कुछ परेशान हूँ - क्या होगा इस देश का, क्या होगा हम सब का, कुछ भी तो पसंद आने लायक नहीं दीखता अपने आस-पास. भारतीय चरित्रहीनता के गहनतम सागर में डूब चुके हैं, और आनंदित हैं. सामर्थ्यवान अपने पदों का दुरूपयोग करते हैं तो समझ में आता है, यह मानवीय निर्बलता है. किन्तु आम आदमी, जिसमें कोई सामर्थ नहीं है, वह भी चतुराई के मार्ग खोजने में इतना तल्लीन रहता है कि कुछ भी मानवीय नहीं कर पाता. सामर्थवान अपनी सामर्थ्य के कारण चतुराई करता है और सामर्थ्हीं अपनी निर्बलताओं को चतुराई से ढकता है. यहाँ तक कि चतुराई ही भारतीयता का प्रतीक बन गयी है और इसी को नोर्मल होना स्वीकार जा चुका है.
किसी को कोई रोग लग जाये तो उससे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति उसे तुरंत कोई न कोई अचूक उपचार बताये बिना नहीं रहेगा, जब कि ऐसा प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रोग से पीड़ित होता है. गाँव में अभी एक व्यक्ति की मृत्यु हुई है जो अपने बचपन से ही रोगी होने कारण शरीर और बुद्धि से अविकसित था, किन्तु वही व्यक्ति जीवनभर अपनी तथाकथित अलौकिक शक्तियों से बच्चों की चिकित्सा करता था - केवल बच्चों पर दृष्टिपात करके. स्त्रियाँ अपने बच्चों को ठीक कराने के लिए उसके पास जाती रहती थीं. कभी किसी को कोई लाभ हुआ या नहीं, इस पर किसी ने कोई विचार नहीं किया. एक मूर्ख की चतुराई भी जीवन-पर्यंत चलती रही.
जीवन में कोई भी समस्या हो, अपना दुःख हल्का करने के उद्येश्य से किसी मित्र से कहिये. तुरंत ही अचूक हल दे दिया जायेगा जब कि मित्र भी अनेक समस्याओं में उलझा होगा और समाधान न पा रहा होगा. विगत १० वर्षों से गाँव में रहता हूँ, सरल, शुद्ध, तनाव-मुक्त जीवन जीने के लिए क्योंकि पैसा कमाते रहने की मेरी विवशताएँ समाप्त हो गयी हैं, सभी बच्चे प्रतिष्ठित कार्यों में लगे हैं, पर्याप्त कमाते हैं और आनंदित हैं. मुझे उनकी चिंता नहीं है और वे मेरी ओर से निश्चिन्त हैं.
गाँव में यथासंभव लोगों की सहायता करता हूँ, उनके दुःख-दर्द में उनके काम आता हूँ, इसलिए कोई न कोई मेरे पास आता ही रहता है, बहुधा अपनी समस्या में मेरी सहायता लेने के लिए. तथापि जो भी आता है मुझे परामर्श अवश्य देता है कि मुझे अपने बच्चों का ध्यान रखना चाहिए, उन्ही के पास रहना चाहिए, आदि, आदि. अपना काम निकालने के बाद लोगों की मुझसे शिकायत रहती है कि मुझे अपने बच्चों से भी मोह नहीं है तो मैं किसी दूसरे के क्या काम आऊँगा. कुछ लोग इसे मेरे विरुद्ध एक षड्यंत्र के रूप में भी उपयोग करते हैं - मुझे बदनाम करने के लिए.
जब भी मुझसे किसी का कोई काम पड़ता है, वह मुझसे मेरी विद्वता की प्रशंसा करता है और अपनी समस्या में मेरी सहायता की याचना करता है. सहायता मिलते ही वह बुद्धिमान हो जाता है और मुझे मूर्ख समझते हुए कुछ उपदेश एकर चला जाता है. गाँव के विकास, स्वच्छता, कार्यशैली, आदि के बारे में किसी से कुछ कहता हूँ तो तुरंत उत्तर मिलता है कि मैं अभी गाँव में नया आया हूँ और यहाँ के तौर-तरीकों से अनभिग्य हूँ जबकि वह इस मामले में चिरपरिचित है. इस प्रकार किसी को भी मेरे परामर्श की आवश्यकता नहीं होती.
अभी-अभी ग्राम पंचायत के चुनाव संपन्न हुए हैं. ग्राम विकास की दृष्टि से मैंने किसी सुयोग्य और इमानदार व्यक्ति को ग्राम-प्रधान पद के लिए चुनने का परामर्श दिया तो मुझे ग्राम-राजनीति से अनभिग्य कहकर नकार दिया गया. पांच प्रत्याशी मैदान में उतरे, सभी सार्वजनिक धन और संपदा को हड़पने के लिए लालायित थे. मतदाताओं को प्रसन्न करने के लिए सभी ने ग्रामवासियों को निःशुल्क शराब पिलाई, तरह-तरह के लालच दिए और अंततः कुछ ने मत पाने के लिए नकद धन भी वितरित किया. परिणाम यह हुआ कि सबसे अधिक भृष्ट व्यक्ति ग्राम-प्रधान चुना गया जिसके लिए उसे लगभग २८ प्रतिशत मिले. इससे शेष ७२ प्रतिशत मतदाता परेशान हैं और उन्हें परेशान किये जाने की आशंका है.
अब लोगों को मेरी सहायता की आवश्यकता पद रही है तो मेरी बुद्धिमत्ता और कार्यकुशलता की प्रशंसा होने लगी है. मुझसे ग्राम पंचायत का सदस्य बनकर ग्राम-प्रधान के कार्य-कलापों पर कड़ी दृष्टि रखने का आग्रह किया जा रहा है जिससे कि उसपर लगाम कसी रहे, अनियमितताएं न कर सके और ग्रामवासियों को परेशान न करे.
