शनिवार, 6 नवंबर 2010

मेरी अनिच्छा और विवशता

अभी हुए पंचायत चुनावों में मतदाताओं ने विरोधी की ओर से वितरित शराब, नकद धन और अन्य लालचों में आकर मेरे द्वारा समर्थित प्रत्याशी को धोखे दिए जिसे मैं अपने साथ और अपनी नैतिकता के साथ धोखा मानता हूँ. यहाँ तक कि विजित प्रत्याशी ने एक विपक्षी प्रत्याशी और उसके सहयोगियों को भी ८५,००० रुपये देकस्र खरीद लिया था. चुनाव से पूर्व चुनाव मैदान में अन्य २ प्रत्याशियों ने भी मुझे कोई महत्व नहीं दिया जिसके कारण मेरी और उनकी पराजय हुई. इस चुनाव में विजित प्रत्याशी को लगभग कुल १५०० पड़े मतों में से केवल ४२८ मत प्राप्त हुए जो लगभग ३० प्रतिशत से भी कम हैं. अब उसके समर्थक दूसरे प्रत्याशी को केवल १४ प्रतिशत मत प्राप्त हुए. इससे इन दोनों का समर्थन केवल ४४ प्रतिशत है, जब कि शेष गाँव - ५६ प्रतिशत - विजित प्रत्याशी का घोर विरोधी है और चुनाव परिणामों से बहुत अधिक निराश और दुखी है. दुःख इसलिए भी अधिक है क्यों कि विजित व्यक्ति ने विजय के तुरंत बाद से ही अपनी स्वाभाविक उद्दंडता आरम्भ कर दी है जब कि उसे अभी प्रधान पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हुआ है. इससे गाँव में तनाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है जिसमें एक ओर ४४ प्रतिशत और दूसरी ओर शेष ५६ प्रतिशत व्यक्ति रहने की संभावना है.


उक्त धोखे के कारण मेरा मन बना कि आगे से मैं ऐसे धोखेबाज मतदाताओं पर निर्भर नहीं करूंगा क्योंकि इन पर मेरा विश्वास उठ गया है. अब मेरा मन बना था कि मैं गाँव की राजनीति में भाग न लेकर अपने लेखन और अन्य रचनात्मक कार्य पर ध्यान दूंगा. किन्तु चुनाव परिणामों से उत्पन्न संघर्ष की आशंका के कारण ग्रामवासियों की दृष्टि में मैं ही उनका सच्चा हितैषी हो सकता हूँ और वे मुझसे विपक्ष का नेतृत्व करने की मांग कर रहे हैं ताकि उनके हित सुरक्षित रह सकें. गाँव में मेरे परिवार का इतिहास ग्राम के विकास और ग्रामवासियों की सेवा हेतु संघर्ष करने का रहा है, और गाँव में मेरे दस वर्षों में मेरी जो छबि बनी है वह भी मेरे पारिवारिक इतिहास से भिन्न नहीं रही है. आने परिवार की परंपरा के कारण मैं ग्रामवासियों का आग्रह अस्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ. इससे सत्ता पक्ष में हलचल हुई है जिसमें अधिकांशतः असामाजिक तत्व हैं जिनके साथ सहयोग किये जाने की भी कोई संभावना नहीं है.. मैं यह भी समझता हूँ की आगामी संघर्ष में मैं ही असामाजिक तत्वों का प्रमुख विरोधी रहूँगा और अधिकाँश ग्रामवासी केवल तमाशा ही देखेंगे. इसका सकारात्मक पक्ष यह होगा कि सार्वजनिक धन का दुरूपयोग नहीं हो सकेगा और गाँव में कुछ विकास कार्य भी होंगे. इन्हीं कारणों से मैं असहमत भी नहीं हो पा रहा हूँ. मेरे पक्षधरों को मुझसे कोई निराशा हो यह भी मैं नहीं चाहता हूँ.

