मनुष्य में एक प्राकृत अंतर्चेतना होती है - जिज्ञासा, जिसे तृप्त करने के लिए वह ज्ञान अर्जित करता है. उसके पास ज्ञान अर्जन के दो स्रोत होते हैं - अन्य व्यक्तियों से जाने और उस पर विश्वास करे, तथा अपनी तर्कशक्ति से अनजानी वस्तुओं के बारे में अध्ययन करे अथवा इस प्रकार के अध्ययनों का विवेचन करे और स्वयं की तर्कशक्ति को संतुष्ट करते हुए तथ्यों को स्वीकारे. ये दो विधाएँ क्रमशः 'आस्था' और 'विवेक' कहलाती हैं. विवेकशील प्रक्रिया को विज्ञानं भी कहा जाता है.
आस्था के लिए व्यक्ति का पहले से ज्ञानी होना आवश्यक नहीं है और न ही उसमें तर्कशक्ति होने आवश्यकता होती है. आस्थावान को तो बस किसी दूसरे व्यक्ति से जानना और मानना होता है, इसमें न तो बुद्धि की आवश्यकता होती है और न ही किसी श्रम की. अतः यह अतीव सरल है, इसलिए आस्था निष्कर्म्य लोगों के लिए एक बड़ा शरणगाह है - बिना कोई प्रयास किये उनकी जिज्ञासा संतुष्ट हो जाती है. जिज्ञासा संतुष्ट होने पर व्यक्ति स्वयं को ज्ञानी कह सकता है किन्तु उसका सभी ज्ञान उथला होता है और जो प्रायः समयानुसार तथा परिपेक्ष्यानुसार परिवर्तित होता रहता है. मान लीजिये कि एक व्यक्ति आस्तिकों के समूह में जाता है और उनकी बातें सुनकर आस्तिक हो जाता है. वही व्यक्ति जब नास्तिकों के समूह में जाता है तो उनकी बातें सुनकर बड़ी सरलता से नास्तिक हो सकता है. इस प्रकार उसकी आस्था और ज्ञान परिवर्तनीय होते है. अपनी आस्था को स्थिर रखने के लिए वह बहुमत का आश्रय लेता है अर्थात जिस बात को अधिक लोग कहते हैं वह उसी में आस्था रखने लगता है.
इसके विपरीत, विवेक पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना एक क्लिष्ट, श्रमसाध्य एवं बौद्धिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति प्रत्येक तथ्य का तर्क की कसौटी पर परीक्षण करता है और संतुष्ट होने पर ही उसे स्वीकार करता है. इस प्रक्रिया में व्यक्ति में तर्कशक्ति के अतिरिक्त कसौटी पर परीक्षण का पूर्व ज्ञान भी होना भी अपेक्षित है. अतः ज्ञानवान व्यक्ति ही विवेकशील हो सकता है. चूंकि यह वैज्ञानिक प्रक्रिया क्लिष्ट है इसलिए व्यक्ति सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है किन्तु उसका ज्ञान गहन और अपरिवर्तनीय होता है. सीमित ज्ञान होने के कारण ऐसा व्यक्ति सदैव जिज्ञासु बना रहता है और वह स्वयं को सदैव अल्पज्ञानी ही मानता है. इसी भावना के कारण वह अपने ज्ञान में निरंतर वृद्धि के प्रयास करता रहता है. वस्तुतः यही मनुष्यता है जो मनुष्य की अंतर्चेतना जिज्ञासा को जीवंत बनाए रखती है.
आस्था मनुष्य का प्राकृत गुण नहीं है, इसे मनुष्य जाति ने केवल अंतरिम रूप में काम चलाने हेतु अपनाया था. जब मनुष्य के पास ज्ञान प्राप्त करने के स्रोत सीमित थे और वे उसकी जिज्ञासा को तृप्त करने हेतु अपर्याप्त थे, उसका विवेक भी अपर्याप्त था. अतः उसने अपनी जिज्ञासा को तात्कालिक रूप से तृप्त करने के लिए आस्था का आश्रय लिया, किन्तु यह स्थायी हल नहीं है. विज्ञानं ही मनुष्य जाति की अंतर्चेतना जिज्ञासा को तृप्त करने का स्थायी हल है.
मनुष्यता में भी निर्जीव वस्तुओं की तरह कुछ जड़ता होती है जो उसे निश्कर्मी बने रहने की सुविधा प्रदान करती है. अतः सुविध्वादी मनुष्य आज भी आस्था का दामन कस कर पकडे हुए हैं ताकि वे विज्ञानं की श्रमसाध्य एवं क्लिष्ट प्रक्रिया से बचे रह सकें.
रविवार, 19 सितंबर 2010
शनिवार, 18 सितंबर 2010
मनोरंजन, व्यायाम और चरित्र निर्माण के लिए खेलों का उपयोग
उत्तर प्रदेश के गाँवों में पंचायत चुनावों का दौर चल रहा है जिसमें मेरा गाँव खंदोई भी सम्मिलित है. प्रत्याशियों के पास मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए कोई अपने सामाजिक कार्य न होने के कारण उन्हें निःशुल्क शराब पिलाना ही एक मात्र मार्ग है जिसे जोर-शोर से अपनाया जा रहा है. आस-पास के कुछ गाँवों में तो शराब पर ५ लाख रुपये तक व्यय हो चुके हैं किन्तु मेरे गाँव में यह कुछ सीमित है किन्तु अब इसमें तेजी आ रही है. अभी तक मैं स्थिति को नियंत्रित करने के प्रयास करता रहा हूँ किन्तु अब स्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर हो रही है.
