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बुधवार, 4 अप्रैल 2012

स्वतन्त्रता सेनानी स्मृति योजना, खंदोई

९ अगस्त १९४२ को गांधीजी के आह्वान 'अंग्रेजो भारत छोडो' की चिंगारी गाँव खंदोई भी पहुँची. खंदोई के नौजवानों में भी अंग्रेज़ी सरकार की दमनकारी नीतियों के प्रति आक्रोश था. महात्मा गाँधी के आह्वान पर महाशय करन लाल जी के नेतृत्व में दर्ज़नों नौजवानों ने एकत्र होकर अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध संघर्ष की योजना बनायी. अंग्रेज़ी सरकार के सिंचाई कार्यालय (चरौरा कोठी) जिसमे अँगरेज़ अधिकारी किसानों के मुकदमे सुनते थे, खंदोई के नौजवानों ने इसी दफ्तर को नष्ट करने की योजना बनायी.



२१ अगस्त १९४२ की रात्री को खंदोई के लोगों जिनमें सर्वश्री राम चन्द्र सिंह, गिरवर प्रसाद शर्मा, नन्द राम गुप्ता, नेकलाल, आदि के साथ एक बच्चा खचेडू सिंह भी श्री करन लाल जी के नेतृत्व में जंगल (खेतों) के रास्ते होते हुए पडौस के गाँव भगवन्तपुर पहुंचे और वहां से मिट्टी के तेल का कनस्तर लेकर रात्री में ही चरौरा कोठी पहुँच गए. कुछ लोगों ने टेलीफोन के तार काट दिए तथा दफ्तर को चारों ओर से घेर कर उसमें आग लगा दी. थोड़ी ही देर में दफ्तर जल कर राख हो गया. आग लगाने की खबर भी पूरे क्षेत्र में आग की तरह फ़ैल गयी. आग लगाने वाले आज़ादी के दीवाने भूमिगत हो गए.


तत्कालीन कलेक्टर हार्डी इतने क्रोधित हुए कि खंदोई में भारी फ़ोर्स के साथ आ धमके तथा गाँव के लोगों पर अत्याचार शुरू कर दिए. कलेक्टर हार्डी ने पूरे गाँव को आग के हवाले करने तक का फरमान सुना दिया. लेकिन संघर्ष शील जनता के सामने उन्हें हाथ खींचना पडा. दर्जनों लोगों को जेल में डाल दिया गया. कलेक्टर हार्डी ने तत्कालीन जज श्री डी पद्मनाभन को श्री करन लाल को फांसी दिए जाने का आदेश दे दिया. इस पर जज महोदय श्री पद्मनाभन, जो क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखते थे, ने वकील के माध्यम से श्री करन लाल को सन्देश भिजवा दिया कि वे तब तक अदालत में हाजिर न हों जब तक कि हार्डी बुलंदशहर कि कलेक्टर रहे अन्यथा फांसी दिया जाना नहीं टाला जा सकेगा.


हार्डी के बुलंदशहर से तबादले के बाद श्री करन लाल जी अदालत में हाजिर हुए जिसपर उन्हें कारागार भेज दिया गया. कुल मिलकर उन्हें ३ वर्ष से अधिक की सजा मिली थी. गाँव के अन्य लोगों को भी सजाएं मिलीं.


देश के शहीदों, संघर्ष करने वालों तथा आजादी के दीवानों के जज्बात तथा देश के नौजवानों जैसे सरदार भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान आदि की कुर्बानी तथा महात्मा गाँधी के नेतृत्व से १५ अगस्त १९४७ को देश के लोगों आज़ादी की सांस ली. गाँव खंदोई के लोगों को भी आज़ादी के साथ बहुत राहत मिली. कुछ समय बाद आज्ज़दी के लिए संघर्ष करने वालों को 'स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी' का दर्ज़ा दिया गया एवं सरकार द्वारा उन्हें पेंशन भी दी गयी. खंदोई के २6 लोग भी इस सूची में स्थान पा सके. आज़ादी के संघर्ष में लगभग ४० लोगों ने हिस्सा लिया था, किन्तु  आज़ादी से पहले मृत्यु अथवा ३ माह से कम की सजा के कारण उन्हें उस सूची में स्थान नहीं मिल पाया.  

१९३६ में गठित किसानों का महत्वपूर्ण संगठन 'किसान सभा' आज़ादी के संघर्ष की कथा तिथियों के अनुसार कार्यक्रमों का आयोजन करता रहा है जिसमें देश को आर्थिक आजादी दिलाने का संकल्प भी लिया जाता है. क्षेत्रीय स्तर पर, खंदोई के लोगों द्वारा आजादी के लिए संघर्ष को याद करने के लिए २१ अगस्त (चरौरा कोठी काण्ड) को भी कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता रहा है जिसमें आज के नौजवानों को देश प्रेम के लिए प्रेरित करने, आज़ादी के महत्व को समझाने तथा अधूरी आजादी को पूरा करने का आह्वान किया जाता है. इन कार्यक्रमों में चरौरा कोठी काण्ड के सैनानियों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है.

अब खंदोई के सभी स्वतन्त्रता सैनानियों का स्वर्गवास हो चुका है. उनके संघर्ष को जीवंत बनाए रखने के लिए, ग्रामवासियों ने पश्चिमी प्रवेश मार्ग पर एक भव्य 'स्वतन्त्रता सेनानी द्वार' के निर्माण का संकल्प लिया है. जिसके पास ही तालाब का सौन्दर्यकरण, वृहत वृक्षारोपण, तथा मनोरंजन पार्क का निर्माण भी किया जाएगा.  

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

हमारे देश की हालत

एक मित्र श्री ललित भरद्वाज द्वारा प्रस्तुत -


'ये हे हमारे देश की हालत देश वासियों जागो 

"भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा"* ये कहना है स्विस बैंक के डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग २८० लाख करोड़ रुपये (280 ,00 ,000 ,000 ,000) उनके स्विस बैंक में जमा है. ये रकम
इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है.या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है. ऐसा भी कह
सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो.

Unholy Trinity: The Vatican, The Nazis, and The Swiss Banksयानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है. जरा सोचिये
... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को लूटा है और ये लूट का
सिलसिला अभी तक 2010 तक जारी है. इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा. मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़
लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में
280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार
करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है.

भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसा हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है.

हमे भ्रस्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के खिलाफ जाने का पूर्ण अधिकार है. हाल ही में हुवे घोटालों का आप सभी को पता ही है - CWG घोटाला, २ जी स्पेक्ट्रुम घोटाला , आदर्श होउसिंग घोटाला ... और ना जाने कौन कौन से घोटाले अभी उजागर होने वाले है ........

आप लोग जोक्स फॉरवर्ड करते ही हो. इसे भी इतना फॉरवर्ड करो की पूरा भारत इसे
पढ़े ... और एक आन्दोलन बन जाये ...

