रविवार, 11 अप्रैल 2010

कल्प, विकल्प

National Geographic - In the Wombकल्प
In the Womb: Witness the Journey from Conception to Birth through Astonishing 3D Imagesशास्त्रीय शब्द 'कल्प' ग्रीक भाषा के शब्द 'कोल्पोस' का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'गर्भ' अथवा 'गर्भाशय' है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द को अनक भावों में उपयुक्त किया जाता रहा है जो इसके बारे में अज्ञानता का द्योतक है. चूंकि खडी भी गर्भाशय के रूप में होती है इसलिए शास्त्रों में इसके लिए भी 'कल्प' शब्द का उपयोग किया गया है.  
 
विकल्प
वैदिक संस्कृत में 'वि' प्रत्यत बाद के शब्द द्वारा इंगित वस्तु के समान अथवा उसके स्थान पर उप्युल्ट वस्तु को इंगित करने ले लिए उपयुक्त किया जाता है. इस प्रकार 'विकल्प' का अर्थ 'गर्भ जैसा कोई आवरण' है अथवा ऐसी वस्तु जिसका उपयोग गर्भ के स्थान पर किया जा सकता हो..

नक्सल हिंसा का मूल

अभी कुछ दिन पूर्व छत्तीसगढ़ राज्य में नाक्साल्वादियों ने ७६ सुरक्षाकर्मियों को मौत के घात उतार दिया. देश में और विशेषकर सत्ताधारी राजनेताओं में इस पर भारी चिंता दर्शाई है और मृतकों के परिवारों को सार्वजनिक कोष से मालामाल किया गया है. गृह मंत्री और प्रधान मंत्री ने इस हिंसा पर घडियाली आंसू बहाए हैं और एक दूसरे को पद पर बनाये रखने का गुप्त समझौता कर गृहमंत्री ने त्यागपत्र की इच्छा दर्शाई जिसे प्रधान मंत्री ने तुरंत अस्वीकार कर दिया. यदि गृह मंत्री इस बारे में गंभीर हैं तो वे त्यागपत्र देन, उन्हें पद पर बने रहने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता.

देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों में लम्बे समय से इस विषय पर चर्चाएँ चलती रही हैं.किन्तु ऐसी अधिकाँश चर्चाएँ सत्ताधारी राजनेताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से ही प्रेरित होती हैं. और समस्या समाधान में निरर्थक ही सिद्ध होती रही हैं. समस्या के मूल पर कोई प्रकाश नहीं डाला जाता. निश्चित रूप से हिंसा पाशविकलक्षण है और मानवीय कारणों से इसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती. इसलिए हमें विचार करना होगा कि मनुष्यों को इस पाशविक गुण को अपनाने की प्रेरणा अथवा विवशता क्यों हुई और कौन इसके लिए उत्तरदायी हैं.

१९३८ की फ्रांसीसी क्रांति में सभी भद्र लोगों को जन क्रांति में मौत के गात उतार दिया गया था और शोषित समाज को उनके द्वारा संचालित स्वार्थपरक शासन व्यवस्था को उखड फैंका गया था. यह क्रांति सफल रही थी और विश्व के प्रबुद्ध वर्ग ने इसकी आलोचना नहीं की थी. उस क्रांति का मूल शासक-प्रशासकों द्वारा जन-सामान्य का शोषण था जिसके कारण जन सम्मान्य को पशु स्तर पर जीवित बने रहने की विवशता हो गयी थी. अतः उन्होंने पाशविक गुण हिंसा को अपनाया और एक शोषण-विहीन समाज की स्थापना की.

शोषण भारतीय समाज को अति दीर्घ समय से डसता रहा है किन्तु १९४७ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद समाज ने मुल्त वातावरण में सांस ली और आशा की कि लोग शोषण से भी मुक्त हो जायेंगे. किन्तु शासकों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और अपना शोषण का शिकंजा जन सामान्य पर कसते चले गए. अतः जन-सामान्य की पशु स्तर पर जीवन-यापन करने की विवशता यथावत बनी रही जबकि उसकी आशाएं इसके विपरीत थीं. जो पशु स्तर पर जीने के लिए विवश है, उसे पशु धर्म अपनाने में हिचक भी क्यों हो, इसलिए हिंसा उसका स्वाभाविक गुण है जिसका प्रदर्शन वह नक्सल हिंसा जैसे घटनाक्रमों से करता रहा है.

