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गुरुवार, 5 अगस्त 2010

शक्ति की पूजा और दासत्व की मनोदशा

भारत की स्वतन्त्रता के पूर्व से आज तक जो भारत में नहीं बदला है - वह है जन-साधारण द्वारा शक्ति की पूजा और उनका दासत्व की मनोदशा. वस्तुतः इन दोनों में गहन सम्बन्ध है, इसलिए एक में परिवर्तन हुए बिना दूसरे में परिवर्तन संभव नहीं है. इस मनोदशा के मूल में शासकों और समाज के अग्रणी जनों द्वारा जन-साधारण का सतत संस्कारण है, जो तब से अब तक यथावत किया जा रहा है. लोगों में दासत्व भाव बनाए रखने के लिए उन्हें दयनीय बना कर रखा जाता है.

शक्ति-पूजा का विधि-विधान 
मूलतः व्यक्ति को शक्ति देना शासन नीति के विरुद्ध है. अतः लोगों को शासन के अधीन बनाये रखने के लिए उन्हें संस्कारित इस प्रकार किया जाता है कि वे स्वयं शक्तिहीन हैं और उन्हें अपनी रक्षा के लिए किसी शक्तिशाली व्यक्ति की आवश्यकता है, जिसकी उन्हें पूजा-अर्चना करनी चाहिए ताकि वह प्रसन्न रहे और यथावश्यकता उनकी रक्षा करता रहे. ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में शक्ति की पूजा का आरम्भ यवनों ने किया जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी देवी दुर्गा के रूप में रात्रि में उनका संहार करने निकलती थीं तो भयभीत होकर वे रात्रिभर जागते रहते थे और देवी के गुणगान करते रहते थे ताकि देवी उनपर कृपा करे और उनका संहार न करे. तब से अब तक किसी न किसी रूप में लोगों को शक्ति की पूजा के लिए संस्कारित किया जाता रहा है ताकि वे स्वयं शक्तिशाली बनने का प्रयास न करके शक्ति पर निर्भर बने रहें.

स्वतन्त्रता के बाद लोगों की शत्रुओं से रक्षा का दायित्व वैधानिक रूप में सेना और पुलिस का है जो लोकतांत्रिक विधान के अनुसार लोगों के अधीन व्यवस्थित हैं. इसे लोगों द्वारा स्वयं अपनी रक्षा के लिए मात्र कार्य विभाजन माना जा सकता है. किन्तु लोगों को पुलिस का उपयोग करने के लिए भी किसी शक्तिशाली माध्यम की आवश्यकता होती है. इसी प्रकार प्रशासनिक अधिकारी जो जनतंत्र में लोकसेवक हैं, से अपने कार्य करने के लिए भी उन्हें सशक्त माध्यम की आवश्यकता होती है. अतः शक्ति पूजा का मूल प्रभाव यह है कि लोग अशक्त हो गए हैं और अशक्त ही बने रहना चाहते हैं. इस बाव से उन्हें दायित्व-विहीन बने रहने का मनोवैज्ञानिक लाभ भी प्राप्त होता है.

लोगों में स्वयं अशक्त बने रहने की भावना इतनी कूट-कूट कर भर दी गयी है कि उन्हें जीवन-यापन हेतु प्रत्येक कदम पर किसी न किसी सशक्त व्यक्ति की आवश्यकता बनी रहती है. इसी मनोदशा के कारण वे सदैव किसी सशक्त व्यक्ति के अनुयायी बने रहना चाहते रहते हैं, चाहे वह कितना भी दुर्जन क्यों न हो. अतः स्वतंत्र भारत की राजनीति में बलशालियों का बोलबाला है, सज्जनों और विद्वानों के लिए वहां कोई स्थान नहीं रह गया है.

Mercy: Complete First Seasonदया का विधि-विधान
भारत में निर्धन और निस्सहाय पर दया करना प्रत्येक समर्थ व्यक्ति को जन्म से मृत्यु तक उपदेशित किया जाता है, उसे सशक्त  बनाना उपदेशित नहीं किया जाता ताकि उसे किसी की दया की आवश्यकता ही न हो. इस दया विधान में समाज के सभी अग्रणी वर्ग - ईश्वर भक्त, धर्मात्मा, शासक-प्रशासक, राजनेता और समाज सुधारक, आदि सम्मिलित हैं. स्वतन्त्रता से पूर्व इसका उपदेश केवल धर्मात्मा, समाज-सुधारक, आदि ही दिया करते थे, शासक-प्रशासक इस बारे में उदासीन ही रहते थे. किन्तु स्वतन्त्रता के बाद भारत के राजनेताओं ने केन्द्रीय और सभी राज्य सरकारों के माध्यम से इसे महत्वपूर्ण कर्तव्य मान लिया है, ताकि देश में निर्धन और निस्सहाय लोग सदा बने रहें और उनसे दया की आशा करते रहें. समाज कल्याण योजनाएं यथा आवास-निर्माण हेतु धन, निःशुल्क अथवा सस्ते खाद्यान्न, आदि इसी प्रकार की दया दर्शाने के विधि-विधान हैं. इस प्रकार स्वतन्त्रता पूर्व जो दया विधान सामाजिक स्तर पर था, स्वतन्त्रता के बाद उसे राजनैतिक स्तर पर अपना लिया गया है. इस  संस्कारण के दो स्पष्ट प्रभाव हैं -
  • समाज का निर्धन वर्ग सदा-सदा के लिए निर्धन ही बना रहना चाहता है ताकि वह दया-पात्र बना रहे और उसका जीवन यापन केवल दया के आश्रय पर होता रहे.
  • निर्धन वर्ग में स्वयं समर्थ होने का आत्म-विश्वास नहीं रह गया है जिसके कारण वह सदा किसी न किसी का डस बना रहना चाहता है.   
उपरोक्त दोनों प्रभाव भारत में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना में बहुत सशक्त बाधक हैं. वस्तुतः जन-साधारण आज भी एक-क्षत्र  शासन के अधीन रहने योग्य है और वह इसी योग्य बने रहना चाहता है.