गुरुवार, 11 मार्च 2010

अज्ञानता और अचिंतन का अन्धकार

ईश्वर, धर्म, अद्यात्म, आदि, यदि हम इन शब्दों को वर्तमान में प्रचलित अर्थों में लें, मानवता में अचिंतन के सूत्रपात सिद्ध होते हैं. ये सभी शब्द भारत के प्राचीन वेदों और शास्त्रों में पाए जाते हैं किन्तु वहाँ इनके अर्थ वर्तमान में प्रचलित अर्थों से भिन्न हैं. इन शब्दों के नए अर्थ जानबूझकर भिन्न किये गए ताकि ज्ञान के अकूत भण्डार इन देव ग्रंथों के ज्ञान को सदा सदा के लिए लुप्त कर दिया जाये और लोग इनमें उन विकृत भावों को ही देख पायें जो शब्दार्थ परिवर्तन से इन पर थोपे गए हैं. इससे तीन लाभ हुए -
  1. वेदों और शास्त्रों का वास्तविक ज्ञान लुप्त हो गया, 
  2. वेदों और शास्त्रों की प्रमाणिकता का दुरूपयोग कर षड्यंत्रकारियों ने अपना भ्रम फ़ैलाने का लक्ष्य प्राप्त किया.
  3. निरक्षर षड्यंत्रकारियों को अपने मंतव्य हेतु कोई नया ग्रन्थ नहीं लिखना पड़ा. परिणामस्वरूप, देवों के विज्ञानं और इतिहासपरक ग्रन्थ - वेद और शास्त्र, धर्म ग्रन्थ मने जाने लगे.        
इसी आधार पर श्रीमद भगवद्गीता में जन समुदाय को दो वर्गों में दर्शाया गया है - धर्मक्षेत्रे और कुरुक्षेत्रे, अर्थात धर्मावलम्बी और कर्मावलम्बी. इसी से सिद्ध होता है कि धर्म और कर्म परस्पर विरोधी धारणाएं हैं. धर्म का आडम्बर चाहे जितना भी किया गया हो, कर्म के महत्व को कभी कम नहीं किया जा सका. इससे लोगों में असमंजस उत्पन्न हुआ कि वे धर्म को अपनाएं या कर्म को. अपने परिश्रम के बल पर आजीविका चलाने और मानव सभ्यता का विकास करने के पक्षधरों ने कर्म का मार्ग अपनाया तो समाज को ब्रमित कर उसे अज्ञानता के अचिंतन में निमग्न करते हुए उस पर मनोवैज्ञानिक हनन के माध्यम से राजनैतिक शासन करने वालों ने धर्म को अपनाया. यहीं से आरम्भ हुआ मानवता के संगठित शोषण का इतिहास.

आज का भारतीय समाज तीन वर्गों में विभाजित देखा जा सकता है - नगण्य कर्मावलम्बी, संगठित धर्मावलम्बी और असंख्य अज्ञान और अचिंतन के अन्धकार से भ्रमित जनसाधारण. कर्मावलम्बी परिश्रम करते हैं और अपनी बुद्धि का सदुपयोग करते हुए मानवीय गुणों का विकास करते हैं, धर्मावलम्बी संगठित रूप में तीसरे वर्ग का शोषण करते हुए वैभव भोगते हैं और अपनी बुद्धि का दुरूपयोग करते हुए समाज को भ्रमित एवं ईश्वर के नाम से आतंकित करने एवं रखने हेतु नए नए मार्ग खोजते हैं. तीसरा वर्ग वस्तुतः शोषित है और असमंजस में है, वह कर्म करता है अपनी आजीविका हेतु किनता इससे प्राप्तियों का बहुलांश संगठित धर्मावलम्बी हड़प लेते हैं  आजीविका के संकट से तृस्त यह वर्ग आतंकित भी है और अचिंतन के अन्धकार में निमग्न भी. चूंकि यह समाज का बहुत बड़ा अंश है, इसलिए इसी की स्थिति को समाज की सामान्य स्थिति माना जा सकता है.