सदियो की ठण्डी बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज् पहन इठलाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिहासन खाली करो की जनता आती है।' 

ललित भरद्वाज 

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

हिंदी मानसिकता से निराशा

लगभग १ वर्ष पहले एक मित्र ने प्रोत्साहित किया था हिंदी में ब्लॉग लिखने के लिए, सो एक के बाद एक करके ८ ब्लोगों पर लिखना आरम्भ किया. किन्तु अभी तक के अनुभवों से हिंदी मानसिकता से घोर निराशा हुई है. प्रथम तो हिंदी क्षेत्र में गंभीर विषयों के लिए पाठक ही नहीं हैं, और जो हैं वे अपनी घिसी-पीती मानसिकता के इतने अधिक दास हैं कि किसी नए चिंतन, शोध अथवा मत के लिए उनके मन में कोई स्थान है ही नहीं. उन्हें बस वही चाहिए जो वे जानते हैं और मानते हैं. उनमें विचारशीलता का नितांत अभाव है.


भारत में दीर्घ काल से जंगली जातियों का वर्चस्व रहा है, यह एक उत्तम घटनाक्रम सिद्ध होता यदि ये जंगली जातियां मानवीय सभ्यता और शिष्टाचार अपनातीं और विश्व मानव समुदाय का अंग बनने की ललक रखतीं. किन्तु अपने अनुभवों के आधार पर मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूँ कि इन्हें अपने जंगलीपन पर गर्व है जिसके कारण ये उसी को अपने व्यवहार में बनाए रखने और प्रोन्नत करने में रूचि रखते हैं. इसके फलस्वरूप जो अभद्रता अपने शोधपरक आलेखों पर टिप्पणियों के रूप में मुझे सहन करनी पडी है, वह अशोभनीय ही नहीं अमानवीय भी है.

हिंदी क्षेत्र के लोग इतिहास जैसे तथ्यपरक विषय को भी अपनी भावनाओं के अनुरूप देखना चाहते हैं - कोई हिन्दू है तो हिंदुत्व को गौरवान्वित देखना चाहता है, कोई मुस्लिम है तो इस्लाम को गौरवान्वित देखने की लालसा रखता है ...   ..., चाहे ऐतिहासिक तथ्य इनके विपरीत ही क्यों न हों. कहीं अथवा कभी किसी को मानवीय दृष्टिकोण की चिंता नहीं सताती. इसके अतिरिक्त हिन्दुओं में कोई वामन है, तो कोई क्षत्रीय, कोई वैश्य तो कोई शूद्र, ... हिन्दू कोई नहीं है, और न ही कोई भारतीय है, और बस एक मानव होने या बनने की सभावना दूर-दूर तक नहीं पायी जाती.

लोगों की बस एक जिद है - भारत, इसकी संस्कृति और इसका अतीत महान कही जाब्नी चाहिए, चाहे इनमें कितनी भी विकृतियाँ हों, कितनी भी दुर्गन्ध भरी सडन हो. सच कहा जाएगा तो लोगों की भावनाएं क्षत-विक्षत होंगी और वे झंडे और डंडे के साथ उग्र विरोध करेंगे. इसलिए लोकप्रियता चाहने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी सच कहने का साहस ही नहीं करते. इस कारण से हिंदी लेखन में मौलिकता का नितांत अभाव रहा है, अब भी है और आगे भी ऐसा ही रहेगा.

किसी भी वस्तु अथवा विचार में दोष तभी दूर किया जा सकता है जब उसे पहचाना जाए. इसके लिए यह आवश्यक है कि वस्तु अथवा विचार पर भावुकता का परित्याग करते हुए उसके बारे में लक्ष्यपरक विश्लेषण किया जाए. हिंदी मानसिकता में ऐसा किया नहीं जा रहा है अथवा करने नहीं दिया जा रहा है. इसलिए कालान्तर में मामूली से दोष भी भयंकर व्याधियां बन गए हैं और हिंदी मानसिकता में इनकी पैठ इतनी गहन है कि कठोर प्रहार के बिना इनका उन्मूलन नहीं किया जा सकता.
Orthodoxy

हिंदी लेखन के अपने अनुभवों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मैंने अपने संसाधनों का दुरूपयोग किया है. अतः मैं अपने ८ ब्लोगों में से पांच पर लिखना बंद कर रहा हूँ, शेष तीन पर अभी लिखता रहूँगा. हाँ अपने अंग्रेज़ी के ८ ब्लोगों के लेकन और पाठकों से मुझे पूर्ण संतुष्टि है और मैं उनपर लिखता रहूँगा.

शुक्रवार, 25 जून 2010

स्वतंत्र भारत में काला धन

अपनी जिस आय पर कोई व्यक्ति समुचित आयकर का भुगतान नहीं करता है, उतना धन व्यक्ति का कालाधन कहलाता है. अतः कालाधन वैध तथा अवैध दोनों प्रकार के आय स्रोतों से प्राप्त किया जा सकता है. चूंकि आय के अधिकाँश वैध स्रोत राज्य को ज्ञात होते हैं, उन पर प्रायः आयकर ले लिया जाता है. इस कारण कालेधन के मुख्य स्रोत अवैध आय के स्रोत होते हैं. स्वतन्त्रता के समय केवल व्यवसायियों के पास कालाधन था जिसके अधिकाँश स्रोत वैध व्यवसाय से आय थे किन्तु उन पर आय कर न दिए जाने के कारण यह कालेधन की संज्ञा पाता था. इसलिए तत्कालीन काला धन उतना काला नहीं था जितना कि देश में आज का काला धन है क्योंकि आज का काला धन अवैध आय स्रोतों से प्राप्त होता है. व्यवसायियों के पास उपलब्ध काला धन उनके व्यवसाय में लगा रहता है इसलिए उसका उत्पादक उपयोग होता है, जबकि अवैध आय स्रोतों से प्राप्त काला धन बहुधा किसी उत्पादक उपयोग में नहीं लगाया जाकर किसी अन्य काले धंधे में लगाया जाता है. अतः आज का काला धन देश की राजनीति, सामाजिक व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध होता है.

स्वतन्त्रता के लगभग २० वर्षों तक राजनेता राजनैतिक दलों के उपयोग के लिए व्यवसायियों के काले धन में से सीधे धन प्राप्त करते थे, प्रशासकों को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता था और अधिकाँश राजनेता भी इसमें व्यक्तिगत भागीदारी नहीं रखते थे. अतः यह काला धन केवल राजनैतिक दलों का होता था. इस कारण से राजनेता राज्यकर्मियों पर अपना नियंत्रण बनाये रखते थे जिससे उनका भृष्ट होना दुष्कर था. व्यवसायियों के पास काले धन का लाभ कुछ राज्यकर्मियों ने भी उठाया जिससे वे भी उसके हिस्सेदार बनने लगे और कालांतर में इसके अधिकाँश भाग के स्वामी हो गए. राज्यकर्मी इस काले धन का उपयोग अपने वैभव भोगों के लिए किया करते थे. उन पर राजनेताओं के नियंत्रण का भयबना रहता था.