चूंकि गाँव में रहने का मेरा एक लक्ष्य लोगों की सहायता करना भी है इसलिए मैं उक्त दायित्व से इनकार भी नहीं कर सकता किन्तु इसके लिए आवश्यक स्थिति की मांग करता हूँ तो मेरी नहीं सुनी जाती. सभी अपने स्वार्थपरक मार्ग पर चलते रहना चाहते हैं किन्तु मेरे संरक्षण में. यह विरोधाभास है जिसमें मैं आजकल उलझा हुआ हूँ.
रविवार, 14 नवंबर 2010
अपनी त्रुटियाँ स्वीकारें और उन से सीखें
जो व्यक्ति कार्य करते हैं, उन सभी से त्रुटियाँ भी होती हैं - यह एक सार्वभौमिक सत्य है. किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि त्रुटियाँ करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हमें इनके प्रति निरपेक्ष रहना चाहिए. वस्तुतः त्रुटियाँ सदुपयोग द्वारा व्यक्तिगत और संगठनात्मक सुधारों की माध्यम सिद्ध होती हैं. त्रुटियाँ वही कही जाती हैं जो मनुष्य से अनजाने में हो जाती हैं. इसके विपरीत जो दोषपूर्ण कार्य जान-बूझकर किये जाते हैं, उन्हें त्रुटियाँ नहीं कहकर अपराध अथवा दोष कहा जाता है. इस आलेख में हम त्रुटियों पर केन्द्रित करेंगे.
अधिकाँश व्यक्ति त्रुटि करके उस पर पाश्चाताप करते हैं, और उससे हुई हानि का आकलन करके उन्हें छिपाने के प्रयास करते हैं और अपने अन्दर हीनता का भाव विकसित करते हैं. इससे उनकी उत्पादकता कुप्रभावित होती है. अंततः यह हीनभाव बहुत हानिकर सिद्ध होता है.
अपनी त्रुटि को स्वीकार कर लेने से उनके भविष्य में दोहराया जाना प्रतिबंधित होता है, इसलिए स्वीकार करके आगे बढ़ते जाना बहुत लाभकर सिद्ध होता है. इसलिए पूरी पारदर्शिता के साथ अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए उससे आहत हुए व्यक्तियों से क्षमा मांगिये. इससे त्रुटि को सुधारते हुए आगे बढ़ने और भविष्य की गतिविधियों पर केन्द्रित होने में सहायता मिलती है और अन्य लोगों का भरपूर सहयोग प्राप्त होता है.
व्यक्ति द्वारा अपनी त्रुटि दूसरों द्वारा उंगली उठाने से पूर्व ही पाकर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए इससे किसी को दोषारोपण का अवसर नहीं मिलता. त्रुटि को स्वीकारने के बाद उसके कारणों का विश्लेषण कीजिये और सम्बंधित लोगों को स्पष्ट कीजिये कि वह त्रुटि आपसे क्यों हुई थी, और इससे क्या शिक्षा मिलती है. त्रुटि में किसी एक व्यक्ति की भूमिका पूरी अथवा आंशिक हो सकती है. साथ ही त्रुटि के कारण सम्बद्ध व्यक्ति के नियंत्रण के बाहर भी हो सकते हैं. इससे सभी द्वारा त्रुटि को नए दृष्टिकोण से देखना संभव होता है. इस प्रकार त्रुटि को एक भार से एक संपदा के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है.
त्रुटि होने पर वांछित परिणाम पाना संभावित होता है किन्तु ऐसा सुनिश्चित नहीं होता. साथ ही वांछित परिणाम न प्राप्त होना त्रुटि होने का सुनिश्चित संकेत नहीं होता. इसलिए त्रुटि को परिणाम के सापेक्ष न देखकर उसका परिणाम-निरपेक्ष विश्लेषण किया जाना चाहिए.
त्रुटि का मूल्यांकन
त्रुटि से कुछ हानियाँ होती हैं, साथ ही उससे कुछ शिक्षाएं भी मिलती हैं. अतः वे त्रुटियाँ लाभदायक होती हैं जिनसे हानियाँ अल्प तथा शिक्षाएं मूल्यवान प्राप्त हुई हों. इससे यह भी सिद्ध होता है कि सभी त्रुटियाँ अपने सकल प्रभाव में हानिकर नहीं होतीं. सगठनों की कार्य-संस्कृति ऐसी होनी चाहिए जिससे त्रुटियों को मात्र आर्थिक परिणाम के सापेक्ष न देखा जाकर उनके सकल प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए. अतः संगठन के दृष्टिकोण में त्रुटियाँ शिक्षण और अनुभव के माध्यम होनी चाहिए न कि दंड देने के कारण.
किसी व्यक्ति से त्रुटि होने का मुख्य कारण यह होता है कि व्यक्ति सक्रिय है और प्रयोगधर्मी है. ये दोनों ही सकारात्मक गुण हैं और बनाये रखने चाहिए, त्रुटियाँ होने पर भी. यदि त्रुटियों का सदुपयोग किया जाता रहे तो वे क्रमशः कम होती जाती हैं और व्यक्ति को उत्कृष्टता की ओर ले जाती हैं. अतः त्रुटियाँ असक्षमता और निर्बलता का प्रतीक नहीं होतीं किन्तु व्यक्ति के साहसी प्रयोगधर्मी होने का संकेत देती हैं यदि व्यक्ति इनसे निराश न होकर इनसे सीखने के लिए लालायित रहता है.
सभी त्रुटियों के प्रभाव एक समान नहीं होते. कुछ व्यक्तिगत त्रुटियाँ दूसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. यदि ऐसा है तो उस व्यक्ति से क्षमा याचना करते हुए उस त्रुटि के कारण स्पष्ट कर देने चाहिए. सामूहिक त्रुटियाँ प्रायः क्षम्य होती हैं क्योंकि उनके प्रभाव वितरित हो जाते हैं.
त्रुटियों के बारे में क्या करें -
अधिकाँश व्यक्ति त्रुटि करके उस पर पाश्चाताप करते हैं, और उससे हुई हानि का आकलन करके उन्हें छिपाने के प्रयास करते हैं और अपने अन्दर हीनता का भाव विकसित करते हैं. इससे उनकी उत्पादकता कुप्रभावित होती है. अंततः यह हीनभाव बहुत हानिकर सिद्ध होता है.