इस चुनाव में विजित प्रत्याशी ने सर्वाधिक लगभग ३ लाख रुपये व्यय किये जिसके लिए वह ऋण के भार से दबा हुआ है. मेरे प्रत्याशी के लगभग १ लाख रुपये काम आये जो उसके परिवार की आय से ही थे. अब मेरे समर्थक दो अन्य प्रत्याशियों के भी २-२.५ लाख रुपये व्यय हुए. विजयी प्रत्याशी को ग्राम के विकास हेतु प्राप्त धन का अपव्यय करते हुए अपना ऋण चुकता करना है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन में से लगबग ६ लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करनी होगी. इसके अतिरिक्त वह कुछ धन भविष्य के लिए भी अर्जित करना चाहेगा. इस प्रकार वह आगामी ५ वर्षों में न्यूनतम १० लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करेगा. इसे रोकने का दायित्व ग्रामवासी मुझे देना चाहते हैं. सार्वजनिक हित में मैं इसे अस्वीकार भी नहीं कर पा रहा हूँ.
Corruption in India

अतः संघर्ष अवश्यम्भावी है जिसका प्रथम चरण ग्राम पंचायत के शेष सात सदस्यों का चुनाव है  जो नवम्बर माह में ही संपन्न होने की आशा है. जब तक ये चुनाव नहीं होते हैं तब तक प्रधान पद के लिए चयनित व्यक्ति को पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हो सकेगा. 

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

राजनीति : स्वतंत्रता के बाद

भारत स्वतंत्र हुआ क्योंकि अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषण के लिए तब यहाँ कुछ शेष नहीं बचा था, तथापि स्वतन्त्रता की मांग की गयी और उसे स्वीकार कर लिया गया. किन्तु स्वतन्त्रता की मांग करने वालों ने कभी यह नहीं सोचा कि वे स्वतंत्र होने के बाद देश कैसे चलाएंगे. मेरे विचार से भारत के इतिहास की यह भयंकरतम भूल थी जिसका मूल्य हम अब तक चुकाते रहे हैं और न जाने कब तक चुकाते रहेंगे. उक्त भूल का परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता के बाद से ही भारत पर षड्यंत्रों का शिकंजा कसा जाने लगा जिन्हें 'राजनीति' कहा गया. नाम मात्र के लिए जन्तात्न्त्र की स्थापना की गयी किन्तु शासन उन परिवारों को सौंप दिया गया जो स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश शासन के पक्षधर रहे थे. अतः स्वतन्त्रता के बाद भी शासन की रीति-नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. सत्ता के गलियारों में जो परिवर्तन हुआ वह यह था कि अनुशासित ब्रिटिश लोगों का स्थान अनुशासनहीन भारतीयों ने ले लिया.

कोई देश हो अथवा उसकी राजनीति, सुचारू अर्थ व्यवस्था के बिना अपने पैरों पर खडी नहीं रह सकती. यह सार्वभौमिक सत्य भारतीय राजनीति के आदि-पुरुष विष्णुगुप्त चाणक्य ने जान लिया था और अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र के माध्यम से उन्होंने भारत की अर्थ व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सुदृढ़ नींव रख दी थी. उन्होंने समाज का एक वर्ग, जो उस समय शासक वर्ग भी था, इसी कार्य में लगा दिया था. यह वर्ग आज भी अर्थ व्यवस्था में लगा हुआ है किन्तु इसके अहिंसक होने के कारण शासन में इसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है. इसी वर्ग की देन है कि भारत की राजनीति में भीषण उतार-चढ़ाव होने पर भी इसकी सकल अर्थ व्यवस्था सदैव सुदृढ़ रही है.

भारत में एक जाति ऐसी रही है जो सदैव सत्तासीन जातियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखती रही है, अधिकांशतः राजगुरु बनकर. इस कारण से यह जाति भारत पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन सदा बनाये रही है. अतः यह स्वभावतः सत्ताच्युत रहना पसंद नहीं करती. विगत २००० वर्षों से इस जाति ने भारतीय समाज को इस प्रकार विभाजित किया कि इसका वर्चस्व सदा बना रहे. समाज में अछूत, दलित, कमीन, आदि वर्ग इसी जाति की देन हैं. स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति में यह जाति अग्रणी रही और अपनी शोषण-परक रीति-नीतियों के कारण भारतीय राष्ट्र की संपदा पर अपना प्रभुत्व बढाती रही. आज भी यह जाति समाज की अग्रणी और धनाढ्य है जबकि अर्थ व्यवस्था चलाने में इसका कोई योगदान नहीं रहा है.