यद्यपि गाँव में लगभग १०-१२ व्यक्ति ही पियक्कड़ हैं किन्तु शराब के निःशुल्क उपलब्ध होने के कारण लगभग ५० प्रतिशत लोग इसे पीने लगते हैं, जिनमें से अनेक इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि चुनाव के बाद भी वे अपना घर-परिवार नष्ट-भृष्ट करके शराब पीते रहते हैं. इस प्रकार प्रत्येक चुनाव में कुछ नए पियक्कड़ बन जाते हैं. अधेड़ और वृद्ध लोगों को तो जो बनना था वे बन चुके हैं इसलिए उन पर तो इस शराबखोरी का कोई विशेष दुष्प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु युवाओं का इसके चंगुल में आना उनके जीवन के लिए यक्ष प्रश्न बन जाता है. इसलिए उनका इससे दूर रखना बहुत महत्वपूर्ण है.
मेरे गाँव में कोई खेल का मैदान नहीं है, यहाँ तक कि गाँव के माध्यमिक विद्यालय के पास जो खेल के मैदान के लिए स्थान उपलब्ध था उसे प्रबंध समिति ने निजी लाभ के लिए निजी अधिकारों में दे दिया है और उस पर निजी भवन बन चुके हैं. इस कारण से गाँव के युवाओं के लिए खेलों के लिए कोई सार्वजनिक स्थान उपलब्ध नहीं है. इसलिए वे अपनी शामें मार्गों पर खड़े रहकर आवारागर्दी में व्यतीत करते रहे हैं.
गाँव के युवाओं को एक नयी दिशा देने के उद्येश्य से मैंने अपने निवास के उद्यान में खेलों के लिए एक छोटा सा मैदान बना दिया है जो गाँव के सभी व्यक्तियों के लिए खुला रहता है. अब गाँव के लगभग ८०-१०० युवा और बच्चे प्रत्येक शाम को लगभग ४ बजे से ही इस मैदान में आने लगते हैं और संध्या ६-७ बजे तक विविध प्रकार के खेल खेलते रहते हैं जिनमें कबड्डी अधिक लोकप्रिय है. युवा शाम को थक कर अपने घर जाकर भोजन के बाद सो जाते हैं. इस प्रकार वे आवारागर्दी और शराबखोरी से दूर हो गए हैं, और उनमें अपने शरीर शौष्ठव की प्रतिस्पर्द्धा जागृत हुई है.
घर में खेल का सार्वजनिक मैदान बनने से मुझे कुछ असुविधा अवश्य हुई है, उद्यान को भी कुछ आघात पहुंचते हैं, किन्तु गाँव के युवा समाज को लाभ हो रहा है वह मेरी व्यक्तिगत क्षति से अनेक गुणित है. इसलिए मुझे इस सब से प्रसन्नता है.
यद्यपि गाँव में लगभग १०-१२ व्यक्ति ही पियक्कड़ हैं किन्तु शराब के निःशुल्क उपलब्ध होने के कारण लगभग ५० प्रतिशत लोग इसे पीने लगते हैं, जिनमें से अनेक इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि चुनाव के बाद भी वे अपना घर-परिवार नष्ट-भृष्ट करके शराब पीते रहते हैं. इस प्रकार प्रत्येक चुनाव में कुछ नए पियक्कड़ बन जाते हैं. अधेड़ और वृद्ध लोगों को तो जो बनना था वे बन चुके हैं इसलिए उन पर तो इस शराबखोरी का कोई विशेष दुष्प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु युवाओं का इसके चंगुल में आना उनके जीवन के लिए यक्ष प्रश्न बन जाता है. इसलिए उनका इससे दूर रखना बहुत महत्वपूर्ण है.
मेरे गाँव में कोई खेल का मैदान नहीं है, यहाँ तक कि गाँव के माध्यमिक विद्यालय के पास जो खेल के मैदान के लिए स्थान उपलब्ध था उसे प्रबंध समिति ने निजी लाभ के लिए निजी अधिकारों में दे दिया है और उस पर निजी भवन बन चुके हैं. इस कारण से गाँव के युवाओं के लिए खेलों के लिए कोई सार्वजनिक स्थान उपलब्ध नहीं है. इसलिए वे अपनी शामें मार्गों पर खड़े रहकर आवारागर्दी में व्यतीत करते रहे हैं.
गाँव के युवाओं को एक नयी दिशा देने के उद्येश्य से मैंने अपने निवास के उद्यान में खेलों के लिए एक छोटा सा मैदान बना दिया है जो गाँव के सभी व्यक्तियों के लिए खुला रहता है. अब गाँव के लगभग ८०-१०० युवा और बच्चे प्रत्येक शाम को लगभग ४ बजे से ही इस मैदान में आने लगते हैं और संध्या ६-७ बजे तक विविध प्रकार के खेल खेलते रहते हैं जिनमें कबड्डी अधिक लोकप्रिय है. युवा शाम को थक कर अपने घर जाकर भोजन के बाद सो जाते हैं. इस प्रकार वे आवारागर्दी और शराबखोरी से दूर हो गए हैं, और उनमें अपने शरीर शौष्ठव की प्रतिस्पर्द्धा जागृत हुई है.