अपनी त्रुटि को स्वीकार कर लेने से उनके भविष्य में दोहराया जाना प्रतिबंधित होता है, इसलिए स्वीकार करके आगे बढ़ते जाना बहुत लाभकर सिद्ध होता है. इसलिए पूरी पारदर्शिता के साथ अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए उससे आहत हुए व्यक्तियों से क्षमा मांगिये. इससे त्रुटि को सुधारते हुए आगे बढ़ने और भविष्य की गतिविधियों पर केन्द्रित होने में सहायता मिलती है और अन्य लोगों का भरपूर सहयोग प्राप्त होता है.
व्यक्ति द्वारा अपनी त्रुटि दूसरों द्वारा उंगली उठाने से पूर्व ही पाकर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए इससे किसी को दोषारोपण का अवसर नहीं मिलता. त्रुटि को स्वीकारने के बाद उसके कारणों का विश्लेषण कीजिये और सम्बंधित लोगों को स्पष्ट कीजिये कि वह त्रुटि आपसे क्यों हुई थी, और इससे क्या शिक्षा मिलती है. त्रुटि में किसी एक व्यक्ति की भूमिका पूरी अथवा आंशिक हो सकती है. साथ ही त्रुटि के कारण सम्बद्ध व्यक्ति के नियंत्रण के बाहर भी हो सकते हैं. इससे सभी द्वारा त्रुटि को नए दृष्टिकोण से देखना संभव होता है. इस प्रकार त्रुटि को एक भार से एक संपदा के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है.
त्रुटि होने पर वांछित परिणाम पाना संभावित होता है किन्तु ऐसा सुनिश्चित नहीं होता. साथ ही वांछित परिणाम न प्राप्त होना त्रुटि होने का सुनिश्चित संकेत नहीं होता. इसलिए त्रुटि को परिणाम के सापेक्ष न देखकर उसका परिणाम-निरपेक्ष विश्लेषण किया जाना चाहिए.
त्रुटि का मूल्यांकन
त्रुटि से कुछ हानियाँ होती हैं, साथ ही उससे कुछ शिक्षाएं भी मिलती हैं. अतः वे त्रुटियाँ लाभदायक होती हैं जिनसे हानियाँ अल्प तथा शिक्षाएं मूल्यवान प्राप्त हुई हों. इससे यह भी सिद्ध होता है कि सभी त्रुटियाँ अपने सकल प्रभाव में हानिकर नहीं होतीं. सगठनों की कार्य-संस्कृति ऐसी होनी चाहिए जिससे त्रुटियों को मात्र आर्थिक परिणाम के सापेक्ष न देखा जाकर उनके सकल प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए. अतः संगठन के दृष्टिकोण में त्रुटियाँ शिक्षण और अनुभव के माध्यम होनी चाहिए न कि दंड देने के कारण.
किसी व्यक्ति से त्रुटि होने का मुख्य कारण यह होता है कि व्यक्ति सक्रिय है और प्रयोगधर्मी है. ये दोनों ही सकारात्मक गुण हैं और बनाये रखने चाहिए, त्रुटियाँ होने पर भी. यदि त्रुटियों का सदुपयोग किया जाता रहे तो वे क्रमशः कम होती जाती हैं और व्यक्ति को उत्कृष्टता की ओर ले जाती हैं. अतः त्रुटियाँ असक्षमता और निर्बलता का प्रतीक नहीं होतीं किन्तु व्यक्ति के साहसी प्रयोगधर्मी होने का संकेत देती हैं यदि व्यक्ति इनसे निराश न होकर इनसे सीखने के लिए लालायित रहता है.
सभी त्रुटियों के प्रभाव एक समान नहीं होते. कुछ व्यक्तिगत त्रुटियाँ दूसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. यदि ऐसा है तो उस व्यक्ति से क्षमा याचना करते हुए उस त्रुटि के कारण स्पष्ट कर देने चाहिए. सामूहिक त्रुटियाँ प्रायः क्षम्य होती हैं क्योंकि उनके प्रभाव वितरित हो जाते हैं.
त्रुटियों के बारे में क्या करें -
- त्रुटि में अपनी भूमिका को तुरंत स्वीकारें.
- सिद्ध करें कि त्रुटि से आपने कुछ शिक्षा प्राप्त की है और भविष्य में ऐसा नहीं होगा.
- सम्बंधित लोगों को विश्वास दिलाएं कि आप की सामर्थ पर विश्वास किया जा सकता है.
क्या न करें -
- त्रुटि से बचने का बहाना न खोजें और इसके लिए किसी अन्य पर दायित्व न डालें.
- ऐसी त्रुटियों के करने से बचें जिनसे आप पर दूसरों का विश्वास विखंडित होता हो.
- त्रुटि होने पर अपनी प्रयोगधर्मिता न त्यागें किन्तु इसे और अधिक उत्साह और त्रुतिहीनता के साथ करें.
- कुछ ऐसे निर्णय होते हैं जिनकी वापिसी असंभव होती है. ऐसे निर्णय में त्रुटि होने पर उसका निराकरण भी असंभव होता है. अतः ऐसे निर्णय लेने में बहुत सोच-विचार कर ही लें जिसमें कुछ समय लगायें. ध्यान रखें कि इस में किसी त्रुटि की संभावना तो नहीं है.
- अनेक बार हमारी त्रुटियाँ हमें नए मार्ग भी दर्शाती हैं. अनेक वैज्ञानिक खोजें त्रुटियों के कारण हुई हैं. अतः प्रयोगधर्मी बने रहिये, त्रुटि होने की आशंका मत घबराइए.
बुधवार, 10 नवंबर 2010
दरिद्रता और निर्धनता
प्रायः 'दरिद्रता' और 'निर्धनता' को पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है किन्तु इन दोनों शब्दों में भारी अंतराल है. 'निर्धनता' एक भौतिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति के पास धन का अभाव होता है किन्तु इससे उसकी मानसिक स्थिति का कोई सम्बन्ध नहीं है. निर्धन व्यक्ति स्वाभिमानी तथा परोपकारी हो सकता है. 'दरिद्रता' शब्द भौतिक स्थिति से अधिक मानसिक स्थिति का परिचायक है जिसमें व्यक्ति दीन-हीन अनुभव करता है जिसके कारण उसमें और अधिक पाने की इच्छा सदैव बनी रहती है. अनेक धनवान व्यक्ति भी दरिद्रता से पीड़ित होते हैं.