स्वतंत्र भारत के संविधान में दीर्घ काल से पद-दलित वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि ये शिक्षित और सभ्य होकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकें. किन्तु शासकों ने इन्हें न शिक्षा लेने दी और न ही किसी अन्य प्रकार से सुयोग्य होने दिया. इनके कल्याण और विकास के नाम पर इन्हें जो भिक्षा दी गयी, उसके माध्यम से इन्हें पारंपरिक भिखारी बना दिया जो विगत ६० वर्षों से शासकों द्वारा दी जाने वाली भीख पर पल रहे हैं और भारत की अर्थ व्यवस्था पर एक भारी बोझ हैं. इन्हीं में से कुछ लोग इनकी वोटों के ठेकेदार बनते रहे हैं और सत्ताधारी लोगों के साथ रंगरेलियां मनाते रहे हैं. शासकों और इनके ठेकेदारों का हित इसी में है कि वे इन दलितों को दलित ही बनाए रखकर इनकी वोटों के माध्यम से सत्तालाभ प्राप्त करते रहें. इसके लिए इन्हें निरंतर भीख दिए जाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी है. विगत ६० वर्षों में आरक्षण व्यवस्था का विस्तार इसी भीख दिए जाने की व्यवस्था का अंग है. 

विगत २५०० वर्षों में भारत में अनेक विदेशी जाति बसती रही हैं जिनमें से अनेक जंगली जातियां थीं और जो स्वभावतः हिंसक थीं जिसके लिए जिन्हें सैनिक जातियां कहा जाता है. भारत में ये सैनिक जातियां युद्ध के लिए आयी थीं और इनका किसी मानवीय गुण से कोई परिचय नहीं था. मानवीय शासन के अधीन रहकर ये युद्ध करने में पारंगत सिद्ध होती थीं किन्तु स्वतंत्र रहकर ये अपने मूल हिंसक स्वभाव के कारण अपने जंगली व्यवहार पर उतर आती थीं. इनकी स्थिति आज भी ऐसी ही है और ये भारत की वर्तमान राजनीति में सक्रिय हैं और राजनीति में वही होता है जो ये जातियां चाहती हैं. .
Kautilya's Arthashastra/The Way of Fianancial Management and Economic Governance

स्वतन्त्रता के बाद अनुशासनहीन भारतीयों के शासन में स्वतन्त्रता ने उद्दंडता का रूप ले लिया, जनतंत्र पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी, जिससे भारतीय राजनीति में हिंसा - मनोवैज्ञानिक, भौतिक, आर्थिक, आदि - का स्थान सर्वोपरि हो गया. जनतंत्र के नाम पर जो चुनाव होते हैं वे भी शोषण और हिंसा के साए में होते हैं जिनमें वोटों को बलपूर्वक प्राप्त किया जाता है अथवा धन प्रदान कर खरीदा जाता है. यह प्रक्रिया निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत से लेकर शीर्षस्थ स्तर भारतीय संसद तक चल रही है जिसमें कोई भी मानवीय तत्व विद्यमान नहीं है.

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

अपनी पहचान और परिभाषा

जन-साधारण सदैव भीड़ के अंग बने रहकर सुरक्षित अनुभव करते हैं जब कि विशिष्ट व्यक्ति वही सिद्ध हो पाते हैं जो भीड़ तथा एकांत में भी सामान्य व्यवहार बनाये रखते हैं. यहाँ भीड़ में रहने में यह भी सम्मिलित है कि वे अपने व्यवहार तथा स्वरुप को भी अधिकाँश लोगों की तरह का बनाये रखते हैं, इन के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने से भी वे कतराते हैं जब कि विशिष्ट व्यक्ति अपने रूप और व्यवहार से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने हेतु सदैव प्रयासरत रहते हैं. ऐसी पहचान बनाने के लिए साहस की आवश्यकता होती है जो सभी में नहीं होता. इस प्रकार की पहचान ही व्यक्ति की सामाजिक परिभाषा होती है.

जैसा कि ऊपर कहा गया है व्यक्ति की सामाजिक परिभाषा के दो पहलू होते हैं - स्वरुप और व्यवहार. इन दोनों के संयुक्त योगदान को ही व्यक्तित्व कहा जाता है. स्वरुप की दृष्टि से व्यक्ति की पहचान अनेक प्रकार से बनती है - उसके प्राकृत अंगों की विशिष्टता से, यथा उसके बैठने, खड़े होने अथवा चलने की शैली से, उसके बात करने की शैली से, उसकी विशिष्ट आदतों से, उसकी केश-सज्जा से, तथा उसकी वेशभूषा से. चूंकि व्यक्ति के व्यवहार से पूर्व उसका स्वरुप उसका प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए व्यक्ति का प्राथमिक प्रभाव उसके स्वरुप से संचालित होता है. इसमें उसके शारीरिक सौन्दर्य का कोई महत्व न होकर उसकी विशिष्ट शैली का महत्व होता है, यद्यपि शारीरिक सौन्दर्य का भी अपना महत्व होता है.

