अपनी जिस आय पर कोई व्यक्ति समुचित आयकर का भुगतान नहीं करता है, उतना धन व्यक्ति का कालाधन कहलाता है. अतः कालाधन वैध तथा अवैध दोनों प्रकार के आय स्रोतों से प्राप्त किया जा सकता है. चूंकि आय के अधिकाँश वैध स्रोत राज्य को ज्ञात होते हैं, उन पर प्रायः आयकर ले लिया जाता है. इस कारण कालेधन के मुख्य स्रोत अवैध आय के स्रोत होते हैं. स्वतन्त्रता के समय केवल व्यवसायियों के पास कालाधन था जिसके अधिकाँश स्रोत वैध व्यवसाय से आय थे किन्तु उन पर आय कर न दिए जाने के कारण यह कालेधन की संज्ञा पाता था. इसलिए तत्कालीन काला धन उतना काला नहीं था जितना कि देश में आज का काला धन है क्योंकि आज का काला धन अवैध आय स्रोतों से प्राप्त होता है. व्यवसायियों के पास उपलब्ध काला धन उनके व्यवसाय में लगा रहता है इसलिए उसका उत्पादक उपयोग होता है, जबकि अवैध आय स्रोतों से प्राप्त काला धन बहुधा किसी उत्पादक उपयोग में नहीं लगाया जाकर किसी अन्य काले धंधे में लगाया जाता है. अतः आज का काला धन देश की राजनीति, सामाजिक व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध होता है.
स्वतन्त्रता के लगभग २० वर्षों तक राजनेता राजनैतिक दलों के उपयोग के लिए व्यवसायियों के काले धन में से सीधे धन प्राप्त करते थे, प्रशासकों को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता था और अधिकाँश राजनेता भी इसमें व्यक्तिगत भागीदारी नहीं रखते थे. अतः यह काला धन केवल राजनैतिक दलों का होता था. इस कारण से राजनेता राज्यकर्मियों पर अपना नियंत्रण बनाये रखते थे जिससे उनका भृष्ट होना दुष्कर था. व्यवसायियों के पास काले धन का लाभ कुछ राज्यकर्मियों ने भी उठाया जिससे वे भी उसके हिस्सेदार बनने लगे और कालांतर में इसके अधिकाँश भाग के स्वामी हो गए. राज्यकर्मी इस काले धन का उपयोग अपने वैभव भोगों के लिए किया करते थे. उन पर राजनेताओं के नियंत्रण का भयबना रहता था.
इंदिरा गाँधी के शासन काल में राजनेताओं ने प्रशासकों को जनता से काला धन कमाने और उन्हें देने के लिए विवश करना आरम्भ कर दिया जिससे राजनेता और राज्यकर्मी जनता से लूटे गए कालेधन के परस्पर भागीदार बन गए, और कर्मी नेताओं के नियंत्रण से मुक्त हो गए. इस मुक्ति और नेताओं द्वारा काला धन कमाने के प्रोत्साहन से राज्यकर्मी भृष्टतर होते गए और वे निर्विघ्न जनता का शोषण करने लगे जो आज तक चल रहा है. इस प्रकार देश के अधिकाँश काले धन के स्वामी राजनेता और राज्यकर्मी बन गए, तथापि व्यवसायी काला धन कमाने के लिए बदनाम बने रहे. आज के व्यवसायी जो भी काला धन कमाते हैं उसका अधिकाँश भाग राज्यकर्मियों के माध्यम से राजनेताओं के पास पहुँच जाता है.
देश में काले धन के अर्थ-व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए अनेक वैधानिक प्रावधान किये गए हैं जो केवल व्यवसायियों पर लागू किये जाते हैं, और काले धन के वास्तविक स्वामी - राजनेता और राज्यकर्मी, इन वैधानिक प्रावधानों से मुक्त ही बने रहते हैं. वस्तुतः ये प्रावधान राजनेताओं तथा राज्यकर्मियों द्वारा ही इस चतुराई से बनाये जाते हैं वे स्वयं इनसे दुष्प्रभावित न हों.
यद्यपि कालेधन का आकलन किसी भी प्रकार से संभव नहीं है, तथापि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार भात में कालेधन का परिमाण १,०००,००० मिलियन रुपये है. आज भी व्यवसायियों का काला धन उनके उद्योग धंधों में लगा रहता है जिससे उसका उत्पादक उपयोग हो रहा है. किन्तु राजनेताओं और राज्यकर्मियों के काले धन का बड़ा भाग विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है. अतः इसका लाभ देश को न होकर विदेशों को हो रहा है. राजनेता इसका उपयोग राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए और राज्यकर्मी इसका उपयोग आर्थिक सत्ता हथियाने के लिए कर रहे हैं.
शुक्रवार, 25 जून 2010
मंगलवार, 22 जून 2010
अवचेतन, चेतन और अधिचेतन मन
प्रत्येक जीव के मन का सम्बन्ध सीधे उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग से होता है. यह सम्बन्ध शरीर और मस्तिष्क के सम्बन्ध से भिन्न है क्योंकि मन और मस्तिष्क एक दूसरे से भिन्न होते हैं. मन शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और चिंतन में असमर्थ होता है जबकि मस्तिष्क मनुष्य की स्मृति एवं चिंतन सामर्थ्यों का समन्वय होता है. इस कारण से व्यक्ति जो भी दोष करता है, वह अपने मन के अधीन होकर ही करता है.
मन तीन स्तरों पर कार्य करता है - अवचेतन, चेतन और अधिचेतन. अवचेतन मन शरीर की अनिवार्य क्रिया-प्रतिक्रियाओं का सञ्चालन एवं नियमन करता है जिसके लिए उसे मस्तिष्क की कोई आवश्यकता नहीं होती. इसी कारण से इस स्तर पर मन तीव्रतम गति पर कार्य करता है, जिनके लिए यह मूल रूप से प्रोग्रामित होता है. तथापि इन प्रोग्रामों में संशोधन किये जा सकते हैं, मन के चेतन स्तर द्वारा. शरीर की आतंरिक क्रियान के अतिरिक्त बाह्य रूप में व्यक्ति की अंतर्चेतानाएं (इंस्टिंक्ट), आदतें, आदि मन के इसी स्तर से संचालित होती हैं.
चेतन मन व्यक्ति के बाह्य जगत से सम्बन्ध रखता है और उसकी स्मृति और चिंतन सामर्थ (बुद्धि) का उपयोग करते हुए उसके जागतिक व्यवहार का संचालन करता है. चूंकि इस व्यवहार में मन और बुद्धि का समन्वय होता है, इसलिए इसके सञ्चालन में विलम्ब होता है. यदा-कदा मनुष्य इस समन्वय के विना ही अपनी आदत के अनुसार अपने अवचेतन मन के आदेश पर तुरंत जागतिक व्यवहार भी कर बैठता है जो बुद्धि के अभाव के कारण संतुलित नहीं हो पाता.