घर में खेल का सार्वजनिक मैदान बनने से मुझे कुछ असुविधा अवश्य हुई है, उद्यान को भी कुछ आघात पहुंचते हैं, किन्तु गाँव के युवा समाज को लाभ हो रहा है वह मेरी व्यक्तिगत क्षति से अनेक गुणित है. इसलिए मुझे इस सब से प्रसन्नता है.
लेबल:
कबड्डी,
खंदोई,
खेल का मैदान,
युवा समाज,
शराबखोरी
शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
जन स्वास्थ - उत्तरदायी कौन
बचपन में विगत काल में जन साधारण के स्वास्थ के बारे में अनेक प्रकार की बातें सुनी थीं -
अतः जन-स्वास्थ के लिए सर्वाधिक घातक कृषकों द्वारा कृषि उत्पादन हेतु अपनाई गयी तकनीकें हैं जिसके लिए कृषि वैज्ञानिक उत्तरदायी हैं. दूसरा घातक प्रहार सरकार द्वारा लोगों को शुद्ध पेय जल उपलब्ध न कराकर किया जा रहा है. तीसरे स्तर पर देश के व्यवसायी हैं जो अपने लाभ के लिए जन-स्वास्थ से खिलवाड़ कर रहे हैं.
- गिल्टी जैसी एक महामारी फ़ैली थी जिसमें हजारों लोग बिना किसी चिकित्सा के मरे गए थे.
- चेचक, हैजा, उल्टी, दस्त आदि बीमारियों से अनेक बच्चे मृत्यु को प्राप्त हो जाया करते थे.
- अधिकाँश जनसँख्या को भर पेट भोजन उपलब्ध नहीं होता था.
- कुछ लोग इतने सशक्त थे कि भैंसे को भी पछाड़ देते थे.
- कुछ लोगों की खुराक अत्यधिक कल्पनातीत थी और वे सशक्त भी बहुत थे.
इसके बाद मैंने अपनी आँखों से देखा था कि गेंहूं की फसल उठाने के समय कुछ लोग पशुओं के गोबर को धोकर उससे गेंहूं प्राप्त करते थे और उससे अपना पेट भरते थे. सिहराने वाली सर्दी, भयंकर बरसात और भरी दोपहरी में कृषि कार्य किये जाते थे जिससे अनेक लोग बीमार हो जाते थे और उन्हें चिकित्सा उपलब्ध न होने के कारण मृत्यु को गले लगाना पड़ता था. तथापि कुछ लोग अत्यधिक सशक्त और स्वस्थ थे.
आज सुनता हूँ कि देश में लोगों की औसत आयु में वृद्धि हुई है, अस्पतालों चिकित्सा के लिए में भीड़ लगी रहती है, और सर्वोपरि प्रत्येक धनवान व्यक्ति अत्यधिक व्यस्त और निर्धन व्यक्ति अत्यधिक अभावग्रस्त है जिससे कोई भी सुखी नहीं है. परिवार टूट रहे हैं और बच्चे मार्गदर्शन के अभाव में आवारा हो रहे हैं.
उपरोक्त तीन स्थितियां संकेत करती हैं कि देश में स्वास्थ सेवाओं का विकास हुआ है किन्तु जनसँख्या वृद्धि की तुलना में पर्याप्त नहीं है. जो भी चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हैं उनके कारण मृत्यु दर कम हुई है किन्तु अधिकाँश लोग अस्वस्थ हैं, अर्थात चिकित्सा सेवाएं लोगों को केवल जीवित रखने में सफल रही हैं, उन्हें स्वस्थ रखने की सामर्थ इन सेवाओं में नहीं है. प्राचीन काल में चाहे कुछ व्यक्ति ही सही वे आज के स्वस्थतम व्यक्तियों से अधिक स्वस्थ थे. इससे सिद्ध यह होता है कि हमने प्रदूषण द्वारा रोगों के स्रोतों में भी वृद्धि की है और भोजन की पोषण सामर्थ भी कम हुई है.
अच्छे स्वास्थ के लिए व्यक्ति के पास स्वास्थ चिंतन हेतु सर्व प्रथम समय होना चाहिए जिसका आज नितांत अभाव है - धनवान और अधिक धनवान होने में व्यस्त है जब कि निर्धन जीवित बने रहने के प्रयासों में स्वास्थ चिंतन के लिए समय नहीं दे पा रहे हैं. प्राचीन काल में लोगों के पास पर्याप्त समय उपलब्ध था जिसका कुछ लोग स्वस्थ बने रहने के लिए सदुपयोग करते थे जिसके कारण ये लोग आज के स्वस्थतम लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ थे.
प्राचीन काल में सभी को पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं था किन्तु जो उपलब्ध था वह आज के उपलब्ध भोजन की तुलना में अधिक स्वास्थवर्धक था. इससे सिद्ध होता है कि देश में खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ा है किन्तु इसकी गुणवत्ता में गिरावट आयी है.
