प्रायः 'दरिद्रता' और 'निर्धनता' को पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है किन्तु इन दोनों शब्दों में भारी अंतराल है. 'निर्धनता' एक भौतिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति के पास धन का अभाव होता है किन्तु इससे उसकी मानसिक स्थिति का कोई सम्बन्ध नहीं है. निर्धन व्यक्ति स्वाभिमानी तथा परोपकारी हो सकता है. 'दरिद्रता' शब्द भौतिक स्थिति से अधिक मानसिक स्थिति का परिचायक है जिसमें व्यक्ति दीन-हीन अनुभव करता है जिसके कारण उसमें और अधिक पाने की इच्छा सदैव बनी रहती है. अनेक धनवान व्यक्ति भी दरिद्रता से पीड़ित होते हैं.
निर्धनता व्यक्ति की व्यक्तिगत स्थिति होती है, किन्तु दरिद्रता व्यक्ति की सामाजिक स्थिति होती है और उसी से पनपती है. किसी समाज में सदस्यों की आर्थिक स्थिति में अत्यधिक अंतराल होने से समाज में दो प्रकार से दरिद्रता विकसित होती है. प्रथम, धनाढ्य व्यक्ति निर्धनों का शोषण करते है और उन्हें पीड़ित करते हैं, जिससे पीड़ितों में दरिद्रता का भाव पनपने लगता है. द्वितीय, व्यक्ति अपने से अधिक धनवान व्यक्तियों से अधिक धनवान होने की चाह में पर्याप्त धनवान होते हुए भी अपने अन्दर दरिद्रता का भाव विकसित करने लगती है.
गुप्त काल के प्राचीन भारत सर्वांगीण रूप से धनवान था. समाज में जो धनी नहीं भी थे, वे भी प्रसन्न रहते थे क्योंकि कोई उनका शोषण नहीं करता था. इस लिए कुछ लोग निर्धन अवश्य रहे होंगे किन्तु कोई भी दरिद्र नहीं था. गुप्त वंश के शासन के बाद भारत में शोषण का युग आरम्भ हुआ, समाज को वर्णों और जातियों में विभाजित किया गया, कुछ लोगों से बलात तुच्छ कार्य कराकर उन्हें अस्पर्श्य घोषित किया गया. समाज के धर्म और विधानों को कुछ प्रतिष्ठित वर्गों के हित में बनाया गया, जिससे कुछ साधनविहीन वर्गों का बहु-आयामी शोषण करके उन्हें दरिद्र बना दिया गया. यह क्रम तब से स्वतन्त्रता पर्यंत चलता रहा. अतः निर्धन वर्ग दरिद्र भी बन गया, जिसके कारण 'निर्धन' और 'दरिद्र' शब्द परस्पर पर्याय माने जाने लगे.
स्वतन्त्रता के बाद यद्यपि शासन तथाकथित प्रतिष्ठित वर्गों के हाथों में ही रहा, तथापि सामाजिक स्थिति में अंतर लाया गया किन्तु इस अंतर को सकारात्मक नहीं कहा जा सकता. विदेशियों द्वारा शोषण का अंत हुआ इसलिए देश की सकल सम्पन्नता विकसित हुई जो कुछ वर्गों में ही वितरित रही. अन्य भारतीय समाज के वर्ग इस सम्पन्नता से वंचित ही रहे. तथापि देश के संपन्न वर्गों के उपभोगों का अपरोक्ष प्रभाव अन्य वर्गों की सम्पन्नता पर भी पड़ा जिससे अन्य वर्गों की निर्धनता भी घटने लगी. आज भारत केव अधिकाँश लोगों को भर पेट भोजन, तन ढकने को वस्त्र और शरण हेतु भवन उपलब्ध हैं इसलिए देश में निर्धनता कम हुई है. तथापि दरिद्रता का असीमित विकास हुआ है.
स्वतन्त्रता के बाद की सरकारों ने दलित वर्गों के उत्थान के नाम पर एवं भृष्टाचार के माध्यम से स्वयं और अधिक धनवान बनने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चलायी हैं जिनके माध्यम से दलितों को भिक्षा के रूप में कुछ आर्थिक सहायता देकर उनकी निर्धनता को घटाया अवश्य है किन्तु उनमें भिखावृत्ति विकसित करते हुए दरिद्रता का विकास किया है. अब वे सदैव यही आस लगाये बैठे रहते हैं कि शासक वर्ग उनपर कुछ और कृपा करेंगे. इन वर्गों को शिक्षित कर स्वावलंबी बनने के कोई प्रयास नहीं किये गए हैं. इससे इनकी दरिद्रता दूर होती. यह भृष्ट शासक वर्ग के प्रतिकूल सिद्ध होता.
स्वतंत्र भारत के शासक वर्ग ने भृष्टाचार के माध्यम से निर्धनों का ही नहीं धनवान लोगों का भी शोषण किया है. जिससे धनवान लोगों में भी असुरक्षा की भावना विकसित हुई है जिसके निराकरण के लिए वे और अधिक धन कमाने का प्रयास करते हैं जो शासक वर्ग द्वारा उनसे हड़प लिया जाता है. इस असुरक्षा की भावना तथा और अधिक धन कमाने की लालसा ने धनवान वर्गों को भी दरिद्र बना दिया है यद्यपि उनके पास धन का नितांत अभाव नहीं है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में सकल सम्पन्नता विकसित होने के बाद भी राजनैतिक अव्यवस्था के कारण दरिद्रता का सतत विकास हो रहा है जो समाज के निर्धन वर्ग के साथ-साथ धनवान वर्ग को भी ग्रसित कर रही है.
बुधवार, 10 नवंबर 2010
रविवार, 7 नवंबर 2010
उत्कृष्टता कैसे प्राप्त करें
आज फिर हिंदी की अपूर्णता का आभास हो रहा है और अंग्रेज़ी के 'परफेक्ट' शब्द के समतुल्य कोई शब्द नहीं मिल पा रहा है, जो 'उत्कृष्ट' 'आदर्श' और 'पूर्ण' शब्दों के मध्य कहीं होना चाहिए था किन्तु इसका भाव न तो ''उत्कृष्ट' और आदर्श' व्यक्त करते है और न ही 'पूर्ण' शब्द. इसलिए अभी 'उत्कृष्ट शब्द से काम चलाया जा रहा है.
सर्व प्रथम यहाँ यह चेतावनी देना प्रासंगिक है कि उत्कृष्टता कभी उपलब्ध न होने वाली स्थिति होती है, तथापि इसके लिए सतत प्रयास करते रहना वांछित है. इन प्रयासों से ही हम एक उत्कृष्ट व्यक्ति और कर्मी बन सकते हैं. अतः प्रयास करते रहने पर भी उत्कृष्टता प्राप्त न होने पर भी निराश नहीं होना चाहिए, अपितु और अधिक प्रयास किये जाने चाहिए.