इंदिरा गाँधी के शासन काल में राजनेताओं ने प्रशासकों को जनता से काला धन कमाने और उन्हें देने के लिए विवश करना आरम्भ कर दिया जिससे राजनेता और राज्यकर्मी जनता से लूटे गए कालेधन के परस्पर भागीदार बन गए, और कर्मी नेताओं के नियंत्रण से मुक्त हो गए. इस मुक्ति और नेताओं द्वारा काला धन कमाने के प्रोत्साहन से राज्यकर्मी भृष्टतर होते गए और वे निर्विघ्न जनता का शोषण करने लगे जो आज तक चल रहा है. इस प्रकार देश के अधिकाँश काले धन के स्वामी राजनेता और राज्यकर्मी बन गए, तथापि व्यवसायी काला धन कमाने के लिए बदनाम बने रहे. आज के व्यवसायी जो भी काला धन कमाते हैं उसका अधिकाँश भाग राज्यकर्मियों के माध्यम से राजनेताओं के पास पहुँच जाता है.

देश में काले धन के अर्थ-व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए अनेक वैधानिक प्रावधान किये गए हैं जो केवल व्यवसायियों पर लागू किये जाते हैं, और काले धन के वास्तविक स्वामी - राजनेता और राज्यकर्मी, इन वैधानिक प्रावधानों से मुक्त ही बने रहते हैं. वस्तुतः ये प्रावधान राजनेताओं तथा राज्यकर्मियों द्वारा ही इस चतुराई से बनाये जाते हैं  वे स्वयं इनसे दुष्प्रभावित न हों.
Money Stacks [Explicit] 
यद्यपि कालेधन का आकलन किसी भी प्रकार से संभव नहीं है, तथापि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार भात में कालेधन का परिमाण १,०००,००० मिलियन रुपये है. आज भी व्यवसायियों का काला धन उनके उद्योग धंधों में लगा रहता है जिससे उसका उत्पादक उपयोग हो रहा है. किन्तु राजनेताओं और राज्यकर्मियों के काले धन का बड़ा भाग विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है. अतः इसका लाभ देश को न होकर विदेशों को हो रहा है. राजनेता इसका उपयोग राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए और राज्यकर्मी इसका उपयोग आर्थिक सत्ता हथियाने के लिए कर रहे हैं.  

सोमवार, 7 जून 2010

सभ्यता और संस्कृति

आज पूरी मानव जाति की बुद्धिहीनता है कि वह सभ्यता और संस्कृति में अंतर कराना भूल बैठी है, और यह भूल ही इस सर्वश्रेष्ठ जाति को पतित कर रही है.  यह है इस अंतर को समझने का एक प्रयास.

सभ्यता से हम भली भांति परिचित हैं - मानव की जीवन को बेहतर बनाने की सतत उत्कंठा का परिणाम, जिसके माध्यम से मानव बीहड़ जंगलों की भटकन को त्याग कर शहर और गाँव बनकर उनमें बस गया और स्वयं का समाजीकरण किया. कार्य विभाजन और परस्पर सेवाओं और सामानों का आदान-प्रदान को भी समाजीकरण विकास हेतु माध्यम बनाया.यहाँ तक सब ठीक-ठाक चलता रहा और मानव सभ्यता विकसित होती रही.

समाज में प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे पर निर्भर करता है और एक दूसरे से प्रभावित होता है. नवजात शिशु भी आरम्भ में अपने माता-पिता से तथा बाद में अपने समाज से बहुत कुछ सीखता है और अपने आचार-विचार, चरित्र और व्यवहार का निर्माण करता है. इसी को उसका संस्कारण कहा जाता है, और उसकी समग्र जीवन-शैली उसकी संस्कृति कहलाती है जो उसे समाज के देन होती है. यदि समाज किसी कारण से पथ-भृष्ट है तो उसकी संस्कृति भी प्रदूषित होगी, और यदि समाज सुमार्ग पर चल रहा होता है तो शिशु एक सुसंस्कृत नागरिक बनेगा. इस प्रकार संस्कृति अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है, जिन्हें हम सुसंस्कृति और कुसंस्कृति कह सकते हैं. अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हुए मनुष्य यह भूल गया कि उसकी संस्कृति पथ-भृष्ट भी हो सकती है, जिसके कारण उसने 'संस्कृति' को एक शुभ शब्द के रूप में मान लिया. इसके अशुभ होने की सम्भावना भी उसके मस्तिष्क में प्रवेश नहीं कर पाई.

'संस्कृति' शब्द को शुभ माने जाने के व्यापक प्रभाव हुए - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति शब्दों को भुला गिया गया और संस्कृति का विलोम शब्द 'विकृति' माना गया जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यही कुसंस्कृति का भाव है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी-अपनी संस्कृति पर गौरव अनुभव होने लगा बिना यह जाने कि उसकी संस्कृति वस्तुतः सुसंस्कृति है अथवा कुसंस्कृति. अतः संस्कृति जैसी भी रही, प्रत्येक व्यक्ति उसका विकास करता रहा, जिससे विभिन्न समाजों में ससंस्कृति और कुसंस्कृति दोनों विकसित होती रहीं, और दोनों पर ही उनके पात्रों को गौरव अनुभव होता रहा.

सभ्यता निश्चित रूप से एक शुभ परिकल्पना है - इसके अशुभ होने की कोई संभावना नहीं है, जब कि संस्कृति शुभ अथवा अशुभ हो सकती है. इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सभ्यता और संस्कृति का कोई सुनिश्चित सम्बन्ध नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी संस्कृति पर गौरव की अनुभूति होने के कारण वह सभ्यता लो भूल बैठा और संस्कृति को ही सभ्यता का पर्याय मान लिया. इस भूल के कारण सभ्यता विकास कार्य पर ध्यान देना बंद कर दिया गया, और संस्कृतियों - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति, दोनों का विकास किया जाने लगा जो आज भी किया जा रहा है.

यहाँ तक का यह अध्ययन विश्व मानव के बारे में है. इससे आगे हम इसी अध्ययन को भारत पर केन्द्रित करेंगे और जानने का प्रयास करेंगे कि आज हम सभ्यता और संस्कृति के सापेक्ष कहाँ खड़े हैं. यहाँ यह स्पष्ट कर दूं कि जब हम भारत अथवा भारतीय शब्द का उपयोग करते हैं तो उसका अर्थ जन-सामान्य भारतीय है न कि प्रत्येक भारतीय, जिनमें कुछ जन-सामान्य के सापेक्ष अच्छे अथवा बुरे अपवाद भी हो सकते हैं.