स्वतात्रता के बाद लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है किन्तु इसके साथ  ही शोषण का संवर्धन भी हुआ है. मानुष की संतुष्टि कदापि जीवन स्तर पर निर्भर नहीं करती अपितु परस्पर समानता पर आधारित होती है. तथाकथित स्वतंत्र भारत में शासकों द्वारा शोषण ब्रिटिश शासकों द्वारा शोषण से कई गुणित अधिक है.जिससे जन-सामान्य में रोष व्याप्त है. ब्रिटिश साम्राज्य में शासक वर्ग शोषण करता था किन्तु उद्दंड नहीं था, अनुशासन की लगाम उस पर कसी रहती थी. किन्तु आज के भारतीय शासक और प्रशासक पूरी तरह उद्दंड हो गए हैं और जन सामान्य के किसी भी शोषण में कोई कसर नहीं उठा रखते. साक्ष्य रूप में कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं -
  1. स्वतंत्र भारत में जनता के प्रतिनिधियों ने, जो स्वयं को लोकसेवक कहते हैं,  अपने वेतन भत्ते १०० से अधिक बार बढाकर औसतन 5०० गुणित कर लिए हैं. जबकि जन सामान्य की आय केवल २०० गुणित बढ़ी है. इसी अवधि में उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में लगभग ३०० गुणित वृद्धि हुई है. इस  प्रकार जन सामान्य के सापेक्ष जीवन स्तर में गिरावट आयी है. 
  2. वर्त्तमान में एक साधारण व्यक्ति १,००० रुपये प्रति माह पर १२ घंटे प्रतिदिन कठोर परिश्रम के लिए विवश है जबकि उससे कम योग्यता रखने वाले जन-प्रतिनिधि सार्वजनिक कोष से बिना कोई श्रम किये औसतन १,००.००० रुपये प्रति माह पा रहे हैं. साथ ही उसके तथाकथित सेवक, राज्य-नियोजित कर्मी, भी न्यूनतम स्तर पर औसतन दो गनते साधारण श्रम करते हुए १०,००० रुपये प्रति माह पा रहे हैं.  
  3. शिक्षा का व्यवसायीकरण कर शासक-प्रशासकों ने इसे जन-साधारण के लिए दुर्लभ बना दिया है जिससे कि वे सदैव सत्ताधारी बने रहें और जन-साधारण उनके समक्ष अपना सर कदापि न उठा सके. 
  4. ब्रिटिश साम्राज्य में लोगों को न्याय उपलब्ध था जो आज उपलब्ध नहीं है. इससे समाज में अपराधों की वृद्धि हुई है और अराजकता जन-सामान्य के समक्ष खडी रहती है. .        
ऐसे ही अनेक कारणों से जन-सामान्य में रोष व्याप्त है जिसका प्रदर्शन नक्सल हिंसा जैसे घतानाक्रोमों के माध्यम से किया जाता रहता है. आज नक्सल हिंसा की आलोचना केवल इसलिए की जाती है क्यों कि यह क्रांति परिवर्तन लाने में अभी सफल नहीं हो रही है. जिस दिन यह फ्रांसीसी कृंति की तरह सफल हो जायेगी इसकी भी सराहना ही की जायेगी.

देश के ये क्रांतिकारी, जो आज आतंकवादी कहे जाते हैं, भी दिशाविहीन हैं. ये वास्तव में दोषी व्यक्तियों को दंड न देकर निर्दोषों की बलि चढ़ा रहे हैं. हाल की हिंसा में मारे गए ७६ सुरक्षाकर्मी जन-सामान्य की तरह ही विवश थे अतः उनकी हया की सराहना नहीं की जा सकती. इसके स्थान पर यदि एक भी शीर्षस्थ राजनेता की हत्या कर दी जाती तो इस क्रांति का प्रभाव व्यापक होता और देश का जन-सामान्य इससे प्रसन्न ही होता.  