समाज का शोषित तीसरा अंश पूरी तरह निर्धन नहीं है, इसमें अनेक धनवान भी सम्मिलित हैं किन्तु ये बौद्धिक कंगाल हैं क्योंकि ये तो यह भी नहीं जानते कि कितना कमाएं और किसलिए. कमाई की अनंत यात्रा पर बस चलते रहते हैं - धनवान होते हुए भी अनंत धन-सम्पदा की कामना लिए हुए अपनी कमाई कोई सदुपयोग भी नहीं कर पाते. संगठित धर्मावलम्बी इन्ही की अज्ञानता, अचिंतन और सम्पन्नता का शोषण करते हुए वैभवपूर्ण जीवन जीते हैं.           

बुधवार, 10 मार्च 2010

शक्कर की कड़वाहट

विगत २ वर्षों में केंद्र सरकार में पदासीन राजनेताओं के निहित स्वार्थों और कुप्रबंधन के कारण शक्कर के उपभोक्ता मूल्य में सतत वृद्धि होती रही है और लगभग २० रुपये से ४० रुपये प्रति किलोग्राम हो गयी है. यह शक्कर उस गन्ने से बनी थी जिसका किसानों को दिया गया मूल्य लगभग १०० रुपये प्रति कुंतल था. शक्कर की अप्रत्याशित मूल्य वृद्धि से पीड़ित किसानों ने भी इस वर्ष अपने गन्ने के मूल्य बढ़ने की मांग की. सरकार ने इसके मूल्य भी २५० रुपये प्रति कुंतल कर दिए टाटा निजी शक्कर मिल किसानों को गन्ने का मूल्य लगभग ३०० रुपये दे रहे अं. जब इस गन्ने से बनी शक्कर बाज़ार में आयेगी तो उसका मूल्य तार्किक दृष्टि से १०० रुपये प्रति किलोग्राम होना चाहिए.

वर्तमान का शक्कर मूल्य लगभग ४० रुपये प्रति किलोग्राम जनसाधारण की जेबों को भारी लग रहा है, इसमें और अधिक वृद्धि होने से देश में शक्कर की खपत में भारी गिरावट हो जायेगी जिससे शक्कर कारखानों को अपना उत्पाद विक्त्रय करने में कठिनाई होगी, हो सकता है कि उन्हें शक्कर का खुदरा मूल्य गिरना पड़े जिससे उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं राह पायेगी..

दूसरी ओर गन्ने के मूल्य लगभग ३ गुना वृद्धित होने से इस वर्ष किसानों ने बहुत अधिक गन्ना बोया है. जिससे अगले शक्कर चक्र में गन्ने का उत्पादन बहुत अधिक होगा. कारखानों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने से वे किसानों का गन्ना अब निर्धारित मूल्य पर नहीं खरीद पाएंगे. हो सकता है कि किसानों का सकल उत्पाद विक्रय ही न हो पाए. जिस समय चौधरी चरण सिंह देश के प्रधान मंत्री थे उस समय ऐसी हे स्थिति उत्पन्न हो गयी थी और किसानों को अपनी गन्ने की फसल खेतों में ही जलानी पडी थी. अगले शक्कर चक्र में इसकी पुनरावृत्ति होने की बहुत अधिक संभावना है.

ऐसी स्थिति में सरकार को गन्ने के मूल्य को नियंत्रण मुक्त करना होगा ताकि कारखाने अपनी इच्छानुसार मूकी पर गन्ना खरीदें. इससे किसानों की आशाओं पर पानी फिर जायेगा. कारखानों के सामने एक विकल्प शक्कर का निर्यात है किन्तु इससे उन्हें शक्कर की वह कीमत नहीं मिल पायेगी जिसकी वे आशा किये बैठे हैं.

इस प्रकार अगला शक्कर चक्र गन्ना उत्पादकों और शक्कर कारखानों के लिए निराशाजनक होगा, जिसका पूरा पूरा दायित्व वर्तमान कृषि मंत्री और प्रधान मंत्री का होगा. ऐसी स्थिति उत्पन्न होने का मुख्य कारण यह है कि देश में उत्पादन का कोई नियोजन नहीं है. विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी स्थिति आती रही हैं किन्तु शासक-प्रशासक इनसे कोई सबक नहीं सीखते.