व्यक्ति के अवचेतन और चेतन मन ही उसके यथार्थ होते हैं, उसके अधिचेतन मन का उसके यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु उसका व्यवहार उसकी किसी कल्पना पर आधारित होता है. यह कल्पना कभी उसके अवचेतन मन को आच्छादित करती है तो कभी उसके चेतन मन को. इसके अधीन व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है. प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति स्वयं को अपने यथार्थ के अतिरिक्त कुछ अन्य समझने लगता है और उसी प्रकार व्यवहार करने लगता है. स्वयं को दिव्य शक्तियों से संपन्न माँ लेना, भूत-प्रेतों के प्रभाव को स्वीकार कर लेना, किसी अन्य व्यक्ति के वशीभूत हो जाना, आदि के अंतर्गत व्यवहार व्यक्ति के अधिचेतन मन द्वारा ही संचालित होते हैं जो उसके यथार्थ को आच्छादित रखता है. इसी कारण से ऐसे प्रभाव सीमित समय के लिए ही होते हैं. व्यक्ति का यथार्थ प्रकट होते ही उसकी कल्पना तिरोहित हो जाती है. अध्यात्मवाद का प्रचार-प्रसार भी अदिचेतन मन के माध्यम से किया जाता है, जो वस्तुतः सभी यथार्थ से परे एवं पूर्णतः काल्पनिक होता है. इसका मनुष्य की बुद्धि से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता.
मन तीन स्तरों पर कार्य करता है - अवचेतन, चेतन और अधिचेतन. अवचेतन मन शरीर की अनिवार्य क्रिया-प्रतिक्रियाओं का सञ्चालन एवं नियमन करता है जिसके लिए उसे मस्तिष्क की कोई आवश्यकता नहीं होती. इसी कारण से इस स्तर पर मन तीव्रतम गति पर कार्य करता है, जिनके लिए यह मूल रूप से प्रोग्रामित होता है. तथापि इन प्रोग्रामों में संशोधन किये जा सकते हैं, मन के चेतन स्तर द्वारा. शरीर की आतंरिक क्रियान के अतिरिक्त बाह्य रूप में व्यक्ति की अंतर्चेतानाएं (इंस्टिंक्ट), आदतें, आदि मन के इसी स्तर से संचालित होती हैं.
चेतन मन व्यक्ति के बाह्य जगत से सम्बन्ध रखता है और उसकी स्मृति और चिंतन सामर्थ (बुद्धि) का उपयोग करते हुए उसके जागतिक व्यवहार का संचालन करता है. चूंकि इस व्यवहार में मन और बुद्धि का समन्वय होता है, इसलिए इसके सञ्चालन में विलम्ब होता है. यदा-कदा मनुष्य इस समन्वय के विना ही अपनी आदत के अनुसार अपने अवचेतन मन के आदेश पर तुरंत जागतिक व्यवहार भी कर बैठता है जो बुद्धि के अभाव के कारण संतुलित नहीं हो पाता.
व्यक्ति के अवचेतन और चेतन मन ही उसके यथार्थ होते हैं, उसके अधिचेतन मन का उसके यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु उसका व्यवहार उसकी किसी कल्पना पर आधारित होता है. यह कल्पना कभी उसके अवचेतन मन को आच्छादित करती है तो कभी उसके चेतन मन को. इसके अधीन व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है. प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति स्वयं को अपने यथार्थ के अतिरिक्त कुछ अन्य समझने लगता है और उसी प्रकार व्यवहार करने लगता है. स्वयं को दिव्य शक्तियों से संपन्न माँ लेना, भूत-प्रेतों के प्रभाव को स्वीकार कर लेना, किसी अन्य व्यक्ति के वशीभूत हो जाना, आदि के अंतर्गत व्यवहार व्यक्ति के अधिचेतन मन द्वारा ही संचालित होते हैं जो उसके यथार्थ को आच्छादित रखता है. इसी कारण से ऐसे प्रभाव सीमित समय के लिए ही होते हैं. व्यक्ति का यथार्थ प्रकट होते ही उसकी कल्पना तिरोहित हो जाती है. अध्यात्मवाद का प्रचार-प्रसार भी अदिचेतन मन के माध्यम से किया जाता है, जो वस्तुतः सभी यथार्थ से परे एवं पूर्णतः काल्पनिक होता है. इसका मनुष्य की बुद्धि से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता.
सोमवार, 21 जून 2010
आखिर क्या चाहता है जन-साधारण ?
गाँव में रहकर जो मैं कर रहा हूँ, और बदले में जो मेरे साथ हो रहा है - यह सब आपके समक्ष है. जो कर रहा हूँ वह अपने लिए नहीं, गाँव के जन-साधारण के लिए और उसी के आगृह पर कर रहा हूँ, और उसी के लिए अग्रणी समाज द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा हूँ. यह सब जानते हैं - जन-साधारण भी. किन्तु कोई भी मेरे साथ कंधे से कन्धा मिलकर खड़े रहने को तैयार नहीं है, जैसे कि इस सबसे उनका कोई वास्ता ही नहीं.
इस सबसे दुखी होकर जब पीछे हटने लगता हूँ तो यही जन-साधारण अपनी रक्षा और विकास की दुहाईयाँ देकर मुझे आगे कर देते हैं, क्योंकि इन्हें आशा है कि मैं ही इनके कष्टों का निवारण कर सकता हूँ और गाँव को पूरी निष्ठां और ईमानदारी के साथ विकसित कर सकता हूँ. इसलिए ये लोग मुझे ढाल तो बनाना चाहते हैं किन्तु उस ढाल के पीछे अपना सीना तान कर खड़े नहीं रखना चाहते. ये डरपोक हैं. अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का साहस इनमें नहीं है.
देश का जन-साधारण स्वतंत्र रहकर अपने दायित्व का निर्वाह करने से बचता है, जबकि स्वतन्त्रता और दायित्व तो साथ-साथ ही चलते हैं. जिससे निष्कर्ष यह निकलता है कि ये स्वतंत्र रहने योग्य नहीं हैं. राष्ट्र और समाज के प्रति अपना दायित्व न समझने के कारण भारतीय जन-साधारण स्वतन्त्रता प्राप्ति पर उद्दंड होने की बहुत अधिक संभावना रखता है. इस कारण से स्वतन्त्रता के भारतीय अनुभवों में देश में अनुशासन की अपेक्षा उद्दंडता का बहुत अधिक प्रसार हुआ है. इस उद्दंडता के संयमन हेतु देश में कठोर न्याय व्यवस्था की अतीव आवश्यकता है जिसका भी यहाँ नितात अभाव है. ऐसी स्थिति में में कठोर, अनुशासित व्यवस्थापक ही भारतीय समाज को सद्मार्ग पर चला सकता है. इसी धरना के साथ मैं गाँव स्तर पर व्यवस्था करने के लिए तैयार हुआ हूँ.
