शनिवार, 23 जनवरी 2010

बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकता तीन - न्याय

बौद्धिक जनतंत्र की तीसरी प्राथमिकता सभी को निःशुल्क त्वरित न्यायप्रदान करना है जो स्वस्थ एवं शिक्षित नागरिकों के सुखी जीवन के लिए अनिवार्य है. स्वतंत्र भारत के के ६० वर्षों से अधिक की अवधि में न्याय उपलब्धि अधिक से अधिक दुर्लभ होती जा रही है, जो शासन के लिए शर्मनाक है.


न्याय की त्वरित उपलब्धि न्याय प्रक्रिया का अभिन्न अंग है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में प्रत्येक न्यायालय के लिए प्रत्येक विवाद में तीन माह की अवधि में न्याय प्रदान करना अनिवार्य किया गया है जिसका उत्तरदायित्व सम्बद्ध न्यायाधीश का निर्धारित किया गया है. ऐसा न होने पर न्यायाधीश को इस सेवा के अयोग्य  ठहराकर पद मुक्त किये जाने का प्रावधान है. 

यदि देश अथवा समाज में अन्याय न हो तो किसी भी नागरिक को न्याय की आवश्यकता नहीं होगी, और देश अथवा समाज की व्यवस्था का दायित्व शासन का होता है. अतः अन्यायों को रोकना शासन का दायित्व है. यदि शासन इसमें असफल रहता है तो ही नागरिकों को न्याय माँगने की आवश्यकता होती है. नागरिकों को न्याय प्रदान करने के लिए उनसे किसी शूल की मांग किया जाना स्वयं एक अन्याय है. अतः बौद्धिक जनतंत्र में निःशुल्क न्याय प्रदान करना शासन का निर्धारित दायित्व है क्योंकि न्याय की आवश्यकता शासन दोष से ही व्युत्पन्न होती है. 

न्याय का अर्थ होता है दंड व्यवस्था, जिस के लिए बौद्धिक जनतंत्र में कुछ विशिष्ट प्रावधान हैं -
  1. प्रकृति कारण-प्रभाव सिद्धांत पर कार्य करती है जिसमें प्रत्येक कारण का प्रभाव अवश्य होता है, अर्थात कोई भी कारण प्रभावहीन अथवा क्षम्य नहीं होता. बौद्धिक जनतंत्र की न्याय व्यवस्था भी इसी सिद्धांत पर कार्य करती है, तदनुसार कोई भी अपराध क्षम्य नहीं होगा. 
  2. अपराधी को दंड उसके द्वारा किये गए अपराध के अनुसार न दिया जाकर समाज में उसके दायित्व और अधिकार के अनुरूप निर्धारित है. यथा यदि कोई निम्न वर्गीय राज्यकर्मी रिश्वत लेता है तो उसे अल्प दंड दिया जायेगा किन्तु यदि ऐसा ही अपराध कोई उच्च पदासीन व्यक्ति करता है तो उसे इसके लिए अत्यधिक कठोर दंड दिया जायेगा. 
  3. न्यायाधीश समाज के विशिष्ट बुद्धिसम्पन्न एवं अधिकृत व्यक्ति होते हैं अतः उनका दायित्व भी सर्वाधिक होता है. अतः उनसे सर्वाधिक अपेक्षाएं की जाती हैं. यदि किसी न्यायाधीश का न्यायादेश उच्चतर न्यायाधीश द्वारा निरस्त अथवा उलटा जाता है तो यह पूर्व न्यायाधीश की अक्षमता मानी जायेगी और उसे न्याय करने के अयोग्य घोषित किया जाकर पदमुक्त किया जायेगा. साथ ही उच्चतर न्यायाधीश को पूर्वादेश को निरस्त किये जाने के विस्तृत कारण देने होंगे.
  4. न्यायालयों के न्याय-आदेशों पर समाज अथवा जन-माध्यम में खुली चर्चा की जा सकेगी ताकि समाज उनकी कार्य कुशलता की परख करता रहे तथा वे स्वयं भी सजग रहें. इसके साथ ही न्यायाधीशों के कोई विशेषाधिकार नहीं होंगे और उन्हें अपने प्रत्येक आदेश का अधर सिद्ध करना होगा. 
  5. बौद्धिक जनतंत्र मृत्युदंड का पक्षधर है और इसे अपराध रोकने के लिए आवश्यक मानता है. 
इस प्रकार बौद्धिक जनतंत्र समाज में अपराधों को ही नहीं, अपराध प्रवृतियों को रोकने के कारगर उपाय करने के लिए कृतसंकल्प है. 