विद्युत् संकट और संघर्ष

 उत्तर प्रदेश के अन्य गाँवों की तरह ही एक वर्ष पहले तक मेरे गाँव खंदोई में भी विद्युत् संकट अपने कैरम पर था - ग्र्रेश्म में विद्युत् वोल्तागे २३० के स्थान पर ५० वोल्ट तक गिरा रहता था, तथा सर्दी में भी १५० वोल्ट से अधिक अपवादस्वरूप ही प्राप्त होता था. कहने को तो प्रदेश सरकार गाँवों को १० घंटे प्रतिदिन बिजली देने का प्रचार करती रही किन्तु यह औसतन ४ घंटे प्रतिदिन ही उपलब्ध होती टी.

जब में २००३ में गाँव में स्थायी रूप से रहने के उद्देश्य से आया, तब मैंने अपने बड़े भाई के साथ रहने आया था..तब  मेरा कंप्यूटर आरम्भ भी नहीं हो सका और मुझे जनपद मुख्यालय बुलंदशहर जाकर रहना पड़ा. वान रहते हुए मैं गाँव में आता रहता और अपना जन संपर्क आसपास के गाँवों तक बढाता रहा.

सन २००५ में में पुनः गाँव में आया और स्वतंत्र रूप से रहने लगा और विद्युत् संकट के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया. इसके लिए सबसे पहले मैंने विद्युत् कनेक्शन के लिए प्रार्थना पत्र लेकर विद्युत् उपग्रह ऊंचागांव पहुंचा. वहां एक विद्युत्-कर्मी ने मुझे बताया कि वह इस कार्य में सहायता कर सकता है जिसके लिए मुझसे वैध व्यय के लिए लगभग १००० रुपये के अतिरिक्त २००० रुपये सुविधा शुल्क के रूप में देना था. जब वैध व्यय के अतिरिक्त मैंने कुछ भी देने से इंकार कर दिया तो उसने कहा कि मुझे स्वयं जहांगीराबाद स्थित कार्यालय में उपखंड अधिकारी से संपर्क करना चाहिए.

जहांगीराबाद में जाने पर एक कार्यालय सहायक ने मुझे बताया गया कि उपखंड अधिकारी जनपद मुख्यालय बुलंदशहर में रहते हैं और यदा-कदा ही कार्यालय में आते हैं. वह मेरी सहायता के लिए तत्पर था जिसके लिए उसने ३००० रुपये की मांग रखी जो मुझे अस्वीकार्य थी. मैं वापिस आ गया और अगली सुबह उपखंड अधिकारी से टेलेफोन द्वारा जहांगीराबाद में उसके मिलाने का समय पूछा तो उसके बताया कि वह जहांगीराबाद में ही है और मैं दो घंटे तक उससे मिल सकता ता. गाँव से जहांगीराबाद १२ किलोमीटर दूर है और मैं तुरंत वहां के लिए अपनी बाईसाइकिल द्वारा चल दिया और एक घंटे मैं उपखंड अधिकारी कार्यालय में पहुँच गया. वहां ज्ञात हुआ कि उपखंड अधिकारी तब तक कार्यालय में आया ही नहीं था किन्तु उसके आने की संभावना थी. दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद वहां अधिकारी आया. मैंने उसे अपनी समस्या बतायी तो उसने मेरे आवेदन पर जूनियर इंजीनियर को अपनी टिप्पणी लिख दी और मुझे उससे मिलने को कहा.

अगले दिन जूनियर इंजीनियर ने अपनी औपचारिक टिप्पणी दे दी और मुझे उपखंड अधिकारी के पास जाने को कहा. इसके बाद मैं अनेक बार उपखंड अधिकारी कार्यालय जहांगीराबाद गया किन्तु अधिकारी को सदैव अनुपस्थित पाया जबकि प्रत्येक बार फ़ोन पर वह मुझे बताता कि वह जहांगीराबाद कार्यालय से ही बोल रहा था. मैं समझ गया कि मुझे रिश्वत न देने के कारण परेशान किया जा रहा है. इसलिए मैंने एक-एक महीने के अंतराल से क्रमशः उच्चतर अधिकारियों को पत्र लिखने आरम्भ कर दिए.किन्तु विद्युत् वितरण निगम के प्रबंध निदेशक तक से मेरे किसी पत्र का उत्तर नहीं दिया गया. इस सब में लगभग ६ महीने का समय व्यतीत हो गया.