मेरी व्यवस्था की उग्रता और व्यग्रता देखकर जन-साधारण निश्चिन्त अनुभव करता है, किन्तु इस समाज पर शासनाभिलाषी मेरे विरुद्ध कार्य करने लगे हैं, जिनमें देश की वर्त्तमान राजनैतिक व्यवस्था भी सम्मिलित है. अब समस्या यह है कि पीछे हटता हूँ तो समाज पिसता है जिससे मुझे सहानुभूति है और जिसके लिए मैं एक नयी व्यवस्था देना चाहता हूँ. आगे बढ़ता हूँ तो वर्तमान शासन मेरे विरुद्ध खडा हो जाता है जिसे मेरी उपस्थिति से खतरा है. मुझे भी इसके विरुद्ध उठ खड़ा होना होगा, किन्तु जन-साधारण मेरे इस संघर्ष में मेरा साथ नहीं देता है. इसे मुझ पर तो भरोसा है किन्तु स्वयं पर नहीं है.
आज मेरा जो संकट है, वही स्थिति देश के प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक की है, शासन व्यवस्था के विरुद्ध कोई भी अकेले खड़े होने में सामर्थ नहीं है, किन्तु अपने समाज को निस्सहाय भी नहीं छोड़ सकता. इसलिए एकमात्र विकल्प यह है कि सभी प्रबुद्ध नागरिक एकजुट हों और परस्पर सहयोग करें जिससे कि वे अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य कर सकें. देश, समाज और स्वयं के हितों की रक्षा के लिए बदलाव तो लाना ही होगा. यही समय की मांग है, यही देशभक्ति है.
इस सबसे दुखी होकर जब पीछे हटने लगता हूँ तो यही जन-साधारण अपनी रक्षा और विकास की दुहाईयाँ देकर मुझे आगे कर देते हैं, क्योंकि इन्हें आशा है कि मैं ही इनके कष्टों का निवारण कर सकता हूँ और गाँव को पूरी निष्ठां और ईमानदारी के साथ विकसित कर सकता हूँ. इसलिए ये लोग मुझे ढाल तो बनाना चाहते हैं किन्तु उस ढाल के पीछे अपना सीना तान कर खड़े नहीं रखना चाहते. ये डरपोक हैं. अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का साहस इनमें नहीं है.
देश का जन-साधारण स्वतंत्र रहकर अपने दायित्व का निर्वाह करने से बचता है, जबकि स्वतन्त्रता और दायित्व तो साथ-साथ ही चलते हैं. जिससे निष्कर्ष यह निकलता है कि ये स्वतंत्र रहने योग्य नहीं हैं. राष्ट्र और समाज के प्रति अपना दायित्व न समझने के कारण भारतीय जन-साधारण स्वतन्त्रता प्राप्ति पर उद्दंड होने की बहुत अधिक संभावना रखता है. इस कारण से स्वतन्त्रता के भारतीय अनुभवों में देश में अनुशासन की अपेक्षा उद्दंडता का बहुत अधिक प्रसार हुआ है. इस उद्दंडता के संयमन हेतु देश में कठोर न्याय व्यवस्था की अतीव आवश्यकता है जिसका भी यहाँ नितात अभाव है. ऐसी स्थिति में में कठोर, अनुशासित व्यवस्थापक ही भारतीय समाज को सद्मार्ग पर चला सकता है. इसी धरना के साथ मैं गाँव स्तर पर व्यवस्था करने के लिए तैयार हुआ हूँ.
मेरी व्यवस्था की उग्रता और व्यग्रता देखकर जन-साधारण निश्चिन्त अनुभव करता है, किन्तु इस समाज पर शासनाभिलाषी मेरे विरुद्ध कार्य करने लगे हैं, जिनमें देश की वर्त्तमान राजनैतिक व्यवस्था भी सम्मिलित है. अब समस्या यह है कि पीछे हटता हूँ तो समाज पिसता है जिससे मुझे सहानुभूति है और जिसके लिए मैं एक नयी व्यवस्था देना चाहता हूँ. आगे बढ़ता हूँ तो वर्तमान शासन मेरे विरुद्ध खडा हो जाता है जिसे मेरी उपस्थिति से खतरा है. मुझे भी इसके विरुद्ध उठ खड़ा होना होगा, किन्तु जन-साधारण मेरे इस संघर्ष में मेरा साथ नहीं देता है. इसे मुझ पर तो भरोसा है किन्तु स्वयं पर नहीं है.
आज मेरा जो संकट है, वही स्थिति देश के प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक की है, शासन व्यवस्था के विरुद्ध कोई भी अकेले खड़े होने में सामर्थ नहीं है, किन्तु अपने समाज को निस्सहाय भी नहीं छोड़ सकता. इसलिए एकमात्र विकल्प यह है कि सभी प्रबुद्ध नागरिक एकजुट हों और परस्पर सहयोग करें जिससे कि वे अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य कर सकें. देश, समाज और स्वयं के हितों की रक्षा के लिए बदलाव तो लाना ही होगा. यही समय की मांग है, यही देशभक्ति है.
लेबल:
जन-साधारण,
प्रबुद्ध वर्ग,
शासनाभिलाषी
रविवार, 20 जून 2010
अधीनत्व, आस्था और अनुशासन
अधीनत्व, आस्था और अनुशासन जीवन को संयमित करने वाले तीन महत्वपूर्ण कारण पाए जाते हैं. किसी व्यक्ति में ये तीनों उपस्थित होते हैं तो कुछ में कोई दो, तथा कुछ अन्य में कोई एक विद्यमान होता हैं. तो क्या तीनों समान रूप से सद्गुण हैं - इसी पर विचार को समर्पित है यह आलेख.