कृष्ण की शिक्षा-दीक्षा

प्रचलित जानकारी के अनुसार कृष्ण की शिक्षा-दीक्षा संदीपनी नामक आश्रम में हुई, किन्तु यह कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि यह कब हुई क्योंकि वह तो ज्ञात कथाओं में सभी समय खेलकूद और षड्यंत्रों में लिप्त रहता हुआ पाया जाता है. उसके गुरुजनों के नामों के बारे में भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. इस विषय में जो जानकारी मुझे उपलब्ध हुई है वह इस प्रकार है.

कृष्ण के बालपन के समय ही विशेषज्ञों का एक दल प्लेटो की अकादेमी से आकर आज श्रीलंका कहे जाने वाले द्वीप पर ठहरा जो उस समय निर्जन था. यही स्थान कृष्ण की शिक्षा-दीक्षा का संदीपनी आश्रम था. यह दल कृष्ण को बचपन से ही छल-कपट के तौर-तरीके सिखाता था जिससे कि वह अत्यधिक कुशल छलिया बन सके. इसी कारण से अनेक स्थानों पर कृष्ण को छलिया कहा गया है. कृष्ण का सबसे शक्तिशाली शास्त्र उसका सुदर्शन चक्र था जो उसके सीधे हाथ की तर्ज़नी उंगली में बंधा एक चाकू था. चाकू शब्द चक्र का ही सरल रूप है.

इस चाकू के उपयोग से कृष्ण अपने मित्र और शत्रुओं के अंडकोष काट दिया करता था. शास्त्रों में इस क्रिया को 'वध' कहा गया है तथा जिसका भ्रमित हिंदी अर्थ हत्या लिया जाता है. इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि लोकभाषा में पशुओं के अंडकोष काटकर उन्हें नपुंसक बनाने के लिए 'वधिया करना' कहा जाता है. महाभारत में 'वध' शब्द का उपयोग प्रायः उन्ही प्रसंगों में है जो कृष्ण से सम्बंधित हैं.

कृष्ण ने अपने यदु वंश के अपने सभी मित्रों को इस क्रिया से नपुंसक बना दिया था ताकि उनकी कामुक पत्नियाँ विवश होकर कृष्ण की प्रेयसी अथवा दीवानी बन कर रहें.जिन्हें गोपियाँ कहा जाता है. राधा के साथ किया गया उसका प्रेम तथा बाद में परित्याग का छल भी इसी के अंतर्गत किया गया. भारतीय जन-मन में इस छल को प्रेम के रूप में ठूंसा गया है तथा कृष्ण-भक्ति में अंधे व्यक्ति इस की प्रशंसा करते हैं तथापि अपनी पुत्रियों अथवा बहुओं को ऐसा प्रेम करने से दूर रखते हैं. संस्कृत के एक बहु-प्रतिष्ठित ग्रन्थ 'गीत गोविन्द' में राधा-कृष्ण प्रेम को महिमा मंडित किया गया है जिसमें कृष्ण मिलन के समय राधा की जंघाओं की कामुक हलचल भी वर्णित की गयी है. विश्व की किसी अन्य संस्कृति में पर-स्त्री गमन को इस प्रकार महिमा-मंडित नहीं किया गया. 

उसने अपने शत्रुओं के वध किये अथवा इसका प्रयास किया ताकि वे अपना शेष जीवन दुखों में व्यतीत करने को विवश हों. इस प्रकार कृष्ण बचपन से ही एक निष्ठुर 'पर-संतापी' (saddist ) के रूप में प्रशिक्षित किया गया और उसका यह प्रशिक्षण पूरी तरह सफल सिद्ध हुआ.

वध करने की प्रक्रिया के अतिरिक्त भी कृष्ण को सभी प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक छल करने के लिए प्रशिक्षित किया गया जो उसके जीवन चरित में सर्वत्र स्पष्ट दिखाई देते हैं. इन छलों में स्वयं को बार बार दिव्य घोषित करना भी था जो वह प्रायः किया करता था. इसके विपरीत भारत में प्रचलित अन्य किसी दिव्य विभूति, जैसे राम, ने कभी स्वयं को दिय घोषित नहीं किया.

कृष्ण का एक परम मित्र सुदामा कहा जाता है जो उसका गुणवाचक नाम है. सुदामा शब्द लैटिन के शब्द 'sodoma से उद्भव हुआ है जिसका अर्थ 'समलैंगिक मैथुन'' है जो बाइबिल में उल्लिखित एक नगर सोडोम के नागरिकों में प्रचलित थी. बाइबिल के अनुसार यह नगर लोगों के इसी दोष के कारण नष्ट हो गया. इससे यह भी स्पष्ट है कि कृष्ण भी समलैंगिक मैथुन का अभ्यस्त था.    .   