निर्धनता व्यक्ति की व्यक्तिगत स्थिति होती है, किन्तु दरिद्रता व्यक्ति की सामाजिक स्थिति होती है और उसी से पनपती है. किसी समाज में सदस्यों की आर्थिक स्थिति में अत्यधिक अंतराल होने से समाज में दो प्रकार से दरिद्रता विकसित होती है. प्रथम, धनाढ्य व्यक्ति निर्धनों का शोषण करते है और उन्हें पीड़ित करते हैं, जिससे पीड़ितों में दरिद्रता का भाव पनपने लगता है. द्वितीय, व्यक्ति अपने से अधिक धनवान व्यक्तियों से अधिक धनवान होने की चाह में पर्याप्त धनवान होते हुए भी अपने अन्दर दरिद्रता का भाव विकसित करने लगती है.
गुप्त काल के प्राचीन भारत सर्वांगीण रूप से धनवान था. समाज में जो धनी नहीं भी थे, वे भी प्रसन्न रहते थे क्योंकि कोई उनका शोषण नहीं करता था. इस लिए कुछ लोग निर्धन अवश्य रहे होंगे किन्तु कोई भी दरिद्र नहीं था. गुप्त वंश के शासन के बाद भारत में शोषण का युग आरम्भ हुआ, समाज को वर्णों और जातियों में विभाजित किया गया, कुछ लोगों से बलात तुच्छ कार्य कराकर उन्हें अस्पर्श्य घोषित किया गया. समाज के धर्म और विधानों को कुछ प्रतिष्ठित वर्गों के हित में बनाया गया, जिससे कुछ साधनविहीन वर्गों का बहु-आयामी शोषण करके उन्हें दरिद्र बना दिया गया. यह क्रम तब से स्वतन्त्रता पर्यंत चलता रहा. अतः निर्धन वर्ग दरिद्र भी बन गया, जिसके कारण 'निर्धन' और 'दरिद्र' शब्द परस्पर पर्याय माने जाने लगे.
स्वतन्त्रता के बाद यद्यपि शासन तथाकथित प्रतिष्ठित वर्गों के हाथों में ही रहा, तथापि सामाजिक स्थिति में अंतर लाया गया किन्तु इस अंतर को सकारात्मक नहीं कहा जा सकता. विदेशियों द्वारा शोषण का अंत हुआ इसलिए देश की सकल सम्पन्नता विकसित हुई जो कुछ वर्गों में ही वितरित रही. अन्य भारतीय समाज के वर्ग इस सम्पन्नता से वंचित ही रहे. तथापि देश के संपन्न वर्गों के उपभोगों का अपरोक्ष प्रभाव अन्य वर्गों की सम्पन्नता पर भी पड़ा जिससे अन्य वर्गों की निर्धनता भी घटने लगी. आज भारत केव अधिकाँश लोगों को भर पेट भोजन, तन ढकने को वस्त्र और शरण हेतु भवन उपलब्ध हैं इसलिए देश में निर्धनता कम हुई है. तथापि दरिद्रता का असीमित विकास हुआ है.
स्वतन्त्रता के बाद की सरकारों ने दलित वर्गों के उत्थान के नाम पर एवं भृष्टाचार के माध्यम से स्वयं और अधिक धनवान बनने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चलायी हैं जिनके माध्यम से दलितों को भिक्षा के रूप में कुछ आर्थिक सहायता देकर उनकी निर्धनता को घटाया अवश्य है किन्तु उनमें भिखावृत्ति विकसित करते हुए दरिद्रता का विकास किया है. अब वे सदैव यही आस लगाये बैठे रहते हैं कि शासक वर्ग उनपर कुछ और कृपा करेंगे. इन वर्गों को शिक्षित कर स्वावलंबी बनने के कोई प्रयास नहीं किये गए हैं. इससे इनकी दरिद्रता दूर होती. यह भृष्ट शासक वर्ग के प्रतिकूल सिद्ध होता.
स्वतंत्र भारत के शासक वर्ग ने भृष्टाचार के माध्यम से निर्धनों का ही नहीं धनवान लोगों का भी शोषण किया है. जिससे धनवान लोगों में भी असुरक्षा की भावना विकसित हुई है जिसके निराकरण के लिए वे और अधिक धन कमाने का प्रयास करते हैं जो शासक वर्ग द्वारा उनसे हड़प लिया जाता है. इस असुरक्षा की भावना तथा और अधिक धन कमाने की लालसा ने धनवान वर्गों को भी दरिद्र बना दिया है यद्यपि उनके पास धन का नितांत अभाव नहीं है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में सकल सम्पन्नता विकसित होने के बाद भी राजनैतिक अव्यवस्था के कारण दरिद्रता का सतत विकास हो रहा है जो समाज के निर्धन वर्ग के साथ-साथ धनवान वर्ग को भी ग्रसित कर रही है.
निर्धनता व्यक्ति की व्यक्तिगत स्थिति होती है, किन्तु दरिद्रता व्यक्ति की सामाजिक स्थिति होती है और उसी से पनपती है. किसी समाज में सदस्यों की आर्थिक स्थिति में अत्यधिक अंतराल होने से समाज में दो प्रकार से दरिद्रता विकसित होती है. प्रथम, धनाढ्य व्यक्ति निर्धनों का शोषण करते है और उन्हें पीड़ित करते हैं, जिससे पीड़ितों में दरिद्रता का भाव पनपने लगता है. द्वितीय, व्यक्ति अपने से अधिक धनवान व्यक्तियों से अधिक धनवान होने की चाह में पर्याप्त धनवान होते हुए भी अपने अन्दर दरिद्रता का भाव विकसित करने लगती है.