जीवन शैली और कर्मों में उत्कृष्टता प्राप्त करना साधारणता की तुलना में सरल और सुविधाजनक तो नहीं होता अपितु असीम संतुष्टि प्रदायक होता है. इसके लिए अपने आराम और सुविधाजनक स्थिति को त्यागते हुए और असफलता की चिंता न करते हुए सतत प्रयास करने होते हैं. जितना कष्टकर और महत्वपूर्ण उत्कृष्टता प्राप्त करना होता है, उससे अधिक कष्टकर और महत्वपूर्ण इसे बनाये रखना होता है. इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र निम्नांकित हैं -
सर्व प्रथम यहाँ यह चेतावनी देना प्रासंगिक है कि उत्कृष्टता कभी उपलब्ध न होने वाली स्थिति होती है, तथापि इसके लिए सतत प्रयास करते रहना वांछित है. इन प्रयासों से ही हम एक उत्कृष्ट व्यक्ति और कर्मी बन सकते हैं. अतः प्रयास करते रहने पर भी उत्कृष्टता प्राप्त न होने पर भी निराश नहीं होना चाहिए, अपितु और अधिक प्रयास किये जाने चाहिए.
जीवन शैली और कर्मों में उत्कृष्टता प्राप्त करना साधारणता की तुलना में सरल और सुविधाजनक तो नहीं होता अपितु असीम संतुष्टि प्रदायक होता है. इसके लिए अपने आराम और सुविधाजनक स्थिति को त्यागते हुए और असफलता की चिंता न करते हुए सतत प्रयास करने होते हैं. जितना कष्टकर और महत्वपूर्ण उत्कृष्टता प्राप्त करना होता है, उससे अधिक कष्टकर और महत्वपूर्ण इसे बनाये रखना होता है. इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र निम्नांकित हैं -
- अपनी पसंद का कार्य करें : उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए यह अनिवार्य है कि करता की उस कर्म में पूर्ण रूचि हो और यह तभी संभव होता है जब कार्य कर्ता की पसंद का हो. अतः उत्कृष्टता के लिए वही करें जो आपको सर्वाधिक पसंद हो.
- क्लिष्टतम को सर्वप्रथम करें : प्रत्येक कार्य में अनेक चरण अथवा अंग होते हैं. सुविध्वादी लोग प्रायः कार्य के उस भाग को पहले करते हैं जो सरलतम होता है. इसके बाद जब वे क्लिष्ट भागों की ओर बढ़ते हैं तो क्लिष्टता उन्हें पसंद नहीं आती और वे अनेक कार्यों को मध्य में ही छोड़ देते हैं अथवा उन्हें शीघ्रता से घटिया रूप में संपन्न करते हैं. उत्कृष्टता के सर्वप्रथम तो यह आवश्यक होता है कि व्यक्ति उसे पूर्ण और उत्कृष्ट रूप में करने के लिए संकल्पशील हो. कार्य को आरम्भ करते समय व्यक्ति स्वाभाविक रूप में अधिक ऊर्जावान होता है जिसके कारण उसे क्लिष्ट कार्य में कठिनाई नहीं होती. इसलिए कार्य को करते हुए अधिकाधिक आनंद प्राप्त करते रहने के लिए उसके क्लिष्टतम भाग को सर्वप्रथम करना चाहिए ताकि आगे के सरल भाग आनंददायक सिद्ध होते चले जाएँ. इससे कार्य में उत्कृष्टता प्राप्त करना सरल होता है.
- गहन तल्लीन रहें : कहावतों में अभ्यास को उत्कृष्टता की जननी कहा गया है, जो अक्षरशः सत्य है. किन्तु कोई भी व्यक्ति दीर्घ अवधि तक सतत कार्य करते हुए उत्कृष्टता प्राप्त नहीं कर सकता. अध्ययनों से पाया गया है कि व्यक्ति किसी एक कार्य को अधिकतम ९० मिनट तक ही उत्कृष्टता के साथ संपन्न कर सकता है. अतः जब भी जो भी करें पूर्ण तल्लीनता से करें और जब भी कार्य की एकरसता तल्लीनता में बाधा बने, कुछ समय के लिए उस कार्य को विराम दें. इससे व्यक्ति के मस्तिष्क का दाहिना भाग पुनः ऊर्जित हो जाता है और वह व्यक्ति की रचनात्मकता को बनाये रखता है. मनोवैज्ञानिक शोधों से यह भी पाया गया है कि व्यक्ति २४ घंटों में अधिकतम ४.५ घंटों के लिए उत्कृष्टता के साथ कार्य कर सकता है. इससे अधिक किये गए कार्यों में उत्कृष्टता होनी आशंकित होती है. इसलिए केवल शारीरिक परिश्रम की अपेक्षा कर्म में बुद्धि और मानसिकता का सहयोग लें जो सीमित समय के लिए ही उपलब्ध होता है.
- दूसरों के मत जानें किन्तु अंतरालों पर : अपने द्वारा किये गए कार्य से सभी को संतुष्टि होती है किन्तु मानव की सामाजिकता यह भी अपेक्षा रखती है कि दूसरे लोग भी कार्य की उत्कृष्टता से संतुष्ट हों, जिसके लिए अपने द्वारा किये जा रहे कार्यों के बारे में समय-समय पर उस क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों के मत भी जानें और तदनुसार अपनी कार्य शैली में संशोधन करें. किन्तु दूसरों के आलोचनात्मक मत सतत रूप में उपलब्ध होने से व्यक्ति के मानस पर अनावश्यक भार पड़ता है जिससे उसकी रचनात्मकता दुष्प्रभावित होती है. इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखें कि सभी को संतुष्ट करना असंभव होता है. इसलिए सुनें अनेकों की, किन्तु करें अपने ही तदनुसार संशोधित निर्णय की.
- स्वयं अनुशासित रहें : संकल्पशक्ति और अनुशासन, मानवीय जीवन के दो ऐसे पहलू हैं जिनके बारे में कहा बहुत कुछ जाता है, किन्तु इन्हें जीवन में धारण करना अत्यधिक क्लिष्ट है और हम में से अधिकाँश इन से कतराते हैं. इन्हें दारण करने की कुछ व्यवहारिक कठिनाइयाँ भी हैं. इन कठिनाइयों के निवारण के लिए हम जो विशेष कार्य उत्कृष्टता के साथ करना चाहते हैं, उनके लिए विशिष्ट समय निर्धारित करें जिससे उन्हें करना हमारे स्वभाव और जीवनचर्या में सम्मिलित हो जाये. इससे हम स्वानुशासित भी सरलता से हो सकेंगे. .