विशिष्टता के लिए लिए व्यक्ति का स्वरुप ऐसा होना चाहिए कि अन्य लोगों में उसे देखते ही उसके बारे में जिज्ञासा जागृत हो  यही जिज्ञासा ही उसे समाज में प्राथमिक स्तर पर विशिष्ट व्यक्ति बनाती है किन्तु उसके व्यवहार से इस विशिष्टता की पुष्टि होनी अनिवार्य होती है, अन्यथा उसके स्वरुप की विशिष्टता से स्थापित विशिष्टता खोखली रह जाती है. इसलिए व्यक्ति का विशिष्ट व्यवहार ही उसकी विशिष्टता को स्थायित्व प्रदान करता है. विशिष्ट व्यवहार का स्रोत व्यक्ति का चरित्र होता है जिससे उसका मंतव्य निर्धारित होता है, और मंतव्य ही उसके प्रयासों का जनक होता है. अतः मूल रूप से सुचरित्र व्यक्ति ही समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बना पाते हैं. 

स्वरुप और व्यवहार की दृष्टि से विशिष्ट व्यक्ति भी तीन प्रकार के होते हैं - विकृत, असामान्य और असाधारण. यद्यपि शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति भी विकृत होते हैं किन्तु सामाजिक दृष्टि से मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति ही विकृत माने जाते हैं. ये समाज में स्वीकार्य नहीं होते. असामान्य व्यक्ति वे होते हैं अन्य लोगों से स्वरुप अथवा व्यवहार में भिन्न होते हैं किन्तु उनकी समाज को कोई देन नहीं होती, इसलिए समाज में इनका भी कोई विशेषत महत्व नहीं होता. समाज में विशिष्टता की स्थापना के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्ति का मानव समाज और सभ्यता के विकास में कुछ योगदान हो. ऐसे व्यक्ति समाज में असाधारण माने जाते हैं और समाज इन्हें विशिष्ट मान्यता प्रदान करता है. इसमें व्यक्ति के स्वरुप का कोई विशेष महत्व न होकर उसके व्यवहार का ही महत्व होता है. किन्तु उसका स्वरुप उसके विशिष्ट व्यवहार के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है.
Personality

किसी भी व्यक्ति के विशिष्ट होने में उसके मंतव्य, प्रयास और परिणामों का सम्मिलित योगदान होता है. यद्यपि मंतव्य से प्रयास और प्रयास से परिणाम उगते हैं तथापि परिस्थितियां मंतव्य, प्रयासों और परिणामों में अंतराल ला देती हैं. व्यक्ति अपने स्तर पर अपना मंतव्य ही निर्धारित कर सकता है जिसके अनुरूप प्रयास करना भी अंशतः उसकी पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है. समाज प्रायः व्यक्ति के मंतव्य को महत्व न देकर उसके द्वारा उत्पादित परिणाम ही देख पाता है. इसके कारण अनेक असाधारण व्यक्ति भी समाज में अपनी विशिष्ट पहचान नहीं बना पाते यद्यपि उनके मंतव्य विशिष्ट होते हैं.

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

जनतांत्रिक चुनावों में जनमत की कसौटियां

यद्यपि भारत में सरकार के चयन हेतु आयोजित जनतांत्रिक चुनावों में जनसाधारण द्वारा अपने मत प्रकट करने की परम्परा स्वस्थ कभी नहीं रही है, किन्तु अभी समापित उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में जनतंत्र की स्थिति बुरी तरह प्रदूषित है और यह बदतर होती जा रही है. पंचायत चुनावों द्वारा केवल ग्राम, विकास खंड और जनपद स्तर की पंचायतों के लिए जन प्रतिनिधियों को चुना जाता है जिनकी शासन में कोई विशेष भूमिका नहीं होती, मात्र कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह किया जाता है और जनहित हेतु आबंटित कुछ सार्वजनिक धन की बन्दर-बाँट की जाती है. तथापि इसके माध्यम से तुच्छ लाभों को प्राप्त करने के लिए जो भीषण संघर्ष होते हैं और उनमें भारतीय जनमानस की जो दयनीय स्थिति उजागर होती है उन्हें देखकर प्रत्येक सम्मानित भारतीय का सिर शर्म से झुक जाता है. उक्त चुनावों में जो पाया गया, आइये उसके कुछ पहलुओं पर दृष्टि डालें.