गुप्त काल के प्राचीन भारत सर्वांगीण रूप से धनवान था. समाज में जो धनी नहीं भी थे, वे भी प्रसन्न रहते थे क्योंकि कोई उनका शोषण नहीं करता था. इस लिए कुछ लोग निर्धन अवश्य रहे होंगे किन्तु कोई भी दरिद्र नहीं था. गुप्त वंश के शासन के बाद भारत में शोषण का युग आरम्भ हुआ, समाज को वर्णों और जातियों में विभाजित किया गया, कुछ लोगों से बलात तुच्छ कार्य कराकर उन्हें अस्पर्श्य घोषित किया गया. समाज के धर्म और विधानों को कुछ प्रतिष्ठित वर्गों के हित में बनाया गया, जिससे कुछ साधनविहीन वर्गों का बहु-आयामी शोषण करके उन्हें दरिद्र बना दिया गया. यह क्रम तब से स्वतन्त्रता पर्यंत चलता रहा. अतः निर्धन वर्ग दरिद्र भी बन गया, जिसके कारण 'निर्धन' और 'दरिद्र' शब्द परस्पर पर्याय माने जाने लगे.
स्वतन्त्रता के बाद यद्यपि शासन तथाकथित प्रतिष्ठित वर्गों के हाथों में ही रहा, तथापि सामाजिक स्थिति में अंतर लाया गया किन्तु इस अंतर को सकारात्मक नहीं कहा जा सकता. विदेशियों द्वारा शोषण का अंत हुआ इसलिए देश की सकल सम्पन्नता विकसित हुई जो कुछ वर्गों में ही वितरित रही. अन्य भारतीय समाज के वर्ग इस सम्पन्नता से वंचित ही रहे. तथापि देश के संपन्न वर्गों के उपभोगों का अपरोक्ष प्रभाव अन्य वर्गों की सम्पन्नता पर भी पड़ा जिससे अन्य वर्गों की निर्धनता भी घटने लगी. आज भारत केव अधिकाँश लोगों को भर पेट भोजन, तन ढकने को वस्त्र और शरण हेतु भवन उपलब्ध हैं इसलिए देश में निर्धनता कम हुई है. तथापि दरिद्रता का असीमित विकास हुआ है.
स्वतन्त्रता के बाद की सरकारों ने दलित वर्गों के उत्थान के नाम पर एवं भृष्टाचार के माध्यम से स्वयं और अधिक धनवान बनने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चलायी हैं जिनके माध्यम से दलितों को भिक्षा के रूप में कुछ आर्थिक सहायता देकर उनकी निर्धनता को घटाया अवश्य है किन्तु उनमें भिखावृत्ति विकसित करते हुए दरिद्रता का विकास किया है. अब वे सदैव यही आस लगाये बैठे रहते हैं कि शासक वर्ग उनपर कुछ और कृपा करेंगे. इन वर्गों को शिक्षित कर स्वावलंबी बनने के कोई प्रयास नहीं किये गए हैं. इससे इनकी दरिद्रता दूर होती. यह भृष्ट शासक वर्ग के प्रतिकूल सिद्ध होता.
स्वतंत्र भारत के शासक वर्ग ने भृष्टाचार के माध्यम से निर्धनों का ही नहीं धनवान लोगों का भी शोषण किया है. जिससे धनवान लोगों में भी असुरक्षा की भावना विकसित हुई है जिसके निराकरण के लिए वे और अधिक धन कमाने का प्रयास करते हैं जो शासक वर्ग द्वारा उनसे हड़प लिया जाता है. इस असुरक्षा की भावना तथा और अधिक धन कमाने की लालसा ने धनवान वर्गों को भी दरिद्र बना दिया है यद्यपि उनके पास धन का नितांत अभाव नहीं है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में सकल सम्पन्नता विकसित होने के बाद भी राजनैतिक अव्यवस्था के कारण दरिद्रता का सतत विकास हो रहा है जो समाज के निर्धन वर्ग के साथ-साथ धनवान वर्ग को भी ग्रसित कर रही है.
लेबल:
गुप्त काल,
दरिद्रता,
निर्धनता,
भिखावृत्ति,
सकल सम्पन्नता,
स्वतंत्र भारत
रविवार, 7 नवंबर 2010
उत्कृष्टता कैसे प्राप्त करें
आज फिर हिंदी की अपूर्णता का आभास हो रहा है और अंग्रेज़ी के 'परफेक्ट' शब्द के समतुल्य कोई शब्द नहीं मिल पा रहा है, जो 'उत्कृष्ट' 'आदर्श' और 'पूर्ण' शब्दों के मध्य कहीं होना चाहिए था किन्तु इसका भाव न तो ''उत्कृष्ट' और आदर्श' व्यक्त करते है और न ही 'पूर्ण' शब्द. इसलिए अभी 'उत्कृष्ट शब्द से काम चलाया जा रहा है.
सर्व प्रथम यहाँ यह चेतावनी देना प्रासंगिक है कि उत्कृष्टता कभी उपलब्ध न होने वाली स्थिति होती है, तथापि इसके लिए सतत प्रयास करते रहना वांछित है. इन प्रयासों से ही हम एक उत्कृष्ट व्यक्ति और कर्मी बन सकते हैं. अतः प्रयास करते रहने पर भी उत्कृष्टता प्राप्त न होने पर भी निराश नहीं होना चाहिए, अपितु और अधिक प्रयास किये जाने चाहिए.
जीवन शैली और कर्मों में उत्कृष्टता प्राप्त करना साधारणता की तुलना में सरल और सुविधाजनक तो नहीं होता अपितु असीम संतुष्टि प्रदायक होता है. इसके लिए अपने आराम और सुविधाजनक स्थिति को त्यागते हुए और असफलता की चिंता न करते हुए सतत प्रयास करने होते हैं. जितना कष्टकर और महत्वपूर्ण उत्कृष्टता प्राप्त करना होता है, उससे अधिक कष्टकर और महत्वपूर्ण इसे बनाये रखना होता है. इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र निम्नांकित हैं -
सर्व प्रथम यहाँ यह चेतावनी देना प्रासंगिक है कि उत्कृष्टता कभी उपलब्ध न होने वाली स्थिति होती है, तथापि इसके लिए सतत प्रयास करते रहना वांछित है. इन प्रयासों से ही हम एक उत्कृष्ट व्यक्ति और कर्मी बन सकते हैं. अतः प्रयास करते रहने पर भी उत्कृष्टता प्राप्त न होने पर भी निराश नहीं होना चाहिए, अपितु और अधिक प्रयास किये जाने चाहिए.
