रविवार, 14 मार्च 2010

क्लिष्ट, क्लिष्टाक्लिष्टा

क्लिष्ट 
वेदों और शास्त्रों में 'क्लिष्ट' शब्द ग्रीक भाषा के शब्द 'kleistos' से लिया गया है जिसका अर्थ 'बंद' है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'कठिन' है जो वेदों और शास्त्रों के हिंदी अनुवादों में उपयोग करना गलत है.

क्लिष्टाक्लिष्टा 
पतंजलि योगसूत्र तथा संभवतः अन्य शास्त्रों में उपस्थित यह शब्द तत्कालीन भाषा विज्ञानं का शिक्षाप्रद  उदहारण है. क्लिष्ट शब्द के मौलिक अर्थ के अनुसार 'क्लिष्टाक्लिष्टा' का अर्थ 'बंद के अंतर्गत बंद' अर्थात 'परत दर परत बंद' है जो वानस्पतिक सन्दर्भों में 'बंद-गोभी' के लिए है. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि वह समय भाषाओँ के उदय का समय था और प्रत्येक वस्तु के लिए प्रथक शब्द विकसित नहीं हुए थे, अतः वस्तुओं को उनके विशिष्ट गुणों के माध्यम से व्यक्त किया गया.      

शनिवार, 13 मार्च 2010

महिला आरक्षण का षड्यंत्र

 महिलाओं के लिए विधायिकाओं में एक तिहाई स्थान प्रदान करने वाला आरक्षण बिल राज्यसभा में पारित हो गया, जो प्रत्यक्ष अनुभवों से कुछ भी न सीखने का सटीक उदाहरण है. पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण पहले से ही लागू है और इसके परिणाम घोर निराशाजनक सिद्ध हुए हैं.

मेरे गाँव के प्रधान एक निरक्षर महिला है और ऐसी ही एक महिला विकास खंड की प्रमुख है. मैं गाँव में ही रहता हूँ किन्तु मैंने कभी ग्राम प्रधान को कभी नहीं देखा क्योंकि वह घूँघट में रहती है. उसका निरक्षर एवं शराबी पति ही प्रधान की भूमिका का निर्वाह करता है. ग्रामवासियों को शराब पिलाकर ही उसने यह पड प्राप्त किया था जो भारत में जनतंत्र की वास्तविक स्थिति है. अन्य प्रत्याशी कुछ साक्षर थे और सौम्य भी, वे इस सीमा तक नहीं गिर सके और चुनाव में पराजित हो गए.

विकास खंड कार्यालय में भी मुझे यदा-कदा जाना होता है, किन्तु मैंने कभी भी वहां प्रमुख महोदया को नहीं पाया, उसके लिए निर्धारित कुर्सी पर उसके पति ही विराजमान पाए जाते हैं. उन्होंने चुनाव में विजय के लिए प्रत्येक सदस्य को एक-एक लाख रुपये दिए थे और उन्हें लगभग १५ दिन ऋषिकेश के एक आश्रम में कैद करके रखा था.

ये महिला आरक्षण के व्यवहारिक पक्ष हैं और ऐसा ही कुछ विधायिकाओं में होगा. वहाँ सदस्य महिलाओं के पति उपस्थित तो संभवतः न हों किन्तु सडन के बाहर के सभी कार्य उनके पति ही करेंगे. ऐसे अनुभवों और संभावनाओं पर भी महिला आरक्षण पर बल दिया जा रहा है, इसका कुछ विशेष कारण तो होगा ही. आइये झांकें इसके यथार्थ में.

यह सर्वविदित है कि भारत के राजनेताओं की सपरिवार सत्ता में बने रहने की भूख अमिट और असीमित है  अनेक परिवारों के कई-कई सदस्य विधायिकाओं में विराजमान देखे जा सकते हैं. इस पर भी ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि विधायिकाओं में उनके परिवारों के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति प्रवेश न कर पाए, क्योंकि जितने अधिक परिवार वहाँ होंगे, राजनेताओं के कुत्सित व्यवसायों की सफलताओं में उतनी ही अधिक अनिश्चितता आयेगी. इनमें वे और केवल उनके परिवार ही उपस्थित रहें, महिला आरक्षण इसमें उनकी सहायता करेगा. 