जातीयता
भारत का समाज सदैव जातियों में विभाजित रहा है किन्तु इस विभाजन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत की राजनीति पर होता है जिसमें चुनावों के लिए प्रत्याशियों के चयन से लेकर मतदान तक व्यक्ति की जाति को प्रमुख आधार बनाया जाता है तथा व्यक्ति की पद हेतु सुयोग्यता को ताक पर रख दिया जाता है. चूंकि मूर्ख और अशिक्षित व्यक्ति अधिक बच्चे जनते हैं इसलिए इस प्रकार की जातियां ही देश की बहुसंख्यक होती रही हैं और अपने प्रतिनिधि भी इसी प्रकार के चुनते रहे हैं. इसी कारण से अनेक आपराधिक प्रवृत्तियों वाली परम्परागत जातियां भी देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं.

आरक्षण
बुद्धिहीन और आपराधिक प्रवृत्तियों वाली जातियों द्वारा सत्ता प्राप्त करते रहने के कारण ही देश में राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर स्वयं को सत्तासीन करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो आरम्भ में सीमित थी और केवल १० वर्ष की अवधि के लिए पर्याप्त मानी गयी थी. किन्तु अब स्वतन्त्रता के ६० वर्ष होने पर भी इसे केवल सतत ही नहीं रखा गया इसका विस्तार भी किया जाता रहा है. वर्तमान में प्रत्येक राजनैतिक और प्रशासनिक पद के लिए दो-तिहाई स्थान आरक्षित कर दिए गए हैं जिनमें महिला आरक्षण भी सम्मिलित है.

राजनीति में आरक्षण करने की मूर्खता इससे भी स्पष्ट होती है कि देश की पिछड़ी और दलित जातियां बहुमत में हैं और वे जनतांत्रिक पद्यति से अपने बहुमत के कारण देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं और उन्हें किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है. इसी प्रकार महिलाओं की संख्या लगभग ५० प्रतिशत होने कारण वे भी अपने प्रतिनिधि छनने में सक्षम हैं और उन के लिए भी आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है.

बुद्धिहीन भावुकता
अभी हुए पंचायती चुनावों में एक जाने-माने अपराधी ने कानूनी फंदे से अपनी जान बचाने की गुहार देते हुए मतदाताओं के पैरों में सिर रख-रख कर उन्हें भावुकता का शिकार बनाया और उनके मत प्राप्त कर लिए. इस प्रकार एक अपराधी भी सत्ताधिकारी बन गया. जन साधारण को उस पर दया आयी जिसके कारण उसे अपने मत दे दिए किन्तु किसी ने भी उसे अपनी कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं दी जिससे उसे अपराध करने की आवश्यकता न हो. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे अपने मतों का महत्व नहीं जानते किन्तु अपनी व्यक्तिगत संपदाओं का महत्व जानते हैं. इससे सिद्ध यही होता है कि भारतीय जनमानस अभी भी जनतंत्र हेतु वांछित सुयोग्यता प्राप्त नहीं कर पाया है.

इसी प्रकार की बुद्धिहीन भावुकता के कारण ही स्वतन्त्रता के बाद से देश की राजनैतिक सत्ता केवल एक परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.

शराबखोरी
चुनावों में मत पाने के लिए जिस वस्तु का सर्वाधिक उपयोग होता है वह शराब है जिसका प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क वितरण किया जाता है. यह मात्र एक दूषित परम्परा है जिससे मत प्राप्त नहीं होते केवल कुछ दुश्चरित्र लोगों को खुश कर प्रत्याशी के पक्ष में वातावरण बनाया जाता है. इस प्रकार के शराबी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं जिन्हें खुश रखना प्रत्येक प्रत्याशी के लिए आवश्यक होता है. केवल शराब के वितरण पर ही प्रत्येक औसत ग्राम में २० लाख रुपये व्यय कर दिया जाता है.


धन का लालच
इस चुनाव से सिद्ध हो गया है कि अब मतदाताओं को खुश करने के लिए केवल शराब पिलाना पर्याप्त नहीं रह गया है, उन्हें नकद धन भी दिया जाने लगा है. मेरे गाँव में ही ग्राम प्रधान पद के दो प्रत्याशियों ने डेढ़-डेढ़ लाख रुपये वितरित किये जिनमें से एक ने विजय पायी. इन चुनावों में जनपद पंचायत के प्रत्येक प्रत्याशी ने अपने प्रचार और मतदाताओं को खुश करने के लिए २० से ५० लाख रुपये तक व्यय किये जिसमें से अधिकाँश शराब के वितरण पर व्यय हुआ.  