जीवन शैली और कर्मों में उत्कृष्टता प्राप्त करना साधारणता की तुलना में सरल और सुविधाजनक तो नहीं होता अपितु असीम संतुष्टि प्रदायक होता है. इसके लिए अपने आराम और सुविधाजनक स्थिति को त्यागते हुए और असफलता की चिंता न करते हुए सतत प्रयास करने होते हैं. जितना कष्टकर और महत्वपूर्ण उत्कृष्टता प्राप्त करना होता है, उससे अधिक कष्टकर और महत्वपूर्ण इसे बनाये रखना होता है. इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र निम्नांकित हैं -
- अपनी पसंद का कार्य करें : उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए यह अनिवार्य है कि करता की उस कर्म में पूर्ण रूचि हो और यह तभी संभव होता है जब कार्य कर्ता की पसंद का हो. अतः उत्कृष्टता के लिए वही करें जो आपको सर्वाधिक पसंद हो.
- क्लिष्टतम को सर्वप्रथम करें : प्रत्येक कार्य में अनेक चरण अथवा अंग होते हैं. सुविध्वादी लोग प्रायः कार्य के उस भाग को पहले करते हैं जो सरलतम होता है. इसके बाद जब वे क्लिष्ट भागों की ओर बढ़ते हैं तो क्लिष्टता उन्हें पसंद नहीं आती और वे अनेक कार्यों को मध्य में ही छोड़ देते हैं अथवा उन्हें शीघ्रता से घटिया रूप में संपन्न करते हैं. उत्कृष्टता के सर्वप्रथम तो यह आवश्यक होता है कि व्यक्ति उसे पूर्ण और उत्कृष्ट रूप में करने के लिए संकल्पशील हो. कार्य को आरम्भ करते समय व्यक्ति स्वाभाविक रूप में अधिक ऊर्जावान होता है जिसके कारण उसे क्लिष्ट कार्य में कठिनाई नहीं होती. इसलिए कार्य को करते हुए अधिकाधिक आनंद प्राप्त करते रहने के लिए उसके क्लिष्टतम भाग को सर्वप्रथम करना चाहिए ताकि आगे के सरल भाग आनंददायक सिद्ध होते चले जाएँ. इससे कार्य में उत्कृष्टता प्राप्त करना सरल होता है.
- गहन तल्लीन रहें : कहावतों में अभ्यास को उत्कृष्टता की जननी कहा गया है, जो अक्षरशः सत्य है. किन्तु कोई भी व्यक्ति दीर्घ अवधि तक सतत कार्य करते हुए उत्कृष्टता प्राप्त नहीं कर सकता. अध्ययनों से पाया गया है कि व्यक्ति किसी एक कार्य को अधिकतम ९० मिनट तक ही उत्कृष्टता के साथ संपन्न कर सकता है. अतः जब भी जो भी करें पूर्ण तल्लीनता से करें और जब भी कार्य की एकरसता तल्लीनता में बाधा बने, कुछ समय के लिए उस कार्य को विराम दें. इससे व्यक्ति के मस्तिष्क का दाहिना भाग पुनः ऊर्जित हो जाता है और वह व्यक्ति की रचनात्मकता को बनाये रखता है. मनोवैज्ञानिक शोधों से यह भी पाया गया है कि व्यक्ति २४ घंटों में अधिकतम ४.५ घंटों के लिए उत्कृष्टता के साथ कार्य कर सकता है. इससे अधिक किये गए कार्यों में उत्कृष्टता होनी आशंकित होती है. इसलिए केवल शारीरिक परिश्रम की अपेक्षा कर्म में बुद्धि और मानसिकता का सहयोग लें जो सीमित समय के लिए ही उपलब्ध होता है.
- दूसरों के मत जानें किन्तु अंतरालों पर : अपने द्वारा किये गए कार्य से सभी को संतुष्टि होती है किन्तु मानव की सामाजिकता यह भी अपेक्षा रखती है कि दूसरे लोग भी कार्य की उत्कृष्टता से संतुष्ट हों, जिसके लिए अपने द्वारा किये जा रहे कार्यों के बारे में समय-समय पर उस क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों के मत भी जानें और तदनुसार अपनी कार्य शैली में संशोधन करें. किन्तु दूसरों के आलोचनात्मक मत सतत रूप में उपलब्ध होने से व्यक्ति के मानस पर अनावश्यक भार पड़ता है जिससे उसकी रचनात्मकता दुष्प्रभावित होती है. इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखें कि सभी को संतुष्ट करना असंभव होता है. इसलिए सुनें अनेकों की, किन्तु करें अपने ही तदनुसार संशोधित निर्णय की.
- स्वयं अनुशासित रहें : संकल्पशक्ति और अनुशासन, मानवीय जीवन के दो ऐसे पहलू हैं जिनके बारे में कहा बहुत कुछ जाता है, किन्तु इन्हें जीवन में धारण करना अत्यधिक क्लिष्ट है और हम में से अधिकाँश इन से कतराते हैं. इन्हें दारण करने की कुछ व्यवहारिक कठिनाइयाँ भी हैं. इन कठिनाइयों के निवारण के लिए हम जो विशेष कार्य उत्कृष्टता के साथ करना चाहते हैं, उनके लिए विशिष्ट समय निर्धारित करें जिससे उन्हें करना हमारे स्वभाव और जीवनचर्या में सम्मिलित हो जाये. इससे हम स्वानुशासित भी सरलता से हो सकेंगे. .