भारत के लगभग सभी राजनैतिक दल राजनेताओं की जागीरें हैं जहाँ उनके एक छात्र शासन चलते हैं. विधायिकाओं में प्रवेश के टिकेट इन्हीं जागीरों से निर्धारित किये जाते हैं. महिलाओं के लिए आरक्षण न होने से अनेक बाहरी व्यक्ति भी इन जागीरदारों से अनुनय-विनय करके विदयिकाओं में प्रवेश पाने के प्रयास करते हैं. विधायिकाओं में महिला आरक्षण से पति-पत्नी दोनों ही चुने जाने के प्राकृत रूप से अधिकारी हो जायेंगे, अथवा प्रवेश टिकेट ऐसी अन्य मेलों को दिए जायेंगे जो पत्नी न होकर परनी-समतुल्य भूमिका का निर्वाह करने को तत्पर हों. इससे राज्नाताओं के सुविधा-संपन्न जीवन और अधिक सुविधा-संपन्न बन सकेंगे. 

मानव भाव अभिव्यक्ति

मनुष्यता की दो पहचानें मानवता को पशुता से प्रथक करती हैं - समाजीकरण एवं भाषा विकास. समाजीकरण का मूल मन्त्र कार्य विभाजन के साथ परस्पर सहयोग है, जबकि भाषा विकास का मूल भाव और शब्द का सम्बन्ध है. इन्ही दो माध्यमों से मानव समाज से महामानावोदय की संभावना है. सहयोग की चर्चा इस संलेख पर की जा चुकी है,  यहाँ प्रस्तुत है भाव और शब्द संबंधों की समीक्षा.

अभी कुछ दिन पूर्व एक आर्य समाज अनुयायी से मिलाना हुआ और उन्होंने मुझे बताया कि आर्य समाज की दृष्टि में विदों की ऋचाएं बनाने के बाद ऋषियों ने उनके अर्थ बनाये जिसके कारण ऋषि उन ऋचाओं के दृष्टा कहलाए. यह तो मैं निश्चित रूप में नहीं कह सकता कि यह आर्य समाज का अधिकृत दृष्टिकोण है किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि इससे अधिक मूर्खतापूर्ण दृष्टिकोण किसी लेखन के बारे में मुझे अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ है. शब्द कदापि अपने भाव से पूर्व अस्तित्व आ ही नहीं सकता.

भाषा विकास और उपयोग की यात्रा में सबसे पहले कोई भाव उदित होता है तदुपरांत उस भाव को व्यक्त करने हेतु शब्दों की रचना की जाती है. यही प्रक्रिया प्रत्येक भाषा की संदाचना में अपनाई जाती है और यही विकसित भाषा के उपयोग में लेखन प्रक्रिया में.

आधुनिक काल में भाषा और लिपि को प्रथक-प्रथक माना जाता है किन्तु जिस समय मानवों ने अपने उपयोग हेतु भाषा विकास आरम्भ किये उस समय इन दोनों को प्रथक नहीं माना जाता था, प्रत्येक भाषा की एक निर्धारित लिपि होती टी और उसे भी भाषा के अंग के रूप में ही जाना जाता था. इस कारण उस काल में लिपि शब्द का उद्भव नहीं हुआ था. उदाहरण के लिए भारत इतिहास के आरंभिक काल में देवनागरी को ही भाषा कहा जाता था जिसमें लिपि, शब्द, और व्याकरण अंगों के रूप में सम्मिलित किये गए. उस काल की देवनागरी भाषा को आज वैदिक संस्कृत कहा जाता है. वस्तुतः 'लिपि' शब्द की आवश्यकता उस समय हुई जब एक ही लिपि के उपयोग से भावों को व्यक्त करने हेतु अनेक भाषाओँ का विकास हुआ. वैदिक संस्कृत, आधुनिक संस्कृत और हिंदी तीनों भाषाएँ देवनागरी लिपि पर आधारित हैं. इन तीन भाषाओँ में शब्दार्थ एवं व्याकरण नियम भिन्न हैं. वर्तमान अध्ययन में हम लिपि को भाषा से प्रथक नहीं मान रहे हैं, अर्थात लिपि, शब्द और व्याकरण तीनों को हम भाषा के अंग ही कहेंगे. इसलिए 'लिपि' शब्द की हमें आगे आवश्यकता नहीं होगी.