सोमवार, 18 जनवरी 2010

वर्ण व्यवस्था के बारे में आशंकाएं और उत्तर

इस संलेख के सम्मानित पाठकों ने अंतिम आलेख 'वर्ण व्यवस्था की सच्चाई' पर कुछ संशयात्मक टिप्पणीयाँ की हैं जिनके विस्तृत उत्तर देना आवश्यक है ताकि भारत की ऐतिहासिक सच्चाईयों का निरूपण सरल, सहज और कारगर हो सके. यह टिप्पणी इस प्रकार है -  

"आपने बात-बात पर लैटिन, हिब्रू शब्दों का प्रयोग करके इतिहास को अपने हिसाब से समझने/समझाने की वैसी ही कोशिश की है जैसा अंग्रेजों ने 'आर्य' शब्द का निकालकर भारत के इतिहास को कलुषित करने के लिये किया था (जो अब पूर्णत: झूठ साबित हो चुका है)

"मेरे मन में भी कुछ प्रश्न हैं जो आप द्वारा उठाये गये प्रश्नों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं-

१) क्या वर्ण-व्यवस्था अपने 'पूर्ण रूप' में कभी लागू हो पायी थी?

२) वर्ण व्य्वस्था किसी आधुनिक नियम की भाँति किसी एक दिन लागू कर दी गयी या यह कई शताब्दियों तक धीरे-धीरे और बहुत ही धुंधले रूप में प्रकट हुई?

३) यदि यह किसी धर्माचार्य या राजा द्वारा प्रचलित की गयी तो किसको ब्राह्मण, किसको क्षत्रिय आदि माना गया? क्या ऐसा करना व्यावहारिक लगता है?

४) यदि यह शनै:-शनै: क्रमिक विकास (इवोलूशन) जैसा हुआ तो लोगों को इसमें आपत्ति क्या है? यह तो प्राकृतिक है।"

मेरे स्पष्टीकरण :
भाषा प्रसंग
भारत की सभी भाषाएँ यूरोपीय भाषा परिवार की सदस्य हैं और इस परिवार की सभी बाषाओं के उद्भव परस्पर सम्बंधित हैं जैसा कि अन्य भाषा परिवारों में है. इस प्रकार लैटिन, ग्रीक, हेब्रू आदि भाषाएँ हमारी प्राचीन भाषाओं को समझाने में सहायक हैं. इसके अतिरिक्त ये भाषाएँ विश्व की प्राचीनतम विकसित भाषाएँ हैं जिनसे इस परिवार की सभी भाषाएँ विकसित हुई हैं. इनका आश्रय लेना हमारे लिए इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारे वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और उस भाषा के बारे में हमेंबहुत अधिक ज्ञान नहीं है. वेदों और शास्त्रों के अब तक प्रचलित सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधारित हैं और वे हमें इतिहास का कुछ ज्ञान कारन के स्थान पर भ्रम और संशयों को जन्म देते रहे हैं. इस कारण से सभी अनुवादों में भी परस्पर भारी भिन्नता पाई जाती है.

श्री अरविन्द द्वारा रचित पुस्तक के हिंदी अनुवाद 'वेद रहस्य' को पढ़ने से मुझे ज्ञात हुआ कि वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्दावली लैटिन और ग्रीक शब्दावली से बहुत अधिक मेल खाती है. इससे मेरा निष्कर्ष यह है कि इन ग्रंथों की शब्दावली लैटिन, ग्रीक आदि की देवानागारीकृत शब्दावली ही है  इसकी पुष्टि तब हुई जब मैंने अनेक अंशों के अनुवाद इस शब्दावली के आधार पर किये.

विदेशी भाषाओं के आश्रय का तीसरा कारण यह है कि भारत पर अनेक आक्रमण हुए है, अनेक जातियां यहाँ आकर बसी हैं, और इस देश को लम्बे समय तक गुलाम बनाकर रखा गया है. इन कारणों से यहाँ की संस्कृति, ग्रंथों के अनुवाद्फ़ आदि अशुद्ध किये जाने की संभावना बहुत अधिक है, जो वेदों, शास्त्रों के हिंदी अनुवादों से स्पष्ट भी है.