मंगलवार, 9 मार्च 2010

भाग्य, भजन, भगवान्, भगवती

लैटिन भाषा का एक शब्द है - phagein, जिसका अर्थ 'खाना' अथवा 'भोजन' है. इसे शब्द से उद्भूत हुए हैं शास्त्रीय शब्द 'भाग्य'.और 'भजन' जिनके देवनागरी अर्थ 'भोजन' हैं. साधारण अर्थों में भी भोजन ही मनुष्य का भाग्य होता है. वमानों ने लोगों को भ्रमित कर अपने छल-कपट भरे व्यवसाय चलने के लिए भाग्य को ज्योतिष से जोड़ा और भजन को ईश्वर से, और भोले-बाले लोगों के शोषण करते रहे.
'भाग्य' शब्द से बना है 'भगवान्' जिसका अर्थ 'भोजन का उत्पादक' अर्थात 'किसान' है. शास्त्रीय शब्द 'भगवती' भी 'भाग्य' से बना है जिसका अर्थ 'भोजन बनाने वाली स्त्री' होता है. परंपरागत रूप में पुरुष खेती करते थे और स्त्रियाँ परिवार के लिए भोजन बनाते थे. इसलिए किसान दंपत्ति को शास्त्रों में 'भगवन-भगवती' कहा गया है.  .    

महामानव का अनिवार्य लक्षण और लक्ष्य

तीन विशेषण शब्द - ठीक, सामान्य और साधारण, प्रायः एक दूसरे के पर्याय के रूप में उपयोग किये जाते हैं. इन के अंग्रेजी समतुल्य शब्द - normal , common और ordinary, भी लगभग पर्याय मने जाते हैं. किन्तु इन तीन शब्दों के विलोम शब्द - बेठीक  (abnormal), असामान्य (uncommon) और असाधारण (एक्स्ट्रा-ordinary), एक दूसरे के पर्याय न होकर बहुत अधिक भिन्न अर्थ रखते हैं. शब्दों के इस भेद में हमारे सीखने के लिए बहुत हुछ छिपा है.

प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ सामर्थवान है, स्वयं को उन दूसरों से भिन्न दर्शाना चाहता है जिन्हें वह ठीक, सामान्य तथा साधारण मानता है. इस चाह  में कभी वह बेठीक हो जाता है, कभी असामान्य तो कभी असाधारण, जबकि उसकी वास्तविक चाह 'असाधारण' होने की होती है. प्रत्येक महामानव न तो बस ठीक होता है, न सामान्य और न ही साधारण. इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रत्येक सामर्थवान व्यक्ति महामानव होने की चाह रखता है तथा इसकी सक्षमता रखता है.

प्रचलित मान्यताओं के अनुसार किसी व्यक्ति के बेठीक, असामान्य अथवा असाधारण समझे जाने में उस व्यक्ति विशेष की भूमिका नगण्य होती है, किन्तु दूसरों के दृष्टिकोण बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. एक समर्थवान व्यक्ति को उसके समाज के कुछ लोग बेठीक मानते हैं, कुछ अन्य उसे असामान्य वर्ग में रखते हैं तो कुछ उसे असाधारण समझते हैं. इस प्रकार ये तीन विशेषण लक्श्यपरक न होकर व्यक्तिपरक सिद्ध होते हैं चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार ही दूसरों का आकलन करता है. अतः प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि दूसरों से भिन्न होती है तथा वह इसकी परिभाषा भी दूसरों की परिभाषा से भिन्न रखता है. ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति के बारे में दूसरों के आकलन महत्वहीन हो जाते हैं. यही जागतिक यथार्थ है.

उपरोक्त से सिद्ध होता है कि सामर्थवान व्यक्ति का अपने बारे में आकलन ही सर्वोपरि एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है जबकि बस-ठीक, सामान्य और साधारण व्यक्तियों के लिए दूसरों के आकलन महत्वपूर्ण होते हैं. यही अंतराल है - महामानव और मानव का. यहीं से आरम्भ होते हैं महामानव के विशिष्ट गुण - आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, अत्म्संकल्प, और सर्वोपरि उसके द्वारा अपने लिए चुनी गयी राह. इस सबके लिए उसे दूसरों के उसके बारे में मतों और आकलनों से निरपेक्ष होना अनिवार्य हो जाता है जिसके लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है. जो ऐसा साहस कर पाते हैं वही महामानव बनाने की संभावना रखते हैं. यहाँ यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि सभी अदम्य साहसी व्यक्ति महामानव नहीं बन सकते. अतः महामानाव्में उपरोक्त गुणों के अतिरिक्त एक अन्य विशेष गुण की भी आवश्यकता होती है.
 