भाषा विकास में सबसे पहले अक्षर अर्थात ध्वनियों की अभिव्यक्तियों के लिए लिखित प्रतीक चुने जाते हैं, जिनके संग्रह को वर्णमाला कहा जाता है. इसके बाद उदित प्रत्येक अर्थ के लिए एक शब्द चुना जाता है और इन दोनों के समन्वय को शब्दार्थ कहा जाता है. शब्दों के सार्थक समूह को वाक्य कहते हैं जिनकी संरचना के नियमों को व्याकरण कहा जाता है. इसके बाद उदित भावों को अभिव्यक्त करने हेतु वाक्यों की रचना की जाती है. इस प्रकार प्रत्येक भाषा के तीन अंग होते हैं - वर्णमाला, शब्दार्थ और व्याकरण. अक्षर, शब्द और वाक्य अभिव्यक्तियों के केवल प्रतीक होते हैं, मूल अभिव्यक्ति नहीं. इनकी मूल अभिव्यक्तियाँ क्रमशः ध्वनि, अर्थ और भाव होते हैं.

मस्तिष्क में सबसे पहले कोई भाव उदित होता है, उसे अभिव्यक्त करने हेतु अर्थ चुने जाते हैं. प्रत्येक अर्थ के लिए एक शब्द चुना जाता है. प्रत्येक शब्द ध्वनियों का सार्थक समूह होता है तथा प्रत्येक ध्वनि की अभिव्यक्ति हेतु अक्षर चुना जाता है. इस प्रकार अक्षरों के सार्थक समूहन से शब्द बनाते हैं और शब्दों के सार्थक समूहन से वाक्य बनते हैं.

यद्यपि भाव अभिव्यक्ति मानवीय कर्म है किन्तु यह इतना महत्वपूर्ण है कि जीव जगत में यह ही मानवता की विशिष्ट पहचान है. अर्थात समस्त जीव जगत में केवल मानव ही अपने भावों की लिखित अभिव्यक्ति से संपन्न हैं. महामानवता को इससे भी आगे जाना होगा किन्तु यह तभी संभव होगा जब कोई मानव पूरी तरह इस प्रक्रिया से आत्मसात होगा. यही महामानवता का सोपान है.    .     

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

मानव संसाधन विकास एवं उपयोग

बौद्दिक जनतंत्र मानव संसाधन विकास को ही अपना उत्तरदायित्व  नहीं मानता अपितु इसके सम्यक उपयोग के लिए भी तत्पर है. जबकि वर्त्तमान भारतीय जनतंत्र जनसँख्या वृद्धि कहकर उपयोग से आँखें मूंदे हुए है. प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति अपने उप्ब्जोग से अधिक सम्पदा का उत्पादन कर सकता है इसलिए राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था जनसँख्या के उपयोग पर निर्भर होती है.