इसके बाद मैंने सम्पूर्ण विवरण सहित एक परिवाद पत्र उत्तर प्रदेश विद्युत् नियामक आयोग को लिखा जिसका दायित्व प्रदेश में विद्युत् सेवाओं को नियमित करना है. वहां से मुझे दो महीने बाद एक पंक्ति का उत्तर मिला कि मेरा पत्र आवश्यक कार्यवाही के लिए प्रबंध निदेशक को भेज दिया गया है. प्रबंध निदेशक से अगले दो माह तक मुझे कोई कार्यवाही की जाने की सूचना नहीं मिली.तो मैंने स्वयं उसे लिखा. इसका भी कोई उत्तर नहीं दिया गया. इस सब में ४ महीने और व्यतीत हो गए. इस दौरान मेरा लेखन कार्य बंद रहा और मैं अपना समय बागवानी में लगाता रहा.


अंततः मैंने प्रबंध निदेशक तथा विद्युत् नियामक आयोग को इस लापरवाही के लिए उत्तरदायी ठहराते हुए कानूनी नोटिस दिए लिसमें दोनों के विरुद्ध न्यायालय में जाने की चेतावनी दी. इसके लगभग दो महीने बाद दो विद्युत् कर्मी, जूनियर इंजीनियर और एक नया उपखंड अधिकारी मेरे पास पहुंचे और मुझसे ८८० रुपये देने को कहा ताकि मुझे तुरंत विद्युत् कनेक्शन दिया जा सके. मेरे भुगतान की मुझे रसीद दे दी गयी और मुझे कनेक्शन दे दिया गया. गाँव के इतिहास की यह अभूतपूर्व घटना थी.


विद्युत् कनेक्शन लेने के बाद न्यून वोल्टेज की समस्या मेरे सामने खडी टी और वोल्टेज संवर्धक उपकरण होने पर भी मेरा कंप्यूटर कभी कभी ही चल पाता था. मैंने पाया कि न्यून वोल्टेज होने के अनेक कारण थे -
  1. गाँव में केवल २-३ वैध कनेक्शन थे, लगभग १५ कनेक्शन ऐसे थे जिनपर विद्युत् वितरण निगम ३०,००० रुपये तक कि धनराशी बकाया थी, इसके अतिरिक्त लगभग ४०० कनेक्शन अवैध रूप से चल रहे थे. इस प्रकार १०० किलोवाट के ट्रांसफार्मर पर अपरिमित भार था. गाँव वाले तथा निगम अधिकारी इस सब के प्रति पूरी तरह उदासीन थे - न कोई अधिकार थे और न कोई कर्तव्यपालन.
  2. ट्रांसफार्मर तथा लाइनें बहुत बुरी स्थिति में थी, लाइन में कहीं एक तार था, कहीं दो, तो कहीं तीन.तार थे. न्यूट्रल तथा अर्थ के तार पूरी तरह अनुपस्थित थे. यह लाइन ४० वर्ष पुरानी थी जिसकी कभी कोई देखरेख नहीं की गयी टी. न ही किसी गाँव वाले ने इसे ठीक रखने की मांग की थी. पूरा द्रश्य खंडहर जैसा था जिससे       
कनेक्शन के बाद वोल्टेज के न्यून होने की समस्या समाधान के लिए मैंने पुनः पत्राचार आरम्भ किये किन्तु कोई संतोषजनक हल नहीं निकला. विवशता में मैंने विद्युत् उपभोक्ता व्यथा निवारण फोरम में अपनी शिकायत की. वहां भी पाया कि फोरम दोषी निगम के अधीन कार्य कर रही है और उपभोक्ताओं को कोई विशेष लाभ नहीं हो रहा है. इस पर भी मैं लगभग ६ महीने तक मुकदमे की दर्जन भर तारीखों में उपस्थित हुआ और फोरम ने आधे दिल से औपचारिकता का निर्वाह करते हुए मेरे तकनीक बिन्दुओं पर एक आदेश दिया जिसे वितरण निगम ने कार्यान्वित नहीं किया. फोरम ने भी इसे कार्यान्वित कराने में अपनी असमर्थता दर्शाई. मेरा यह प्रयास भी निष्फल गया.