प्रत्येक अपराधी भी साहसी होता है, अपने अपराध के बारे में दूसरों के आकलन से निरपेक्ष रहता है, और उसे बस-ठीक, सामान्य अथवा साधारण भी नहीं कहा जा सकता. तथापि वह महामानव का पूर्णतः विलोम होता है. तो फिर क्या है वह गुण जो महामानव को एक अपराधी से भिन्न बनाता है?  यह गुण है उसकी चिन्तनशीलता जो उसे अपराधी बनाने की अपेक्षा महामानावारा की ओर मोड़ती है. चिन्तनशीलता ही मनुष्यों को अन्य जीवों सी प्रथक करती है और यही मानुष-मनुष्य में अंतराल उत्पन्न करती है, और यही कुछ व्यक्तियों को महामानव बनाती है. कोई भी व्यक्ति व्यक्तिपरक होने से बच नहीं सकता, किन्तु विभिन्न व्यक्तियों के लक्श्यपरक होने के परिमाण भिन्न होते हैं. इस प्रकार महामानव की चिन्तनशीलता व्यक्तिपरक होने के साथ-साथ उछ परिमाण की लक्श्यपरण होती है. 
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साधारण से साधारण व्यक्ति भी स्वयं को चिन्तनहीन स्वीकार नहीं करता क्योंकि सभी चिंतन करते हैं मनुष्य के मस्तिष्क के प्राकृत रूप में चिंतनशील होने के कारण. किन्तु विभिन्न व्यक्तियों के चिंतन विषय तथा उनके स्तर भिन्न होते हैं. इसमें व्यक्ति के सरोकारों का बहुत महत्व होता है - कुछ व्यक्तियों के सरोकार स्वयं के लिए रोटी, कपड़ा और मकान पाने तक सीमित होते हैं, कुछ वैभवपूर्ण जीवनशैली अपनाने को समर्पित होते हैं, तो कुछ असीमित संपदा संग्रह को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाते हैं. कुछ सामाजिक लोकप्रियता को ही अपना सर्वोपरि सरोकार बनाते हैं. किन्तु महामानव के सरोकार इन सबसे भिन्न होते हैं.

महामानव मानवता के शीर्ष के ओर अग्रसर होता है इसलिए उसका सर्वोपरि सरोकार ऐसे मानवीय गुणों का विकास होता है जिनसे मानव सभ्यता आगे जाती है. मानव सभ्यता विकास के बारे में भी मतान्तर हो सकते हैं, किन्तु इसका मानदंड केवल एक है जो मानव को अन्य जीवों से भिन्न बनाता है. सभी जंगली जीवों में सशक्त द्वारा निर्बलों का शोषण प्राकृत गुण के रूप में विद्यमान है, यही उनके अपने जीवन का आधार होता है. मनुष्य प्राकृत जीव नहीं राह गया है, इसने विकास किया है - परस्पर शोषण से विमुख होकर परस्पर सहयोग की भावना विकसित करके और इसके लिए समुचित व्यवस्थाएं करके. अतः शोषण-विहीन समाज की संरचना ही मानव सभ्यता के विकास की परिचायक है और यही प्रत्येक महामानव का लक्ष्य होता है.

सोमवार, 8 मार्च 2010

धर्म और उसका स्थान

बौद्धिक जनतंत्र की सुनिश्चित मान्यता है कि दर्मों और सम्प्रदायों ने मानव समाज कोविभाजित कर घोर अहित हिय है तथापि यह प्रत्येक व्यक्ति को आस्था की स्वतन्त्रता का सम्मान करता है किन्तु इसकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति एवं प्रदर्शन की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं करता. बौद्धिक जनतंत्र की मान्यता है कि धर्म, संप्रदाय आदि में आस्था पूर्णतः व्यक्तिगत प्रश्न हैं और इसे व्यक्तिगत स्तर तक ही सीमित रखना समाज के हित में है.