स्वास्थ एवं शिक्षा 
राज्य का प्रथम कर्तव्य सभी नागरिकों को शारीरिक और मानसिकरूप रूप से स्वस्थ बनाये रखना है. इसके लिए निम्नांकित बिंदु विशेष महत्वपूर्ण माने गए हैं -
  1. प्रत्येक युगल स्वस्थ एवं सुशिक्षित होगा तथा वे दोनों सुदूर परिवारों में जन्मे होंगे. प्रत्येक परिवार के पास सम्मानपूर्वक जीवनयापन हेतु आय के साधन होंगे.परिवार का कोई भी सदस्य किसी प्रकार के नशीले द्रव्य का सेवन नहीं करेगा. 
  2. प्रत्येक गर्भवती के स्वास्थ की रक्षा संतुलित पोषण एवं चिकित्सीय सुविधाओं द्वारा सुनिश्चित होगी तथा किसी भी स्त्री को तीन से अधिक बच्चों को जन्म देने की अनुमति नहीं होगी जिनमें से दो जन्मों का अंतराल न्यूनतन तीन वर्ष होगा, 
  3. प्रत्येक युगल द्वारा अपने बच्चे के स्वास्थ एवं सम्पूर्ण विकास हेतु २५ वर्ष की आयु तक पोषण, शिक्षा एवं संस्कारण की व्यवस्था सुनिश्चित की जायेगी और उनमें किसी भी प्रकार से हीनता की भावना विकसित नहीं होने दी जायेगी. 
  4. युवाओं को अध्यात्म, भाग्य, ज्योतिष, जन्म-जन्मान्तर, निष्काम कर्म, ईश्वरीय कृपा, अपमान और स्वाभिमान के हनन पर भी  सहिष्णु बने रहने जैसे विनाशकारी सन्दर्भों से बचाकर रखा जाएगा ताकि वह एक आत्मविश्वास से भरा सक्र्तीय बुद्धिवादी नागरिक बन सके.    
इन सब के लिए बौद्धिक जनतंत्र व्यक्तिगत स्तर पर पूर्ण स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर पूर्ण अनुशासन लागू करते हुए समुचित एवं सभी के लिए एक समान शिक्षा पाने के अवसर, सभी को एक समान स्वस्थ सेवाएँ, तथा सभी के लिए त्वरित न्याय प्रद्दन करने के लिए कटिबद्ध है.

आय के साधन
प्रत्येक युवा को उसकी शिक्षा, रूचि और सक्षमता के आधार पर उसके सामान्य निवास के निकट ही समुचित आय के अवसर व्यवस्थित किये जायेंगे जिसके लिए केवल शहरीकरण पर जोर न दिया जाकर देश के प्रत्येक क्षेत्र का संतुलित आर्थिक विकास किया जाएगा. इसके लिए केवल चाकरी प्रदान करने की व्यवस्था न की जाकर उसे व्यवसाय, कला एवं दस्तकारी, कृषि, कुत्टर उद्योग खाद्य संस्कारण उद्योग, वैज्ञानिक एवं प्रोद्योगिकी संबंधी व्यवसाय, साहित्यिक एवं वैज्ञानिक लेखन आदि के अवसर उसी के निवास के समीप विकसित किये जायेंगे.

इसके लिए राष्ट्र में अब भी पर्याप्त संसाधन एवं संपदाएं हैं जो समाज को श्रेष्ठ और क्षुद्र भागों में विभाजित कर केवल अल्पसंख्यक श्रेष्ठ लोगों के हाथों में दे दिए गए हैं.यह अंध शहरीकरण किया जाकर सभी अवसर एवं सुविधाएँ केवल शहरों में प्रदान की जा रही हैं. बहुल जनसँख्या जो गांवों में निवास करती है सुख-सुविधाओं एवं आय के साधनों के लिए तरती छोड़ दी गयी है.  .    

