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बुधवार, 11 अगस्त 2010

मन और मस्तिष्क का संघर्ष

मनुष्य जो भी करता है उसके पीछे उसके मन अथवा मस्तिष्क का मार्गदर्शन होता है. मन शारीरिक इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्प्रेरित करता है, तथा इसमें उचितानुचित पर चिंतन करने की सामर्थ्य नहीं होती. मनुष्य के मस्तिष्क में उसके भूतकाल के अनुभवों की स्मृतियाँ तथा उनके उपयोग की सामर्थ्य होती है जिससे वह उचितानुचित पर चिंतन कर अपने कार्य करता है. उचितानुचित के चिंतन की सामर्थ्य ही मनुष्य का विवेक कहलाता है.

शरीर से कार्यों हेतु सञ्चालन की सामर्थ्य भी मस्तिष्क में ही होती है अतः कार्य चाहे मन के मार्गदर्शन में हो अथवा मस्तिष्क के, मस्तिष्क शरीर के सञ्चालन हेतु सदैव सक्रिय रहता है. इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य का मन भी मस्तिष्क के माध्यम से कार्य कराता है जिसमें मनुष्य के विवेक का सक्रिय होना आवश्यक नहीं होता. किसी कार्य में विवेक की निष्क्रियता का एक बड़ा कारण यह होता है कि विवेक की क्रियाशीलता में कुछ समय लगना अपेक्षित होता है. इसलिए शरीर को जब किसी क्रिया की तुरंत आवश्यकता होती है तो वह विवेक की क्रियाशीलता की प्रतीक्षा किये बिना ही शरीर को सक्रिय कर देता है. मन के मार्गदर्शन के अनुसार कार्य करने का एक अन्य कारण शरीर की इच्छा की प्रबलता होती है. इस स्थिति में भी मनुष्य का विवेक सक्रिय नहीं होता.

चिंतन करना मनुष्य के अभ्यास पर भी निर्भर करता है. जो मनुष्य अधिकाँश समय चिंतन करते हैं उनका मस्तिष्क प्रायः सक्रिय रहता है जो मन पर अपना नियंत्रण बनाए रखता है. इस कारण से बुद्धिजीवी अपने सभी कार्य विवेक के अनुसार करते हैं, जब कि श्रमजीवी विवेक का यदा-कदा ही उपयोग करते हैं. इन दो वर्गों के मध्यवर्ती लोग कभी मन के तो कभी विवेक के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं. इसके कारण उनके मन और मस्तिष्क में प्रायः संघर्ष की स्थिति बनी रहती है.

मनुष्य के शरीर की आवश्यकताएं यथा भूख, प्यास, काम, आदि प्राकृत होती हैं उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता किन्तु इनकी आपूर्ति के माध्यम भिन्न हो सकते हैं. ये आवश्यकताएं सभी जीवधारियों में होती हैं और यही उनके जावन का लक्ष्य भी होती हैं  यदि मनुष्य अपना जीवन इन्ही की आपूर्ति तक सीमित कर देता है तो पशुतुल्य ही होता है. मनुष्यता पशुता से बहुत आगे है - अपनी चिंतन शक्ति, बुद्धि और संस्कारों के कारण. व्यक्ति के संस्कार उसके व्यवहार को संचालित करते हैं जो अच्छे अथवा बुरे दोनों प्रकार के हो सकते हैं. उसकी चिंतन शक्ति उसके जीवन की समस्याओं के निवारण के लिए महत्वपूर्ण होती है तथा उसकी बुद्धि मानव सभ्यता को और आगे ले जाने में उपयोग की जाती है. व्यक्ति द्वारा अपनी बुद्धि और चिंतन शक्ति के उक्त सदुपयोगों के अतिरिक्त व्यक्ति इनका दुरूपयोग भी कर सकता है.
Sacraments in Scripture

मनुष्य का मस्तिष्क बहुत अधिक विकसित होता है जिसमें अथाह स्मृति, चिंतन शक्ति और बुद्धि का समावेश होता है, इसके सापेक्ष अन्य जीवों के मस्तिष्क उनके मन को समर्थन प्रदान करने के लिए ही होते हैं और अधिकाँश में बुद्धि और चिंतन शक्ति का अभाव होता है. इसके कारण मनुष्य ही पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ जीव है, और इसकी विशिष्ट पहचान है - मन और मस्तिष्क का सतत संघर्ष, जिसमें मस्तिष्क प्रायः विजयी रहता है. यही मानव सभ्यता के विकास का मार्ग है.

मंगलवार, 4 मई 2010

संस्कार, संस्कृत

Final Examinationशब्द 'संस्कार' और' संस्कृत' प्रायः परस्पर सबंधित माने जाते हैं, किन्तु शास्त्रीय भाषा में ऐसा नहीं है.

किसी भी शब्द के आदि में 'सं' लगा होने का अर्थ होता है कि करता और कर्म साथ-साथ चलित हैं. संस्कार और संस्कृत ऐसे ही शब्द हैं जो लैटिन भाषा के क्रमशः  scar  और  scrut   शब्दों से बनाए गए हैं. इनमें से प्रथम का अर्थ 'दाग' तथा दूसरे का अर्थ 'परीक्षा' है. इस प्रकार शास्त्रों में 'संस्कार' शब्द का अर्थ 'दाग-सहित' और 'संस्कृत' का अर्थ 'परीक्षित होना' है. शास्त्रों में उपस्थित शब्द 'संस्कृत' का आधुनिक भाषा 'संस्कृत' से कोई सम्बन्ध नहीं है. वस्तुतः उस समय संस्कृत नामक कोई भाषा थी ही नहीं.