इन सभी कारणों से प्राचीन ग्रंथों के नए सिरे से अनुवाद करने की अतीव आवश्यकता है यदि हम अपना वास्तविक इतिहास जानना चाहें. इस संलेख के माध्यम से भारत के वास्तविक इतिहास को जानने का प्रयास किया जा रहा है. यह एक विशाल और जटिल कार्य है, संदेह और संशय होने स्वाभाविक हैं, औउर वास्तविक के उजागर होने के लिए धैर्य की अतीव आवश्यकता है.   

आर्य विवाद
इस बहु-चर्चित विवाद के बारे में मैं अभी यही कहूँगा कि इसकी सच्चाई अभी सामने आयी ही नहीं है जो इस संलेख में प्रसंग आने पर स्पष्ट रूप से दर्शाई जायेगी. अभी इस बारे में कुछ कहना अप्रासंगिक होगा और विषय-वस्तु को क्रमानुसार आगे बढाने में बाधक होगा.

वर्ण व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था का प्रथम उल्लेख मनुस्मृति में है जो मूलतः मानव जाति के समाजीकरण और समाज में कार्य विभाजन का मार्गदर्शक है. चाणक्य महोदय ने इसी व्यवस्ठ को संक्षेप में एक सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया. कोई भी सामाजिक सिद्धांत पूर्ण रूप से लागू होने में समय लगता है. भारत चूंकि अधिकाँश समय गुलाम रहा इसलिए यह संभव है कि यह पूरी तरह कभी लागू हुआ ही न हो. शासक वर्ग में समाज को सदैव अपने हित में ही गठित करता रहा है और भारत भी इसका अपवाद नहीं रहा है. इसलिए भारत के समाज में अत्यधिक विकृतियाँ समाहित होती चली गयीं जिन सबका दायित्व वर्ण व्यवस्था पर थोपा जाता रहा.
वर्ण व्यवस्था का केवल सूत्रीकरण ही किया गया जो एक बार ही हुआ किन्तु यह कभी पूरी तरह लागू न किया जाकर इसके स्थान पर सामजिक विकृतियाँ ही पनपायी गयीं जिनमें से अनेक आज तक प्रचलित हैं.

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि
जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर तीन भाइयों ने भारत निर्माण कार्य आरम्भ किया और इसके लिए अपने-अपने कार्य क्षेत्र क्रमशः सृजन, अर्थ व्यवस्था, तथा रक्षा क्रमशः निर्धारित किये. इन्हीं तीनों के अनुयायी कृमशः ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय कहलाये. यदि यह कार्य विभाजन स्वेच्छा से लागू किया जाता रहता तो इसमें कोई दोष नहीं था, किन्तु स्वार्थी तत्वों ने इसे स्वेच्छाधारित न रखकर इसे जन्म आधारित बना दिया जिससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न हुईं.

जो समाज गुलाम बनाकर रखे जाते हैं, उनमें कुछ भी प्राकृत रूप में विकसित नहीं होने दिया जाता और शासक वर्ग उनकी जीवन शैली और संस्कृति अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु निर्धारित करता है. भारत की सामजिक विक्रितीय यहाँ की लम्बी गुलामी की देनें हैं.