अधीनता व्यक्ति की परतंत्रता के पर्याय के रूप में जानी जाती है जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार हेतु स्वतंत्र न होकर दूसरे के आदेश अथवा इच्छानुसार नियोजित होता है. यह अधीनता जीवन के सपूर्ण कार्य-कलापों के लिए अथवा जीवन के किसी सीमित पक्ष हेतु हो सकती है. यथा स्वतंत्र व्यक्ति भी अपनी आजीविका हेतु किसी के अधीनस्थ होकर कार्य कर सकता है जिसमें व्यक्त सीमित समय हेतु ही किसी अन्य व्यक्ति के अधीन होता है. तकनीकी स्तर पर अधीनता की स्थिति में व्यक्ति दूसरे द्वारा निर्धारित लक्ष्य के लिए कार्य करता है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह अपने विवेक का सीमित उपयोग ही कर पाता है. ऐसे व्यक्ति के लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति सर्वोपरि होती है अर्थात व्यक्ति का जीवन बहुलांश में लक्ष्य्परक होता है, उसे व्यक्तिपरक होने की स्वतन्त्रता नहीं होती. कोई भी व्यक्ति अधीनता किसी विवशता के कारण ही स्वीकार करता है. पराधीन व्यक्ति अपने कर्म के दायित्व से मुक्त होता है क्योंकि उसका कर्म स्वयं द्वारा निर्धारित नहीं होता.
व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति अथवा प्रतीक के प्रति समर्पण भाव व्यक्ति की उसमें आस्था कहलाती है. अतः आस्थावान व्यक्ति स्वयं को आस्थास्रोत के सापेक्ष तुच्छ होना स्वीकार करता है तथा अपना जीवन-व्यवहार उसी के आदेश अथवा इच्छानुसार नियमित करता है. इस प्रकार आस्था अधीनता का ही एक स्वरुप है जिसमें व्यक्ति किसी विवशता के बिना ही स्वेच्छा से इसे स्वीकार करता है. यह आस्था किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक व्यक्ति अथवा व्यक्ति के प्रति हो सकती है. आस्थावान व्यक्ति प्रायः अपने कर्म के प्रति दायित्व से भारित न होकर यह भार आस्थास्रोत पर डाल देता है और वह स्वयं को दायित्व से मुक्त अनुभव करता है.
इस प्रकार हम पाते हैं कि अधीनता और आस्था में कुछ साम्य है - व्यक्ति का स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति का. तथापि इन दोनों में जो महत्वपूर्ण अंतराल है वह है विवशता और स्वेच्छा का. अधीनता का कारण विवशता होती है किन्तु आस्था स्वेच्छा से स्वीकार की जाती है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्र व्यक्ति भी दायित्व से मुक्ति के लिए आस्था का आश्रय लेता है अथवा ले सकता है.
आस्था सद्गुण है अथवा दुर्गुण, इस पर विचार की आवश्यकता है. आस्था प्रायः सम्मान भाव से उगती है और इसका परिणाम स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति होता है अथवा हो सकता है. उदाहरण के लिए व्यक्ति अपने माता-पिता का सम्मान करता है और उनके प्रति आस्थावान होता है जिसके कारण उनकी आज्ञा का पालन करता है और ऐसे कर्मों के प्रति दायित्व-मुक्त होता है. इसके विपरीत आस्था दायित्व से मुक्ति के लिए स्वीकार की जा सकती है जिसका परिणाम आस्थास्रोत में सम्मान हो सकता है. यथा - व्यक्ति दुष्कर्म करने निकलता है किन्तु उसका भय उसे किसी इष्ट देवता में आस्था व्यक्त करने को विवश करता है जिससे कि वह स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्त अनुभव कर सकता है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि आस्था के दो उद्भव स्रोत हो सकते हैं - सम्मान अथवा दायित्व से मुक्ति. आस्था का कारण यदि स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति है तो इसे दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए, किन्तु यदि आस्था का कारण स्रोत के प्रति सम्मान भाव है तो आस्था सद्गुण सिद्ध होती है. वास्तविक व्यक्तियों में आस्था प्रायः सम्मान से ही उगती है इसलिए सद्गुण होने की अधिक संभावना रखती है. किन्तु किसी काल्पनिक व्यक्ति, शक्ति अथवा वस्तु में आस्था संदेहास्पद हो सकती है क्यों कि इसका कारण वास्तविक सम्मान न होकर दायित्व से मुक्ति हो सकती है. लोगों की ईश्वर अथवा उसके किसी प्रतीक के प्रति आस्था इसी प्रकार की होना संभव है. इस रूप में आस्था व्यक्ति की निर्बलता के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है, जिसे व्यक्ति का आडम्बर भी कहा जा सकता है. अतः आस्था संदेहास्पद हो सकती है.
अनुशासन व्यक्ति का निस्संदेह सद्गुण होता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति स्वयं के कर्मों पर स्वेच्छा से अंकुश लगाता है. इसका स्रोत व्यक्ति की बुद्धि होती है जिसके उपयोग से व्यक्ति अपने कर्म का निर्धारण स्वयं को श्रेष्ठ बनाने हेतु करता है. इस प्रकार अनुशासन आस्था के सापेक्ष उच्च स्थान रखता है. अनुशासन में सम्मान-जनित आस्था भी समाहित होती है जिसमें कोई कृत्रिमता अथवा विवशता भी नहीं होती. अतः अनुशासन ही महामानव का अनिवार्य लक्षण होता है.
अधीनता व्यक्ति की परतंत्रता के पर्याय के रूप में जानी जाती है जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार हेतु स्वतंत्र न होकर दूसरे के आदेश अथवा इच्छानुसार नियोजित होता है. यह अधीनता जीवन के सपूर्ण कार्य-कलापों के लिए अथवा जीवन के किसी सीमित पक्ष हेतु हो सकती है. यथा स्वतंत्र व्यक्ति भी अपनी आजीविका हेतु किसी के अधीनस्थ होकर कार्य कर सकता है जिसमें व्यक्त सीमित समय हेतु ही किसी अन्य व्यक्ति के अधीन होता है. तकनीकी स्तर पर अधीनता की स्थिति में व्यक्ति दूसरे द्वारा निर्धारित लक्ष्य के लिए कार्य करता है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह अपने विवेक का सीमित उपयोग ही कर पाता है. ऐसे व्यक्ति के लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति सर्वोपरि होती है अर्थात व्यक्ति का जीवन बहुलांश में लक्ष्य्परक होता है, उसे व्यक्तिपरक होने की स्वतन्त्रता नहीं होती. कोई भी व्यक्ति अधीनता किसी विवशता के कारण ही स्वीकार करता है. पराधीन व्यक्ति अपने कर्म के दायित्व से मुक्त होता है क्योंकि उसका कर्म स्वयं द्वारा निर्धारित नहीं होता.