मैं पूरे भारत में अनेक स्थानों पर रहा हूँ और अनेक बार भ्रमण किया है. प्रत्येक स्थान पर वहां के लोगों की मानसिकता का आकलन किया है. अपने चारों तरफ जनसमुदाय देखता रहा हूँ, उनके आचार-विचार आदि का अध्ययन करता रहा हूँ. चोरी-चकोरी, छीना-झपटी, ठगी-डकैती, व्यभिचार-भृष्टाचार, झूठे प्रदर्शन और अभिव्यक्तियाँ, आदि भारतीय चरित्र के अभिन्न अंग बन गए हैं. प्रत्येक समाज में और स्थान पर कुछ आदर्श चरित्र भी होते हैं किन्तु वे समाज द्वारा तिरस्कृत और अपने-अपने जीवन में असफल ही पाए जाते हैं. इस आधार पर मेरी मान्यता है कि भारत में लम्बे समय से कुसंस्कृति ही विकसित होती रही है और इस पर हमें गौरव भी अनुभव होता रहा है. जो हमारे दोष हैं उनपर झूंठे चांदी के मुलम्मे चढ़ाये जाते रहे हैं, जिसके कारण हम अपने घावों को देख नहीं पाते और वे अन्दर ही अन्दर नासूर बन चुके हैं. आज हम इस वास्तविकता को देखना भी नहीं चाहते और ऊपरी मुलाम्मों पर गौरव अनुभव कर स्वयं को संस्कृत मान लेते हैं. लिस रोग को जाना न जाए उसकी चिकित्सा की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती.

The Interpretation Of Cultures (Basic Books Classics) 
भारत की उक्त विकसित एवं परिपक्व कुसंस्कृति का कारण भारत का नेतृत्व रहा है - कल तक की परतंत्रता में और आज की स्वतन्त्रता में भी. इसी दूषित नेतृत्व से उत्प्रेरित है भारत में खास लोगों का समाज जो आम समाज को भी इसी मार्ग पर धकेलता रहता है. आम आदमी के इस कुमार्ग पर जाने की विवशता है, साधनहीनता है, खास लोगों द्वारा उसका निरंतर शोषण है. इसलिए आम आदमी को इसके लिए दोषी नहीं माना जा सकता. ख़ास आदमी साधन संपन्न होते हुए भी लोभ और लालच के वशीभूत है और नेतृत्व की प्रेरणा से कुमार्ग पर चलते रहने हेत सदैव तत्पर रहता है. नेतृत्व को सत्ता चाहिए - सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक - प्रत्येक स्थिति में और किसी भी मूल्य पर. इसी के लिए वह स्वयं ही पतित नहीं है जनमानस को भी पतित कर रहा है. 

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

विद्युत् ऊर्जा की कमी तथापि दुरूपयोग

आधुनिक मानव जीवन के लिए विद्युत् ऊर्जा वस्त्रों और भवनों की तरह ही महत्वपूर्ण हो गयी है. इस पर भी भारत की लगभग आधी जनसँख्या को विद्युत् उपलब्ध नहीं है. जिन ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युत् उपलब्ध भी है वहां भी अनेक क्षेत्रों में केवल नाम मात्र के लिए उपलब्ध है, और संध्या के समय तो बिलकुल नहीं जब प्रकाश के लिए इसकी अतीव आवश्यकता होती है. इस कारण से भारत के अधिकाँश ग्रामीणों का जीवन अभी भी अँधेरे की कालिख में दबा हुआ है. नगरीय क्षेत्रों में जहाँ रात्री के १०-१२ बजे तक चहल-पहल रहती है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में संध्या होते ही घर और गलियां अँधेरे में डूब जाते हैं. चूंकि देश की अधिकाँश जनसँख्या ग्रामों में रहती है, इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीयों के जीवन अंधेरों में डूबे हैं.

भारत में विद्युत् ऊर्जा का अभाव प्रतीत होता है इस पर भी इस जीवन समृद्धि स्रोत का किस प्रकार दुरूपयोग किया जा रहा है, इस पर एक दृष्टि डालें.
  1. ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ विदुत पहुँच चुकी है वहां इसकी चोरी सार्वजनिक रूप से की भी जा रही है और विद्युत् वितरण अधिकारियों द्वारा निजी स्वार्थों के लिए कराई भी जा रही है. चोरी का किया जाना भी उनकी लापरवाही के कारण ही संभव होता है. इससे कुछ जीवन तो प्रकाशित होते हैं किन्तु यह प्रक्रिया बहुत अन्यों के जीवनों को अँधेरे में धकेल रही है क्योंकि चोरी से विद्युत् का उपयोग करने वाले इसका अत्यधिक दुरूपयोग करते हैं. उनके घरों में बल्ब तो अनेक लगे होते हैं किन्तु उनके कोई स्विच नहीं होते. दिन हो या रात, प्रकाश की आवश्यकता हो या नहीं उनके बल्ब विद्युत् उपलब्ध होने पर जले ही रहते हैं.   
  2. भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में विद्युत् का सही विद्युत् वोल्टेज प्राप्त नहीं होता है. देखा यह गया है कि विद्युत् वोल्टेज २३० के स्थान पर १००-१५० ही रहता है. इन दोनों कारणों से विद्युत् उपभोक्ताओं की विवशता होती है कि वे प्रत्येक विदुत परिचालित उपकरण के लिए एक वोल्टेज स्थिरक का उपयोग करें, जिनकी कार्य दक्षता ६० से ७० प्रतिशत होती है. अतः विद्युत् की जितनी खपत होनी चाहिए, उससे लगभग ३० प्रतिशत अधिक खपत होती है. यदि विद्युत् लीनों पर वोल्टेज सही रहे तो यहे ३० प्रतिशत ऊर्जा अन्य लोगों के जीवनों को प्रकाशित कर सकती है. साथ हीउपभोक्ताओं का जो धन इन अतिरिक्त अनावश्यक उपकरणों पर व्यय हो रहा है, वह उनके जीवन स्तर को सुधार सकता है.
  3. विद्युत् अधिकारियों की असक्षमता और लापरवाही के कारण भारत में विद्युत् उपलब्धि का कोई निश्चित समय नहीं होता. यहे कभी भी उपलब्ध हो सकती है और कभी भी बंद. इस कारण से विद्युत् उपभोक्ताओं की विवशता यह भी होती है कि वे अपने घर एवं कार्यालयों में आवश्यकतानुसार विदुत उपलब्ध रखने के लिए बैट्री और इनवर्टरों का उपयोग करें. ये अतिरिक्त उपकरण ५० प्रतिशत से कम कार्य दक्षता रखते हैं और बहुमूल्य भी होते हैं. इस प्रकार इन से उपभोक्ताओं को धन की हनी तो होती ही है विद्युत् ऊर्जा की खपत भी दोगुनी हो जाती है. जहाँ विद्युत् का अभाव इतना अधिक हो, वहां विद्युत् का इस प्रकार का दुरूपयोग एक आपराधिक वृत्ति को दर्शाता है. 
  4. विदुत का चौथा दुरूपयोग उत्तर प्रदेश जैसे कुछ कुप्रबंधित राज्यों में ही पाया जाता है. उत्तर प्रदेश में, जहाँ विद्युत् का बहुत अधिक अभाव है, प्रत्येक घरेलु उपभोलता के लिए २ किलोवाट का विदुत कनेक्शन लेना अनिवार्य कर दिया गया है जबकि अधिकांश घरों में ५०० वाट का ही विद्युत् भार होता है अथवा सीमित किया जा सकता है. इस प्रकार प्रत्येक घरेलु उपभोक्ता को विवश किया जा रहा है कि वह अपनी आवश्यकता से चार गुनी विदुत ऊर्जा की खपत करे तथा उसके विद्युत् बिउल्ल का भुगतान करे. विद्युत् कुप्रबंधन का यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है.  
भारत विद्युत् ऊर्जा का उत्पादन एवं वितरण अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र में है और शासन प्रशासन इसकी व्यवस्था करता है. इस प्रकार देश और इसके नागरिक स्वयं ही पतन की ओर नहीं जा रहे उन्हें शासन एवं प्रशासन द्वारा इस ओर धकेला भी जा रहा है.