शनिवार, 16 जनवरी 2010

वर्ण व्यवस्था की सच्चाई

 भारत में समाज को व्यवस्थित करने और कार्य विभाजन के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की गयी जिसका आरंभिक विवरण मनुस्मृति में तथा बाद में विष्णु गुप्त चाणक्य द्वारा अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' में प्रकाशित किया गया. चाणक्य महोदय के शब्दों में -
स्वधर्मो ब्राह्मनस्याध्ययनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्चेती. क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च. वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वनिज्या च. शूद्रस्य द्विजाति शुश्रूषा वार्ता कारूकुशीलवकर्म च.
इस ग्रन्थ का प्रचलित हिंदी अनुवाद (श्री वाचस्पति गैरोला, चौखम्बा विद्याभवन) इस प्रकार है -
ब्राह्मण का धर्म अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-याजन, और दान देना तथा दान लेना है. क्षत्रिय का है पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, शास्त्रों के उपयोग से जीविकोपार्जन करना और प्राणियों की रक्षा करना. वैश्य का धर्म पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, कृषि कार्य एवं पशुपालन और व्यापार करना है. इसी प्रकार शूद्र का अपना धर्म है कि वह ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य की सेवा करे; पशु-पालन तथा व्यापार करे; और शिल्प (कारीगरी), गायन, वादन एवं चारण, भात आदि का कार्य करे.
इस अनुवाद की कपट-पूर्ण विकृतियों पर ध्यान दीजिये-
  1. मूल पाठ्य में दानं प्रथम तीन वर्णों का धर्म कहा गया है किन्तु हिंदी अनुवाद में केवल ब्राह्मण के लिए इसका अर्थ 'दान देना तथा दान लेना' किया गया है, शेष दो वर्णों के लिए इसका अर्थ केवल दान देना है. 
  2. मूल संस्कृत में शूद्र धर्म द्विजाति सुश्रुषा है जबकि हिंदी अनुवाद में इसके लिए तीनों वर्णों की सेवा करना कहा गया है.
  3. खेती, पशुपालन तथा व्यापार उसके लिए हिंदी अर्थों में बिना सन्दर्भ के ठूंसे गए हैं. 
इनसे स्पष्ट होता है कि अनुवादक मूल मंतव्य के अतिरिक्त अपना मत भी अनुवाद के माध्यम से अनधिकृत रूप से व्यक्त कर रहे हैं जो ब्राह्मणों को दान लेने का अधिकारी तथा शूद्रों को वैश्य धर्म में सम्मिलित करता है. शास्त्रों के साथ आधुनिक ब्राह्मण वादियों ने इसी प्रकार के छल कर उन्हें विकृत करके ही जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत किया है. इस प्रकार के छलों से ही भारत के इतिहास को विकृत किया गया है जिसका संशोधन किया जाना आवश्यक है. आइये हम इस विषय पर तर्कपूर्ण दृष्टिकोण से विचार करते हुए उक्त वर्ण व्यवस्था का सही अनुवाद करें.

सबसे पहले ब्राह्मण के बारे में - ब्रह्मा रचनाकार थे और उनके अनुयायी ब्राह्मण कहलाये जो रचनाकार ही थे. हिंदी शब्दावली के अनुसार अध्ययन और अध्यापन का अर्थ पढ़ना पढ़ाना है जो रचनात्मक कार्य नहीं हैं तो ये ब्राह्मण धर्म कैसे हो सकते हैं. इसी प्रकार दान देना तथा लेना किसी प्रकार भी रचनात्मक कार्य नहीं कहे जा सकते और ब्राह्मण धर्म नहीं हो सकते. यज्ञ का वर्तमान प्रचलित अर्थ अग्नि में घी एवं अन्य सामग्री जलाना लिया जाता है. ऐसा करने से यदि वातावरण शुद्ध होता है तो श्होद्र ही इससे वंचित क्यों किये गए हैं जबकि उन्हें तो वातावरण शुद्धि की सर्वाधिक आवशकता रहती है. इस सबसे यही प्रतीत होता है कि चाणक्य महोदय के शब्दों को समझाने के कोई प्रयास न किये जाकर अनुवादक ने अपने मत थोपे हैं. आइये, सही अनुवाद पाने के प्रयास करें. किन्तु पहले कुछ शब्दों की व्याख्या करें.

अध्ययन-अध्यापन
लैटिन भाषा का शब्द है aedis जिसका समतुल्य हिंदी शब्द 'भवन' हैं. लैटिन भाषा शब्दों में अंत के भागों -is, -us तथा ग्रीक भाषा के -os का उच्चारण नहीं होता. भवन बनाना उच्च कोटि का रचनात्मक कार्य है अतः यह ब्राह्मण का निर्धारित दर्म हो सकता है. इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्रीय शब्द 'अध्य' का अर्थ 'भवन' है, जिसके आधार पर अध्ययन-अध्यापन का अर्थ 'भवनों में रहना और उनका निर्माण करना' होता है.  यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि उस समय बहुत अल्प जन समुदाय ही भवनों में रहते थे, अधिकाँश जन-समुदाय जंगलों में भ्रमणकारी जीवन व्यतीत करते थे. इस दृष्टि से भवनों में रहने का विशेष उल्लेख किया गया है.

यजन-याजन 
दक्षिण भारतीय परम्परा में आज भी हिंदी के 'ज्ञ' को 'ज्न' उच्चारित किया जाता है, अतः यजन-याजन का हिंदी रूपांतर 'यज्ञ-याज्ञ' है. यज्ञ के बारे में बहुत भारी भ्रान्ति प्रचलित है. यज्ञ शब्द 'योग' से बना है जो जिसका अर्थ मिश्रित करना अथवा एक साथ मिलाना होता है. प्राचीन काल में अंग्रेजी भाषा का एक शब्द 'yogh था जो दो अक्षरों के योग के लिए उपयोग में लिया जाता था जो योग के उपर्युक्त अर्थ को पुष्ट करता है.
व्यक्तियों का समाज बनने के लिए बस्तियों - ग्राम और नगर - का बनाना आवश्यक होता है. उस समय समाज बनाना मानवता  विकास के लिए महत्वपूर्ण था जो केवल सभ्य जन-समुदाय ही करते थे. इस आधार पर यज्ञ-याज्ञ का अर्थ 'समाज में रहना तथा समाज बनाना' अर्थात 'बस्ती में रहना तथा बस्ती बनाना' सिद्ध होता है.