व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति अथवा प्रतीक के प्रति समर्पण भाव व्यक्ति की उसमें आस्था कहलाती है. अतः आस्थावान व्यक्ति स्वयं को आस्थास्रोत के सापेक्ष तुच्छ होना स्वीकार करता है तथा अपना जीवन-व्यवहार उसी के आदेश अथवा इच्छानुसार नियमित करता है. इस प्रकार आस्था अधीनता का ही एक स्वरुप है जिसमें व्यक्ति किसी विवशता के बिना ही स्वेच्छा से इसे स्वीकार करता है. यह आस्था किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक व्यक्ति अथवा व्यक्ति के प्रति हो सकती है. आस्थावान व्यक्ति प्रायः अपने कर्म के प्रति दायित्व से भारित न होकर यह भार आस्थास्रोत पर डाल देता है और वह स्वयं को दायित्व से मुक्त अनुभव करता है.
इस प्रकार हम पाते हैं कि अधीनता और आस्था में कुछ साम्य है - व्यक्ति का स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति का. तथापि इन दोनों में जो महत्वपूर्ण अंतराल है वह है विवशता और स्वेच्छा का. अधीनता का कारण विवशता होती है किन्तु आस्था स्वेच्छा से स्वीकार की जाती है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्र व्यक्ति भी दायित्व से मुक्ति के लिए आस्था का आश्रय लेता है अथवा ले सकता है.
आस्था सद्गुण है अथवा दुर्गुण, इस पर विचार की आवश्यकता है. आस्था प्रायः सम्मान भाव से उगती है और इसका परिणाम स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति होता है अथवा हो सकता है. उदाहरण के लिए व्यक्ति अपने माता-पिता का सम्मान करता है और उनके प्रति आस्थावान होता है जिसके कारण उनकी आज्ञा का पालन करता है और ऐसे कर्मों के प्रति दायित्व-मुक्त होता है. इसके विपरीत आस्था दायित्व से मुक्ति के लिए स्वीकार की जा सकती है जिसका परिणाम आस्थास्रोत में सम्मान हो सकता है. यथा - व्यक्ति दुष्कर्म करने निकलता है किन्तु उसका भय उसे किसी इष्ट देवता में आस्था व्यक्त करने को विवश करता है जिससे कि वह स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्त अनुभव कर सकता है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि आस्था के दो उद्भव स्रोत हो सकते हैं - सम्मान अथवा दायित्व से मुक्ति. आस्था का कारण यदि स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति है तो इसे दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए, किन्तु यदि आस्था का कारण स्रोत के प्रति सम्मान भाव है तो आस्था सद्गुण सिद्ध होती है. वास्तविक व्यक्तियों में आस्था प्रायः सम्मान से ही उगती है इसलिए सद्गुण होने की अधिक संभावना रखती है. किन्तु किसी काल्पनिक व्यक्ति, शक्ति अथवा वस्तु में आस्था संदेहास्पद हो सकती है क्यों कि इसका कारण वास्तविक सम्मान न होकर दायित्व से मुक्ति हो सकती है. लोगों की ईश्वर अथवा उसके किसी प्रतीक के प्रति आस्था इसी प्रकार की होना संभव है. इस रूप में आस्था व्यक्ति की निर्बलता के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है, जिसे व्यक्ति का आडम्बर भी कहा जा सकता है. अतः आस्था संदेहास्पद हो सकती है.
अनुशासन व्यक्ति का निस्संदेह सद्गुण होता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति स्वयं के कर्मों पर स्वेच्छा से अंकुश लगाता है. इसका स्रोत व्यक्ति की बुद्धि होती है जिसके उपयोग से व्यक्ति अपने कर्म का निर्धारण स्वयं को श्रेष्ठ बनाने हेतु करता है. इस प्रकार अनुशासन आस्था के सापेक्ष उच्च स्थान रखता है. अनुशासन में सम्मान-जनित आस्था भी समाहित होती है जिसमें कोई कृत्रिमता अथवा विवशता भी नहीं होती. अतः अनुशासन ही महामानव का अनिवार्य लक्षण होता है.
राजनैतिक लूट और बौद्धिक नैतिकता का संघर्ष
भारत की वर्तमान स्थिति ऐसी है जिसे राजनेताओं द्वारा जनता की लूट कहा जा सकता है, इसी लूट को भारत की वर्तमान 'राजनीति' कहा जा सकता है. ऐसी स्थिति में बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना हेतु इस राजनीति से बौद्धिक नैतिकता को कड़ा संघर्ष करना होगा. वस्तुतः यह संघर्ष छुट-पुट अवस्था में चारों ओर दिखाई भी देने लगा है, आवश्यकता बस इन संघर्षों के समन्वय की है, जिसमें अनेक कठिनाइयाँ हैं. इनके निराकरण के लिए निम्नांकित विचारणीय बिंदु हैं -
उद्येश्य और प्रक्रिया
भारत को वस्तुतः दूसरे स्वतन्त्रता संग्राम की आवश्यकता है ताकि देश की व्यवस्थाओं को सुधार जा सके. इस उद्येश्य पर सभी सहमत हैं किन्तु इसके लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाये इस पर कुछ मतभेद हो सकते हैं. इस बारे में मेरा सुविचारित मत यह है कि भारत की वर्तमान राजनैतिक स्थिति इतनी दूषित हो चुकी है कि इसमें छुट-पुट परिवर्तनों से कोई अपेक्षित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए हमें आमूल-चूल परिवर्तनों के लिए संघर्ष करना होगा. तथापि मेरी यह जिद न होकर मात्र आग्रह है. इस पर गहन विचार विमर्श की आवश्यकता है.
अपना संगठन
भारत में किसी प्रकार की पुनर्व्यवस्था लागू करने के लिए अथवा इस हेतु संघर्ष के लिए बौद्धिक वर्ग के एक समन्वित संगठन की आवश्यकता है, इस पर कोई मतभेद नहीं है. इसी पवित्र उद्येश्य हेतु अनेक बुद्धिवादियों ने संगठनों के निर्माण भी किये हुए हैं. किन्तु दुःख इस बात का है कि ऐसे अधिकाँश संगठन वर्तमान राजनैतिक दलों की भांति व्यक्तिगत जमींदारियों की तरह बनाए गए और संचालित किये जा रहे हैं, जिनमें अन्य व्यक्तियों को अपनत्व का बोध नहीं मिल पाता. होता यह है कि कुछ विचारक मिलते हैं और एक संगठन का नामकरण कर स्वयं के मध्य उसके पदों का वितरण कर लेते हैं. इसके बाद अन्य व्यक्तियों को अनुयायियों के रूप में भर्ती होने के लिए आमंत्रित किये जाते हैं. इस प्रक्रिया से संगठन को न तो जन-समर्थन प्राप्त हो पाता है और न ही उसका आगे विकास हो पाता है.
