रविवार, 22 अगस्त 2010

समाज का जातीय विभाजन

भारत में एक विशिष्ट वर्ग है जो सबसे पहले लोगों को नष्ट करता है, सफल न होने पर उन्हें भृष्ट करता है, भृष्ट न कर सकने पर उनकी चापलूसी करता है, और इसमें भी सफल न होने पर उन्हें स्वयं का अंग घोषित कर देता है. इसी वर्ग ने लोगों को भृष्ट करने के लिए उनमें जातीय विष फैलाया - व्यवसायों को जातियों से सम्बद्ध कहकर. तदनुसार, जिसने कभी एक बार किसी विवशता में कोई तुच्छ कार्य कर लिया, उसकी सन्ततियां सदा-सदा के लिए शुद्र ही रहेंगी चाहे वे कितने भी महान कार्य क्यों न करें. चूंकि यह वर्ग सुविधा-संपन्न होने के कारण समाज का अगुआ बना इसलिए जातीय आधार पर इसकी सन्ततियां भी समाज की अगुआ ही बनी रहीं चाहे वे कितने भी घृणित कार्य क्यों न करें.

एक उदाहरण देखिये - विष्णुगुप्त चाणक्य एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें कोई पराजित नहीं कर सका. इन्हीं से भारत में गुप्त वंश का आरंभ हुआ. एक विशेष प्रयोजन के लिए इन्होने एक छद्म रूप धारण किया था - ब्राह्मण का, अर्थात एक सृजनकर्ता का. उस समय तक भारतीय समाज का जातीय विभाजन नहीं हुआ था. इसलिए विष्णुगुप्त की कोई जाति नहीं थी. वे युगपुरुष थे.

उक्त विशिष्ट वर्ग ने समाज के जातीय विभाजन के लिए एक सुप्रसिद्ध देव्ग्रंथ 'मनुस्मृति' के भृष्ट अनुवाद और भाष्य आदि प्रकाशित कर तत्कालीन व्यवसायों को जातियां बना दिया और निर्धारित कर दिया कि जो व्यक्ति जो व्यवसाय कर रहा है उसकी सन्ततियां भी वही व्यवसाय करती रहेंगी. चूंकि यह वर्ग छल-कपट के माध्यम से वैभवशाली जीवन जी रहा था, इसलिए इसने स्वयं के लिए इसे ही व्यवसाय बना लिया. धर्म, ईश्वर, आदि के नाम पर ज्योतिष, भूत-प्रेत, जन्म-जन्मान्तर, आदि अनेक मनगढ़ंत छल-कपट पूर्ण सिद्धांतों का प्रतिपादन किया और इन्हीं के माध्यम से समाज को भ्रमित करने को अपना व्यवसाय बना लिया. इसी वर्ग ने विष्णुगुप्त चाणक्य को ब्राह्मण घोषित किया हुआ है.

जातीय विभाजन का यह घृणित कार्य गुप्त वंश के शासन के बाद किया गया जब भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया था और यह वर्ग सर्वव्यापक राजगुरु पद पर प्रतिष्ठित हो चुका था. इसी समय आधुनिक संस्कृत का विकास किया गया जिसमें वैदिक संस्कृत की शब्दावली का उपयोग तो किया गया किन्तु उनके अर्थ विपरीत कर प्रकाशित दिए गए. तदनुसार वैदिक ग्रंथों के अनुवाद भी भृष्ट कर दिए गए और उनके माध्यम से धर्म, ईश्वर, ज्योतिष, आदि शब्दों के प्रदूषित अर्थ और भाव प्रकाशित कर समाज के जातीय विभाजन को बहुविध पुष्ट किया गया.

उक्त पुष्टि और समाज पर उक्त वर्ग के अंकुश बने रहने के कारण भारतीय समाज का जातीय विभाजन आज तक यथावत चल रहा है, इस विभाजन का सातत्व बनाये रखने के लिए जाति के अंतर्गत ही विवाह की प्रथा बनायी गयी. इससे समाज में लगी  जातीय दीवारें नित्यप्रति पुष्ट होती रहती हैं.

