसार किसी व्यक्ति के बेठीक, असामान्य अथवा असाधारण समझे जाने में उस व्यक्ति विशेष की भूमिका नगण्य होती है, किन्तु दूसरों के दृष्टिकोण बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. एक समर्थवान व्यक्ति को उसके समाज के कुछ लोग बेठीक मानते हैं, कुछ अन्य उसे असामान्य वर्ग में रखते हैं तो कुछ उसे असाधारण समझते हैं. इस प्रकार ये तीन विशेषण लक्श्यपरक न होकर व्यक्तिपरक सिद्ध होते हैं चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार ही दूसरों का आकलन करता है. अतः प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि दूसरों से भिन्न होती है तथा वह इसकी परिभाषा भी दूसरों की परिभाषा से भिन्न रखता है. ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति के बारे में दूसरों के आकलन महत्वहीन हो जाते हैं. यही जागतिक यथार्थ है.
उपरोक्त से सिद्ध होता है कि सामर्थवान व्यक्ति का अपने बारे में आकलन ही सर्वोपरि एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है जबकि बस-ठीक, सामान्य और साधारण व्यक्तियों के लिए दूसरों के आकलन महत्वपूर्ण होते हैं. यही अंतराल है - महामानव और मानव का. यहीं से आरम्भ होते हैं महामानव के विशिष्ट गुण - आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, अत्म्संकल्प, और सर्वोपरि उसके द्वारा अपने लिए चुनी गयी राह. इस सबके लिए उसे दूसरों के उसके बारे में मतों और आकलनों से निरपेक्ष होना अनिवार्य हो जाता है जिसके लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है. जो ऐसा साहस कर पाते हैं वही महामानव बनाने की संभावना रखते हैं. यहाँ यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि सभी अदम्य साहसी व्यक्ति महामानव नहीं बन सकते. अतः महामानाव्में उपरोक्त गुणों के अतिरिक्त एक अन्य विशेष गुण की भी आवश्यकता होती है.
प्रत्येक अपराधी भी साहसी होता है, अपने अपराध के बारे में दूसरों के आकलन से निरपेक्ष रहता है, और उसे बस-ठीक, सामान्य अथवा साधारण भी नहीं कहा जा सकता. तथापि वह महामानव का पूर्णतः विलोम होता है. तो फिर क्या है वह गुण जो महामानव को एक अपराधी से भिन्न बनाता है? यह गुण है उसकी चिन्तनशीलता जो उसे अपराधी बनाने की अपेक्षा महामानावारा की ओर मोड़ती है. चिन्तनशीलता ही मनुष्यों को अन्य जीवों सी प्रथक करती है और यही मानुष-मनुष्य में अंतराल उत्पन्न करती है, और यही कुछ व्यक्तियों को महामानव बनाती है. कोई भी व्यक्ति व्यक्तिपरक होने से बच नहीं सकता, किन्तु विभिन्न व्यक्तियों के लक्श्यपरक होने के परिमाण भिन्न होते हैं. इस प्रकार महामानव की चिन्तनशीलता व्यक्तिपरक होने के साथ-साथ उछ परिमाण की लक्श्यपरण होती है.
. .
साधारण से साधारण व्यक्ति भी स्वयं को चिन्तनहीन स्वीकार नहीं करता क्योंकि सभी चिंतन करते हैं मनुष्य के मस्तिष्क के प्राकृत रूप में चिंतनशील होने के कारण. किन्तु विभिन्न व्यक्तियों के चिंतन विषय तथा उनके स्तर भिन्न होते हैं. इसमें व्यक्ति के सरोकारों का बहुत महत्व होता है - कुछ व्यक्तियों के सरोकार स्वयं के लिए रोटी, कपड़ा और मकान पाने तक सीमित होते हैं, कुछ वैभवपूर्ण जीवनशैली अपनाने को समर्पित होते हैं, तो कुछ असीमित संपदा संग्रह को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाते हैं. कुछ सामाजिक लोकप्रियता को ही अपना सर्वोपरि सरोकार बनाते हैं. किन्तु महामानव के सरोकार इन सबसे भिन्न होते हैं.
महामानव मानवता के शीर्ष के ओर अग्रसर होता है इसलिए उसका सर्वोपरि सरोकार ऐसे मानवीय गुणों का विकास होता है जिनसे मानव सभ्यता आगे जाती है. मानव सभ्यता विकास के बारे में भी मतान्तर हो सकते हैं, किन्तु इसका मानदंड केवल एक है जो मानव को अन्य जीवों से भिन्न बनाता है. सभी जंगली जीवों में सशक्त द्वारा निर्बलों का शोषण प्राकृत गुण के रूप में विद्यमान है, यही उनके अपने जीवन का आधार होता है. मनुष्य प्राकृत जीव नहीं राह गया है, इसने विकास किया है - परस्पर शोषण से विमुख होकर परस्पर सहयोग की भावना विकसित करके और इसके लिए समुचित व्यवस्थाएं करके. अतः शोषण-विहीन समाज की संरचना ही मानव सभ्यता के विकास की परिचायक है और यही प्रत्येक महामानव का लक्ष्य होता है.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)