सोमवार, 18 जनवरी 2010

वर्ण व्यवस्था के बारे में आशंकाएं और उत्तर

इस संलेख के सम्मानित पाठकों ने अंतिम आलेख 'वर्ण व्यवस्था की सच्चाई' पर कुछ संशयात्मक टिप्पणीयाँ की हैं जिनके विस्तृत उत्तर देना आवश्यक है ताकि भारत की ऐतिहासिक सच्चाईयों का निरूपण सरल, सहज और कारगर हो सके. यह टिप्पणी इस प्रकार है -  

"आपने बात-बात पर लैटिन, हिब्रू शब्दों का प्रयोग करके इतिहास को अपने हिसाब से समझने/समझाने की वैसी ही कोशिश की है जैसा अंग्रेजों ने 'आर्य' शब्द का निकालकर भारत के इतिहास को कलुषित करने के लिये किया था (जो अब पूर्णत: झूठ साबित हो चुका है)

"मेरे मन में भी कुछ प्रश्न हैं जो आप द्वारा उठाये गये प्रश्नों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं-

१) क्या वर्ण-व्यवस्था अपने 'पूर्ण रूप' में कभी लागू हो पायी थी?

२) वर्ण व्य्वस्था किसी आधुनिक नियम की भाँति किसी एक दिन लागू कर दी गयी या यह कई शताब्दियों तक धीरे-धीरे और बहुत ही धुंधले रूप में प्रकट हुई?

३) यदि यह किसी धर्माचार्य या राजा द्वारा प्रचलित की गयी तो किसको ब्राह्मण, किसको क्षत्रिय आदि माना गया? क्या ऐसा करना व्यावहारिक लगता है?

४) यदि यह शनै:-शनै: क्रमिक विकास (इवोलूशन) जैसा हुआ तो लोगों को इसमें आपत्ति क्या है? यह तो प्राकृतिक है।"

मेरे स्पष्टीकरण :
भाषा प्रसंग
भारत की सभी भाषाएँ यूरोपीय भाषा परिवार की सदस्य हैं और इस परिवार की सभी बाषाओं के उद्भव परस्पर सम्बंधित हैं जैसा कि अन्य भाषा परिवारों में है. इस प्रकार लैटिन, ग्रीक, हेब्रू आदि भाषाएँ हमारी प्राचीन भाषाओं को समझाने में सहायक हैं. इसके अतिरिक्त ये भाषाएँ विश्व की प्राचीनतम विकसित भाषाएँ हैं जिनसे इस परिवार की सभी भाषाएँ विकसित हुई हैं. इनका आश्रय लेना हमारे लिए इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारे वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और उस भाषा के बारे में हमेंबहुत अधिक ज्ञान नहीं है. वेदों और शास्त्रों के अब तक प्रचलित सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधारित हैं और वे हमें इतिहास का कुछ ज्ञान कारन के स्थान पर भ्रम और संशयों को जन्म देते रहे हैं. इस कारण से सभी अनुवादों में भी परस्पर भारी भिन्नता पाई जाती है.

श्री अरविन्द द्वारा रचित पुस्तक के हिंदी अनुवाद 'वेद रहस्य' को पढ़ने से मुझे ज्ञात हुआ कि वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्दावली लैटिन और ग्रीक शब्दावली से बहुत अधिक मेल खाती है. इससे मेरा निष्कर्ष यह है कि इन ग्रंथों की शब्दावली लैटिन, ग्रीक आदि की देवानागारीकृत शब्दावली ही है  इसकी पुष्टि तब हुई जब मैंने अनेक अंशों के अनुवाद इस शब्दावली के आधार पर किये.

विदेशी भाषाओं के आश्रय का तीसरा कारण यह है कि भारत पर अनेक आक्रमण हुए है, अनेक जातियां यहाँ आकर बसी हैं, और इस देश को लम्बे समय तक गुलाम बनाकर रखा गया है. इन कारणों से यहाँ की संस्कृति, ग्रंथों के अनुवाद्फ़ आदि अशुद्ध किये जाने की संभावना बहुत अधिक है, जो वेदों, शास्त्रों के हिंदी अनुवादों से स्पष्ट भी है.

इन सभी कारणों से प्राचीन ग्रंथों के नए सिरे से अनुवाद करने की अतीव आवश्यकता है यदि हम अपना वास्तविक इतिहास जानना चाहें. इस संलेख के माध्यम से भारत के वास्तविक इतिहास को जानने का प्रयास किया जा रहा है. यह एक विशाल और जटिल कार्य है, संदेह और संशय होने स्वाभाविक हैं, औउर वास्तविक के उजागर होने के लिए धैर्य की अतीव आवश्यकता है.   

आर्य विवाद
इस बहु-चर्चित विवाद के बारे में मैं अभी यही कहूँगा कि इसकी सच्चाई अभी सामने आयी ही नहीं है जो इस संलेख में प्रसंग आने पर स्पष्ट रूप से दर्शाई जायेगी. अभी इस बारे में कुछ कहना अप्रासंगिक होगा और विषय-वस्तु को क्रमानुसार आगे बढाने में बाधक होगा.

वर्ण व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था का प्रथम उल्लेख मनुस्मृति में है जो मूलतः मानव जाति के समाजीकरण और समाज में कार्य विभाजन का मार्गदर्शक है. चाणक्य महोदय ने इसी व्यवस्ठ को संक्षेप में एक सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया. कोई भी सामाजिक सिद्धांत पूर्ण रूप से लागू होने में समय लगता है. भारत चूंकि अधिकाँश समय गुलाम रहा इसलिए यह संभव है कि यह पूरी तरह कभी लागू हुआ ही न हो. शासक वर्ग में समाज को सदैव अपने हित में ही गठित करता रहा है और भारत भी इसका अपवाद नहीं रहा है. इसलिए भारत के समाज में अत्यधिक विकृतियाँ समाहित होती चली गयीं जिन सबका दायित्व वर्ण व्यवस्था पर थोपा जाता रहा.
वर्ण व्यवस्था का केवल सूत्रीकरण ही किया गया जो एक बार ही हुआ किन्तु यह कभी पूरी तरह लागू न किया जाकर इसके स्थान पर सामजिक विकृतियाँ ही पनपायी गयीं जिनमें से अनेक आज तक प्रचलित हैं.