लेबल:
अनुशासन,
उत्कृष्टता,
तल्लीनता,
रचनात्मकता,
संकल्पशक्ति
शनिवार, 6 नवंबर 2010
मेरी अनिच्छा और विवशता
अभी हुए पंचायत चुनावों में मतदाताओं ने विरोधी की ओर से वितरित शराब, नकद धन और अन्य लालचों में आकर मेरे द्वारा समर्थित प्रत्याशी को धोखे दिए जिसे मैं अपने साथ और अपनी नैतिकता के साथ धोखा मानता हूँ. यहाँ तक कि विजित प्रत्याशी ने एक विपक्षी प्रत्याशी और उसके सहयोगियों को भी ८५,००० रुपये देकस्र खरीद लिया था. चुनाव से पूर्व चुनाव मैदान में अन्य २ प्रत्याशियों ने भी मुझे कोई महत्व नहीं दिया जिसके कारण मेरी और उनकी पराजय हुई. इस चुनाव में विजित प्रत्याशी को लगभग कुल १५०० पड़े मतों में से केवल ४२८ मत प्राप्त हुए जो लगभग ३० प्रतिशत से भी कम हैं. अब उसके समर्थक दूसरे प्रत्याशी को केवल १४ प्रतिशत मत प्राप्त हुए. इससे इन दोनों का समर्थन केवल ४४ प्रतिशत है, जब कि शेष गाँव - ५६ प्रतिशत - विजित प्रत्याशी का घोर विरोधी है और चुनाव परिणामों से बहुत अधिक निराश और दुखी है. दुःख इसलिए भी अधिक है क्यों कि विजित व्यक्ति ने विजय के तुरंत बाद से ही अपनी स्वाभाविक उद्दंडता आरम्भ कर दी है जब कि उसे अभी प्रधान पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हुआ है. इससे गाँव में तनाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है जिसमें एक ओर ४४ प्रतिशत और दूसरी ओर शेष ५६ प्रतिशत व्यक्ति रहने की संभावना है.
उक्त धोखे के कारण मेरा मन बना कि आगे से मैं ऐसे धोखेबाज मतदाताओं पर निर्भर नहीं करूंगा क्योंकि इन पर मेरा विश्वास उठ गया है. अब मेरा मन बना था कि मैं गाँव की राजनीति में भाग न लेकर अपने लेखन और अन्य रचनात्मक कार्य पर ध्यान दूंगा. किन्तु चुनाव परिणामों से उत्पन्न संघर्ष की आशंका के कारण ग्रामवासियों की दृष्टि में मैं ही उनका सच्चा हितैषी हो सकता हूँ और वे मुझसे विपक्ष का नेतृत्व करने की मांग कर रहे हैं ताकि उनके हित सुरक्षित रह सकें. गाँव में मेरे परिवार का इतिहास ग्राम के विकास और ग्रामवासियों की सेवा हेतु संघर्ष करने का रहा है, और गाँव में मेरे दस वर्षों में मेरी जो छबि बनी है वह भी मेरे पारिवारिक इतिहास से भिन्न नहीं रही है. आने परिवार की परंपरा के कारण मैं ग्रामवासियों का आग्रह अस्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ. इससे सत्ता पक्ष में हलचल हुई है जिसमें अधिकांशतः असामाजिक तत्व हैं जिनके साथ सहयोग किये जाने की भी कोई संभावना नहीं है.. मैं यह भी समझता हूँ की आगामी संघर्ष में मैं ही असामाजिक तत्वों का प्रमुख विरोधी रहूँगा और अधिकाँश ग्रामवासी केवल तमाशा ही देखेंगे. इसका सकारात्मक पक्ष यह होगा कि सार्वजनिक धन का दुरूपयोग नहीं हो सकेगा और गाँव में कुछ विकास कार्य भी होंगे. इन्हीं कारणों से मैं असहमत भी नहीं हो पा रहा हूँ. मेरे पक्षधरों को मुझसे कोई निराशा हो यह भी मैं नहीं चाहता हूँ.
इस चुनाव में विजित प्रत्याशी ने सर्वाधिक लगभग ३ लाख रुपये व्यय किये जिसके लिए वह ऋण के भार से दबा हुआ है. मेरे प्रत्याशी के लगभग १ लाख रुपये काम आये जो उसके परिवार की आय से ही थे. अब मेरे समर्थक दो अन्य प्रत्याशियों के भी २-२.५ लाख रुपये व्यय हुए. विजयी प्रत्याशी को ग्राम के विकास हेतु प्राप्त धन का अपव्यय करते हुए अपना ऋण चुकता करना है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन में से लगबग ६ लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करनी होगी. इसके अतिरिक्त वह कुछ धन भविष्य के लिए भी अर्जित करना चाहेगा. इस प्रकार वह आगामी ५ वर्षों में न्यूनतम १० लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करेगा. इसे रोकने का दायित्व ग्रामवासी मुझे देना चाहते हैं. सार्वजनिक हित में मैं इसे अस्वीकार भी नहीं कर पा रहा हूँ.
अतः संघर्ष अवश्यम्भावी है जिसका प्रथम चरण ग्राम पंचायत के शेष सात सदस्यों का चुनाव है जो नवम्बर माह में ही संपन्न होने की आशा है. जब तक ये चुनाव नहीं होते हैं तब तक प्रधान पद के लिए चयनित व्यक्ति को पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हो सकेगा.