लेबल:
अनुशासन,
उत्कृष्टता,
तल्लीनता,
रचनात्मकता,
संकल्पशक्ति
शनिवार, 6 नवंबर 2010
मेरी अनिच्छा और विवशता
अभी हुए पंचायत चुनावों में मतदाताओं ने विरोधी की ओर से वितरित शराब, नकद धन और अन्य लालचों में आकर मेरे द्वारा समर्थित प्रत्याशी को धोखे दिए जिसे मैं अपने साथ और अपनी नैतिकता के साथ धोखा मानता हूँ. यहाँ तक कि विजित प्रत्याशी ने एक विपक्षी प्रत्याशी और उसके सहयोगियों को भी ८५,००० रुपये देकस्र खरीद लिया था. चुनाव से पूर्व चुनाव मैदान में अन्य २ प्रत्याशियों ने भी मुझे कोई महत्व नहीं दिया जिसके कारण मेरी और उनकी पराजय हुई. इस चुनाव में विजित प्रत्याशी को लगभग कुल १५०० पड़े मतों में से केवल ४२८ मत प्राप्त हुए जो लगभग ३० प्रतिशत से भी कम हैं. अब उसके समर्थक दूसरे प्रत्याशी को केवल १४ प्रतिशत मत प्राप्त हुए. इससे इन दोनों का समर्थन केवल ४४ प्रतिशत है, जब कि शेष गाँव - ५६ प्रतिशत - विजित प्रत्याशी का घोर विरोधी है और चुनाव परिणामों से बहुत अधिक निराश और दुखी है. दुःख इसलिए भी अधिक है क्यों कि विजित व्यक्ति ने विजय के तुरंत बाद से ही अपनी स्वाभाविक उद्दंडता आरम्भ कर दी है जब कि उसे अभी प्रधान पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हुआ है. इससे गाँव में तनाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है जिसमें एक ओर ४४ प्रतिशत और दूसरी ओर शेष ५६ प्रतिशत व्यक्ति रहने की संभावना है.
उक्त धोखे के कारण मेरा मन बना कि आगे से मैं ऐसे धोखेबाज मतदाताओं पर निर्भर नहीं करूंगा क्योंकि इन पर मेरा विश्वास उठ गया है. अब मेरा मन बना था कि मैं गाँव की राजनीति में भाग न लेकर अपने लेखन और अन्य रचनात्मक कार्य पर ध्यान दूंगा. किन्तु चुनाव परिणामों से उत्पन्न संघर्ष की आशंका के कारण ग्रामवासियों की दृष्टि में मैं ही उनका सच्चा हितैषी हो सकता हूँ और वे मुझसे विपक्ष का नेतृत्व करने की मांग कर रहे हैं ताकि उनके हित सुरक्षित रह सकें. गाँव में मेरे परिवार का इतिहास ग्राम के विकास और ग्रामवासियों की सेवा हेतु संघर्ष करने का रहा है, और गाँव में मेरे दस वर्षों में मेरी जो छबि बनी है वह भी मेरे पारिवारिक इतिहास से भिन्न नहीं रही है. आने परिवार की परंपरा के कारण मैं ग्रामवासियों का आग्रह अस्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ. इससे सत्ता पक्ष में हलचल हुई है जिसमें अधिकांशतः असामाजिक तत्व हैं जिनके साथ सहयोग किये जाने की भी कोई संभावना नहीं है.. मैं यह भी समझता हूँ की आगामी संघर्ष में मैं ही असामाजिक तत्वों का प्रमुख विरोधी रहूँगा और अधिकाँश ग्रामवासी केवल तमाशा ही देखेंगे. इसका सकारात्मक पक्ष यह होगा कि सार्वजनिक धन का दुरूपयोग नहीं हो सकेगा और गाँव में कुछ विकास कार्य भी होंगे. इन्हीं कारणों से मैं असहमत भी नहीं हो पा रहा हूँ. मेरे पक्षधरों को मुझसे कोई निराशा हो यह भी मैं नहीं चाहता हूँ.
इस चुनाव में विजित प्रत्याशी ने सर्वाधिक लगभग ३ लाख रुपये व्यय किये जिसके लिए वह ऋण के भार से दबा हुआ है. मेरे प्रत्याशी के लगभग १ लाख रुपये काम आये जो उसके परिवार की आय से ही थे. अब मेरे समर्थक दो अन्य प्रत्याशियों के भी २-२.५ लाख रुपये व्यय हुए. विजयी प्रत्याशी को ग्राम के विकास हेतु प्राप्त धन का अपव्यय करते हुए अपना ऋण चुकता करना है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन में से लगबग ६ लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करनी होगी. इसके अतिरिक्त वह कुछ धन भविष्य के लिए भी अर्जित करना चाहेगा. इस प्रकार वह आगामी ५ वर्षों में न्यूनतम १० लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करेगा. इसे रोकने का दायित्व ग्रामवासी मुझे देना चाहते हैं. सार्वजनिक हित में मैं इसे अस्वीकार भी नहीं कर पा रहा हूँ.
अतः संघर्ष अवश्यम्भावी है जिसका प्रथम चरण ग्राम पंचायत के शेष सात सदस्यों का चुनाव है जो नवम्बर माह में ही संपन्न होने की आशा है. जब तक ये चुनाव नहीं होते हैं तब तक प्रधान पद के लिए चयनित व्यक्ति को पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हो सकेगा.