पेय जल का स्वास्थ पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है. उपरोक्त विवरणों से सिद्ध होता है कि चाहे कुछ लोगों को ही सही, प्राचीन काल में शुद्ध पेय जल उपलब्ध था जो आज किसी को भी उपलब्ध नहीं है. इसके लिए सर्वाधिक दोषारोपण औद्योगिक प्रदूषण पर किया जाता है किन्तु यह केवल नगरीय जनसँख्या के लिए ही सही कहा जा सकता है. शुद्ध पेय जल का सर्वव्यापक स्रोत भूगर्भीय जल भण्डार रहा है - प्राचीन काल से आज तक. इससे आज भूगर्भीय जल भी प्रदूषित सिद्ध होता है. इस प्रदूषण का जो कारण स्पष्ट है वह है कृषि क्षेत्रों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग. ये कृषि उत्पादन में वृद्धि के कारण रहे हैं किन्तु साथ ही इनसे खाद्यान्नों की गुणता में कमी आयी है.
मुझे अच्छी तरह याद है, आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व टिड्डी दल ही केवल खरीफ की फसलों को क्षति पहुंचाते थे अन्य हानिकारक कीट पतंगे नगण्य थे. किन्तु आज मेरा कटु अनुभव है कि प्रत्येक फसल को अनेक प्रकार के कीट हानि पहुंचा रहे हैं. इन्ही से फसलों की रक्षा के लिए कीटनाशक अपरिहार्य हो गए हैं. संभवतः रासायनिक खाद का उपयोग ही इन कीटों की वृद्धि का कारण है जो मिट्टी को अम्लीय बनाते हैं जिससे कीटों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि होती है.
जन स्वास्थ को दुष्प्रभावित करने में औद्योगिक प्रदूषण इतना व्यापक कारण नहीं है जितना व्यापक व्यावसायिक स्तर पर उत्पादित खाद्य पदार्थ हैं. इनके उत्पादन और इन्हें लोकप्रिय बनाने में जन-स्वास्थ की अवहेलना की जा रही है. इन पदार्थों में चबाये जाने वाले पान-मसाले और तम्बाकू उत्पाद, बिस्कुट, डबल रोटी, आदि बेकरी उत्पाद, और हलवाइयों द्वारा तैयार की गयी अनेक प्रकार की मिठाइयाँ प्रमुख हैं. प्राचीन काल में इनका प्रचलन नगण्य था इसलिए इनसे उत्पन्न व्याधियां भी नहीं थीं.
अतः जन-स्वास्थ के लिए सर्वाधिक घातक कृषकों द्वारा कृषि उत्पादन हेतु अपनाई गयी तकनीकें हैं जिसके लिए कृषि वैज्ञानिक उत्तरदायी हैं. दूसरा घातक प्रहार सरकार द्वारा लोगों को शुद्ध पेय जल उपलब्ध न कराकर किया जा रहा है. तीसरे स्तर पर देश के व्यवसायी हैं जो अपने लाभ के लिए जन-स्वास्थ से खिलवाड़ कर रहे हैं.
लेबल:
औद्योगिक प्रदूषण,
कीटनाशक,
कृषि उत्पादन,
जन-स्वास्थ,
पेय जल
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
भारतीय समाज में जातीय विष का हल
एक प्रचलित कथावत है -
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.
जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.
भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.
बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.
समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.
बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.
'ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात जात में जात'.
जो भारतीय समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करती है. विश्व के किसी अन्य देश में संभवतः ऐसा नहीं है जहां जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति की जाति का इतना अधिक महत्व हो. अधिकाँश देशों में इस प्रकार के जातीय विष का अन्तर्जातीय विवाहों द्वारा शमन किया गया है. भारत में भी पश्चिमी बंगाल में अब कुछ ऐसा होने लगा है जिसे समाज की भी सहज स्वीकृति प्राप्त हो जाती है. अन्य क्षेत्रों में युवा प्रेमी छिपकर अन्तर्जातीय विवाह कर रहे हैं किन्तु समाज उन्हें सामान्यतः मान्यता नहीं देता है.
जातीयता भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग को प्रदूषित कर रही है, यहाँ तक कि जनतांत्रिक चुनावों में मतदाता जातीय आधार पर ही सरकार का चुनाव कर रहे हैं, जिसे सभी राजनैतिक दल भी पुष्ट कर रहे हैं. अतः सरकारें सार्वजनिक हितों की अवहेलना कर जातीय हितों के लिए कार्य कर रही हैं.
भारत में जातीय भेद का मुख्य कारण यह है कि यहाँ अनेक प्रकार की जीवनशैलियों वाली जातियां आकर बसती रही हैं, जिनमें से अधिकाँश असभ्य थीं और यहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु ही लाई गयी थीं. महिलाओं के अपहरण और उनके साथ दुराचार इनके प्रमुख व्यसन थे. स्थानीय लोगों को अपने सम्मान और संपदा के सुरक्षा के लिए उनसे दूर रहना आवश्यक था. इसी कारण से भारत में स्त्रियों के लिए परदे में रहना आवश्यक समझा गया जो प्रचलन अनेक क्षेत्रों में आज भी है.