आरम्भ में केवल चार जातियां बनायी गयीं जिन्हें वर्ण कहा गया. उसके बाद वर्णों में जातियां और उपजातियां बनायी जाती रही हैं. इसे व्यक्त करने के लिए कहा गया है -
'ज्यों केले के पात में, पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात में जात जात में जात'

स्वतन्त्रता के बाद स्थापित तथाकथित जनतंत्र में यह जातीय विभाजन विष का कार्य कर रहा है. चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जाति से ही अटूट रूप से जुदा है, इसलिए वह जनतांत्रिक चुनावों में भी जाति को ही आधार बनाता है, प्रत्याशियों की सुयोग्यता पर कोई विचार नहीं किया जाता. इस कारण भारत की राजनैतिक सत्ता उन लोगों के हाथों में खिसकती जा रही है जो संतान उत्पादन में अग्रणी और शिक्षा आदि में पिछड़े हुए हैं. जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर विविध प्रकार के आरक्षण जातीय विष को और भी अधिक तीक्ष्णता प्रदान कर रहे हैं. अपने पारस्परिक संयोग से जातीय विभाजन और आरक्षण नित्यप्रति पुष्ट होते जा रहे हैं.
The Population Explosion

भारत में जनसँख्या विस्फोट भी इसी जातीय विभाजन का परिणाम है. इसके कारण अनेक जातियां अपनी-अपनी जनसँख्या में केवल इसलिए अत्यधिक वृद्धि कर रहें हैं ताकि एक दिन देश की राजनैतिक सत्ता उनके पास सदा-सदा बनी रहे. यदि स्थिति इसी दिशा में आगे बढ़ती रही तो भारत विनाश अवश्यम्भावी है.      

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

एक और बलात्कार प्रयास और मेरे विरुद्ध षड्यंत्र

मेरे गाँव में एक गेंग है जो राहजनी, लूटपाट, चोरी, डकैती, बलात्कार आदि में शामिल रहता है. जिनका मैं डटकर मुकाबला करता रहता हूँ जिनके विवरण इस संलेख में प्रकाशित हैं. यह गेंग स्थानीय पुलिस से भी सान्थ्गान्थ रखता है जिससे पुलिस इन्हें कुछ संरक्षण भी प्रदान करती है. इसी श्रंखला में कल एक नयी घटना घटी जिसकी दूरगामी परिणाम होंगे.

एक ब्रह्मण स्त्री अपने खेत पर कर लेने गयी थी. चारे का गट्ठर उठवाने के लिए उसने एक व्यक्ति से सहायता माँगी जो पास के खेत में सिंचाई कर रहा था. उसने स्त्री की सहायता करने के स्तन पर उसे पास के गन्ने के खेत में खींच लिया और उसके साथ बलात्कार का प्रयास किया. स्त्री के शोर मचने पर, उस व्यक्ति ने स्त्री का गला घोटकर हत्या का प्रयास किया. विवश स्त्री ने अपने एक मात्र पुत्र की कसम खाकर अपराधी को विश्वास दिलाया कि वह इस घटना के बारे में किसी को कुछ नहीं बताएगी जिस पर उसे छोड़ दिया गया. छूटने के स्त्री घर आयी और अपने पारिवारिक लोगों को घटना की जानकारी दी. यह अपराधी भी उक्त गेंग के एक परिवार से ही है.

इस घटना की चर्चा पूरे गाँव में होने पर गेंग के कुछ सदस्य समझौते का प्रस्ताव लेकर स्त्री के परिवार जनों से मिले जो सभी उस व्यक्ति की आपराधिक वृत्ति स्वीकार करते रहे किन्तु उसे सामाजिक दंड देकर क्षमा करने की मांग करते रहे. स्त्री के विरोध करने पर भी परिवारजनों ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किन्तु लगभग ३ घंटे प्रतीक्षा करने पर भी प्रस्ताव के कार्यान्वयन के लिए कोई आगे नहीं आया और शाम के चार बज गए.