धार्मिक आस्था का वास्तविक स्थान व्यक्ति का मन होता है, यह बाह्य प्रदर्शन का विषय नहीं होता. अतः बौद्धिक जनतंत्र नागरिकों को अपनी आस्थाओं को स्वयं तक ही सीमित रखने का प्रावधान करता है जिसके लिए सार्वजानिक रूप से धार्मिक आस्था का प्रदर्शन पूर्णतः प्रतिबंधित किया गया है. इस प्रावधान के अंतर्गत नागरिकों के व्यक्तिगत आवासों के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर किसी धार्मिक स्थल अथवा भवन - जैसे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, आदि के निर्माण अथवा रख-रखाव की अनुमति नहीं होगी. बौद्धिक जनतंत्र व्यवस्था लागू होने के पूर्व जो भी धार्मिक स्थल अथवा भवन विद्यमान होंगे उन्हें सार्वजनिक विद्यालयों, स्वास्थ केन्द्रों, सभा भवनों आदि में परिवर्तित कर दिया जायेगा तथा उनपर व्यक्तिगत अथवा वर्ग विशेष के अधिकार समाप्त कर दिए जायेंगे.

इन प्रावधानों की पृष्ठभूमि में मानवता का इतिहास है जिससे स्पष्ट है कि धर्म, सम्प्रदाय, अध्यात्म आदि ने मानव जाति को सर्वाधिक भ्रमित किया है और उसके मद्य संकीर्ण दीवारें खादी की हैं. विश्व का सर्वाधिक लम्बा युद्ध इस्लाम और इसाई धर्मावलम्बियों के मध्य हुआ है जो सन ६३० से आरम्भ होकर १७९१ तक चला. इसे 'यूरोप पर इस्लामी आक्रमण' कहा जाता है. भारत पर प्रथम इस्लामी आक्रमण ९३१ में हुआ और तब से अब तक देश में धार्मिक संघर्ष चलते रहे हैं और अब इन्होने आतंक का रूप ले लिया है.

जन-साधारण में ईश्वर के नाम का आतंक, ज्योतिष, भाग्य, जन्म-जन्मान्तर, भूत-प्रेत आदि के अंध-विश्वास भारतीय जनमानस को लगभग दो हज़ार वर्षों से डसते रहे हैं और इसमें वैज्ञानिक सोच को विकसित नहीं होने दिया गया है. इसी का परिणाम है कि भारत प्राकृत संपदा से संपन्न होते हुए भी पिछड़ेपन से उबार नहीं पाया है. धर्म, सम्प्रदाय, अध्यात्म आदि पर प्रतिबन्ध ही इसे पुनः 'सोने की चिड़िया' बना सकता है जैसा कि यह गुप्त वंश के शासन काल में विश्व-प्रसिद्ध था..   

भारत में व्यावसायिक शिक्षा - राष्ट्रद्रोह

भारत में व्यावसायिक शिक्षा का वाणिज्यीकरण कर दिया गया है - धन्य हैं अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह जो प्रत्येक कार्य को एक व्यवसाय मानते हैं और उसके दूरगामी अर्थशास्त्रीय पक्ष की अवहेलना करने में सिद्ध-हस्त हैं. इन्गीनिअरिंग, चिकित्सा, प्रबंधन, आदि क्षेत्रों की शिक्षा प्रदान करने में बहुत अधिक लागत की आवश्यकता होती है, किन्तु इन शिक्षाओं पर ही देश का वर्तमान और भविष्य टिका होता है, और इन पर देश द्वारा किया गया व्यय शीघ्र ही विकास के माध्यम से वापिस प्राप्त हो जाता है. किन्तु यह मामूली सा गणित देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों की समझ में नहीं आया और वे इनका वाणिज्यीकरण कर बैठे.

प्रत्येक व्यवसाय का एकमात्र लक्ष्य पूंजी निवेश कर शीघ्रातिशीघ्र लाभ कमाना होता है, दूरगामी लाभकर परिणामों के लिए सामयिक हानि उठाना व्यवसाय में स्वीकार्य नहीं होता, विशेषकर भारत में जहां नीतियों के निर्धारण क्षुद्र स्वार्थों की आपूर्ति हेतु किये जाते हैं और कभी भी उनमें परिवर्तन किये जा सकते हैं. शिक्षा वाणिज्य न होकर एक सेवा होती है और इसका दूरगामी परिणाम राष्ट्र का विकास होता है. इससे तुरंत लाभ कमाना राष्ट्रद्रोह के सम्कक्स है जो भारत के राजनेताओं ने विगत १०-१५ वर्षों में किया है.