बौद्धिक जनतंत्र जातीय भेद को मान्यता नहीं देता किन्तु इसके लिए यह अतीव आवश्यक है कि समाज में कठोर अनुशासन की स्थापना हो, विशेषकर भारतीय समाज में जहां आज भी अनेक जातियां अपने जंगली व्यवहार का परित्याग नहीं कर रही हैं. स्त्रियों और निस्सहाय लोगों के प्रति अपराध इन्ही जातियों के जंगली व्यवहार के कारण हो रहे हैं.
समाज को अनुशासित करने के लिए दो आवश्यक वान्छाएं हैं - न्याय व्यवस्था सुचारू हो तथा दंड विधान कठोर हो. जबकि आज के भारत की वास्तविकता यह है कि न्याय व्यवस्था पूरे तरह निष्फल है और दंड व्यवस्था अति लचर है. बौद्धिक जनतंत्र में न्याय व्यवस्था को सुचारू रखना स्वास्थ और शिक्षा के समान प्राथमिकता दी गयी है. दंड व्यवस्था को कठोर बनने के लिए मृत्यु दंड आवश्यक माना गया है जब कि विश्व भर की जंगली जातियां मृत्यु दंड का विरोध कर रही हैं.
बौद्धिक जनतंत्र दो प्रकार के अपराधों के लिए मृत्यु दंड अनिवार्य मानता है - राष्ट्रद्रोह तथा स्त्रियों के प्रति दुराचार. इसके साथ ही राजकीय पद का दुरूपयोग करते हुए भृष्ट आचरण राष्ट्रद्रोह माना गया है. स्त्री समाज के सम्मान की प्रतीक ही नहीं होती यह समाज की निर्माता भी होती है.
उक्त प्रावधानों से भारतीय समाज शीघ्र ही अनुशासित हो जाएगा, तब ही यहाँ जाति मुक्त विवाह का प्रचलन लाभकर सिद्ध हो सकता है, जो समाज के जातीय भेद को मिटाने का एकमात्र उपाय है. भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था में अन्तर्जातीय विवाह सामान्यतः अनुमत नहीं किया जा सकता जिसके लिए समाज की शैक्षिक स्थिति स्वस्थ होनी चाहिए, जबकि आज के भारत में लगभग ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित हैं जिनमें सामाजिक अनुशासन हेतु परिपक्वता भी विद्यमान नहीं है.
लेबल:
अनुशासन,
अन्तर्जातीय,
जातीयता,
न्याय व्यवस्था,
भारतीय समाज
सोमवार, 13 सितंबर 2010
सृजनात्मक अभिव्यक्ति और जानने की सीमा
प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति से पूर्व अनेक बौद्धिक गतिविधियों यथा जानना, सृजन-परक चिंतन, मूल्यांकन, आदि, की आवश्यकता होती है, किन्तु अभिव्यक्ति की वास्तविक प्रक्रिया हेतु और अधिक जानने की प्रक्रिया बंद करनी होती है और यह मान लिया जाता है कि अभिव्यक्ति हेतु पर्याप्त जान लिया गया है. इसके विपरीत जब तक जानने की प्रक्रिया चलती रहती है तब तक सृजन प्रक्रिया प्रतिबंधित रहती है.
न तो ज्ञान के विषयों की कोई सीमा है और न ही किसी विषय के ज्ञान की कोई सीमा है अतः ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सदा-सदा चलती रहती है और यह जीवन का एक सकारात्मक पक्ष है. तथापि उपरोक्त तर्क सिद्ध करता है कि जीवन के उद्येश्यों की पूर्ति के लिए इसी के किसी न किसी सकारात्मक पक्ष को भी सीमित करना आवश्यक हो जाता है. अतः, जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो प्रत्येक परिस्थिति सकारात्मक सिद्ध होता हो.
प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति रचनाकार के उस विषयक ज्ञान का प्रतिरूप होती है, और इसका उत्कर्ष तभी प्राप्त किया जा सकता है जब ज्ञान का उत्कर्ष स्वीकार कर लिया गया हो - चाहे यह स्वीकृति सदा के लिए न होकर उस अभिव्यक्ति हेतु तात्कालिक ही क्यों न हो.
जानने की प्रक्रिया द्वारा अभिव्यक्ति हेतु ज्ञान प्राप्त किया जाता है. इस ज्ञान का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान द्वारा किया जाता है. अभिव्यक्ति की प्रक्रिया के लिए भी स्मृति में संग्रहित किसी अन्य ज्ञान का उपयोग किया जाता है. यह मूल्यांकन तथा अभिव्यक्ति प्रक्रिया तभी संभव हो सकती है जब इन हेतु संग्रहित ज्ञान पर्याप्त स्वीकार कर लिया गया हो. उदाहरण के लिए, किसी विषय पर आलेखन हेतु उस विषयक शोध करके ज्ञान प्राप्त किया जाता है, इस ज्ञान के पर्याप्त होने का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान से किया जाता है. इसके पश्चात लेखन अभिव्यक्ति हेतु भाषा ज्ञान का पर्याप्त होना आवश्यक होता है. इस प्रकार इन तीनों ज्ञानों के पर्याप्त होने की आत्म-स्वीकृति के पश्चात् ही अभिव्यक्ति की जा सकती है. इस प्रकार सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति व्यक्ति के तात्कालिक ज्ञान संचय की परिणति होती है जिसके लिए ज्ञान संवर्धित करने की प्रक्रिया को विराम देना आवश्यक होता है.