उक्त घटनाक्रम के दौरान मैं गाँव से बाहर था और मेरे ४बजे वापिस लौटने पर वह स्त्री और गाँव की अनेक स्त्रियों ने मुझसे न्यायपूर्वक हस्तक्षेप की अश्रुपूर्ण मांग की. उन्होंने मुझे यह भी बताया कि उनका समझौते का प्रस्ताव स्वीकार होने पर भी वे आगे नहीं आये हैं. अतः पुलिस में रिपोर्ट करना ही आवश्यक है. अतः पुलिस में रिपोर्ट की गयी और पुलिस ने पूछताछ के लिए आरोपी व्यक्ति को बुलवाया किन्तु गेंग ने उसे छिपा दिया. पुलिस द्वारा स्त्री का चिकित्सीय परीक्षण भी करा लिया गया है. किन्तु अभी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अपराधी के विरुद्ध मुकदमा दर्ज नहीं किया है. इस विलंब के लिए पुलिस को कुछ रिश्वत भी दी गयी है.

गेंग ने उस अपराधी को छिपा रखा है और पुलिस को पूछताछ भी नहीं करने दे रहा है. साथ ही गेंग ने मेरे विरुद्ध भी षड्यंत्र रचना आरम्भ कर दिया है जिसके अंतर्गत उक्त अपराधी की पत्नी को तैयार किया गया है जो मुझ पर बलात्कार का आरोप लगाएगी और उसकी रिपोर्ट पुलिस में करेगी. इस व्यवस्था के लिए गेंग के सदस्यों ने चंदा देकर कुछ धन भी एकत्र किया है. यह स्त्री भी दुश्चरित्र है और गेंग के सदस्यों के विलास का साधन है. 
The Offence


इस गेंग के दो प्रमुख सदस्य हैं - इकपाल सिंह और हरिराज सिंह. दोनों गाँव के प्रधान रह चुके हैं और हरिराज आगामी चुनाव में भी प्रत्याशी होने का इच्छुक है. इकपाल सिंह सहकारी विभाग में नियुक्त था और वहां से आर्थिक अनियमितता के कारण सेवामुक्त किया गया था. साथ ही उसके विरुद्ध सहकारी विभाग की एक भारी धनराशी बकाया है. इसे चुकता करने से बचने के लिए इसने अपनी पूरी भूमि बेच दी है और उस धन से अपने पुत्रों के नाम भूमि खरीद ली है. बकाया राशि की वसूली के लिए उस पर मुकदमा चल रहा है जिसमें वह उपस्थित नहीं होता है. न्यायालय से जारी वारंट स्थानीय पुलिस के पास अनेक वर्षों से पड़े हैं जो रिश्वत लेकर इकपाल का गाँव में उपलब्ध न होना दर्शा देती है, जब कि वह नियमित रूप से गाँव में ही रहता है और पुलिस से निकट संपर्क भी बनाए रहता है.   .

शनिवार, 14 अगस्त 2010

भृष्टाचार उन्मूलन

वर्तमान में अथवा भूतकाल में अनेक उच्च एवं प्रतिष्ठित पदों पर आसीन व्यक्ति एवं उनके संगठन भारत में फैले उच्च स्तरीय भृष्टाचार से दुखी हैं और इसके उन्मूलन हेतु कार्य कर रहे हैं. यह सही है कि उच्च स्तर पर हो रहा भृष्टाचार ही निम्नतम स्तर तक पहुंचा है क्योंकि भृष्टाचार सदैव उच्च स्तर से नीचे की ओर उत्प्रेरित होता है, न कि निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर. इस प्रकार यदि उच्च स्तरीय भृष्टाचार समाप्त हो जाता है तो निम्नस्तरीय भृष्टाचार भी एक दिन स्वतः समाप्त हो जाएगा. किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि निम्न स्तरीय भृष्टाचार को यथावत स्वीकार किया जाता रहे अथवा इसे प्रोन्नत किया जाता रहे, और इसके उन्मूलन की तभी आशा की जाये जब उच्च-स्तरीय भृष्टाचार समाप्त हो जायेगा.