वस्तुतः होना यह चाहिए कि आरंभिक विचारक संगठन की रूपरेखा तो बनाएं किन्तु उसके पदों का वितरण न करें और मुक्त भाव से उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाएं, जिनकी संख्या पर्याप्त होने पर ही उनमें से जनतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा सीमित अवधि के लिए संगठन के पदाधिकारी चुनें. इस प्रकार के संगटन पर किसी व्यक्ति अथवा समूह का एकाधिकार नहीं होगा और सभी लोगों को उसमें रूचि बनी रहेगी.
संविधान की पुनर्रचना
प्रायः प्रत्येक भारतीय बुद्धिवादी देश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति पर चिंतित है, और सभी परिवर्तन चाहते हैं. किन्तु यह परिवर्तन कैसे हो इस पर गहन मतभेद हैं. इस दृष्टि से बुद्धिवादियों को अनेक वर्गों में रखा जा सकता है. एक वर्ग ऐसा है जो वर्तमान संविधान को सही मानता है किन्तु इसके कार्यान्वयन में दोष देखता है. दूसरा वर्ग वह है जो संविधान को ही दोषी मानता है जिसके कारण ही उसका सही कार्यान्वयन नहीं हो सका है. इस के समर्थन में तर्क यह है कि जो अपेक्षित परिणाम न दे सके, उसमें दोष है अतः उसे बदला जाना चाहिए. संविधान के दोषपूर्ण होने का एक संकेत यह भी है कि इसके विभिन्न प्रावधानों में बार बार संशोधन करने पड़े हैं. ऐसे अनेक संशोधन भी राजनैतिक विकृति के परिणाम हैं जिनसे कुछ लाभ होने के स्थान पर हानि ही हो रही है. उदाहरण के लिए एक नौसिखिया प्रधान मंत्री ने मताधिकार की न्यूनतम आयु २१ वर्ष से घटाकर १८ वर्ष कर दी, जबकि सभी मानते हैं कि १८ वर्ष का बालक राष्ट्रीय दायित्व वहन करने योग्य नहीं होता. यहाँ तक कि उसे अपनी वैवाहिक दायित्व के लिए भी अयोग्य मानते हुए उसके विवाह की न्यूनतम आयु २१ वर्ष रखी गयी है. राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह हेतु व्यक्ति में वैचारिक परिपक्वता की अनिवार्यता होती है जो २५ वर्ष आयु से पूर्व अपेक्षित नहीं है. इसी प्रकार देश में प्रचलित आरक्षण व्यवस्था पर गहन मतभेद हैं और इससे देश को हानि ही हो रही है. इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत का वर्तमान संविधान में इस प्रकार की अनेक विसंगतियां हैं.
संवैधानिक विसंगतियों का एक विशेष कारण यह है कि स्वतन्त्रता संग्राम के समय यह कभी विचार नहीं किया गया कि हम स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश की व्यवस्था कैसे करेंगे. इस कारण से स्वतन्त्रता प्राप्ति पर कुछ इधर-उधर से और अधिकांशतः गुलाम देशों के लिए प्रचलित ब्रिटिश संविधान की नक़ल कर डाली गयी जिसमें बार-बार राजनैतिक स्वार्थों के लिए संशोधन किये गए. अतः भारत की कुशल व्यवस्था के लिए एक नवीन संविधान की आवश्यकता है. इस नए संविधान के रूप रेखा के रूप में इस संलेख में बौद्धिक जनतंत्र हेतु सुझाये गए विविध प्रावधानों पर विचार किया जा सकता है.
उद्येश्य और प्रक्रिया
भारत को वस्तुतः दूसरे स्वतन्त्रता संग्राम की आवश्यकता है ताकि देश की व्यवस्थाओं को सुधार जा सके. इस उद्येश्य पर सभी सहमत हैं किन्तु इसके लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाये इस पर कुछ मतभेद हो सकते हैं. इस बारे में मेरा सुविचारित मत यह है कि भारत की वर्तमान राजनैतिक स्थिति इतनी दूषित हो चुकी है कि इसमें छुट-पुट परिवर्तनों से कोई अपेक्षित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए हमें आमूल-चूल परिवर्तनों के लिए संघर्ष करना होगा. तथापि मेरी यह जिद न होकर मात्र आग्रह है. इस पर गहन विचार विमर्श की आवश्यकता है.
अपना संगठन
भारत में किसी प्रकार की पुनर्व्यवस्था लागू करने के लिए अथवा इस हेतु संघर्ष के लिए बौद्धिक वर्ग के एक समन्वित संगठन की आवश्यकता है, इस पर कोई मतभेद नहीं है. इसी पवित्र उद्येश्य हेतु अनेक बुद्धिवादियों ने संगठनों के निर्माण भी किये हुए हैं. किन्तु दुःख इस बात का है कि ऐसे अधिकाँश संगठन वर्तमान राजनैतिक दलों की भांति व्यक्तिगत जमींदारियों की तरह बनाए गए और संचालित किये जा रहे हैं, जिनमें अन्य व्यक्तियों को अपनत्व का बोध नहीं मिल पाता. होता यह है कि कुछ विचारक मिलते हैं और एक संगठन का नामकरण कर स्वयं के मध्य उसके पदों का वितरण कर लेते हैं. इसके बाद अन्य व्यक्तियों को अनुयायियों के रूप में भर्ती होने के लिए आमंत्रित किये जाते हैं. इस प्रक्रिया से संगठन को न तो जन-समर्थन प्राप्त हो पाता है और न ही उसका आगे विकास हो पाता है.
वस्तुतः होना यह चाहिए कि आरंभिक विचारक संगठन की रूपरेखा तो बनाएं किन्तु उसके पदों का वितरण न करें और मुक्त भाव से उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाएं, जिनकी संख्या पर्याप्त होने पर ही उनमें से जनतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा सीमित अवधि के लिए संगठन के पदाधिकारी चुनें. इस प्रकार के संगटन पर किसी व्यक्ति अथवा समूह का एकाधिकार नहीं होगा और सभी लोगों को उसमें रूचि बनी रहेगी.