दान
आधुनिक तथाकथित ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दान शब्द का दुरूपयोग बहुत अधिक किया है. हिंदी भाषा परिवार की भाषा हेब्रू में दान शब्द का अर्थ 'न्याय करना' है.जो एक अति महत्वपूर्ण धर्म होने की संभावना भी रखता है. अतः यही दान शब्द का सही अर्थ है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वश्य वर्णों द्वारा अन्यों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाना निर्धारित करता है.

प्रतिग्रह
लैटिन भाषा के दो शब्द 'granum ' तथा 'graes' हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'बीज' तथा 'घास' हैं जो परंपरागत रूप में भोजन के रूप में उपयोग में लिए जाते रहे हैं. अतः प्रतिग्रह का अर्थ 'खाद्यान्न और शाक-भाजी का उपयोग करते हुए भोजन बनाना' सिद्ध होता है, जो लगभग ५० वर्ष पहले तक अनेक ब्राह्मणों का निर्धारित कार्य था.

शस्त्र 
शस्त्र शब्द का वही अर्थ है जो हिंदी में 'शब्द' का है. प्राचीन काल में शब्दों के उपयोग से आजीविका चलने वाले लोग राजाओं के आश्रित हुआ करते थे जिन्हें भात कहा जाता था. युद्ध क्षेत्र में सेना उत्साह बढ़ने में उनका विशेष योगदान हुआ करता था.


भूत 
भूत शब्द लैटिन के बोटाने से उद्भूत है जिसका अर्थ पेड़-पौधे है.
 

कृषि
वैश्यों का एक धर्म कृषि कहा गया है, किन्तु वैश्य परम्परागत रूप में कभी खेती में लिप्त नहीं रहे और ना ही आज हैं. उनकी जीवनचर्या भी खेती के योग्य नहीं रही है. अतः कृषि शब्द का अर्थ खेती नहीं है. लैटिन भाषा में कृषि के निकटस्थ शब्द cratia (उच्चारण क्रशिया) तथा crucea पाए जाते हैं जिनमें से प्रथम का अर्थ 'शासन करना' तथा दूसरे का अर्थ 'क्रोस' है जो उस समय अपराधियों को दंड देने में उपयोग किया जाता था. शासन करना तथा दंड देना सम्बंधित कार्य हैं. चाणक्य महोदय के ग्रन्थ अर्थशास्त्र लिखे जाते समय गुप्त वंश का शासन चन्द्रगुप्त मोर्य के सम्राट बनने से आरम्भ हो चुका था. अतः इस ग्रन्थ में शासन करना वैश्यों का निर्धारित धर्म कहा गया है.

पाशुपाल्य
पशुपालन खेती से निकट सम्बन्ध रखता है. इसलिए उपर्युक्त चर्चा के आधार पर पशुपालन भी वैश्यों का धर्म सिद्ध नहीं होता. लैटिन भाषा में passus शब्द का उच्चारण पाशु तथा अर्थ 'यात्रा' है जो वैश्यों के परम्परागत धर्म वाणिज्य से गहन सम्बन्ध रखता है. अतः पाशुपाल्य शब्द का अर्थ 'यात्रा करना' सिद्ध होता है न कि पशुपालन.

द्विजाति शुश्रूषा
प्राचीन काल में सुश्रुत नामक महत्वपूर्ण चिकित्सक रहे हैं जिनके चिकित्सा संबंधी ग्रन्थ आज भी प्रचलित हैं. अतः शुश्रूषा शब्द का अर्थ सेवा न होकर चिकित्सा सिद्ध होता है. इसी आधार पर द्विज शब्द का अर्थ रोगी सिद्ध होता है. रोग की चिकित्सा व्यक्ति को दूसरा जन्म देने के समान होती है क्योंकि उस समय रोग अनेक लोगों की जान ले लेते थे.