भृष्टाचार भारतीय जन-मानस की रग-रग में रच-बस गया है, किसी दुल्हन की हथेलियों पर लगी मेहंदी की तरह, जिसे तुरंत समाप्त नहीं किया जा सकता. इसकी समाप्ति के लिए दीर्घ-कालिक सतत प्रयास करने होंगे, प्रत्येक स्तर पर. यह भी सही है कि निम्न स्तर पर भृष्टाचार समाप्ति के प्रयास प्रायः निष्फल अथवा अस्थायी होते हैं. किन्तु निम्न स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास एक जन-आन्दोलन को प्रेरित करते हैं, जो क्षमता उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयासों में नहीं होती. ये प्रयास अधिकाँश में न्यायालयी संघर्षों द्वारा किये जाते हैं.

भृष्टाचार  उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि भृष्ट लोगों के मानस में भय व्याप्त हो जिसकी सामर्थ्य जन-आन्दोलन में होती है  जो निम्न-स्तरीय संघर्षों से उत्प्रेरित होते हैं. किन्तु निम्न-स्तरीय भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास कालजयी नहीं होते, इसलिए  उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के बिना स्थायी नहीं हो सकते. इस प्रकार भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास दोनों स्तरों पर किये जाने चाहिए. इसके लिए सूत्र यह है कि जो जहां है, वहीं भृष्टाचार पर प्रहार करे और सतत करता रहे.

निम्न स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन में सबसे बड़ी बाधा यह है कि जन-मानस ने इसे जीवन-शैली के रूप में स्वीकार कर लिया है और वह इसके विरुद्ध स्वर बुलंद कर जन-संघर्ष के लिए तैयार नहीं है. यहाँ तक कि जो भी इसके लिए छुट-पुट प्रयास किये जाते हैं, स्वयं जन-मानस ही उनकी अवहेलना करता है, तथा यदा-कदा अपनी स्वीकार्य जीवन-शैली बनाए रखने के लिए ऐसे संघर्षों के विरुद्ध कार्य भी करता है. इस अवहेलना और विरोध के कारण निम्न-स्तरीय संघर्ष दीघ-जीवी सिद्ध नहीं होते. साथ ही साधनहीनता के कारण इनका दमन भी सरल होता है. इन्हें बनाए रखने के लिए उच्च स्तरीय सहयोग आवश्यक होता है.
Mass Psychology (Penguin Modern Classics Translated Texts)

इस चर्चा से जो कार्य-शैली प्रभावी प्रतीत होती है, उसके विविध आयाम निम्नांकित हैं -

  • उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास अवश्य हों और इसके लिए व्यापक संगठनात्मक ढांचा विकसित किया जाये.
  • निम्न स्तर पर भी भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास हों, जिनके माध्यम से जन-मानस में संशोधन हो, और जन-संघर्ष उत्प्रेरित किये जाएँ. इसके लिए निम् स्तर पर भी स्थानीय संगठन बनें. 
  • निम्न स्तरीय प्रयासों को सतत बनाए रखने के लिए उच्च स्तर से सहयोग और संरक्षण प्रदान किया जाए. 
  • उच्च स्तरीय प्रयासों के लिए जहां कहीं जन-आन्दोलन की आवश्यकता हो, निम्न स्तरीय जन संघर्ष इनमें यथाशक्ति सहयोग प्रदान करें.  
इस प्रकार भृष्टाचार उन्मूलन के लिए शक्ति और जन-चेतना दोनों के समन्वय की आवश्यकता है जो क्रमशः उच्च और निम्न स्तरों पर उपलब्ध होते हैं, अतः उच्च एवं निम्न दोनों स्तरों पर प्रयासों का महत्व है और दोनों में सहयोग अपरिहार्य है. 