यद्यपि उपरोक्त तर्क सृजनात्मक अभिव्यक्ति हेतु सिद्ध किया गया है, तथापि व्यक्ति के प्रत्येक कर्म हेतु जानने की प्रक्रिया को विराम देना होता है. इसके विपरीत, प्रत्येक कर्म ज्ञान के तात्कालिक उत्कर्ष की स्वीकृति का परिणाम होता है, और यदि ज्ञान संवर्धन की प्रक्रिया जारी रहती है तो कर्म नहीं किया जा सकता. इससे यह भी सिद्ध होता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क, जो ज्ञान प्राप्त करता है, और शरीर, जो कर्म करता है, एक ही समय पर कार्यशील नहीं रहते.
हमारी सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ हमारे अवचेतन मन के कर्म होती हैं जब कि जानने की प्रक्रिया चेतन मन से संचालित होती है. चेतन मन जब पर्याप्त ज्ञान अवचेतन मन को प्रदान कर देता है तभी अवचेतन मन सृजन कार्य कर सकता है. इस प्राविधि में चेतन मन जब जानने से संतुष्ट हो जाता है तब वह 'और अधिक न जानने' की स्थिति में आ जाता है और व्यक्ति चेतन मन से बाहर आकर अवचेतन अवस्था में पहुँच कर सृजन करता है.
जानने और सोचने की प्रक्रियाएं चेतन मन द्वारा संपन्न होती हैं और इनके निर्गत अवचेतन मन को प्रदान कर दिए जाते हैं. तब चेतन मन अपना कार्य बंद कर देता है अवचेतन मन इसके आधार पर सृजनात्मक अभिव्यक्ति का अपना कार्य आरम्भ करता है. इस प्रक्रिया की अवधि में यदि चेतन मन पाता है कि ज्ञान अभी अधूरा है तो वह अभिव्यक्ति प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न कर देता है. चूंकि अवचेतन मन जानने और सोचने के कर्म नहीं करता है इसलिए यह सदैव यह मानता है कि यह सबकुछ जानता है.
न तो ज्ञान के विषयों की कोई सीमा है और न ही किसी विषय के ज्ञान की कोई सीमा है अतः ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सदा-सदा चलती रहती है और यह जीवन का एक सकारात्मक पक्ष है. तथापि उपरोक्त तर्क सिद्ध करता है कि जीवन के उद्येश्यों की पूर्ति के लिए इसी के किसी न किसी सकारात्मक पक्ष को भी सीमित करना आवश्यक हो जाता है. अतः, जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो प्रत्येक परिस्थिति सकारात्मक सिद्ध होता हो.
प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति रचनाकार के उस विषयक ज्ञान का प्रतिरूप होती है, और इसका उत्कर्ष तभी प्राप्त किया जा सकता है जब ज्ञान का उत्कर्ष स्वीकार कर लिया गया हो - चाहे यह स्वीकृति सदा के लिए न होकर उस अभिव्यक्ति हेतु तात्कालिक ही क्यों न हो.
जानने की प्रक्रिया द्वारा अभिव्यक्ति हेतु ज्ञान प्राप्त किया जाता है. इस ज्ञान का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान द्वारा किया जाता है. अभिव्यक्ति की प्रक्रिया के लिए भी स्मृति में संग्रहित किसी अन्य ज्ञान का उपयोग किया जाता है. यह मूल्यांकन तथा अभिव्यक्ति प्रक्रिया तभी संभव हो सकती है जब इन हेतु संग्रहित ज्ञान पर्याप्त स्वीकार कर लिया गया हो. उदाहरण के लिए, किसी विषय पर आलेखन हेतु उस विषयक शोध करके ज्ञान प्राप्त किया जाता है, इस ज्ञान के पर्याप्त होने का मूल्यांकन स्मृति में संग्रहित अन्य ज्ञान से किया जाता है. इसके पश्चात लेखन अभिव्यक्ति हेतु भाषा ज्ञान का पर्याप्त होना आवश्यक होता है. इस प्रकार इन तीनों ज्ञानों के पर्याप्त होने की आत्म-स्वीकृति के पश्चात् ही अभिव्यक्ति की जा सकती है. इस प्रकार सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक सृजनात्मक अभिव्यक्ति व्यक्ति के तात्कालिक ज्ञान संचय की परिणति होती है जिसके लिए ज्ञान संवर्धित करने की प्रक्रिया को विराम देना आवश्यक होता है.
यद्यपि उपरोक्त तर्क सृजनात्मक अभिव्यक्ति हेतु सिद्ध किया गया है, तथापि व्यक्ति के प्रत्येक कर्म हेतु जानने की प्रक्रिया को विराम देना होता है. इसके विपरीत, प्रत्येक कर्म ज्ञान के तात्कालिक उत्कर्ष की स्वीकृति का परिणाम होता है, और यदि ज्ञान संवर्धन की प्रक्रिया जारी रहती है तो कर्म नहीं किया जा सकता. इससे यह भी सिद्ध होता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क, जो ज्ञान प्राप्त करता है, और शरीर, जो कर्म करता है, एक ही समय पर कार्यशील नहीं रहते.