उक्त धोखे के कारण मेरा मन बना कि आगे से मैं ऐसे धोखेबाज मतदाताओं पर निर्भर नहीं करूंगा क्योंकि इन पर मेरा विश्वास उठ गया है. अब मेरा मन बना था कि मैं गाँव की राजनीति में भाग न लेकर अपने लेखन और अन्य रचनात्मक कार्य पर ध्यान दूंगा. किन्तु चुनाव परिणामों से उत्पन्न संघर्ष की आशंका के कारण ग्रामवासियों की दृष्टि में मैं ही उनका सच्चा हितैषी हो सकता हूँ और वे मुझसे विपक्ष का नेतृत्व करने की मांग कर रहे हैं ताकि उनके हित सुरक्षित रह सकें. गाँव में मेरे परिवार का इतिहास ग्राम के विकास और ग्रामवासियों की सेवा हेतु संघर्ष करने का रहा है, और गाँव में मेरे दस वर्षों में मेरी जो छबि बनी है वह भी मेरे पारिवारिक इतिहास से भिन्न नहीं रही है. आने परिवार की परंपरा के कारण मैं ग्रामवासियों का आग्रह अस्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ. इससे सत्ता पक्ष में हलचल हुई है जिसमें अधिकांशतः असामाजिक तत्व हैं जिनके साथ सहयोग किये जाने की भी कोई संभावना नहीं है.. मैं यह भी समझता हूँ की आगामी संघर्ष में मैं ही असामाजिक तत्वों का प्रमुख विरोधी रहूँगा और अधिकाँश ग्रामवासी केवल तमाशा ही देखेंगे. इसका सकारात्मक पक्ष यह होगा कि सार्वजनिक धन का दुरूपयोग नहीं हो सकेगा और गाँव में कुछ विकास कार्य भी होंगे. इन्हीं कारणों से मैं असहमत भी नहीं हो पा रहा हूँ. मेरे पक्षधरों को मुझसे कोई निराशा हो यह भी मैं नहीं चाहता हूँ.
इस चुनाव में विजित प्रत्याशी ने सर्वाधिक लगभग ३ लाख रुपये व्यय किये जिसके लिए वह ऋण के भार से दबा हुआ है. मेरे प्रत्याशी के लगभग १ लाख रुपये काम आये जो उसके परिवार की आय से ही थे. अब मेरे समर्थक दो अन्य प्रत्याशियों के भी २-२.५ लाख रुपये व्यय हुए. विजयी प्रत्याशी को ग्राम के विकास हेतु प्राप्त धन का अपव्यय करते हुए अपना ऋण चुकता करना है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन में से लगबग ६ लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करनी होगी. इसके अतिरिक्त वह कुछ धन भविष्य के लिए भी अर्जित करना चाहेगा. इस प्रकार वह आगामी ५ वर्षों में न्यूनतम १० लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करेगा. इसे रोकने का दायित्व ग्रामवासी मुझे देना चाहते हैं. सार्वजनिक हित में मैं इसे अस्वीकार भी नहीं कर पा रहा हूँ.
अतः संघर्ष अवश्यम्भावी है जिसका प्रथम चरण ग्राम पंचायत के शेष सात सदस्यों का चुनाव है जो नवम्बर माह में ही संपन्न होने की आशा है. जब तक ये चुनाव नहीं होते हैं तब तक प्रधान पद के लिए चयनित व्यक्ति को पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हो सकेगा.
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
राजनीति : स्वतंत्रता के बाद
भारत स्वतंत्र हुआ क्योंकि अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषण के लिए तब यहाँ कुछ शेष नहीं बचा था, तथापि स्वतन्त्रता की मांग की गयी और उसे स्वीकार कर लिया गया. किन्तु स्वतन्त्रता की मांग करने वालों ने कभी यह नहीं सोचा कि वे स्वतंत्र होने के बाद देश कैसे चलाएंगे. मेरे विचार से भारत के इतिहास की यह भयंकरतम भूल थी जिसका मूल्य हम अब तक चुकाते रहे हैं और न जाने कब तक चुकाते रहेंगे. उक्त भूल का परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता के बाद से ही भारत पर षड्यंत्रों का शिकंजा कसा जाने लगा जिन्हें 'राजनीति' कहा गया. नाम मात्र के लिए जन्तात्न्त्र की स्थापना की गयी किन्तु शासन उन परिवारों को सौंप दिया गया जो स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश शासन के पक्षधर रहे थे. अतः स्वतन्त्रता के बाद भी शासन की रीति-नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. सत्ता के गलियारों में जो परिवर्तन हुआ वह यह था कि अनुशासित ब्रिटिश लोगों का स्थान अनुशासनहीन भारतीयों ने ले लिया.
कोई देश हो अथवा उसकी राजनीति, सुचारू अर्थ व्यवस्था के बिना अपने पैरों पर खडी नहीं रह सकती. यह सार्वभौमिक सत्य भारतीय राजनीति के आदि-पुरुष विष्णुगुप्त चाणक्य ने जान लिया था और अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र के माध्यम से उन्होंने भारत की अर्थ व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सुदृढ़ नींव रख दी थी. उन्होंने समाज का एक वर्ग, जो उस समय शासक वर्ग भी था, इसी कार्य में लगा दिया था. यह वर्ग आज भी अर्थ व्यवस्था में लगा हुआ है किन्तु इसके अहिंसक होने के कारण शासन में इसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है. इसी वर्ग की देन है कि भारत की राजनीति में भीषण उतार-चढ़ाव होने पर भी इसकी सकल अर्थ व्यवस्था सदैव सुदृढ़ रही है.
भारत में एक जाति ऐसी रही है जो सदैव सत्तासीन जातियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखती रही है, अधिकांशतः राजगुरु बनकर. इस कारण से यह जाति भारत पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन सदा बनाये रही है. अतः यह स्वभावतः सत्ताच्युत रहना पसंद नहीं करती. विगत २००० वर्षों से इस जाति ने भारतीय समाज को इस प्रकार विभाजित किया कि इसका वर्चस्व सदा बना रहे. समाज में अछूत, दलित, कमीन, आदि वर्ग इसी जाति की देन हैं. स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति में यह जाति अग्रणी रही और अपनी शोषण-परक रीति-नीतियों के कारण भारतीय राष्ट्र की संपदा पर अपना प्रभुत्व बढाती रही. आज भी यह जाति समाज की अग्रणी और धनाढ्य है जबकि अर्थ व्यवस्था चलाने में इसका कोई योगदान नहीं रहा है.
स्वतंत्र भारत के संविधान में दीर्घ काल से पद-दलित वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि ये शिक्षित और सभ्य होकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकें. किन्तु शासकों ने इन्हें न शिक्षा लेने दी और न ही किसी अन्य प्रकार से सुयोग्य होने दिया. इनके कल्याण और विकास के नाम पर इन्हें जो भिक्षा दी गयी, उसके माध्यम से इन्हें पारंपरिक भिखारी बना दिया जो विगत ६० वर्षों से शासकों द्वारा दी जाने वाली भीख पर पल रहे हैं और भारत की अर्थ व्यवस्था पर एक भारी बोझ हैं. इन्हीं में से कुछ लोग इनकी वोटों के ठेकेदार बनते रहे हैं और सत्ताधारी लोगों के साथ रंगरेलियां मनाते रहे हैं. शासकों और इनके ठेकेदारों का हित इसी में है कि वे इन दलितों को दलित ही बनाए रखकर इनकी वोटों के माध्यम से सत्तालाभ प्राप्त करते रहें. इसके लिए इन्हें निरंतर भीख दिए जाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी है. विगत ६० वर्षों में आरक्षण व्यवस्था का विस्तार इसी भीख दिए जाने की व्यवस्था का अंग है.