बुधवार, 11 अगस्त 2010

भृष्ट आरक्षण में भी भृष्टाचार

भारत में विविध प्रकार के आरक्षण सामाजिक और राजनैतिक भृष्टाचार के प्रतीक हैं और यह महादानव विकराल रूप धारण कर चुका है. इसके माध्यम से राजनेता और प्रशासक अपने मनोवांछित स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं. एक बार फिर, मुझे पंचायत चुनाव में प्रत्याशी होने के अपने मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया गया है, क्योंकि यह गाँव के असामाजिक तत्वों, विकास क्षेत्र और जनपद के प्रशासनिक अधिकारियों के मनोनुकूल नहीं है. 

प्रदेश सरकार की घोषित नीति के अनुसार गाँव खंदोई का प्रधान पद अनारक्षित रहना था जैसा कि सन २००० में रहा था. तदनुसार ग्रामवासी मुझे इस पद पर चुन कर चारों और फैले भृष्टाचार से संघर्ष करते हुए गाँव का विकास चाहते थे. इससे गाँव के असामाजिक तत्वों को और विकास क्षेत्र के अधिकारियों को बड़ी असुविधा होनी थी जो विकास के संसाधनों को हड़पते रहने के अभ्यस्त हो गए हैं. अतः उन्होंने सरकार की आरक्षण हेतु घोषित नीति की अवहेलना करते हुए गाँव की प्रधान पद को अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित घोषित कर दिया है. इससे मैं चुनाव मैदान से बाहर कर दिया गया हूँ ताकि गाँव में अशिक्षित असामाजिक तत्व सत्तासीन रह सकें और विकास क्षेत्र के अधिकारियों के साथ मिलकर विकास के संसाधनों को हड़पते रहें. 

मेरे पद के लिए प्रत्याशी होने का समाचार दूर-दूर तक फ़ैल चुका था जिससे लोगों को गाँव के क्षेत्र के विकास के लिए भृष्टाचार पर अंकुश लगने की आशा थी. मेरी अभिलाषा थी कि मैं इस पद से अपने गाँव को एक आदर्श गाँव के रूप में विकसित कर दूंगा ताकि देश के अन्य गाँवों को उसी आधार पर विकसित होने का मार्ग प्रशस्त हो सके. इस योजना के अंतर्गत -
  • गाँव में कुटीर उद्योगों की स्थापना से गाँव के प्रत्येक नागरिक को गाँव में ही रोजगार के अवसर प्रदान करना है,
  • गाँव के किसी नागरिक को अपने कार्यों के लिए किसी सरकारी कार्यालय में जाने की आवश्यकता नहीं होगी और जनपद स्तर तक के अधिकारी नियमित रूप से गाँव अथवा क्षेत्र में ही अपने शिविर लगायेंगे और नागरिकों की उचित समस्याओं का तत्काल निवारण करेंगे,
  • गाँव में एक उच्च प्राथिमिक विद्यालय, कन्या माध्यमिक विद्यालय, एक डिग्री कॉलेज, और एक औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान के स्थापना होगी ताकि स्थानीय लोगों में सभ्यता विकास एवं रोजगार हेतु शिक्षा एवं कौशल विकसित हो,
  • गाँव में एक खेल स्टेडियम की स्थापना हो ताकि ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को अपनी प्रतिभा दर्शाने के अवसर मिलें. अभी गाँव में कोई खेल का मैदान भी नहीं है. 
  • गाँव की सार्वजनिक संपदा, प्रमुखतः भूमि, को निजी अधिकारों से मुक्त करा निर्धन और भूमिहीन परिवारों को देना ताकि वे अपने कूड़े-करकट गाँव के मार्गों के दोनों ओर डालने के लिए विवश न रहें. इससे गाँव का वातावरण शुद्ध होगा और लोग स्वस्थ रहेंगे. 
  • गाँव में चल रहे अनेक अवैध शराब के विक्रय केन्द्रों को बंद कराया जाएगा ताकि लोग शराब से विमुख होकर विकास की ओर ध्यान दें.
  • गाँव में होने वाले झगड़े-फिसादों को गाँव में ही निपटाया जाएगा, ताकि सौहार्द-पूर्ण वातावरण बने और लोगों की कमाई मुकदमों पर व्यर्थ न हो. 
  • गाँव के प्रत्येक मार्ग के दोनों ओर वृक्षारोपण होगा ताकि वातावरण शुद्ध हो, और गाँव सभा को नियमित आय हो. इससे मार्गों पर अवैध अधिकारों से मुक्त रखा जा सकेगा. 
  • गाँव में विद्युत् व्यवस्था दुरुस्त कराई जायेगी और लोगों को इसकी चोरी न करने के लिए प्रेरित किया जाएगा ताकि वे वैध रूप से विद्युत् उपभोक्ता बनें.                                              
DIY's Holiday Workshop 102उपरोक्त प्रावधानों से गाँव के असामाजिक तत्वों और स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों की वर्तमान भृष्ट गतिविधियों पर अंकुश लग जाता जो उन्हें पसंद नहीं है. इसलिए इन सब ने मिलकर मुझे मेरे अधिकार से वंचित किया है. 