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि
जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर तीन भाइयों ने भारत निर्माण कार्य आरम्भ किया और इसके लिए अपने-अपने कार्य क्षेत्र क्रमशः सृजन, अर्थ व्यवस्था, तथा रक्षा क्रमशः निर्धारित किये. इन्हीं तीनों के अनुयायी कृमशः ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय कहलाये. यदि यह कार्य विभाजन स्वेच्छा से लागू किया जाता रहता तो इसमें कोई दोष नहीं था, किन्तु स्वार्थी तत्वों ने इसे स्वेच्छाधारित न रखकर इसे जन्म आधारित बना दिया जिससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न हुईं.

जो समाज गुलाम बनाकर रखे जाते हैं, उनमें कुछ भी प्राकृत रूप में विकसित नहीं होने दिया जाता और शासक वर्ग उनकी जीवन शैली और संस्कृति अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु निर्धारित करता है. भारत की सामजिक विक्रितीय यहाँ की लम्बी गुलामी की देनें हैं.

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

महेश्वर का जन्म

महेश्वर के बड़े होने पर भी राम को युवराज बनाये जाने का कारण उनके जन्म की जटिलता थी जिसका उस समय तक महेश्वर को ज्ञान नहीं था.


शकुंतला एक अति सुंदर युवती थी और उसके सौन्दर्य कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल रही थी. उधर, भरत के पश्चिमी भू-क्षेत्र पर अनेक बाहरी लोगों ने अपना अधिकार कर वहां के भोले-भले लोगों को अपने अधीन कर लिया था, जिनमें से एक राज्य का राजकुमार दुष्यंत था. दुष्यंत ने भी शकुंतला के बारे में सूना था और उसमें शकुंतला के यौवन भोग की इच्छा जागी. वह सूर्यवातार का वेश धारण कर शकुंतला के पास पहुंचा और उसे अपने मोहजाल में फंसा लिया. दोनों ऊर्जावान युवा थे इसलिए प्रेमालाप में शकुन्तला गर्भवती हो गयी. जब दुष्यंत को इसकी सूचना दी गयी तो उसने शकुंतला को पहचानने से इंकार  कर दिया. शकुंतला का जीवन बर्बादी के कगार पर आ पहुंचा.

शकुंतला एक देवकुल कि कन्या थी और उसकी लाज तथा जीवन की रक्षा करना देव समाज के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया. अतः गुरुजनों के आग्रह पर उस समय तक युवा और अविवाहित दशरथ ने शकुंतला से विवाह कर लिया. कुछ गोपनीयता के उद्देश्य से शकुंतला का नाम कौशल्या कर दिया गया. इस प्रकार दशरथ कि प्रथम पत्नी कौशल्या बनी. उचित समय आने पर कौशल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम महेश्वर रखा गया. कौशल्या के ही दूसरे पुत्र का नाम ब्रह्मा रखा गया जो सौम्य स्वभाव के कारण अत्यधिक लोकप्रिय बने. इसके विपरीत महेश्वर अति क्रोधी स्वभाव के थे और अपने शारीरिक बल का भरपूर प्रदर्शन तथा उपयोग करते थे.  .

महेश्वर का जन्म

महेश्वर के बड़े होने पर भी राम को युवराज बनाये जाने का कारण उनके जन्म की जटिलता थी जिसका उस समय तक महेश्वर को ज्ञान नहीं था.


शकुंतला एक अति सुंदर युवती थी और उसके सौन्दर्य कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल रही थी. उधर, भरत के पश्चिमी भू-क्षेत्र पर अनेक बाहरी लोगों ने अपना अधिकार कर वहां के भोले-भले लोगों को अपने अधीन कर लिया था, जिनमें से एक राज्य का राजकुमार दुष्यंत था. दुष्यंत ने भी शकुंतला के बारे में सूना था और उसमें शकुंतला के यौवन भोग की इच्छा जागी. वह सूर्यवातार का वेश धारण कर शकुंतला के पास पहुंचा और उसे अपने मोहजाल में फंसा लिया. दोनों ऊर्जावान युवा थे इसलिए प्रेमालाप में शकुन्तला गर्भवती हो गयी. जब दुष्यंत को इसकी सूचना दी गयी तो उसने शकुंतला को पहचानने से इंकार  कर दिया. शकुंतला का जीवन बर्बादी के कगार पर आ पहुंचा.

शकुंतला एक देवकुल कि कन्या थी और उसकी लाज तथा जीवन की रक्षा करना देव समाज के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया. अतः गुरुजनों के आग्रह पर उस समय तक युवा और अविवाहित दशरथ ने शकुंतला से विवाह कर लिया. कुछ गोपनीयता के उद्देश्य से शकुंतला का नाम कौशल्या कर दिया गया. इस प्रकार दशरथ कि प्रथम पत्नी कौशल्या बनी. उचित समय आने पर कौशल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम महेश्वर रखा गया. कौशल्या के ही दूसरे पुत्र का नाम ब्रह्मा रखा गया जो सौम्य स्वभाव के कारण अत्यधिक लोकप्रिय बने. इसके विपरीत महेश्वर अति क्रोधी स्वभाव के थे और अपने शारीरिक बल का भरपूर प्रदर्शन तथा उपयोग करते थे.  .

रविवार, 20 दिसंबर 2009

पृष्ठभूमि



लगभग २,००० वर्षों से गुलामी की जंजीरों से जकड़ा भारत और इसके लोग आज बहुत बुरी दशा में हैं - शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से. १९४७ में बलिदानों, सत्य और अहिंसा के बल पर पाई गयी स्वतंत्रता मुट्ठीभर लोगों ने अपनी अनंत हवस मिटाने के लिए कैद कर ली है. जनसामान्य के दमन और शोषण पर पनप रहे ये निरंकुश बने शासक लोकतंत्र का नारा लगाकर लोगों को पथ-भृष्ट कर रहे हैं ताकि वे उनके सामने अपना स्वर बुलंद करने योग्य न रह सकें और उनका वंशानुगत शासन चुपचाप सहते रहें.

मेरे बचपन में पिताजी ने एक कहानी सुनायी थी जो प्रसंगवश स्मृति-पटल पर उभर रही है -

"एक कारागार में अनेक कैदी थे. वैसे तो उनपर कोई विशेष बंधन नहीं थे किन्तु उनकी दोनों कुहनियों पर एक-एक शलाख बंधी थी जिसके कारण वे अपनी बाहें मोड़ नहीं सकते थे. जब उनका अनेक व्यंजनों वाला भोजन उनके सामने रखा जाता वे अपने अपने हाथों में ग्रास लेकर अपने-अपने मुंह में डालने का प्रयास करते किन्तु कुहनियों पर बंधी शलाखों के कारण उनके ग्रास मुंह में न जाकर इधर-उधर बिखर जाते. थोड़े से प्रयासों में ही भोजन समाप्त हो जाता और वे सब भूखे ही रह जाते......"