स्वतन्त्रता के बाद अनुशासनहीन भारतीयों के शासन में स्वतन्त्रता ने उद्दंडता का रूप ले लिया, जनतंत्र पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी, जिससे भारतीय राजनीति में हिंसा - मनोवैज्ञानिक, भौतिक, आर्थिक, आदि - का स्थान सर्वोपरि हो गया. जनतंत्र के नाम पर जो चुनाव होते हैं वे भी शोषण और हिंसा के साए में होते हैं जिनमें वोटों को बलपूर्वक प्राप्त किया जाता है अथवा धन प्रदान कर खरीदा जाता है. यह प्रक्रिया निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत से लेकर शीर्षस्थ स्तर भारतीय संसद तक चल रही है जिसमें कोई भी मानवीय तत्व विद्यमान नहीं है.
कोई देश हो अथवा उसकी राजनीति, सुचारू अर्थ व्यवस्था के बिना अपने पैरों पर खडी नहीं रह सकती. यह सार्वभौमिक सत्य भारतीय राजनीति के आदि-पुरुष विष्णुगुप्त चाणक्य ने जान लिया था और अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र के माध्यम से उन्होंने भारत की अर्थ व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सुदृढ़ नींव रख दी थी. उन्होंने समाज का एक वर्ग, जो उस समय शासक वर्ग भी था, इसी कार्य में लगा दिया था. यह वर्ग आज भी अर्थ व्यवस्था में लगा हुआ है किन्तु इसके अहिंसक होने के कारण शासन में इसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है. इसी वर्ग की देन है कि भारत की राजनीति में भीषण उतार-चढ़ाव होने पर भी इसकी सकल अर्थ व्यवस्था सदैव सुदृढ़ रही है.
भारत में एक जाति ऐसी रही है जो सदैव सत्तासीन जातियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखती रही है, अधिकांशतः राजगुरु बनकर. इस कारण से यह जाति भारत पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन सदा बनाये रही है. अतः यह स्वभावतः सत्ताच्युत रहना पसंद नहीं करती. विगत २००० वर्षों से इस जाति ने भारतीय समाज को इस प्रकार विभाजित किया कि इसका वर्चस्व सदा बना रहे. समाज में अछूत, दलित, कमीन, आदि वर्ग इसी जाति की देन हैं. स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति में यह जाति अग्रणी रही और अपनी शोषण-परक रीति-नीतियों के कारण भारतीय राष्ट्र की संपदा पर अपना प्रभुत्व बढाती रही. आज भी यह जाति समाज की अग्रणी और धनाढ्य है जबकि अर्थ व्यवस्था चलाने में इसका कोई योगदान नहीं रहा है.
स्वतंत्र भारत के संविधान में दीर्घ काल से पद-दलित वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि ये शिक्षित और सभ्य होकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकें. किन्तु शासकों ने इन्हें न शिक्षा लेने दी और न ही किसी अन्य प्रकार से सुयोग्य होने दिया. इनके कल्याण और विकास के नाम पर इन्हें जो भिक्षा दी गयी, उसके माध्यम से इन्हें पारंपरिक भिखारी बना दिया जो विगत ६० वर्षों से शासकों द्वारा दी जाने वाली भीख पर पल रहे हैं और भारत की अर्थ व्यवस्था पर एक भारी बोझ हैं. इन्हीं में से कुछ लोग इनकी वोटों के ठेकेदार बनते रहे हैं और सत्ताधारी लोगों के साथ रंगरेलियां मनाते रहे हैं. शासकों और इनके ठेकेदारों का हित इसी में है कि वे इन दलितों को दलित ही बनाए रखकर इनकी वोटों के माध्यम से सत्तालाभ प्राप्त करते रहें. इसके लिए इन्हें निरंतर भीख दिए जाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी है. विगत ६० वर्षों में आरक्षण व्यवस्था का विस्तार इसी भीख दिए जाने की व्यवस्था का अंग है.
विगत २५०० वर्षों में भारत में अनेक विदेशी जाति बसती रही हैं जिनमें से अनेक जंगली जातियां थीं और जो स्वभावतः हिंसक थीं जिसके लिए जिन्हें सैनिक जातियां कहा जाता है. भारत में ये सैनिक जातियां युद्ध के लिए आयी थीं और इनका किसी मानवीय गुण से कोई परिचय नहीं था. मानवीय शासन के अधीन रहकर ये युद्ध करने में पारंगत सिद्ध होती थीं किन्तु स्वतंत्र रहकर ये अपने मूल हिंसक स्वभाव के कारण अपने जंगली व्यवहार पर उतर आती थीं. इनकी स्थिति आज भी ऐसी ही है और ये भारत की वर्तमान राजनीति में सक्रिय हैं और राजनीति में वही होता है जो ये जातियां चाहती हैं. .
स्वतन्त्रता के बाद अनुशासनहीन भारतीयों के शासन में स्वतन्त्रता ने उद्दंडता का रूप ले लिया, जनतंत्र पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी, जिससे भारतीय राजनीति में हिंसा - मनोवैज्ञानिक, भौतिक, आर्थिक, आदि - का स्थान सर्वोपरि हो गया. जनतंत्र के नाम पर जो चुनाव होते हैं वे भी शोषण और हिंसा के साए में होते हैं जिनमें वोटों को बलपूर्वक प्राप्त किया जाता है अथवा धन प्रदान कर खरीदा जाता है. यह प्रक्रिया निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत से लेकर शीर्षस्थ स्तर भारतीय संसद तक चल रही है जिसमें कोई भी मानवीय तत्व विद्यमान नहीं है.
रविवार, 31 अक्टूबर 2010
अपनी पहचान और परिभाषा
जन-साधारण सदैव भीड़ के अंग बने रहकर सुरक्षित अनुभव करते हैं जब कि विशिष्ट व्यक्ति वही सिद्ध हो पाते हैं जो भीड़ तथा एकांत में भी सामान्य व्यवहार बनाये रखते हैं. यहाँ भीड़ में रहने में यह भी सम्मिलित है कि वे अपने व्यवहार तथा स्वरुप को भी अधिकाँश लोगों की तरह का बनाये रखते हैं, इन के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने से भी वे कतराते हैं जब कि विशिष्ट व्यक्ति अपने रूप और व्यवहार से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने हेतु सदैव प्रयासरत रहते हैं. ऐसी पहचान बनाने के लिए साहस की आवश्यकता होती है जो सभी में नहीं होता. इस प्रकार की पहचान ही व्यक्ति की सामाजिक परिभाषा होती है.