मन और मस्तिष्क का संघर्ष

मनुष्य जो भी करता है उसके पीछे उसके मन अथवा मस्तिष्क का मार्गदर्शन होता है. मन शारीरिक इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्प्रेरित करता है, तथा इसमें उचितानुचित पर चिंतन करने की सामर्थ्य नहीं होती. मनुष्य के मस्तिष्क में उसके भूतकाल के अनुभवों की स्मृतियाँ तथा उनके उपयोग की सामर्थ्य होती है जिससे वह उचितानुचित पर चिंतन कर अपने कार्य करता है. उचितानुचित के चिंतन की सामर्थ्य ही मनुष्य का विवेक कहलाता है.

शरीर से कार्यों हेतु सञ्चालन की सामर्थ्य भी मस्तिष्क में ही होती है अतः कार्य चाहे मन के मार्गदर्शन में हो अथवा मस्तिष्क के, मस्तिष्क शरीर के सञ्चालन हेतु सदैव सक्रिय रहता है. इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य का मन भी मस्तिष्क के माध्यम से कार्य कराता है जिसमें मनुष्य के विवेक का सक्रिय होना आवश्यक नहीं होता. किसी कार्य में विवेक की निष्क्रियता का एक बड़ा कारण यह होता है कि विवेक की क्रियाशीलता में कुछ समय लगना अपेक्षित होता है. इसलिए शरीर को जब किसी क्रिया की तुरंत आवश्यकता होती है तो वह विवेक की क्रियाशीलता की प्रतीक्षा किये बिना ही शरीर को सक्रिय कर देता है. मन के मार्गदर्शन के अनुसार कार्य करने का एक अन्य कारण शरीर की इच्छा की प्रबलता होती है. इस स्थिति में भी मनुष्य का विवेक सक्रिय नहीं होता.

चिंतन करना मनुष्य के अभ्यास पर भी निर्भर करता है. जो मनुष्य अधिकाँश समय चिंतन करते हैं उनका मस्तिष्क प्रायः सक्रिय रहता है जो मन पर अपना नियंत्रण बनाए रखता है. इस कारण से बुद्धिजीवी अपने सभी कार्य विवेक के अनुसार करते हैं, जब कि श्रमजीवी विवेक का यदा-कदा ही उपयोग करते हैं. इन दो वर्गों के मध्यवर्ती लोग कभी मन के तो कभी विवेक के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं. इसके कारण उनके मन और मस्तिष्क में प्रायः संघर्ष की स्थिति बनी रहती है.