इस पर मैंने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महोदय को एक पत्र लिखा जिसका उत्तर मिला और सम्बद्ध अधिकारियों से स्पष्टीकरण माँगा गया. पूरा अधिकारी वर्ग राज्यपाल महोदय को संतुष्ट करने में जुट गया और मुझे कोई लाभ प्रदान नहीं किया गया. इसके कुछ सने बाद राह्य्पाल महोदय की ईमेल सुविधा शासन द्वारा बंद कर दी गयी.

इसी दौरान एक पत्र मैंने उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन को लिखा हहाँ मेरा एक मित्र मुख्य अभियंता पड पर कार्यरत है. उसने मेरी सहायता की और गाँव में विद्युत् स्थिति सुधार के अनेक कार्य किये गए. अब स्थिति ठीक कही हा सकती है. किन्तु यह सब मेरे संघर्ष से न होकर मेरे निजी संपर्क के कारण हुआ है. इस से यही सिद्ध होता है कि देश के शासक-प्रशासक केवल निजी संबंधों के आधार पर ही कार्य कर रहे हैं, जन-सामान्य की समस्याओं के प्रति वे पूरी तरह उदासीन बने हुए हैं.

यह सब सार्वजनिक रूप में प्रकाशित करने का मेरा उद्देश्य अपना गौरव बढ़ाना न होकर जन-सामान्य को यह सन्देश देना है कि देश के शासक-प्रशासक किस प्रकार कार्य कर रहे हैं. अभी नक्सल हिंसा में ७६ सिपाहियों की हत्या पर कुछ लोगों ने मेरी राय जाननी चाही जिसका मेरा उतार नक्सल हिंसा के पक्ष में रहा है क्योंकि शासक-प्रशासकों को जन-समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनने के लिए हमारे सभी प्रयास असफल हो रहे हैं. 

    सोमवार, 5 अप्रैल 2010

    भाग्य और लक्ष्य

    अंग्रेज़ी के दो शब्द हैं 'फेट' और 'डेस्टिनी' जिन्हें प्रायः पर्याय के रूप में उपयोग किया जाता है. किन्तु इन दोनों में उतना ही विशाल अंतर है जितना एक साधारण मानव और महामानव में होता है. ये दोनों भी एक जैसे ही दिखते हैं. फेट शब्द लैटिन भाषा के शब्द fatum से बना है तथा इसी से बना है अंग्रेज़ी शब्द फेटल अर्थात हिंदी में 'घातक'. स्पष्ट है भाग्य की परिकल्पना ही मानवता के लिए घातक है.

    डेस्टिनी शब्द से ही उदय हुआ है अंग्रेज़ी शब्द 'डेस्टिनेशन' जो स्वयं निर्धारित नहीं होता, इसे मनुष्य द्वारा निर्धारित किया जाता है, जबकि फेट स्वयमेव निर्धारित कहा जाता है. इस प्रकार दोनों शब्दों के भावों में विशाल अंतराल है. हमारी भाषा देवनागरी में इन अंग्रेज़ी शब्दों के समतुल्य शब्द 'भाग्य' तथा 'लक्ष्य' हैं.
    Fate and Destiny