जैसा कि ऊपर कहा गया है व्यक्ति की सामाजिक परिभाषा के दो पहलू होते हैं - स्वरुप और व्यवहार. इन दोनों के संयुक्त योगदान को ही व्यक्तित्व कहा जाता है. स्वरुप की दृष्टि से व्यक्ति की पहचान अनेक प्रकार से बनती है - उसके प्राकृत अंगों की विशिष्टता से, यथा उसके बैठने, खड़े होने अथवा चलने की शैली से, उसके बात करने की शैली से, उसकी विशिष्ट आदतों से, उसकी केश-सज्जा से, तथा उसकी वेशभूषा से. चूंकि व्यक्ति के व्यवहार से पूर्व उसका स्वरुप उसका प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए व्यक्ति का प्राथमिक प्रभाव उसके स्वरुप से संचालित होता है. इसमें उसके शारीरिक सौन्दर्य का कोई महत्व न होकर उसकी विशिष्ट शैली का महत्व होता है, यद्यपि शारीरिक सौन्दर्य का भी अपना महत्व होता है.
विशिष्टता के लिए लिए व्यक्ति का स्वरुप ऐसा होना चाहिए कि अन्य लोगों में उसे देखते ही उसके बारे में जिज्ञासा जागृत हो यही जिज्ञासा ही उसे समाज में प्राथमिक स्तर पर विशिष्ट व्यक्ति बनाती है किन्तु उसके व्यवहार से इस विशिष्टता की पुष्टि होनी अनिवार्य होती है, अन्यथा उसके स्वरुप की विशिष्टता से स्थापित विशिष्टता खोखली रह जाती है. इसलिए व्यक्ति का विशिष्ट व्यवहार ही उसकी विशिष्टता को स्थायित्व प्रदान करता है. विशिष्ट व्यवहार का स्रोत व्यक्ति का चरित्र होता है जिससे उसका मंतव्य निर्धारित होता है, और मंतव्य ही उसके प्रयासों का जनक होता है. अतः मूल रूप से सुचरित्र व्यक्ति ही समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बना पाते हैं.
स्वरुप और व्यवहार की दृष्टि से विशिष्ट व्यक्ति भी तीन प्रकार के होते हैं - विकृत, असामान्य और असाधारण. यद्यपि शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति भी विकृत होते हैं किन्तु सामाजिक दृष्टि से मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति ही विकृत माने जाते हैं. ये समाज में स्वीकार्य नहीं होते. असामान्य व्यक्ति वे होते हैं अन्य लोगों से स्वरुप अथवा व्यवहार में भिन्न होते हैं किन्तु उनकी समाज को कोई देन नहीं होती, इसलिए समाज में इनका भी कोई विशेषत महत्व नहीं होता. समाज में विशिष्टता की स्थापना के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्ति का मानव समाज और सभ्यता के विकास में कुछ योगदान हो. ऐसे व्यक्ति समाज में असाधारण माने जाते हैं और समाज इन्हें विशिष्ट मान्यता प्रदान करता है. इसमें व्यक्ति के स्वरुप का कोई विशेष महत्व न होकर उसके व्यवहार का ही महत्व होता है. किन्तु उसका स्वरुप उसके विशिष्ट व्यवहार के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है.
किसी भी व्यक्ति के विशिष्ट होने में उसके मंतव्य, प्रयास और परिणामों का सम्मिलित योगदान होता है. यद्यपि मंतव्य से प्रयास और प्रयास से परिणाम उगते हैं तथापि परिस्थितियां मंतव्य, प्रयासों और परिणामों में अंतराल ला देती हैं. व्यक्ति अपने स्तर पर अपना मंतव्य ही निर्धारित कर सकता है जिसके अनुरूप प्रयास करना भी अंशतः उसकी पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है. समाज प्रायः व्यक्ति के मंतव्य को महत्व न देकर उसके द्वारा उत्पादित परिणाम ही देख पाता है. इसके कारण अनेक असाधारण व्यक्ति भी समाज में अपनी विशिष्ट पहचान नहीं बना पाते यद्यपि उनके मंतव्य विशिष्ट होते हैं.
जैसा कि ऊपर कहा गया है व्यक्ति की सामाजिक परिभाषा के दो पहलू होते हैं - स्वरुप और व्यवहार. इन दोनों के संयुक्त योगदान को ही व्यक्तित्व कहा जाता है. स्वरुप की दृष्टि से व्यक्ति की पहचान अनेक प्रकार से बनती है - उसके प्राकृत अंगों की विशिष्टता से, यथा उसके बैठने, खड़े होने अथवा चलने की शैली से, उसके बात करने की शैली से, उसकी विशिष्ट आदतों से, उसकी केश-सज्जा से, तथा उसकी वेशभूषा से. चूंकि व्यक्ति के व्यवहार से पूर्व उसका स्वरुप उसका प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए व्यक्ति का प्राथमिक प्रभाव उसके स्वरुप से संचालित होता है. इसमें उसके शारीरिक सौन्दर्य का कोई महत्व न होकर उसकी विशिष्ट शैली का महत्व होता है, यद्यपि शारीरिक सौन्दर्य का भी अपना महत्व होता है.
विशिष्टता के लिए लिए व्यक्ति का स्वरुप ऐसा होना चाहिए कि अन्य लोगों में उसे देखते ही उसके बारे में जिज्ञासा जागृत हो यही जिज्ञासा ही उसे समाज में प्राथमिक स्तर पर विशिष्ट व्यक्ति बनाती है किन्तु उसके व्यवहार से इस विशिष्टता की पुष्टि होनी अनिवार्य होती है, अन्यथा उसके स्वरुप की विशिष्टता से स्थापित विशिष्टता खोखली रह जाती है. इसलिए व्यक्ति का विशिष्ट व्यवहार ही उसकी विशिष्टता को स्थायित्व प्रदान करता है. विशिष्ट व्यवहार का स्रोत व्यक्ति का चरित्र होता है जिससे उसका मंतव्य निर्धारित होता है, और मंतव्य ही उसके प्रयासों का जनक होता है. अतः मूल रूप से सुचरित्र व्यक्ति ही समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बना पाते हैं.