गुरुवार, 11 मार्च 2010

अज्ञानता और अचिंतन का अन्धकार

ईश्वर, धर्म, अद्यात्म, आदि, यदि हम इन शब्दों को वर्तमान में प्रचलित अर्थों में लें, मानवता में अचिंतन के सूत्रपात सिद्ध होते हैं. ये सभी शब्द भारत के प्राचीन वेदों और शास्त्रों में पाए जाते हैं किन्तु वहाँ इनके अर्थ वर्तमान में प्रचलित अर्थों से भिन्न हैं. इन शब्दों के नए अर्थ जानबूझकर भिन्न किये गए ताकि ज्ञान के अकूत भण्डार इन देव ग्रंथों के ज्ञान को सदा सदा के लिए लुप्त कर दिया जाये और लोग इनमें उन विकृत भावों को ही देख पायें जो शब्दार्थ परिवर्तन से इन पर थोपे गए हैं. इससे तीन लाभ हुए -
  1. वेदों और शास्त्रों का वास्तविक ज्ञान लुप्त हो गया, 
  2. वेदों और शास्त्रों की प्रमाणिकता का दुरूपयोग कर षड्यंत्रकारियों ने अपना भ्रम फ़ैलाने का लक्ष्य प्राप्त किया.
  3. निरक्षर षड्यंत्रकारियों को अपने मंतव्य हेतु कोई नया ग्रन्थ नहीं लिखना पड़ा. परिणामस्वरूप, देवों के विज्ञानं और इतिहासपरक ग्रन्थ - वेद और शास्त्र, धर्म ग्रन्थ मने जाने लगे.        
इसी आधार पर श्रीमद भगवद्गीता में जन समुदाय को दो वर्गों में दर्शाया गया है - धर्मक्षेत्रे और कुरुक्षेत्रे, अर्थात धर्मावलम्बी और कर्मावलम्बी. इसी से सिद्ध होता है कि धर्म और कर्म परस्पर विरोधी धारणाएं हैं. धर्म का आडम्बर चाहे जितना भी किया गया हो, कर्म के महत्व को कभी कम नहीं किया जा सका. इससे लोगों में असमंजस उत्पन्न हुआ कि वे धर्म को अपनाएं या कर्म को. अपने परिश्रम के बल पर आजीविका चलाने और मानव सभ्यता का विकास करने के पक्षधरों ने कर्म का मार्ग अपनाया तो समाज को ब्रमित कर उसे अज्ञानता के अचिंतन में निमग्न करते हुए उस पर मनोवैज्ञानिक हनन के माध्यम से राजनैतिक शासन करने वालों ने धर्म को अपनाया. यहीं से आरम्भ हुआ मानवता के संगठित शोषण का इतिहास.

आज का भारतीय समाज तीन वर्गों में विभाजित देखा जा सकता है - नगण्य कर्मावलम्बी, संगठित धर्मावलम्बी और असंख्य अज्ञान और अचिंतन के अन्धकार से भ्रमित जनसाधारण. कर्मावलम्बी परिश्रम करते हैं और अपनी बुद्धि का सदुपयोग करते हुए मानवीय गुणों का विकास करते हैं, धर्मावलम्बी संगठित रूप में तीसरे वर्ग का शोषण करते हुए वैभव भोगते हैं और अपनी बुद्धि का दुरूपयोग करते हुए समाज को भ्रमित एवं ईश्वर के नाम से आतंकित करने एवं रखने हेतु नए नए मार्ग खोजते हैं. तीसरा वर्ग वस्तुतः शोषित है और असमंजस में है, वह कर्म करता है अपनी आजीविका हेतु किनता इससे प्राप्तियों का बहुलांश संगठित धर्मावलम्बी हड़प लेते हैं  आजीविका के संकट से तृस्त यह वर्ग आतंकित भी है और अचिंतन के अन्धकार में निमग्न भी. चूंकि यह समाज का बहुत बड़ा अंश है, इसलिए इसी की स्थिति को समाज की सामान्य स्थिति माना जा सकता है.