    आत्मविश्वास और स्वाभिमान के अभाव में व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित नहीं करता, उसे चाहिए सदैव एक आश्रयदाता जो उसका भाग्य निर्धारित करता रहे. किन्तु इन दो सद्गुणों से संपन्न व्यक्ति अपना लक्ष्य स्वयं निर्धारित करता है और उस की ओर बढ़ता जाता है. कहते हैं भाग्य इश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसकी संकल्पना भी मनुष्य द्वारा ही की गयी है, और मनुष्य ही इस संकल्पना को जीवंत बनाये हुए हैं..इसका अर्थ यह हुआ कि भाग्य पर आश्रित मनुष्य के भाग्य का निर्धारक भी कोई अन्य मनुष्य ही होता है. जिस मनुष्य का भविष्य कोई अन्य मनुष्य अथवा उसके द्वारा कल्पित ईश्वर करे, वह दूसरे मनुष्य के अधीन सिद्ध हुआ - स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होने में असमर्थ. ऐसा मनुष्य जंगली जंतुओं से भी क्षुद्र है. वह स्वयं की इश्वर में आस्था के माध्यम से दूसरे व्यक्तियों को अपना आश्रयदाता स्वीकार करता है, जबकि जंगली जंतु स्वतंत्र होते हैं.

    मनुष्य की सबसे अधिक महत्वपूर्ण संपदा उसकी बुद्धि होती है जो उसकी स्मृति में संचित अनुभवों का विश्लेषण एवं सदुपयोग करते हुए लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है. बुद्धि लगभग सभी व्यक्तियों के पास होती है किन्तु सभी उसका भरपूर उपयोग नहीं करते. इस उपयोग के परिमाण में अंतराक से ही अंतर-मानव अंतराल उत्पन्न होते हैं. बुद्धि के उपयोग को उसका भाग्य पर विस्वास दुष्प्रभावित करता है. जो व्यक्ति सदैव अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है, उसे भाग्य अथवा ईश्वरीय सकल्पना पर निर्भर होने की कोई आवश्यकता नहीं होती. ऐसा व्यक्ति ही महामानव बनने की संभावना रखता हैं.

    अतः ईश्वरीय संकल्पना पर आश्रित भाग्य पर आस्था मनुष्य को साधारण मानव पथ का अनुसरण करने से भी भटकाती है. जबकि उसकी बुद्धि उसे स्वतंत्र बने रहने में सक्षम बनाती है किन्तु वह उसका कोई उपयोग नहीं कर पाता. ऐसे मनुष्य का अपना कोई लक्ष्य नहीं होता. वह रस्ते पर पड़े एक पत्थर के समान निष्क्रिय होता है, बौद्धिक व्यक्ति उसको पड-दलित करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं और वह भाग्य की प्रतीक्षा में वहीं पडा ही नहीं रहता है,दूसरों का मार्ग भी अवरोधित करता रहता है. इस प्रकार इश्वर और भाग्य की संकल्पनाएँ उनमें आस्था रखने वालों को ही पथ्भ्रिष्ट नहीं करतीं, वे समस्त मानव जाति के ठन में रोड़े भी बनती हैं. बौद्धिक व्यक्ति की विवशता होती है कि वह इन्हें पड-दलित करता हुआ आगे बढ़ता जाये.

    इश्वर और भाग्य की संकल्पनाएँ मानव जजाती को पथ भृष्ट करने हेतु रची गयीं, और इन्हें सतत प्रशस्त भी किया जाता रहा है. ये संकल्पनाएँ धर्म और अध्यात्म की संकल्पनाओं की सहोदर हैं और सभी साथ मिलकर मानव का अहित करती रही हैं. वस्तुतः इनके सूत्रधारों का यही लक्ष्य था और यही लक्ष्य इनके प्रशास्तिकारों का है. इसी में इनके निहित स्वार्थ हैं, क्योंकि इन्ही के माध्यम से ये चतुर व्यक्ति भोले-भाले मानव समुदायों पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन बनाये रखते हैं. अनेक समाजों में राजनैतिक शासनों की नींव भी इसी मनोवैज्ञानिक शासन पर निर्मित होती है. अतः चतुर व्यक्ति इन संकल्पनाओं का उपयोग मानव समुदायों पर शासन हेतु करते रहे हैं.  