स्वरुप और व्यवहार की दृष्टि से विशिष्ट व्यक्ति भी तीन प्रकार के होते हैं - विकृत, असामान्य और असाधारण. यद्यपि शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति भी विकृत होते हैं किन्तु सामाजिक दृष्टि से मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति ही विकृत माने जाते हैं. ये समाज में स्वीकार्य नहीं होते. असामान्य व्यक्ति वे होते हैं अन्य लोगों से स्वरुप अथवा व्यवहार में भिन्न होते हैं किन्तु उनकी समाज को कोई देन नहीं होती, इसलिए समाज में इनका भी कोई विशेषत महत्व नहीं होता. समाज में विशिष्टता की स्थापना के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्ति का मानव समाज और सभ्यता के विकास में कुछ योगदान हो. ऐसे व्यक्ति समाज में असाधारण माने जाते हैं और समाज इन्हें विशिष्ट मान्यता प्रदान करता है. इसमें व्यक्ति के स्वरुप का कोई विशेष महत्व न होकर उसके व्यवहार का ही महत्व होता है. किन्तु उसका स्वरुप उसके विशिष्ट व्यवहार के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है.
किसी भी व्यक्ति के विशिष्ट होने में उसके मंतव्य, प्रयास और परिणामों का सम्मिलित योगदान होता है. यद्यपि मंतव्य से प्रयास और प्रयास से परिणाम उगते हैं तथापि परिस्थितियां मंतव्य, प्रयासों और परिणामों में अंतराल ला देती हैं. व्यक्ति अपने स्तर पर अपना मंतव्य ही निर्धारित कर सकता है जिसके अनुरूप प्रयास करना भी अंशतः उसकी पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है. समाज प्रायः व्यक्ति के मंतव्य को महत्व न देकर उसके द्वारा उत्पादित परिणाम ही देख पाता है. इसके कारण अनेक असाधारण व्यक्ति भी समाज में अपनी विशिष्ट पहचान नहीं बना पाते यद्यपि उनके मंतव्य विशिष्ट होते हैं.
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
जनतांत्रिक चुनावों में जनमत की कसौटियां
यद्यपि भारत में सरकार के चयन हेतु आयोजित जनतांत्रिक चुनावों में जनसाधारण द्वारा अपने मत प्रकट करने की परम्परा स्वस्थ कभी नहीं रही है, किन्तु अभी समापित उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में जनतंत्र की स्थिति बुरी तरह प्रदूषित है और यह बदतर होती जा रही है. पंचायत चुनावों द्वारा केवल ग्राम, विकास खंड और जनपद स्तर की पंचायतों के लिए जन प्रतिनिधियों को चुना जाता है जिनकी शासन में कोई विशेष भूमिका नहीं होती, मात्र कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह किया जाता है और जनहित हेतु आबंटित कुछ सार्वजनिक धन की बन्दर-बाँट की जाती है. तथापि इसके माध्यम से तुच्छ लाभों को प्राप्त करने के लिए जो भीषण संघर्ष होते हैं और उनमें भारतीय जनमानस की जो दयनीय स्थिति उजागर होती है उन्हें देखकर प्रत्येक सम्मानित भारतीय का सिर शर्म से झुक जाता है. उक्त चुनावों में जो पाया गया, आइये उसके कुछ पहलुओं पर दृष्टि डालें.
जातीयता
भारत का समाज सदैव जातियों में विभाजित रहा है किन्तु इस विभाजन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत की राजनीति पर होता है जिसमें चुनावों के लिए प्रत्याशियों के चयन से लेकर मतदान तक व्यक्ति की जाति को प्रमुख आधार बनाया जाता है तथा व्यक्ति की पद हेतु सुयोग्यता को ताक पर रख दिया जाता है. चूंकि मूर्ख और अशिक्षित व्यक्ति अधिक बच्चे जनते हैं इसलिए इस प्रकार की जातियां ही देश की बहुसंख्यक होती रही हैं और अपने प्रतिनिधि भी इसी प्रकार के चुनते रहे हैं. इसी कारण से अनेक आपराधिक प्रवृत्तियों वाली परम्परागत जातियां भी देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं.
आरक्षण
बुद्धिहीन और आपराधिक प्रवृत्तियों वाली जातियों द्वारा सत्ता प्राप्त करते रहने के कारण ही देश में राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर स्वयं को सत्तासीन करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो आरम्भ में सीमित थी और केवल १० वर्ष की अवधि के लिए पर्याप्त मानी गयी थी. किन्तु अब स्वतन्त्रता के ६० वर्ष होने पर भी इसे केवल सतत ही नहीं रखा गया इसका विस्तार भी किया जाता रहा है. वर्तमान में प्रत्येक राजनैतिक और प्रशासनिक पद के लिए दो-तिहाई स्थान आरक्षित कर दिए गए हैं जिनमें महिला आरक्षण भी सम्मिलित है.
राजनीति में आरक्षण करने की मूर्खता इससे भी स्पष्ट होती है कि देश की पिछड़ी और दलित जातियां बहुमत में हैं और वे जनतांत्रिक पद्यति से अपने बहुमत के कारण देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं और उन्हें किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है. इसी प्रकार महिलाओं की संख्या लगभग ५० प्रतिशत होने कारण वे भी अपने प्रतिनिधि छनने में सक्षम हैं और उन के लिए भी आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है.
बुद्धिहीन भावुकता
अभी हुए पंचायती चुनावों में एक जाने-माने अपराधी ने कानूनी फंदे से अपनी जान बचाने की गुहार देते हुए मतदाताओं के पैरों में सिर रख-रख कर उन्हें भावुकता का शिकार बनाया और उनके मत प्राप्त कर लिए. इस प्रकार एक अपराधी भी सत्ताधिकारी बन गया. जन साधारण को उस पर दया आयी जिसके कारण उसे अपने मत दे दिए किन्तु किसी ने भी उसे अपनी कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं दी जिससे उसे अपराध करने की आवश्यकता न हो. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे अपने मतों का महत्व नहीं जानते किन्तु अपनी व्यक्तिगत संपदाओं का महत्व जानते हैं. इससे सिद्ध यही होता है कि भारतीय जनमानस अभी भी जनतंत्र हेतु वांछित सुयोग्यता प्राप्त नहीं कर पाया है.
इसी प्रकार की बुद्धिहीन भावुकता के कारण ही स्वतन्त्रता के बाद से देश की राजनैतिक सत्ता केवल एक परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.
शराबखोरी
चुनावों में मत पाने के लिए जिस वस्तु का सर्वाधिक उपयोग होता है वह शराब है जिसका प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क वितरण किया जाता है. यह मात्र एक दूषित परम्परा है जिससे मत प्राप्त नहीं होते केवल कुछ दुश्चरित्र लोगों को खुश कर प्रत्याशी के पक्ष में वातावरण बनाया जाता है. इस प्रकार के शराबी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं जिन्हें खुश रखना प्रत्येक प्रत्याशी के लिए आवश्यक होता है. केवल शराब के वितरण पर ही प्रत्येक औसत ग्राम में २० लाख रुपये व्यय कर दिया जाता है.