बाहरी प्रभाव
मूल रूप से गाँव के निवासी शिक्षित और साधन संपन्न होकर दूर शहरों में जा बसते हैं जहां उनके स्थायी घर, राशन कार्ड, मताधिकार आदि सभी कुछ होते हैं तथापि वे अपने गाँवों में भी अपने घर, राशन कार्ड तथा मताधिकार बनाए रखते हैं. इस प्रकार ये देश के दोहरे नागरिक होते हैं और दोनों स्थानों से सुविधाएं प्राप्त करते रहते हैं. इनकी तुलना में ग्रामवासी प्रायः निर्धन होते हैं इसलिए उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ मानते हुए चुनावों में उनके मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं. इस प्रकार ग्रामों के ये अवैध नागरिक गाँवों पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं और पंचायत चुनावों को अपने हित में प्रभावित करते हैं. 
Jana Sanskriti: Forum Theatre and Democracy in India

मेरे ग्राम में भी इस प्रकार के लगभग ४०० अवैध मतदाता हैं जो गाँव के लगभग १६०० वैध मतदाताओं को मूर्ख समझते और बनाते रहे हैं. उक्त पंचायत चुनावों से पूर्व मैंने उत्तर प्रदेश के चुनाव आयुक्त को लिखित निवेदन भेजा था कि ऐसे मतदाताओं के नाम गाँव की मतदाता सूची से हटाने की व्यवस्था की जाए किन्तु इस पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी.  

उक्त कारणों से कहा जा सकता है कि भारत में अभी तक कोई जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित नहीं हो पायी है और इस नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब धोखाधड़ी है. इसमें बुद्धिमानी अथवा सुयोग्यता का कोई महत्व नहीं है. 

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

न्यायोचित पथ - मंद अनुपालन

प्रत्येक समाज में जन साधारण का आधिक्य होता है जो प्रायः तुच्छ प्रलोभनों के वशीभूत होते हैं, तथापि किसी अन्य द्वारा सद्मार्ग पर चलने की प्रशंसा करते हैं. इसका अर्थ यह है कि वे कुमार्ग और सद्मार्ग को पहचानते हैं और उनकी आतंरिक इच्छा सद्मार्ग पर चलने की होती है किन्तु अपनी पारिस्थिक विवशताओं, सांस्कारिक दोषों और चारित्रिक निर्बलताओं के कारण ऐसा नहीं कर पाते. अतः, जन-साधारण की विवशताओं को दूर कर, संस्कारों को परिष्कृत कर और इन के चरित्रों को संबल प्रदान करके समाज को सद्मार्ग पर चलाया जा सकता है यह एक क्लिष्ट और मंद प्रगति वाला कार्य है तथापि समाज के परिष्कार हेतु आवश्यक है.

समाज को न्यायोचित पथ पर चलाने के लिए प्रणेता को असीम धैर्य की आवश्यकता होती है क्योंकि लोग इस मार्ग पर चलाने से पूर्व चिंतन करते हैं जिसमें समय लगता है. इस चिंतन द्वारा ही लोग अपने प्रलोभनों और स्वार्थों से मुक्त होते हैं. किन्तु यह केवल एक बार के प्रयास से संभव नहीं होता. उनके चिंतन के परिपक्व होने तक ऐसे लोगों को बार-बार मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है. साथ ही इन्हें प्रलोभन देने वाले कारणों से दूर रखना आवश्यक होता है, अन्यथा ऐसे लोग असमंजस की अवस्था में आकर प्रलोभनों की ओर आकर्षित हो जाते हैं.  

लोगों को चिंतन का अभ्यस्त बनाना और उन्हें न्यायोचित मार्ग पर चलाने में कोई विशेष अंतर नहीं है, दोनों का अंततः प्रभाव एक समान ही होता है. इससका तात्पर्य यह है कि चिंतन करने वाला व्यक्ति सुमार्ग का ही अनुपालन करता है. जन-साधारण प्रायः अपने जीवन को बनाये रखने की समस्याओं में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें किसी विषय पर गंभीर चिंतन के लिए समय ही प्राप्त नहीं हो पाता. यहाँ यह स्पष्ट करना भी प्रासंगिक है कि चिन्तनशीलता का धनाढ्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है. अनेक धनाढ्य व्यक्ति अपने धन को बहुगुणित करने में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि वे चिंतन को समय का दुरूपयोग मानते हैं. चिंतन की दृष्टि से ऐसे धनाढ्य भी जन-साधारण वर्ग में ही सम्मिलित होते हैं.