    रविवार, 4 अप्रैल 2010

    सिकंदर का आक्रमण

    प्रचलित विश्व इतिहास के अनुसार सिकंदर, जिसे यूरोपीय भाषाओँ में अलग्जेंदर कहा जाता है, मिश्र और पर्शिया को विजित करता हुआ ३२३ ईसापूर्व में भारत पहुंचा. वस्तुतः सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण ने आमंत्रित किया था जिसके लिए संदेशवाहक के रूप में विदुर को भेजा गया था.
    Alexander - Director's Cut (Full Screen Edition)

    भारत के प्रवेश पर ही सिकंदर का सामना भरत ने किया था जिन्हें पुरु वंशी होने के कारण इतिहास में पोरस कहा गया है.इस युद्ध के बारे में बड़ी भ्रांतियां प्रचारित की गयी हैं - कि सिकंदर विजयी हुआ था और उसने भरत को क्षमा कर दिया था. यह सर्व विदित ई कि भारत में आगमन पर सिकंदर की सेना ने विद्रोह कर दिया था. यदि विद्रोह युद्ध से पूर्व किया गया था तो सिकंदर विजयी नहीं हो सकता था, और सिकंदर के विजयी होने बाद सेना को विद्रोह की आवश्यकता ही नहीं थी. यद्यपि सिकंदर की सेना भारतीय सेना की तुलना में अधिक अनुभवी और अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित थी, किन्तु भरत को युद्ध की आशंका थी और इसके लिए पूरी तैयारियां की गयीं थीं. युद्ध के प्रथम दिन के परिणाम देखते हुए ही सिकंदर के सेना-नायकों ने और आगे युद्ध करने में अपनी असक्षमता दर्शाई थी जिसे विद्रोह कहा गया है. इस पराजय और विद्रोह के बाद ही सिकंदर ने भरत से संझौता किया था और सीमा से ही वापिस लौट जाने का वचन दिया था. युद्ध तो थम गया किन्तु सिकंदर उसी समय वापिस नहीं लौटा. कृष्ण ने उसे और उसकी सेना को दक्षिण भारत मदुरै के पास बसा दिया था.

    सिकंदर की सेना में यद्यपि अनेक जातियों के सैनिक थे किन्तु मूल सेना में अधिकाँश डोरियन होने के कारण सभी को डोरियन कहा जाता था. 'डोरियन' शब्द का आधुनिक स्वरुप ;द्रविड़' है. अतः दक्षिण भारत के द्रविड़ सिकंदर के सैनिकों के रूप में भारत आये थे. यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि मलयाली और कन्नड़ मूलतः द्रविड़ नहीं हैं यद्यपि इन्हें भी अब द्रविड़ ही माना जाता है.

    यूरोपीय इतिहासकारों का अनुसतन करते हुए भारत के राजकीय वेतनभोगी तथाकथित इतिहासकार भी सिकंदर को 'महान' कहते हैं जब कि उसमें महानता का कोई लक्षण नहीं था. इंटरपोल के आधुनिक शोधों के अनुसार वह अत्यधिक शराबी था और मामूली की नाराजगी पर ही अपने प्रियजनों की हत्या कर देता था. उसके शरीर में पाशविक शक्ति थी जिसके कारण वह घायल अवस्था में भी युद्ध में सक्रिय रहता था. इसी पाशविकता के कारण वह युद्धों में विजयी रहा.न कि किसी मानवीय गुण के कारण. हौलीवूद से अभी बनी फिल्म के अनुसार समलैंगिक मैथुन का शौक़ीन था और उसके पुरुष प्रेमी का नाम हाइलास था जो युद्धों में भी उसका शौक पूरा करता था.

    भारत में बसने के बाद उसके सैनिकों ने भारतीय स्त्रियों का अपहरण कर अपने घर बसाये जिसके लिए उन्हें क्तिष्ण का अभयदान प्राप्त ता. उसको समर्पित कर वे कुछ भी अनैतिक करने के लिए स्वतंत्र थे. इसी पड़ाव में सिकंदर ने अपनी सेना को पुनर्संगठित किया और लगभग १५ माह बाद हुए महाबारत युद्ध में 'शिखंडी' नाम से भाग लिया.समस्त आशिया का विजयी सिकंदर महाभारत में एक नगण्य योद्धा रहा, अतः भारतीय दृष्टिकोण से उसे महान नहीं कहा जा सकता.  