हमारी सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ हमारे अवचेतन मन के कर्म होती हैं जब कि जानने की प्रक्रिया चेतन मन से संचालित होती है. चेतन मन जब पर्याप्त ज्ञान अवचेतन मन को प्रदान कर देता है तभी अवचेतन मन सृजन कार्य कर सकता है. इस प्राविधि में चेतन मन जब जानने से संतुष्ट हो जाता है तब वह 'और अधिक न जानने' की स्थिति में आ जाता है और व्यक्ति चेतन मन से बाहर आकर अवचेतन अवस्था में पहुँच कर सृजन करता है.
जानने और सोचने की प्रक्रियाएं चेतन मन द्वारा संपन्न होती हैं और इनके निर्गत अवचेतन मन को प्रदान कर दिए जाते हैं. तब चेतन मन अपना कार्य बंद कर देता है अवचेतन मन इसके आधार पर सृजनात्मक अभिव्यक्ति का अपना कार्य आरम्भ करता है. इस प्रक्रिया की अवधि में यदि चेतन मन पाता है कि ज्ञान अभी अधूरा है तो वह अभिव्यक्ति प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न कर देता है. चूंकि अवचेतन मन जानने और सोचने के कर्म नहीं करता है इसलिए यह सदैव यह मानता है कि यह सबकुछ जानता है.
रविवार, 12 सितंबर 2010
चुनावी बुखार
उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों का दौर आरम्भ हो चुका है जिस में किसी वैचारिकता अथवा आदर्श को कोई स्थान प्राप्त नहीं हो रहा है. सभी समीकरणों का आधार 'जाति' है जिसे शराबखोरी से सशक्त किया जा रहा है. गाँव प्रधान पद अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित किये जाने से मैं चुनाव मैदान से बाहर हूँ किन्तु मेरी भूमिका का कुछ महत्व बना हुआ है.
गाँव में एक-दो व्यक्ति ही ऐसे हैं जिनकी ईमानदारी पर मैं विश्वास कर सकता हूँ और उन्हें अपना प्रत्याशी बना सकता हूँ किन्तु वे इसके लिए राजी नहीं हो पा रहे हैं. इस का बड़ा कारण यह है कि ग्राम प्रधान पद महिलाओं के लिए आरक्षित है. भली महिलाएं आज भी पुरुष समाज से दूर रहना ही पसंद करती हैं. वस्तुतः, महिलाओं का राजनीति में कोई महत्व नहीं है, इनके लिए आरक्षण करना राष्ट्र-स्तरीय राजनीति का एक दुखद पहलू है जो गाँव स्तर की राजनीति को भी दुष्प्रभावित कर रहा है. जो भी स्त्रियाँ पंचायत चुनावी मैदान में उतारी जाती हैं वे सभी अपने पतियों की प्रतिछाया और संरक्षण में रहकर अपने नाम का निर्वाह करती हैं. इनमें से अधिकाँश निरक्षर हैं और घूँघट से भी बाहर नहीं आती हैं. इस प्रकार महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का एक सबसे विकराल और निरर्थक उपहास है.
गाँव प्रमुखतः तीन लगभग समान खेमों में बँटा हुआ है - राजोरा जाट, लोध-जाटव, और अन्य. मैं अन्य वर्ग में सम्मिलित हूँ और इसका अनौपचारिक प्रतिनिधित्व करता हूँ. प्रथम दो खेमों से तीन-तीन व्यक्ति प्रत्याशी बनने के लिए संघर्षशील हैं किन्तु मेरे खेमों से अभी कोई व्यक्ति इस मैदान के लिए तैयार नहीं हुआ है. इस रिक्ति का कारण यह है कि इसमे डागुर तथा देंगरी जाटों सहित अनेक जातियां सम्मिलित हैं और मेरी उपस्थिति के कारण इसमें कुछ अनुशासन बना हुआ है जिससे कोई भी व्यक्ति प्रत्याशी बनने के उपयुक्त नहीं समझा जा सकता. इस खेमे के प्रत्याशी बनने के लिए कड़ी कसौटियां है, जिनमें ईमानदारी, शराबखोरी से दूरी, महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना, ग्राम-विकास के प्रति समर्पण, आदि सम्मिलित हैं जब कि अन्य खेमों में ऐसी कोई कसौटी नहीं हैं. कुछ समय पूर्व हुए बलात्कार के अपराधी के पक्षधर चुनाव मैदान में प्रत्याशी बने हुए हैं और जातीय आधार पर समर्थन भी प्राप्त कर रहे हैं.
गाँव में मतदाताओं को रिझाने के लिए शराबखोरी का दौर आरम्भ कर दिया गया है जिसमें किशोरों से लेकर वृद्धों तक को प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क शराब पिलाई जा रही है. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ और इसे सीमित करने के लिए पुलिस और प्रशासन की भी सहायता ले रहा हूँ. इसके कारण गाँव में शराब का अवैध विक्रय सीमित है. कुछ आस-पास के गाँवों में जाकर भी मैंने शराबखोरी के विरुद्ध जनमत तैयार किया है किन्तु प्रत्याशियों द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के कारण मुझे कोई विशेष सफलता नहीं मिली है. केवल विरोधी स्वर जीवित रखने का प्रयास है.