संविधान की पुनर्रचना
प्रायः प्रत्येक भारतीय बुद्धिवादी देश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति पर चिंतित है, और सभी परिवर्तन चाहते हैं. किन्तु यह परिवर्तन कैसे हो इस पर गहन मतभेद हैं. इस दृष्टि से बुद्धिवादियों को अनेक वर्गों में रखा जा सकता है. एक वर्ग ऐसा है जो वर्तमान संविधान को सही मानता है किन्तु इसके कार्यान्वयन में दोष देखता है. दूसरा वर्ग वह है जो संविधान को ही दोषी मानता है जिसके कारण ही उसका सही कार्यान्वयन नहीं हो सका है. इस के समर्थन में तर्क यह है कि जो अपेक्षित परिणाम न दे सके, उसमें दोष है अतः उसे बदला जाना चाहिए. संविधान के दोषपूर्ण होने का एक संकेत यह भी है कि इसके विभिन्न प्रावधानों में बार बार संशोधन करने पड़े हैं. ऐसे अनेक संशोधन भी राजनैतिक विकृति के परिणाम हैं जिनसे कुछ लाभ होने के स्थान पर हानि ही हो रही है. उदाहरण के लिए एक नौसिखिया प्रधान मंत्री ने मताधिकार की न्यूनतम आयु २१ वर्ष से घटाकर १८ वर्ष कर दी, जबकि सभी मानते हैं कि १८ वर्ष का बालक राष्ट्रीय दायित्व वहन करने योग्य नहीं होता. यहाँ तक कि उसे अपनी वैवाहिक दायित्व के लिए भी अयोग्य मानते हुए उसके विवाह की न्यूनतम आयु २१ वर्ष रखी गयी है. राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह हेतु व्यक्ति में वैचारिक परिपक्वता की अनिवार्यता होती है जो २५ वर्ष आयु से पूर्व अपेक्षित नहीं है. इसी प्रकार देश में प्रचलित आरक्षण व्यवस्था पर गहन मतभेद हैं और इससे देश को हानि ही हो रही है. इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत का वर्तमान संविधान में इस प्रकार की अनेक विसंगतियां हैं.
संवैधानिक विसंगतियों का एक विशेष कारण यह है कि स्वतन्त्रता संग्राम के समय यह कभी विचार नहीं किया गया कि हम स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश की व्यवस्था कैसे करेंगे. इस कारण से स्वतन्त्रता प्राप्ति पर कुछ इधर-उधर से और अधिकांशतः गुलाम देशों के लिए प्रचलित ब्रिटिश संविधान की नक़ल कर डाली गयी जिसमें बार-बार राजनैतिक स्वार्थों के लिए संशोधन किये गए. अतः भारत की कुशल व्यवस्था के लिए एक नवीन संविधान की आवश्यकता है. इस नए संविधान के रूप रेखा के रूप में इस संलेख में बौद्धिक जनतंत्र हेतु सुझाये गए विविध प्रावधानों पर विचार किया जा सकता है.
बुधवार, 16 जून 2010
गुंडागर्दी और पुलिस की लापरवाही
अंततः विगत सप्ताह मेरे साथ वह हुआ जिसकी मुझे लम्बे समय से आशा थी. मेरे गाँव खंदोई, पुलिस थाना नर्सेना, जनपद बुलंदशहर में गुंडों का एक समूह है जो आरम्भ में तो काफी बड़ा था किन्तु अब उसके अनेक सदस्यों की हत्याओं अथवा गाँव छोड़ देने से कुछ छोटा होगया है. यह समूह चोरी, डकैती, बलात्कार, राहजनी, आदि के साथ-साथ गाँव में अपना वर्चस्व भी बनाये रखता है जिसके लिए गाँव के प्रधान पद पर भी अधिकार करने की प्रत्येक बार कोशिश करता है और इसमें दो बार सफल भी हुआ है. इस समूह को आशा थी कि सितम्बर-अक्टूबर, २०१० में होने वाले पंचायत चुनावों में भी उनका प्रत्याशी विजयी होगा और वे गाँव पर एक-क्षत्र शासन करते रहेंगे.
गाँव में मेरे सक्रिय होने और अनेक क्रांतिकारी सुधार किये जाने के कारण गाँव के अधिकाँश लोगों ने मुझसे प्रधान बनकर गाँव के सुधार के साथ-साथ गुंडागर्दी की समाप्ति का आग्रह किया. जनमत के समक्ष मुझे यह स्वीकार करना पडा किन्तु मेरी प्रथम शर्त यह है कि मैं किसी भी व्यक्ति को उसका मत पाने के लिए शराब अथवा कोई अन्य लालच नहीं दूंगा. लोगों ने यह भी स्वीकार कर लिया और वे स्वयं ही पारस्परिक चर्चाओं के माध्यम से मेरा प्रचार करने लगे. अनुमानतः गाँव के ७० प्रतिशत मतदाता मेरे पक्ष में हैं. मेरी लोकप्रियता से गुंडों में खलबली मची हुई है और वे किसी न किसी तरह मुझे गाँव से भगाने के प्रयासों में लगे हुए हैं.
गाँव के अधिकाँश लोग विगत ४० वर्षों से बिजली की बेधड़क चोरी कर रहे थे, जिससे बिजली उपकरण जर्जर अवस्था में थे और वोल्टेज सामान्य २३० के स्थान पर ५०-१०० रहता था. मैं लगभग ५ वर्ष पूर्व गाँव में अपने कंप्यूटर के साथ आया था और उपलब्ध वोल्टेज पर कंप्यूटर चलाया नहीं जा सकता था. इसलिए मैंने विद्युत् अधिकारियों से वोल्टेज में सुधार के साथ मुझे नियमानुसार विद्युत् कनेक्शन देने का आग्रह किया. विगत ५ वर्षों के मेरे सतत संघर्ष के बाद अब गाँव विद्युत् की स्थिति ठीक कहने योग्य है. इसी संघर्ष में अनेक विद्युत् चोरियां पकड़ी गयीं जिनके लिए गाँव वाले मुझे दोषी मानते हैं. इस पर भी मेरे आग्रहों पर १०० परिवारों ने विद्युत् के वैध कनक्शन करा लिए हैं. गुंडों को मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार के लिए यह एक बड़ा कारण स्वतः प्राप्त हो गया है.
गुंडों ने उक्त सुधरी विद्युत् व्यवस्था को विकृत करने का प्रयास किया जिसे मैंने कठोरता से रोक दिया. इस पर वे मुझसे और भी अधिक क्रुद्ध हो गए हैं. पिछले सप्ताह मैं गाँव में एक स्थान पर बैठ था कि शराब में धुत एक गुंडे ने आकर मुझे गालियाँ देना आरम्भ कर दिया जिसका मैंने अपनी स्वाभाविक सौम्यता से प्रतिकार किया. इस पर उसने मुझे पीट-पीट कर गाँव से भगा देने की धमकी भी दी. मेरे कुछ समर्थकों के अतिरिक्त शेष गाँव चुप है, किसी का साहस नहीं है जो मेरे साथ आकर खडा हो जाए. कोई भी व्यक्ति गुंडों द्वारा अपमानित नहीं होना चाहता.