समाज का शोषित तीसरा अंश पूरी तरह निर्धन नहीं है, इसमें अनेक धनवान भी सम्मिलित हैं किन्तु ये बौद्धिक कंगाल हैं क्योंकि ये तो यह भी नहीं जानते कि कितना कमाएं और किसलिए. कमाई की अनंत यात्रा पर बस चलते रहते हैं - धनवान होते हुए भी अनंत धन-सम्पदा की कामना लिए हुए अपनी कमाई कोई सदुपयोग भी नहीं कर पाते. संगठित धर्मावलम्बी इन्ही की अज्ञानता, अचिंतन और सम्पन्नता का शोषण करते हुए वैभवपूर्ण जीवन जीते हैं.           

बुधवार, 10 मार्च 2010

शक्कर की कड़वाहट

विगत २ वर्षों में केंद्र सरकार में पदासीन राजनेताओं के निहित स्वार्थों और कुप्रबंधन के कारण शक्कर के उपभोक्ता मूल्य में सतत वृद्धि होती रही है और लगभग २० रुपये से ४० रुपये प्रति किलोग्राम हो गयी है. यह शक्कर उस गन्ने से बनी थी जिसका किसानों को दिया गया मूल्य लगभग १०० रुपये प्रति कुंतल था. शक्कर की अप्रत्याशित मूल्य वृद्धि से पीड़ित किसानों ने भी इस वर्ष अपने गन्ने के मूल्य बढ़ने की मांग की. सरकार ने इसके मूल्य भी २५० रुपये प्रति कुंतल कर दिए टाटा निजी शक्कर मिल किसानों को गन्ने का मूल्य लगभग ३०० रुपये दे रहे अं. जब इस गन्ने से बनी शक्कर बाज़ार में आयेगी तो उसका मूल्य तार्किक दृष्टि से १०० रुपये प्रति किलोग्राम होना चाहिए.

वर्तमान का शक्कर मूल्य लगभग ४० रुपये प्रति किलोग्राम जनसाधारण की जेबों को भारी लग रहा है, इसमें और अधिक वृद्धि होने से देश में शक्कर की खपत में भारी गिरावट हो जायेगी जिससे शक्कर कारखानों को अपना उत्पाद विक्त्रय करने में कठिनाई होगी, हो सकता है कि उन्हें शक्कर का खुदरा मूल्य गिरना पड़े जिससे उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं राह पायेगी..

दूसरी ओर गन्ने के मूल्य लगभग ३ गुना वृद्धित होने से इस वर्ष किसानों ने बहुत अधिक गन्ना बोया है. जिससे अगले शक्कर चक्र में गन्ने का उत्पादन बहुत अधिक होगा. कारखानों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने से वे किसानों का गन्ना अब निर्धारित मूल्य पर नहीं खरीद पाएंगे. हो सकता है कि किसानों का सकल उत्पाद विक्रय ही न हो पाए. जिस समय चौधरी चरण सिंह देश के प्रधान मंत्री थे उस समय ऐसी हे स्थिति उत्पन्न हो गयी थी और किसानों को अपनी गन्ने की फसल खेतों में ही जलानी पडी थी. अगले शक्कर चक्र में इसकी पुनरावृत्ति होने की बहुत अधिक संभावना है.

ऐसी स्थिति में सरकार को गन्ने के मूल्य को नियंत्रण मुक्त करना होगा ताकि कारखाने अपनी इच्छानुसार मूकी पर गन्ना खरीदें. इससे किसानों की आशाओं पर पानी फिर जायेगा. कारखानों के सामने एक विकल्प शक्कर का निर्यात है किन्तु इससे उन्हें शक्कर की वह कीमत नहीं मिल पायेगी जिसकी वे आशा किये बैठे हैं.

इस प्रकार अगला शक्कर चक्र गन्ना उत्पादकों और शक्कर कारखानों के लिए निराशाजनक होगा, जिसका पूरा पूरा दायित्व वर्तमान कृषि मंत्री और प्रधान मंत्री का होगा. ऐसी स्थिति उत्पन्न होने का मुख्य कारण यह है कि देश में उत्पादन का कोई नियोजन नहीं है. विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी स्थिति आती रही हैं किन्तु शासक-प्रशासक इनसे कोई सबक नहीं सीखते.