व्यवसायिक शिक्षा के वाणिज्यीकरण के जो परिणाम हमारे सामने हैं, आइये उनपर एक दृष्टि डालें -
  • शिक्षा के स्तर में भारी गिरावट आयी है क्योंकि व्यवसायी इन शिक्षाओं के लिए अपेक्षित निवेश न करके न्यूनतम निवेश से काम चला रहे हैं. इन्गीनिअरिंग और चिकित्सा के क्षेत्रों में प्रयोगशालाओं का अत्यधिक महत्व होता है और उनके किये भारी निवेश की आवश्यकता होती है जो निजी व्यवसायी कदापि नहीं कर सकते. इन क्षेत्रों के शिक्षक भी अति मेधावी, शिक्षित एवं अनुभवी होने चाहिए और ऐसे विद्वान् सस्ते नहीं मिलते, जबकि निजी व्यवसायी सस्ते शिक्षकों से अपना व्यवसाय चला रहे हैं. उदाहरण के लिए भारतीय प्रबंधन संस्थानों में लगभग डेढ़ लाख रुपये प्रतिमाह वेतन पाने वाले प्रवक्ता सप्ताह में केवल दो घंटे पढ़ाते हैं, जबकि निजी प्रबंधन संस्थानों के प्रवक्ता १५-२० हज़ार रुपये के मासिक मासिक वेतन पर सप्ताह में न्यूनतम २४ घंटे अध्यापन कार्य कर रहे हैं. 
  • व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करना भारतीय सासन-प्रशासन ने इतना महंगा बना दिया है कि इस क्षेत्र के व्यवसाय में भारी लाभ कमाने की संभावनाएं हैं, जिसके कारण वाणिज्यीकरण के बाद व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों ली संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. देश को जहाँ केवल ५०,००० अभियंताओं की प्रति वर्ष आवश्यकता होती है, वहां इस समय ३,००,००० अभियंता बनाए जा रहे हैं. स्पष्ट है कि इनको अपेक्षित शिक्षा न दी जाकर केवल कागजी उपाधियाँ वितरित की जा रही हैं. देश का शासन प्रशासन इस अनावश्यक अप्रत्याशित वृद्धि के प्रति व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण अंधा बना हुआ है. इससे उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है. अनेक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त युवा छोटे-छोटे विद्यालयों में शिक्षक पदों पर अथवा अन्य तुच्छ कार्य करने के लिए विवश हैं. 
  • व्यावसायिक शिक्षा के वाणिज्यीकरण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव मध्यमवर्गीय लोगों की अर्थ-व्यवस्था पर पड़ा है. उचक वर्गीय लोगों की तरह ये लोग भी अपने बच्चों को उच्च शिक्षा प्रदान करने की ललक में निजी क्षेत्र के व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों के शिकार बन रहे हैं और अपनी कठोर परिश्रम की कमाई इन शिक्षा संस्थानों को प्रदान कर रहे हैं और आशा करते हैं कि उनके बच्चे व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर उन्हें देश के उच्च वर्ग में सम्मिलित कर देंगे. किन्तु परिणाम इसके विपरीत ही प्राप्त हो रहे हैं. जीवन भर की कमाई इन शिक्षा संस्थानों को अर्पित करने के बाद जब उनके बच्चों को अपेक्षित रोजगार प्राप्त नहीं होते तो वे माध्यम वर्गीय से भी नीचे की ओर खिसक जाते हैं. इस स्थिति से अनेकानेक परिवार बर्बादी के कगार पर खड़े हैं. 
इस प्रकार भारत के शासक-प्रशासक वर्ग ने माध्यम वर्गीय लोगों की कमाई पर अपनी जेबें भारी हैं और निजी व्यवसायियों को लाभ पहुँचाया है. साथ ही देश के करोड़ों युवाओं को निराशाओं के अंधकूप में धकेला है, प्रत्येक दृष्टि से यह राष्ट्र के भविष्य के साथ खिलवाड़ है और खुला राष्ट्रद्रोह है.