कारुकुशीलवकर्म 
लैटिन शब्द carruca का अर्थ 'हल' अथवा 'हल चलाना' है जो खेती कार्य का प्रतीक हैं. लैटिन में ही carnis तथा caro शब्दों के अर्थ 'मां'स' हैं जिसे चर्म के भाव में भी लिया जाता है. अतः उपरोक्त शब्द समूह में कारू दो भ्हवों में उपयुक्त किया गया है - एक कुशील के साथ तथा दूसरा कर्म के साथ. इस आधार पर पूरे शब्द समूह का अर्थ 'खेती करना तथा चर्म संबंधी कार्य करना' सिद्ध होता है. चर्म कार्य शूद्रों का परम्परागत कार्य रहा है.

इन सब्द व्याख्याओं के आधार पर चाणक्य महोदय के उक्त सूत्र वर्ण धर्म इस प्रकार निर्धारित करता है -

ब्राह्मण का अपना धर्म भवन में रहना तथा भवन बनाना, बस्ती (समाज) में रहना तथा बस्ती बसाना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना तथा भोजन पकाना है. क्षत्रिय धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, तथा शब्दों के उपयोग से उत्साह वर्धन कर जीविकोपार्जन करना तथा पेड़-पौधों की रक्षा करना है. वैश्य धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, शासन करना, यात्राएं करना तथा व्यापार करना है. शूद्र धर्म रोगियों की चिकित्सा करना, सन्देश वाहक के रूप में कार्य करना, खेती करना तथा चमड़े का कार्य करना है. 

इस आलेख के अंत में 'ब्राह्मण' का परिचय भी प्रासंगिक है. उक्त वर्ण धर्म निर्धारण यह सिद्ध करता है ब्राह्मण धर्म मुख्यतः भोजन, भवन और बस्तियों का निर्माण करना है जो सभी रचनात्मक कार्य हैं और ब्रह्मा की रचनात्मकता से सम्बन्ध रखते हैं. आधुनिक युग में जो समुदाय स्वयं को ब्राह्मण कह रहे हैं, उन्होंने भोजन पकाने के अतिरिक्त कोई अन्य निर्धारित कार्य कभी नहीं किया है. अतः ये ब्राह्मण कभी नहीं रहे हैं और न आज हैं. ग्रामीण अंचलों में इन्हें वामन कहा जाता है. दूसरी ओर कृष्ण ने छल-कपट के लिए वामन का रूप धारण किया था. यह सिद्ध करता है कि आधुनिक समुदाय जो स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं, वस्तुतः वे 'वामन' हैं.   .     




भारत में जनतंत्र का एक नमूना

अभी-अभी उत्तर प्रदेश में विधान परिषद् के सदस्यों के चुनाव संपन्न हुए हैं जिनमें बहुजन समाज पार्टी ने लगभग सभी स्थानों पर विजय प्राप्त की है. जन संचार माध्यम का कहना है कि उत्तर प्रदेश इन चुनावों में बहुजन समाज पार्टी की अप्रत्याशित विजय उसकी जनप्रियता का प्रतीक है जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं.


इन चुनावों में ग्रामसभा प्रधान और खंड विकास समिति सदस्य मताधिकारी थे. बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशियों ने इन मतों को खुले आम खरीदा है और विजय प्राप्त की है. मेरे गाँव के प्रधान और समिति सदस्य ने २५,००० प्रत्येक प्राप्त किये और बसपा प्रत्याशी को अपने मत दिए. सूचना है कि यही अन्य सभी स्थानों पर भी हुआ है.

मेरे क्षेत्र में दूसरा प्रत्याशी राष्ट्रीय लोकदल का था और धनबल में बसपा प्रत्याशी से पीछे नहीं था. उसने भी मुक्त हस्तों से धन का वितरण किया. बहुत से ऐसे मताधिकारी थे जिन्होंने विरोधी प्रत्याशी से धन लेकर भी अपने मत उसके पक्ष में नहीं दिए क्योंकि उन्होंने दोनों पक्षों से धन प्राप्त किया था. इसका एक विशेष कारण यह था कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान राज्य शासन प्रशासन ने ग्राम प्रधानों के विरुद्ध अनियमितताओं के लिए कार्यवाही किये जाने के संकेत दिए थे जिससे ग्राम प्रधान दवाब में आ गए और बसपा के पक्ष में मत-विक्रय किये. इन परिस्थितियों में 'मतदान' शब्द का उपयोग किया जाना खुली बेईमानी होगी. 
चुनाव परिणामों पर विरोधियों ने तीखी प्रतिक्रियाएं की हैं और इसे जनतंत्र विरोधी आधी बताया है. किन्तु वे सब भी सत्ता प्राप्ति के बाद यही सब करते रहे हैं जो आज बसपा ने किया है. तो इसमें बसपा का ही क्या दोष है, यह तो भारतीय जनतंत्र की परम्परा है और इसे चुनावी विधान कहा जा सकता है.