चिन्तनशीलता का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की रचनाधर्मिता से है. लेखक, कवि, चित्रकार, वैज्ञानिक, आदि रचनाधर्मी होते हैं और चिंतन के भी अभ्यस्त होते हैं. ऐसे व्यक्ति प्रायः न्यायोचित पथ का अनुगमन करते हैं, जिसके कारण ये प्रायः निर्धन भी होते हैं किन्तु इनकी निर्धनता इन्हें चिंतन-शीलता से दूर नहीं करती. ये अपनी निर्धनता में भी प्रसन्न रहते हैं. इसे समझने के लिए हमें निर्धनता के मूल पक्ष पर ध्यान देना होगा. वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निर्धन वह व्यक्ति होता है जिसे सदैव कुछ और धन की लालसा बनी रहती है. जिसे ऐसी लालसा नहीं होती वह संतुष्ट होता है और निर्धन नहीं कहा जा सकता भले ही वह भौतिक स्तर पर धनाढ्य न हो.
Calm My Anxious Heart: A Woman's Guide to Finding Contentment

यदि आपका मार्ग न्यायोचित है तो स्वार्थी समाज में आपके अनुयायी अल्प होंगे और इसके लिए भी उन्हें मानना कठिन होगा. इसके लिए धीमे चलिए और लोगों को सोच-विचार का पूरा अवसर दीजिये. इसके विपरीत, दोषपूर्ण मार्ग पर चलने के लिए लोगों पर तुरंत निर्णय लेने के लिए जोर डालिए ताकि वे चिंतन न कर सकें और आपके कुमार्ग का अनुगमन करने लगें. 

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

विवश बाल श्रमिक

विश्व के अनेक देशों की तरह ही भारत भी एक आदर्श, सभ्य और संपन्न समाज की संरचना की कल्पनाओं में निमग्न है. इस लालसा में भारत में १८ वर्ष से कम आयु के बच्चों से मजदूरी कराना अपराध है. अतः १८ वर्ष के बच्चों के लिए संगठित उद्योगों और व्यवसायों में रोजगार पाना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है जिसके परिणामस्वरूप ये विवश बच्चे कूड़े दानों में से कुछ व्यावसायिक रूप से उपयोगी कचरा बीनने, भीख माँगते, ढाबों और चाय की दुकानों पर झूठे बर्तन मांजते प्रायः देखे जा सकते हैं. भारत की सरकारें इन बच्चों के लिए आदर्श स्थिति की कल्पना तो करती हैं किन्तु ऐसी स्थिति उत्पन्न करने में कोई रूचि नहीं रखती, बल्कि इसके विपरीत बहुत कुछ करती रही हैं.


बल श्रमिक प्रतिबंधित करने की पृष्ठभूमि में कल्पना यह है कि देश के प्रत्येक बच्चे को समुचित शिक्षा पाने का अधिकार है इसलिए इस अबोध आयु में उससे श्रमिक के रूप में कार्य लेना अमानवीय है और इसे अवैध घोषित कर दिया गया है. किन्तु इन बच्चों के समक्ष आजीविका हेतु श्रमिक बनाने की विवशता न हो इसके लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है.

सर्व प्रथम प्रत्येक परिवार की इतनी आय सुनिश्चित की जानी चाहिए थी कि माता-पिता अपने बच्चों को श्रमिक बनाने की विवशता न हो तथा वे उन्हें समुचित शिक्षा की व्यवस्था करने में समर्थ हों. दूसरे, देश के राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जहां बच्चों को भेजकर माता-पिता तथा स्वयं बच्चे उससे संतुष्ट हों तथा कुछ सार्थक शिक्षा पा सकें. तीसरे, देश की सामाजिक व्यवस्था ऐसी हो जहां बच्चों का दुरूपयोग न किया जा सके. 