मनुष्य के शरीर की आवश्यकताएं यथा भूख, प्यास, काम, आदि प्राकृत होती हैं उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता किन्तु इनकी आपूर्ति के माध्यम भिन्न हो सकते हैं. ये आवश्यकताएं सभी जीवधारियों में होती हैं और यही उनके जावन का लक्ष्य भी होती हैं  यदि मनुष्य अपना जीवन इन्ही की आपूर्ति तक सीमित कर देता है तो पशुतुल्य ही होता है. मनुष्यता पशुता से बहुत आगे है - अपनी चिंतन शक्ति, बुद्धि और संस्कारों के कारण. व्यक्ति के संस्कार उसके व्यवहार को संचालित करते हैं जो अच्छे अथवा बुरे दोनों प्रकार के हो सकते हैं. उसकी चिंतन शक्ति उसके जीवन की समस्याओं के निवारण के लिए महत्वपूर्ण होती है तथा उसकी बुद्धि मानव सभ्यता को और आगे ले जाने में उपयोग की जाती है. व्यक्ति द्वारा अपनी बुद्धि और चिंतन शक्ति के उक्त सदुपयोगों के अतिरिक्त व्यक्ति इनका दुरूपयोग भी कर सकता है.
Sacraments in Scripture

मनुष्य का मस्तिष्क बहुत अधिक विकसित होता है जिसमें अथाह स्मृति, चिंतन शक्ति और बुद्धि का समावेश होता है, इसके सापेक्ष अन्य जीवों के मस्तिष्क उनके मन को समर्थन प्रदान करने के लिए ही होते हैं और अधिकाँश में बुद्धि और चिंतन शक्ति का अभाव होता है. इसके कारण मनुष्य ही पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ जीव है, और इसकी विशिष्ट पहचान है - मन और मस्तिष्क का सतत संघर्ष, जिसमें मस्तिष्क प्रायः विजयी रहता है. यही मानव सभ्यता के विकास का मार्ग है.

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

शक्ति की पूजा और दासत्व की मनोदशा

भारत की स्वतन्त्रता के पूर्व से आज तक जो भारत में नहीं बदला है - वह है जन-साधारण द्वारा शक्ति की पूजा और उनका दासत्व की मनोदशा. वस्तुतः इन दोनों में गहन सम्बन्ध है, इसलिए एक में परिवर्तन हुए बिना दूसरे में परिवर्तन संभव नहीं है. इस मनोदशा के मूल में शासकों और समाज के अग्रणी जनों द्वारा जन-साधारण का सतत संस्कारण है, जो तब से अब तक यथावत किया जा रहा है. लोगों में दासत्व भाव बनाए रखने के लिए उन्हें दयनीय बना कर रखा जाता है.

शक्ति-पूजा का विधि-विधान 
मूलतः व्यक्ति को शक्ति देना शासन नीति के विरुद्ध है. अतः लोगों को शासन के अधीन बनाये रखने के लिए उन्हें संस्कारित इस प्रकार किया जाता है कि वे स्वयं शक्तिहीन हैं और उन्हें अपनी रक्षा के लिए किसी शक्तिशाली व्यक्ति की आवश्यकता है, जिसकी उन्हें पूजा-अर्चना करनी चाहिए ताकि वह प्रसन्न रहे और यथावश्यकता उनकी रक्षा करता रहे. ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में शक्ति की पूजा का आरम्भ यवनों ने किया जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी देवी दुर्गा के रूप में रात्रि में उनका संहार करने निकलती थीं तो भयभीत होकर वे रात्रिभर जागते रहते थे और देवी के गुणगान करते रहते थे ताकि देवी उनपर कृपा करे और उनका संहार न करे. तब से अब तक किसी न किसी रूप में लोगों को शक्ति की पूजा के लिए संस्कारित किया जाता रहा है ताकि वे स्वयं शक्तिशाली बनने का प्रयास न करके शक्ति पर निर्भर बने रहें.