यह समूह गाँव में की गयी अनेक हत्याओं में भी लिप्त रहा है और नित्यप्रति अवैध गतिविधियाँ करता रहता है. स्वयं के बचाव के लिए यह समूह स्थानीय पुलिस से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखता है जबकि जनसामान्य पुलिस से दूरी बनाये रखता है. पुलिस कर्मी बहुधा इस समूह के साथ शराब आदि की दावतों में सम्मिलित होते रहते हैं. यही समूह गाँव के लोगों को झूठे आरोपों में फंसाकर पुलिस को आय भी कराता रहता है. इस कारण से पुलिस इस समूह के विरुद्ध किसी शिकायत पर ध्यान नहीं देती.
गाँव में फ़ैली गुंडागर्दी और मेरे विरुद्ध किये गए उक्त दुर्व्यवहार की शिकायत मैंने नर्सेना पुलिस थाने में १२ जून को की थी, साथ ही गाँव के ७ भद्र लोगों का प्रतिनिधि भी पुलिस थाने के प्रभारी से मिला था. किन्तु आज तक पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी है. ज्ञात हुआ है कि एक विधायक ने पुलिस को कार्यवाही न करने का निर्देश दिया है जिसका संरक्षण गुंडों को प्राप्त है. मेरे पारिवारिक इतिहास के कारण अनेक राजनेताओं से मेरे भी सम्बन्ध हैं किन्तु मैं उनका उपयोग अपने निजी स्वार्थों में नहीं करना चाहता.
क्या कोई पाठक मुझे सुझायेंगे कि मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करते हुए गाँव की सेवा कैसे करूं. मैं किसी भी मूल्य पर गाँव छोड़ने को तैयार नहीं हूँ. मुझे कोई भय भी नहीं है किन्तु मैं क़ानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहता किन्तु गुंडागर्दी की समाप्ति के लिए कृतसंकल्प हूँ.
गाँव में मेरे सक्रिय होने और अनेक क्रांतिकारी सुधार किये जाने के कारण गाँव के अधिकाँश लोगों ने मुझसे प्रधान बनकर गाँव के सुधार के साथ-साथ गुंडागर्दी की समाप्ति का आग्रह किया. जनमत के समक्ष मुझे यह स्वीकार करना पडा किन्तु मेरी प्रथम शर्त यह है कि मैं किसी भी व्यक्ति को उसका मत पाने के लिए शराब अथवा कोई अन्य लालच नहीं दूंगा. लोगों ने यह भी स्वीकार कर लिया और वे स्वयं ही पारस्परिक चर्चाओं के माध्यम से मेरा प्रचार करने लगे. अनुमानतः गाँव के ७० प्रतिशत मतदाता मेरे पक्ष में हैं. मेरी लोकप्रियता से गुंडों में खलबली मची हुई है और वे किसी न किसी तरह मुझे गाँव से भगाने के प्रयासों में लगे हुए हैं.
गाँव के अधिकाँश लोग विगत ४० वर्षों से बिजली की बेधड़क चोरी कर रहे थे, जिससे बिजली उपकरण जर्जर अवस्था में थे और वोल्टेज सामान्य २३० के स्थान पर ५०-१०० रहता था. मैं लगभग ५ वर्ष पूर्व गाँव में अपने कंप्यूटर के साथ आया था और उपलब्ध वोल्टेज पर कंप्यूटर चलाया नहीं जा सकता था. इसलिए मैंने विद्युत् अधिकारियों से वोल्टेज में सुधार के साथ मुझे नियमानुसार विद्युत् कनेक्शन देने का आग्रह किया. विगत ५ वर्षों के मेरे सतत संघर्ष के बाद अब गाँव विद्युत् की स्थिति ठीक कहने योग्य है. इसी संघर्ष में अनेक विद्युत् चोरियां पकड़ी गयीं जिनके लिए गाँव वाले मुझे दोषी मानते हैं. इस पर भी मेरे आग्रहों पर १०० परिवारों ने विद्युत् के वैध कनक्शन करा लिए हैं. गुंडों को मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार के लिए यह एक बड़ा कारण स्वतः प्राप्त हो गया है.
गुंडों ने उक्त सुधरी विद्युत् व्यवस्था को विकृत करने का प्रयास किया जिसे मैंने कठोरता से रोक दिया. इस पर वे मुझसे और भी अधिक क्रुद्ध हो गए हैं. पिछले सप्ताह मैं गाँव में एक स्थान पर बैठ था कि शराब में धुत एक गुंडे ने आकर मुझे गालियाँ देना आरम्भ कर दिया जिसका मैंने अपनी स्वाभाविक सौम्यता से प्रतिकार किया. इस पर उसने मुझे पीट-पीट कर गाँव से भगा देने की धमकी भी दी. मेरे कुछ समर्थकों के अतिरिक्त शेष गाँव चुप है, किसी का साहस नहीं है जो मेरे साथ आकर खडा हो जाए. कोई भी व्यक्ति गुंडों द्वारा अपमानित नहीं होना चाहता.
यह समूह गाँव में की गयी अनेक हत्याओं में भी लिप्त रहा है और नित्यप्रति अवैध गतिविधियाँ करता रहता है. स्वयं के बचाव के लिए यह समूह स्थानीय पुलिस से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखता है जबकि जनसामान्य पुलिस से दूरी बनाये रखता है. पुलिस कर्मी बहुधा इस समूह के साथ शराब आदि की दावतों में सम्मिलित होते रहते हैं. यही समूह गाँव के लोगों को झूठे आरोपों में फंसाकर पुलिस को आय भी कराता रहता है. इस कारण से पुलिस इस समूह के विरुद्ध किसी शिकायत पर ध्यान नहीं देती.
गाँव में फ़ैली गुंडागर्दी और मेरे विरुद्ध किये गए उक्त दुर्व्यवहार की शिकायत मैंने नर्सेना पुलिस थाने में १२ जून को की थी, साथ ही गाँव के ७ भद्र लोगों का प्रतिनिधि भी पुलिस थाने के प्रभारी से मिला था. किन्तु आज तक पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी है. ज्ञात हुआ है कि एक विधायक ने पुलिस को कार्यवाही न करने का निर्देश दिया है जिसका संरक्षण गुंडों को प्राप्त है. मेरे पारिवारिक इतिहास के कारण अनेक राजनेताओं से मेरे भी सम्बन्ध हैं किन्तु मैं उनका उपयोग अपने निजी स्वार्थों में नहीं करना चाहता.
क्या कोई पाठक मुझे सुझायेंगे कि मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करते हुए गाँव की सेवा कैसे करूं. मैं किसी भी मूल्य पर गाँव छोड़ने को तैयार नहीं हूँ. मुझे कोई भय भी नहीं है किन्तु मैं क़ानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहता किन्तु गुंडागर्दी की समाप्ति के लिए कृतसंकल्प हूँ.
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