जातीयता
भारत का समाज सदैव जातियों में विभाजित रहा है किन्तु इस विभाजन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत की राजनीति पर होता है जिसमें चुनावों के लिए प्रत्याशियों के चयन से लेकर मतदान तक व्यक्ति की जाति को प्रमुख आधार बनाया जाता है तथा व्यक्ति की पद हेतु सुयोग्यता को ताक पर रख दिया जाता है. चूंकि मूर्ख और अशिक्षित व्यक्ति अधिक बच्चे जनते हैं इसलिए इस प्रकार की जातियां ही देश की बहुसंख्यक होती रही हैं और अपने प्रतिनिधि भी इसी प्रकार के चुनते रहे हैं. इसी कारण से अनेक आपराधिक प्रवृत्तियों वाली परम्परागत जातियां भी देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं.
आरक्षण
बुद्धिहीन और आपराधिक प्रवृत्तियों वाली जातियों द्वारा सत्ता प्राप्त करते रहने के कारण ही देश में राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर स्वयं को सत्तासीन करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो आरम्भ में सीमित थी और केवल १० वर्ष की अवधि के लिए पर्याप्त मानी गयी थी. किन्तु अब स्वतन्त्रता के ६० वर्ष होने पर भी इसे केवल सतत ही नहीं रखा गया इसका विस्तार भी किया जाता रहा है. वर्तमान में प्रत्येक राजनैतिक और प्रशासनिक पद के लिए दो-तिहाई स्थान आरक्षित कर दिए गए हैं जिनमें महिला आरक्षण भी सम्मिलित है.
राजनीति में आरक्षण करने की मूर्खता इससे भी स्पष्ट होती है कि देश की पिछड़ी और दलित जातियां बहुमत में हैं और वे जनतांत्रिक पद्यति से अपने बहुमत के कारण देश की राजनैतिक सत्ता हथियाती रही हैं और उन्हें किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है. इसी प्रकार महिलाओं की संख्या लगभग ५० प्रतिशत होने कारण वे भी अपने प्रतिनिधि छनने में सक्षम हैं और उन के लिए भी आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है.
बुद्धिहीन भावुकता
अभी हुए पंचायती चुनावों में एक जाने-माने अपराधी ने कानूनी फंदे से अपनी जान बचाने की गुहार देते हुए मतदाताओं के पैरों में सिर रख-रख कर उन्हें भावुकता का शिकार बनाया और उनके मत प्राप्त कर लिए. इस प्रकार एक अपराधी भी सत्ताधिकारी बन गया. जन साधारण को उस पर दया आयी जिसके कारण उसे अपने मत दे दिए किन्तु किसी ने भी उसे अपनी कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं दी जिससे उसे अपराध करने की आवश्यकता न हो. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे अपने मतों का महत्व नहीं जानते किन्तु अपनी व्यक्तिगत संपदाओं का महत्व जानते हैं. इससे सिद्ध यही होता है कि भारतीय जनमानस अभी भी जनतंत्र हेतु वांछित सुयोग्यता प्राप्त नहीं कर पाया है.
इसी प्रकार की बुद्धिहीन भावुकता के कारण ही स्वतन्त्रता के बाद से देश की राजनैतिक सत्ता केवल एक परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.
शराबखोरी
चुनावों में मत पाने के लिए जिस वस्तु का सर्वाधिक उपयोग होता है वह शराब है जिसका प्रत्याशियों द्वारा निःशुल्क वितरण किया जाता है. यह मात्र एक दूषित परम्परा है जिससे मत प्राप्त नहीं होते केवल कुछ दुश्चरित्र लोगों को खुश कर प्रत्याशी के पक्ष में वातावरण बनाया जाता है. इस प्रकार के शराबी समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं जिन्हें खुश रखना प्रत्येक प्रत्याशी के लिए आवश्यक होता है. केवल शराब के वितरण पर ही प्रत्येक औसत ग्राम में २० लाख रुपये व्यय कर दिया जाता है.
धन का लालच
इस चुनाव से सिद्ध हो गया है कि अब मतदाताओं को खुश करने के लिए केवल शराब पिलाना पर्याप्त नहीं रह गया है, उन्हें नकद धन भी दिया जाने लगा है. मेरे गाँव में ही ग्राम प्रधान पद के दो प्रत्याशियों ने डेढ़-डेढ़ लाख रुपये वितरित किये जिनमें से एक ने विजय पायी. इन चुनावों में जनपद पंचायत के प्रत्येक प्रत्याशी ने अपने प्रचार और मतदाताओं को खुश करने के लिए २० से ५० लाख रुपये तक व्यय किये जिसमें से अधिकाँश शराब के वितरण पर व्यय हुआ.
बाहरी प्रभाव
मूल रूप से गाँव के निवासी शिक्षित और साधन संपन्न होकर दूर शहरों में जा बसते हैं जहां उनके स्थायी घर, राशन कार्ड, मताधिकार आदि सभी कुछ होते हैं तथापि वे अपने गाँवों में भी अपने घर, राशन कार्ड तथा मताधिकार बनाए रखते हैं. इस प्रकार ये देश के दोहरे नागरिक होते हैं और दोनों स्थानों से सुविधाएं प्राप्त करते रहते हैं. इनकी तुलना में ग्रामवासी प्रायः निर्धन होते हैं इसलिए उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ मानते हुए चुनावों में उनके मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं. इस प्रकार ग्रामों के ये अवैध नागरिक गाँवों पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं और पंचायत चुनावों को अपने हित में प्रभावित करते हैं.
मेरे ग्राम में भी इस प्रकार के लगभग ४०० अवैध मतदाता हैं जो गाँव के लगभग १६०० वैध मतदाताओं को मूर्ख समझते और बनाते रहे हैं. उक्त पंचायत चुनावों से पूर्व मैंने उत्तर प्रदेश के चुनाव आयुक्त को लिखित निवेदन भेजा था कि ऐसे मतदाताओं के नाम गाँव की मतदाता सूची से हटाने की व्यवस्था की जाए किन्तु इस पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी.
उक्त कारणों से कहा जा सकता है कि भारत में अभी तक कोई जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित नहीं हो पायी है और इस नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब धोखाधड़ी है. इसमें बुद्धिमानी अथवा सुयोग्यता का कोई महत्व नहीं है.
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भावुकता,
शराबखोरी
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