स्वतन्त्रता के बाद लोगों की शत्रुओं से रक्षा का दायित्व वैधानिक रूप में सेना और पुलिस का है जो लोकतांत्रिक विधान के अनुसार लोगों के अधीन व्यवस्थित हैं. इसे लोगों द्वारा स्वयं अपनी रक्षा के लिए मात्र कार्य विभाजन माना जा सकता है. किन्तु लोगों को पुलिस का उपयोग करने के लिए भी किसी शक्तिशाली माध्यम की आवश्यकता होती है. इसी प्रकार प्रशासनिक अधिकारी जो जनतंत्र में लोकसेवक हैं, से अपने कार्य करने के लिए भी उन्हें सशक्त माध्यम की आवश्यकता होती है. अतः शक्ति पूजा का मूल प्रभाव यह है कि लोग अशक्त हो गए हैं और अशक्त ही बने रहना चाहते हैं. इस बाव से उन्हें दायित्व-विहीन बने रहने का मनोवैज्ञानिक लाभ भी प्राप्त होता है.

लोगों में स्वयं अशक्त बने रहने की भावना इतनी कूट-कूट कर भर दी गयी है कि उन्हें जीवन-यापन हेतु प्रत्येक कदम पर किसी न किसी सशक्त व्यक्ति की आवश्यकता बनी रहती है. इसी मनोदशा के कारण वे सदैव किसी सशक्त व्यक्ति के अनुयायी बने रहना चाहते रहते हैं, चाहे वह कितना भी दुर्जन क्यों न हो. अतः स्वतंत्र भारत की राजनीति में बलशालियों का बोलबाला है, सज्जनों और विद्वानों के लिए वहां कोई स्थान नहीं रह गया है.

Mercy: Complete First Seasonदया का विधि-विधान
भारत में निर्धन और निस्सहाय पर दया करना प्रत्येक समर्थ व्यक्ति को जन्म से मृत्यु तक उपदेशित किया जाता है, उसे सशक्त  बनाना उपदेशित नहीं किया जाता ताकि उसे किसी की दया की आवश्यकता ही न हो. इस दया विधान में समाज के सभी अग्रणी वर्ग - ईश्वर भक्त, धर्मात्मा, शासक-प्रशासक, राजनेता और समाज सुधारक, आदि सम्मिलित हैं. स्वतन्त्रता से पूर्व इसका उपदेश केवल धर्मात्मा, समाज-सुधारक, आदि ही दिया करते थे, शासक-प्रशासक इस बारे में उदासीन ही रहते थे. किन्तु स्वतन्त्रता के बाद भारत के राजनेताओं ने केन्द्रीय और सभी राज्य सरकारों के माध्यम से इसे महत्वपूर्ण कर्तव्य मान लिया है, ताकि देश में निर्धन और निस्सहाय लोग सदा बने रहें और उनसे दया की आशा करते रहें. समाज कल्याण योजनाएं यथा आवास-निर्माण हेतु धन, निःशुल्क अथवा सस्ते खाद्यान्न, आदि इसी प्रकार की दया दर्शाने के विधि-विधान हैं. इस प्रकार स्वतन्त्रता पूर्व जो दया विधान सामाजिक स्तर पर था, स्वतन्त्रता के बाद उसे राजनैतिक स्तर पर अपना लिया गया है. इस  संस्कारण के दो स्पष्ट प्रभाव हैं -
  • समाज का निर्धन वर्ग सदा-सदा के लिए निर्धन ही बना रहना चाहता है ताकि वह दया-पात्र बना रहे और उसका जीवन यापन केवल दया के आश्रय पर होता रहे.
  • निर्धन वर्ग में स्वयं समर्थ होने का आत्म-विश्वास नहीं रह गया है जिसके कारण वह सदा किसी न किसी का डस बना रहना चाहता है.   
उपरोक्त दोनों प्रभाव भारत में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना में बहुत सशक्त बाधक हैं. वस्तुतः जन-साधारण आज भी एक-क्षत्र  शासन के अधीन रहने योग्य है और वह इसी योग्य बने रहना चाहता है.