आज भी भारत की लगभग ४० प्रतिशत जनसँख्या निर्धना सीमा रेखा के नीचे है जिसका अर्थ है कि इन परिवारों की दैनिक औसत आय ५० रुपये से कम है और इसमें परिवार के सदस्यों को पेट भार भोजन पाना भी दुष्कर है. कोई भी व्यक्ति भूखे पेट स्वस्थ नहीं रह सकता  और उसे शिक्षित करना असंभव होता है. ऐसे परिवारों की विवशता हो जाती है कि उनके बच्चे श्रमिकों के रूप में कार्य करके परिवार की आय में संवर्धन करें. 

इसी सन्दर्भ में यह भी सत्य है कि इन परिवारों के पास मनोरंजन के कोई साधन उपलब्ध नहीं होते जिसके कारण स्त्री-पुरुषों का यथासंभव नित्यप्रति सम्भोग में लिप्त होना ही मनोरंजन होता है, जिसके परिणामस्वरूप इन परिवारों में बच्चों की संख्या को सीमित करना असंभव हो जाता है जिससे परिवार को और भी अधिक आय की आवश्यकता हो जाती है. 

पूरे भारत में प्राथमिक शिक्षा राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों के अतिरिक्त निजी संस्थानों द्वारा भी दी जा रही है. इन दोन व्यवस्थाओं में इतने विशाल गुणात्मक अंतर हैं कि राज्य-पोषित विद्यालयों में शिक्ष व्यवस्था नष्ट-भृष्ट ही कही जानी चाहिए. राज्य-पोषित विद्यालयों में नियमित अध्यापकों के वेतनमान सरकारों द्वारा इतने अधिक कर दिए गए हैं कि स्वयं सरकारें भी पर्याप्त संख्या में अध्यापकों की व्यवस्था करने में असमर्थ हो गयी हैं. इस अभाव की पूर्ति हेतु ये सरकारें शिक्षा मित्रों के रूप में अस्थायी और अल्प वेतन पर अध्यापक नियुक्त कर रही हैं जिनमें प्रायः योग्यता, अनुभव और सर्वोपरि शिक्षा प्रदान करने में रूचि का अभाव होता है. इसके परिणामस्वरूप राज्य-पोषित प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा की औपचारिकता मात्र पूरी की जा रही है. निर्धन माता-पिता ऐसे विद्यालयों में अपने बच्चों को शिक्षा पाने हेतु भेजना निरर्थक मानते हैं और निजी विद्यालयों में बच्चों को भेजना उनकी समर्थ के बाहर होता है. यह स्थिति और भी अधिक उग्र हो गयी है जब वे देखते हैं कि धनाढ्य परिवारों के बच्चे निजी विद्यालयों में अच्छी शिक्षा पा रहे हैं. 

भारत की सरकारें ही राजस्व प्राप्त करने के लिए देश में शराब तथा अन्य नशीले द्रव्यों के सेवन को प्रोन्नत करने में लिप्त हैं. साथ ही देश में भृष्टाचार का इतना बोलबाला है कि जन-साधारण का जीवनयापन दूभर हो गया है और वह तनावों में जी रहा है. भृष्टाचार के कारण ही तथाकथित जनतांत्रिक चुनावों में मतदाताओं को प्रसन्न कर उनके मत पाने के लिए धन का दुरूपयोग किया जाता है जिसका बहुलांश लोगों को निःशुल्क शराब पिलाने में व्यय किया जाता है, जिसके कारण प्रत्येक चुनाव में अनेक व्यक्ति नए शराबी बन जाते हैं. धनवान लोग तो इसके दुष्प्रभाव को सहन कर लेते हैं किन्तु निर्धन लोग इसमें इतने डूब जाते हैं कि उनका ध्यान परिवार के पालन-पोषण पर न होकर स्वयं के लिए शराब की व्यवस्था करने में लगा रहता है. ऐसे परिवारों के प्रमुख अपने बच्चों और स्त्रियों को विवश करते हैं कि वे उनकी शराब की आपूर्ति के लिए मजदूरी करें. इस कारण से भी बच्चों की विशाल संख्या शिक्षा से वंचित रहकर श्रमिक बनाने हेतु विवश होती है. 
Kids at Work: Lewis Hine and the Crusade Against Child Labor

देश के बच्चों के समक्ष श्रमिक बनाने की उक्त विवशताओं और बाल-श्रमिकों की घोषित अवैधता के कारण बच्चे ऐसे दूषित कार्य करने के लिए विवश हैं जिनमें उनके स्वास्थ दुष्प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते. वस्तुतः भारत भविष्य अंधकारमय है.