    सिकंदर का आक्रमण

    प्रचलित विश्व इतिहास के अनुसार सिकंदर, जिसे यूरोपीय भाषाओँ में अलग्जेंदर कहा जाता है, मिश्र और पर्शिया को विजित करता हुआ ३२३ ईसापूर्व में भारत पहुंचा. वस्तुतः सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण ने आमंत्रित किया था जिसके लिए संदेशवाहक के रूप में विदुर को भेजा गया था.
    Alexander - Director's Cut (Full Screen Edition)

    भारत के प्रवेश पर ही सिकंदर का सामना भरत ने किया था जिन्हें पुरु वंशी होने के कारण इतिहास में पोरस कहा गया है.इस युद्ध के बारे में बड़ी भ्रांतियां प्रचारित की गयी हैं - कि सिकंदर विजयी हुआ था और उसने भरत को क्षमा कर दिया था. यह सर्व विदित ई कि भारत में आगमन पर सिकंदर की सेना ने विद्रोह कर दिया था. यदि विद्रोह युद्ध से पूर्व किया गया था तो सिकंदर विजयी नहीं हो सकता था, और सिकंदर के विजयी होने बाद सेना को विद्रोह की आवश्यकता ही नहीं थी. यद्यपि सिकंदर की सेना भारतीय सेना की तुलना में अधिक अनुभवी और अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित थी, किन्तु भरत को युद्ध की आशंका थी और इसके लिए पूरी तैयारियां की गयीं थीं. युद्ध के प्रथम दिन के परिणाम देखते हुए ही सिकंदर के सेना-नायकों ने और आगे युद्ध करने में अपनी असक्षमता दर्शाई थी जिसे विद्रोह कहा गया है. इस पराजय और विद्रोह के बाद ही सिकंदर ने भरत से संझौता किया था और सीमा से ही वापिस लौट जाने का वचन दिया था. युद्ध तो थम गया किन्तु सिकंदर उसी समय वापिस नहीं लौटा. कृष्ण ने उसे और उसकी सेना को दक्षिण भारत मदुरै के पास बसा दिया था.

    सिकंदर की सेना में यद्यपि अनेक जातियों के सैनिक थे किन्तु मूल सेना में अधिकाँश डोरियन होने के कारण सभी को डोरियन कहा जाता था. 'डोरियन' शब्द का आधुनिक स्वरुप ;द्रविड़' है. अतः दक्षिण भारत के द्रविड़ सिकंदर के सैनिकों के रूप में भारत आये थे. यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि मलयाली और कन्नड़ मूलतः द्रविड़ नहीं हैं यद्यपि इन्हें भी अब द्रविड़ ही माना जाता है.

    यूरोपीय इतिहासकारों का अनुसतन करते हुए भारत के राजकीय वेतनभोगी तथाकथित इतिहासकार भी सिकंदर को 'महान' कहते हैं जब कि उसमें महानता का कोई लक्षण नहीं था. इंटरपोल के आधुनिक शोधों के अनुसार वह अत्यधिक शराबी था और मामूली की नाराजगी पर ही अपने प्रियजनों की हत्या कर देता था. उसके शरीर में पाशविक शक्ति थी जिसके कारण वह घायल अवस्था में भी युद्ध में सक्रिय रहता था. इसी पाशविकता के कारण वह युद्धों में विजयी रहा.न कि किसी मानवीय गुण के कारण. हौलीवूद से अभी बनी फिल्म के अनुसार समलैंगिक मैथुन का शौक़ीन था और उसके पुरुष प्रेमी का नाम हाइलास था जो युद्धों में भी उसका शौक पूरा करता था.

    भारत में बसने के बाद उसके सैनिकों ने भारतीय स्त्रियों का अपहरण कर अपने घर बसाये जिसके लिए उन्हें क्तिष्ण का अभयदान प्राप्त ता. उसको समर्पित कर वे कुछ भी अनैतिक करने के लिए स्वतंत्र थे. इसी पड़ाव में सिकंदर ने अपनी सेना को पुनर्संगठित किया और लगभग १५ माह बाद हुए महाबारत युद्ध में 'शिखंडी' नाम से भाग लिया.समस्त आशिया का विजयी सिकंदर महाभारत में एक नगण्य योद्धा रहा, अतः भारतीय दृष्टिकोण से उसे महान नहीं कहा जा सकता.