मतों का विक्रय मताधिकारियों की विवशता भी थी क्योंकि उन्होंने भी अपने चुनावों में धन के बल पर ही विजय प्राप्त की थी जिसका बदला उन्हें लेना ही था. इस प्रकार धन के उपयोग से चुनाव जीतना एक चक्रव्यूह है जिसमें भारत का तथाकथित जनतंत्र बुरी तरह फंसा है, और किसी भी अर्थ में जनतंत्र नहीं रह गया है. जनतंत्र के नाम पर भारत में मतों का क्रय-विक्रय ग्राम-स्तर से लेकर संसद तक हो रहा है और सर्व-विदित है, तथापि सब चुप हैं और अनेक आनंदित हैं भारत में जनतंत्र की सफलता पर.

ऐसा है भारत का जनतंत्र जो पूंजीवाद से बहुत अधिक पूंजीवादी है. इसमें लिप्त राजनेता भृष्टता से अधिक भृष्ट हैं. इस खुली व्यवस्था पर भी हम भारतीय और भारतीय जन संचार माध्यम यह कहते नहीं अघाते कि भारत में जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं. क्या इस देश की दुर्दशा इससे भी अधिक होना संभव रह गया है? फिर भी हम सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने से कतरा रहे हैं.

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकता दो - शिक्षा

बौद्धिक जनतंत्र जन-शिक्षा को जन-स्वास्थ के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है, और इसके लिए समुचित व्यवस्था करता है. इन व्यवस्थाओं के पीछे लक्ष्य है - सभी को निह्शुक एवं एक-सम्मान शिक्षा पाने के अवसर प्रदान करना. लोग इसका पूरा लाभ उठाएं, इसके लिए शिक्षा की अह्वेलना करने वालों को मताधिकार से वंचित रखने का दंड.


बौद्धिक जनतंत्र शिक्षा के व्यवसायीकरण का घोर विरोधी है क्योंकि इसके माध्यम से देश का धनिक वर्ग ही शिक्षा गृहण कर पाता है और आगे बढ़ता रहता है, जबकि निर्धन-पिछड़ा वर्ग और अधिक पीछे की ओर धकेला जाता रहता है. इस प्रकार देश में अमीर-गरीब की खाई और अधिक गहरी होती जाती है जो सामाजिक कटुता और अपराधों का कारण बनाती है. यही भारत के तथाकथित जनतंत्र में किया जा रहा है.

समाज के प्रत्येक सदस्य को शिक्षा पाने के समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए उच्चतम स्तर तक की शिक्षा जनता के लिए निःशुल्क व्यवस्था करना बौद्धिक जनतंत्र का दायित्व है. इसके लिए कक्षा ८ तक की शिक्षा प्रत्येक ग्राम स्तर पर, कक्षा १२ तक की शिक्षा ३ किलोमीटर के अंतर्गत, तथा स्नातकोत्तर शिक्षा प्रत्येक विकास खंड स्तर पर उपलब्ध  होगी, इसी प्रकार व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षाओं के डिप्लोमा तक के स्तर के संस्थानं प्रत्येक जनपद मुख्यालय पर उपलब्ध होंगे. इससे उच्चतर शिक्षा के केंद्र विश्वविद्यालयों में होंगे जो ग्रामांचलों एवं उपनगरों में स्थापित किये जायेंगे त्ताकी छात्रों को प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा पाने के अवसर प्राप्त हों.

बौद्धिक जनतंत्र समाज के किसी भी वर्ग के लिए शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण का पक्षधर नहीं है. किसी भी वर्ग को शिक्षा पाने में कठिनाई इसलिए नहीं होगी क्योंकि समाज के प्रत्येक वर्ग को रोजगार और आय के समुचित अवसर प्रदान करना भी बौद्धिक जनतंत्र का निर्धारित दायित्व है ताकि सभी सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर सकें. इसमें इतना संशोधन अवश्य किया जा सकता है कि जो शिक्षाएं राष्ट्रीय उत्पादकता के लिए अनिवार्य हैं. उनमें छात्रों की रूचि बनाए रखने के लिए निःशुल्क हॉस्टल आदि की सुविधाएं प्रदान की जा सकती हैं, किन्तु ये सभी वर्गों को एक समान प्रदान की जायेंगी.