यही कथा सच्चाई है आज के भारत के लोगों की जिन्हें स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मताधिकार प्रदान किये गए हैं और जो उनके दास-संस्कारीय बंधनों के कारण उनके उपयोग में नहीं आकर उपरोक्त कैदियों के भोजन की तरह व्यर्थ जा रहे हैं और वे उसी प्रकार के शोषण और दमन का शिकार हो रहे हैं जैसे कि मुग़ल तथा अँगरेज़ शासनों में हो रहे थे.

"उपरोक्त कथा में आगे चलकर एक देव कारागार में आया और उसने उन सब कैदियों को एक मंत्र दिया. मंत्र का उपयोग करने से उनका भोजन व्यथ न जाकर उनकी उदर-पूर्ति करने लगा और वे खुशहाल हो गए, जबकि उनकी कोहनियों पर बंधी शलाखें यथावत बंधीं थीं."

आज भारतवासियों को एक ऐसे ही मंत्र कि आवश्यकता है ताकि उनके इतिहास-जनित संस्कारों के रहते हुए भी वे अपनी स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मताधिकार का सदुपयोग कर सकें और खुशहाल जीवन जी सकें. आइये देखें क्या था वह देव-दत्त मंत्र जिसके उपयोग से कैदी अपने भोजन का सदुपयोग कर सके.

पिताजी ने आगे बताया था, "देव ने उनसे कहा कि वे अपने हाथों से भोजन ग्रासों  को अपने-अपने मुख में ले जाने का प्रयास न करके एक दूसरे के मुख में डालें, जिसमें उन्हें कोई कठिनाई नहीं होगी. केवल आवश्यकता होगी आपसी सहयोग और विश्वास की."

कथा का यह मंत्र सार्वभौमिक और सार्वकालिक है किन्तु आज भारतवासियों को केवल परस्पर सहयोग एवं विश्वास ही पर्याप्त नहीं है, उनकी आवश्यकता है एक ऐसे शासन तंत्र की जिसका दुरूपयोग न हो सके तथा जो लोगों को उनकी मौलिक आवश्यकताओं - स्वास्थ, शिक्षा और न्याय के साथ-साथ सम्मानपूर्वक जीवन यापन का अवसर प्रदान कर सके.

लोगों का पेट केवल स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मताधिकार से नहीं भर सकता, न ही इनके दुरूपयोग से उनको सम्मान प्राप्त होता है. हाँ, इनसे वे भ्रमित अवश्य रहते हैं की उन्हें एक अनोखा ऐसा अधिकार मिला है जो पहले कभी नहीं मिला था. लोग स्वयं यह नहीं जानते की उन्हें वास्तव में क्या चाहिए ताकि वे एक संपन्न जीवन जी सकें. इसके लिए आवश्यकता है की देश का बौद्धिक वर्ग उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोई मन्त्र आविष्कृत करे और उन्हें प्रदान करे.

इस संलेख के अधिष्ठाता ने इस विषय पर लगभग २० वर्ष गहन अध्ययन एवं चिंतन किया है जिसका परिणाम है एक नविन शासन प्रणाली 'बौद्धिक लोकतंत्र' जो वर्त्तमान लोकतंत्र से बहुत अधिक भिन्न नहीं है किन्तु जिसके माध्यम से देश का शासन देश के बौद्धिक वर्ग के हाथों में चला जायेगा जो लोगों को खुशहाली प्रदान कर सकेंगे.

इस संलेख की श्रंखलाओं में इसी नवीन शासन प्रणाली को उद्घाटित किया जायेगा ताकि देश का प्रबुद्ध वर्ग उसपर विचार कर सके, आवश्यकतानुसार उसमें संशोधन कर सके तथा देश पर उसे लागू कर सके.

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

भारत निर्माण का आरम्भ

इस संलेख के कथानकों का काल यह मानकर निर्धारित किया गया है कि सिकंदर का भारत पर आक्रमण ३२३ ईसापूर्व में हुआ जिसे आज विश्व स्तर पर सत्य माना जाता है.

अब से लगभग २,35० वर्ष पहले आज थाईलैंड कही जाने वाली भूमि पर एक परिवार था 'पुरु' नाम का. इस परिवार के तीन पुत्रों - ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर ने आज के विएतनाम से अफगानिस्तान तक कि भूमि पर एक देश के निर्माण कि ठानी जो तब छुटपुट जंगली बस्तियों के अतिरिक्त जंगलों से भरी थी. हिमालय से सागर तक बहने वाली नदियाँ क्षेत्र को हरा-भरा रखने के लिए पर्याप्त जल प्रदान कर रही थीं और मानव बस्तियों के लिए अनुकूल जलवायु एवं पर्यावरण प्रदान कर रही थीं.

पुरु परिवार शिक्षित था और अपने क्षेत्र में सभ्यता का विकास करने में लगा था. अपने अनुभवों को भावी पीढ़ियों के लिए लिखते रहना इसकी परंपरा थी. इसी आलेखन को बाद में वेदों का नाम दिया गया. भारत कि मुख्य भूमि पर आकर इस परिवार ने एक नयी भाषा का विकास आरम्भ किया जिसे 'देवनागरी' नाम दिया गया. उस समय भाषा तथा लिपि एक ही नाम से जानी जाती थीं. इसके बाद वेदों को भी इसी भाषा में लिखा गया. यहीं इस परिवार का सम्बन्ध स्थानीय व्यक्ति 'विश्वामित्र' से बना जो भ्रमणकारी थे और जनसेवा उनका व्रत था.

तीनों भाइयों में सबसे बड़े महेश्वर थे जो एक विशालकाय योद्धा थे इसलिए क्षेत्र कि रक्षा का दायित्व इन्हें सोंपा गया. ब्रह्मा सृजन कार्य करते थे और मानवोपयोगी घर, बर्तन तथा अन्य वस्तुएं बनाने में लगे रहते थे. इनका स्वभाव अत्यधिक सौम्य था तथा लोगों के दुःख दर्दों को दूर करने का प्रयास करते थे जिसके कारन सर्वाधिक लोकप्रिय थे. स्वभाव में साम्यता के कारण विश्वामित्र इनके घनिष्ठ मित्र बन गए. विष्णु बुद्धिवादी थे और परिस्थिति तथा समयानुकूल योजना बनाने में लगे रहते थे. तीनो समाज को देने में लगे रहने के कारण लोग इन्हें 'देव' कहते थे.