शराबखोरी का विकास उन दोनों खेमों से किया जा रहा है जिनमें से एक खेमा बलात्कार और अन्य अपराधों का समर्थक रहा है, तथा दूसरे खेमे से निवर्तमान प्रधान चुना गया था जिसका पूरा परिवार निरक्षर है तथा विगत ५ वर्षों में गाँव में कोई विकास कार्य नहीं किया गया है. इस प्रकार इनमें से एक खेमा अपराधी प्रवृत्ति वाला है तो दूसरा मूर्खों का. मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए इनके पास शराबखोरी और जातीयता के अतिरिक्त कोई अन्य विशिष्टता नहीं है. तथापि ये दोनों खेमे इन दोषों के कारण सफल भी होते रहे हैं. यही भारतीय राजनीति की विडम्बना है.
गाँव में एक-दो व्यक्ति ही ऐसे हैं जिनकी ईमानदारी पर मैं विश्वास कर सकता हूँ और उन्हें अपना प्रत्याशी बना सकता हूँ किन्तु वे इसके लिए राजी नहीं हो पा रहे हैं. इस का बड़ा कारण यह है कि ग्राम प्रधान पद महिलाओं के लिए आरक्षित है. भली महिलाएं आज भी पुरुष समाज से दूर रहना ही पसंद करती हैं. वस्तुतः, महिलाओं का राजनीति में कोई महत्व नहीं है, इनके लिए आरक्षण करना राष्ट्र-स्तरीय राजनीति का एक दुखद पहलू है जो गाँव स्तर की राजनीति को भी दुष्प्रभावित कर रहा है. जो भी स्त्रियाँ पंचायत चुनावी मैदान में उतारी जाती हैं वे सभी अपने पतियों की प्रतिछाया और संरक्षण में रहकर अपने नाम का निर्वाह करती हैं. इनमें से अधिकाँश निरक्षर हैं और घूँघट से भी बाहर नहीं आती हैं. इस प्रकार महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का एक सबसे विकराल और निरर्थक उपहास है.
गाँव प्रमुखतः तीन लगभग समान खेमों में बँटा हुआ है - राजोरा जाट, लोध-जाटव, और अन्य. मैं अन्य वर्ग में सम्मिलित हूँ और इसका अनौपचारिक प्रतिनिधित्व करता हूँ. प्रथम दो खेमों से तीन-तीन व्यक्ति प्रत्याशी बनने के लिए संघर्षशील हैं किन्तु मेरे खेमों से अभी कोई व्यक्ति इस मैदान के लिए तैयार नहीं हुआ है. इस रिक्ति का कारण यह है कि इसमे डागुर तथा देंगरी जाटों सहित अनेक जातियां सम्मिलित हैं और मेरी उपस्थिति के कारण इसमें कुछ अनुशासन बना हुआ है जिससे कोई भी व्यक्ति प्रत्याशी बनने के उपयुक्त नहीं समझा जा सकता. इस खेमे के प्रत्याशी बनने के लिए कड़ी कसौटियां है, जिनमें ईमानदारी, शराबखोरी से दूरी, महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना, ग्राम-विकास के प्रति समर्पण, आदि सम्मिलित हैं जब कि अन्य खेमों में ऐसी कोई कसौटी नहीं हैं. कुछ समय पूर्व हुए बलात्कार के अपराधी के पक्षधर चुनाव मैदान में प्रत्याशी बने हुए हैं और जातीय आधार पर समर्थन भी प्राप्त कर रहे हैं.
गाँव में मतदाताओं को रिझाने के लिए शराबखोरी का दौर आरम्भ कर दिया गया है जिसमें किशोरों से लेकर वृद्धों तक को प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क शराब पिलाई जा रही है. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ और इसे सीमित करने के लिए पुलिस और प्रशासन की भी सहायता ले रहा हूँ. इसके कारण गाँव में शराब का अवैध विक्रय सीमित है. कुछ आस-पास के गाँवों में जाकर भी मैंने शराबखोरी के विरुद्ध जनमत तैयार किया है किन्तु प्रत्याशियों द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के कारण मुझे कोई विशेष सफलता नहीं मिली है. केवल विरोधी स्वर जीवित रखने का प्रयास है.
शराबखोरी का विकास उन दोनों खेमों से किया जा रहा है जिनमें से एक खेमा बलात्कार और अन्य अपराधों का समर्थक रहा है, तथा दूसरे खेमे से निवर्तमान प्रधान चुना गया था जिसका पूरा परिवार निरक्षर है तथा विगत ५ वर्षों में गाँव में कोई विकास कार्य नहीं किया गया है. इस प्रकार इनमें से एक खेमा अपराधी प्रवृत्ति वाला है तो दूसरा मूर्खों का. मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए इनके पास शराबखोरी और जातीयता के अतिरिक्त कोई अन्य विशिष्टता नहीं है. तथापि ये दोनों खेमे इन दोषों के कारण सफल भी होते रहे हैं. यही भारतीय राजनीति की विडम्बना है.
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