उधर आज इजराएल कहे जाने वाले क्षेत्र पर एक बाहरी जंगली जाति ने अपना शाषन स्थापित कर लिया था जिससे स्थानीय जनता दुखी थी जिसके आक्रोश का स्वर एक स्थानीय किशोर 'क्रिस्तोफेर' ने बुलंद करना आरम्भ किया. इस आक्रोश के दमन के लिए क्रिस्तोफेर पर अवैध संतान होने का आरोप लगाकर उसे क्रॉस पर यातना देते हुए मृत्यु दण्ड का प्रयास किया गया. हताहत किशोर के शरीर का औषधीय लेपन से गुप्त रूप में उपचार किया गया जिससे बालक कि जान बच गयी. इस किशोर की बड़ी बहिन मरियम उसे साथ लेकर गुप्त रूप से भारत आ गयी और देवों के साथ इस नव निर्माण कार्य में जुट गयी. गुप्त रहने के लिए भाई-बहिन नौका परिचालन का कार्य करते थे. क्रिस्तोफेर विष्णु के परम मित्र और सहयोगी बने.

उसी समय ग्रीस के अथेन्स नगर में एक सभ्यता का विकास किया जा रहा था जिसके अंतर्गत नगर में विश्व की प्रथम जनतांत्रिक शाषन व्यवस्ता स्थापित की गयी. इस नगर राज्य को एक्रोपोलिस कहा जाता था जो चरों और से जंगली जातियों से घिरा था. मसदोनिया के जंगली शाषक फिलिप ने नगर राज्य पर आक्रमण किया और सभ्य नागरिकों को वहां से खदेड़ दिया. इनके शीर्ष विद्वान् सुकरात को विषपान करा मृत्युदंड दे दिया गया. नगर के लोग छिपकर भागते हुए भारत पहुंचे और देवों में मिल गए. इन्होने भारत में आगरा और आसपास के क्षेत्रों को विकसित किया. यहाँ ये लोग अक्रोपोल होने के कारण अग्रवाल कहलाये.

इस प्रकार स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक बड़ा समूह भारत निर्माण के कार्य में जुट गया. नयी-नयी बस्तियां बनाने लगीं, भोजन के उत्पादन के लिए कृषि विकसित की जाने लगी.    

भारत निर्माण का आरम्भ

इस संलेख के कथानकों का काल यह मानकर निर्धारित किया गया है कि सिकंदर का भारत पर आक्रमण ३२३ ईसापूर्व में हुआ जिसे आज विश्व स्तर पर सत्य माना जाता है.

अब से लगभग २,35० वर्ष पहले आज थाईलैंड कही जाने वाली भूमि पर एक परिवार था 'पुरु' नाम का. इस परिवार के तीन पुत्रों - ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर ने आज के विएतनाम से अफगानिस्तान तक कि भूमि पर एक देश के निर्माण कि ठानी जो तब छुटपुट जंगली बस्तियों के अतिरिक्त जंगलों से भरी थी. हिमालय से सागर तक बहने वाली नदियाँ क्षेत्र को हरा-भरा रखने के लिए पर्याप्त जल प्रदान कर रही थीं और मानव बस्तियों के लिए अनुकूल जलवायु एवं पर्यावरण प्रदान कर रही थीं.

पुरु परिवार शिक्षित था और अपने क्षेत्र में सभ्यता का विकास करने में लगा था. अपने अनुभवों को भावी पीढ़ियों के लिए लिखते रहना इसकी परंपरा थी. इसी आलेखन को बाद में वेदों का नाम दिया गया. भारत कि मुख्य भूमि पर आकर इस परिवार ने एक नयी भाषा का विकास आरम्भ किया जिसे 'देवनागरी' नाम दिया गया. उस समय भाषा तथा लिपि एक ही नाम से जानी जाती थीं. इसके बाद वेदों को भी इसी भाषा में लिखा गया. यहीं इस परिवार का सम्बन्ध स्थानीय व्यक्ति 'विश्वामित्र' से बना जो भ्रमणकारी थे और जनसेवा उनका व्रत था.

तीनों भाइयों में सबसे बड़े महेश्वर थे जो एक विशालकाय योद्धा थे इसलिए क्षेत्र कि रक्षा का दायित्व इन्हें सोंपा गया. ब्रह्मा सृजन कार्य करते थे और मानवोपयोगी घर, बर्तन तथा अन्य वस्तुएं बनाने में लगे रहते थे. इनका स्वभाव अत्यधिक सौम्य था तथा लोगों के दुःख दर्दों को दूर करने का प्रयास करते थे जिसके कारन सर्वाधिक लोकप्रिय थे. स्वभाव में साम्यता के कारण विश्वामित्र इनके घनिष्ठ मित्र बन गए. विष्णु बुद्धिवादी थे और परिस्थिति तथा समयानुकूल योजना बनाने में लगे रहते थे. तीनो समाज को देने में लगे रहने के कारण लोग इन्हें 'देव' कहते थे.

उधर आज इजराएल कहे जाने वाले क्षेत्र पर एक बाहरी जंगली जाति ने अपना शाषन स्थापित कर लिया था जिससे स्थानीय जनता दुखी थी जिसके आक्रोश का स्वर एक स्थानीय किशोर 'क्रिस्तोफेर' ने बुलंद करना आरम्भ किया. इस आक्रोश के दमन के लिए क्रिस्तोफेर पर अवैध संतान होने का आरोप लगाकर उसे क्रॉस पर यातना देते हुए मृत्यु दण्ड का प्रयास किया गया. हताहत किशोर के शरीर का औषधीय लेपन से गुप्त रूप में उपचार किया गया जिससे बालक कि जान बच गयी. इस किशोर की बड़ी बहिन मरियम उसे साथ लेकर गुप्त रूप से भारत आ गयी और देवों के साथ इस नव निर्माण कार्य में जुट गयी. गुप्त रहने के लिए भाई-बहिन नौका परिचालन का कार्य करते थे. क्रिस्तोफेर विष्णु के परम मित्र और सहयोगी बने.

उसी समय ग्रीस के अथेन्स नगर में एक सभ्यता का विकास किया जा रहा था जिसके अंतर्गत नगर में विश्व की प्रथम जनतांत्रिक शाषन व्यवस्ता स्थापित की गयी. इस नगर राज्य को एक्रोपोलिस कहा जाता था जो चरों और से जंगली जातियों से घिरा था. मसदोनिया के जंगली शाषक फिलिप ने नगर राज्य पर आक्रमण किया और सभ्य नागरिकों को वहां से खदेड़ दिया. इनके शीर्ष विद्वान् सुकरात को विषपान करा मृत्युदंड दे दिया गया. नगर के लोग छिपकर भागते हुए भारत पहुंचे और देवों में मिल गए. इन्होने भारत में आगरा और आसपास के क्षेत्रों को विकसित किया. यहाँ ये लोग अक्रोपोल होने के कारण अग्रवाल कहलाये.

इस प्रकार स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक बड़ा समूह भारत निर्माण के कार्य में जुट गया. नयी-नयी बस्तियां बनाने लगीं, भोजन के उत्पादन के लिए कृषि विकसित की जाने लगी.    

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

पृष्ठभूमि


मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.

पृष्ठभूमि


मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.