उक्त धोखे के कारण मेरा मन बना कि आगे से मैं ऐसे धोखेबाज मतदाताओं पर निर्भर नहीं करूंगा क्योंकि इन पर मेरा विश्वास उठ गया है. अब मेरा मन बना था कि मैं गाँव की राजनीति में भाग न लेकर अपने लेखन और अन्य रचनात्मक कार्य पर ध्यान दूंगा. किन्तु चुनाव परिणामों से उत्पन्न संघर्ष की आशंका के कारण ग्रामवासियों की दृष्टि में मैं ही उनका सच्चा हितैषी हो सकता हूँ और वे मुझसे विपक्ष का नेतृत्व करने की मांग कर रहे हैं ताकि उनके हित सुरक्षित रह सकें. गाँव में मेरे परिवार का इतिहास ग्राम के विकास और ग्रामवासियों की सेवा हेतु संघर्ष करने का रहा है, और गाँव में मेरे दस वर्षों में मेरी जो छबि बनी है वह भी मेरे पारिवारिक इतिहास से भिन्न नहीं रही है. आने परिवार की परंपरा के कारण मैं ग्रामवासियों का आग्रह अस्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ. इससे सत्ता पक्ष में हलचल हुई है जिसमें अधिकांशतः असामाजिक तत्व हैं जिनके साथ सहयोग किये जाने की भी कोई संभावना नहीं है.. मैं यह भी समझता हूँ की आगामी संघर्ष में मैं ही असामाजिक तत्वों का प्रमुख विरोधी रहूँगा और अधिकाँश ग्रामवासी केवल तमाशा ही देखेंगे. इसका सकारात्मक पक्ष यह होगा कि सार्वजनिक धन का दुरूपयोग नहीं हो सकेगा और गाँव में कुछ विकास कार्य भी होंगे. इन्हीं कारणों से मैं असहमत भी नहीं हो पा रहा हूँ. मेरे पक्षधरों को मुझसे कोई निराशा हो यह भी मैं नहीं चाहता हूँ.
इस चुनाव में विजित प्रत्याशी ने सर्वाधिक लगभग ३ लाख रुपये व्यय किये जिसके लिए वह ऋण के भार से दबा हुआ है. मेरे प्रत्याशी के लगभग १ लाख रुपये काम आये जो उसके परिवार की आय से ही थे. अब मेरे समर्थक दो अन्य प्रत्याशियों के भी २-२.५ लाख रुपये व्यय हुए. विजयी प्रत्याशी को ग्राम के विकास हेतु प्राप्त धन का अपव्यय करते हुए अपना ऋण चुकता करना है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन में से लगबग ६ लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करनी होगी. इसके अतिरिक्त वह कुछ धन भविष्य के लिए भी अर्जित करना चाहेगा. इस प्रकार वह आगामी ५ वर्षों में न्यूनतम १० लाख रुपये की आर्थिक अनियमितता करेगा. इसे रोकने का दायित्व ग्रामवासी मुझे देना चाहते हैं. सार्वजनिक हित में मैं इसे अस्वीकार भी नहीं कर पा रहा हूँ.
अतः संघर्ष अवश्यम्भावी है जिसका प्रथम चरण ग्राम पंचायत के शेष सात सदस्यों का चुनाव है जो नवम्बर माह में ही संपन्न होने की आशा है. जब तक ये चुनाव नहीं होते हैं तब तक प्रधान पद के लिए चयनित व्यक्ति को पद का कार्यभार भी प्राप्त नहीं हो सकेगा.
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
राजनीति : स्वतंत्रता के बाद
भारत स्वतंत्र हुआ क्योंकि अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषण के लिए तब यहाँ कुछ शेष नहीं बचा था, तथापि स्वतन्त्रता की मांग की गयी और उसे स्वीकार कर लिया गया. किन्तु स्वतन्त्रता की मांग करने वालों ने कभी यह नहीं सोचा कि वे स्वतंत्र होने के बाद देश कैसे चलाएंगे. मेरे विचार से भारत के इतिहास की यह भयंकरतम भूल थी जिसका मूल्य हम अब तक चुकाते रहे हैं और न जाने कब तक चुकाते रहेंगे. उक्त भूल का परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता के बाद से ही भारत पर षड्यंत्रों का शिकंजा कसा जाने लगा जिन्हें 'राजनीति' कहा गया. नाम मात्र के लिए जन्तात्न्त्र की स्थापना की गयी किन्तु शासन उन परिवारों को सौंप दिया गया जो स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश शासन के पक्षधर रहे थे. अतः स्वतन्त्रता के बाद भी शासन की रीति-नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. सत्ता के गलियारों में जो परिवर्तन हुआ वह यह था कि अनुशासित ब्रिटिश लोगों का स्थान अनुशासनहीन भारतीयों ने ले लिया.
कोई देश हो अथवा उसकी राजनीति, सुचारू अर्थ व्यवस्था के बिना अपने पैरों पर खडी नहीं रह सकती. यह सार्वभौमिक सत्य भारतीय राजनीति के आदि-पुरुष विष्णुगुप्त चाणक्य ने जान लिया था और अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र के माध्यम से उन्होंने भारत की अर्थ व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सुदृढ़ नींव रख दी थी. उन्होंने समाज का एक वर्ग, जो उस समय शासक वर्ग भी था, इसी कार्य में लगा दिया था. यह वर्ग आज भी अर्थ व्यवस्था में लगा हुआ है किन्तु इसके अहिंसक होने के कारण शासन में इसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है. इसी वर्ग की देन है कि भारत की राजनीति में भीषण उतार-चढ़ाव होने पर भी इसकी सकल अर्थ व्यवस्था सदैव सुदृढ़ रही है.
भारत में एक जाति ऐसी रही है जो सदैव सत्तासीन जातियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखती रही है, अधिकांशतः राजगुरु बनकर. इस कारण से यह जाति भारत पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन सदा बनाये रही है. अतः यह स्वभावतः सत्ताच्युत रहना पसंद नहीं करती. विगत २००० वर्षों से इस जाति ने भारतीय समाज को इस प्रकार विभाजित किया कि इसका वर्चस्व सदा बना रहे. समाज में अछूत, दलित, कमीन, आदि वर्ग इसी जाति की देन हैं. स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति में यह जाति अग्रणी रही और अपनी शोषण-परक रीति-नीतियों के कारण भारतीय राष्ट्र की संपदा पर अपना प्रभुत्व बढाती रही. आज भी यह जाति समाज की अग्रणी और धनाढ्य है जबकि अर्थ व्यवस्था चलाने में इसका कोई योगदान नहीं रहा है.
स्वतंत्र भारत के संविधान में दीर्घ काल से पद-दलित वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि ये शिक्षित और सभ्य होकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकें. किन्तु शासकों ने इन्हें न शिक्षा लेने दी और न ही किसी अन्य प्रकार से सुयोग्य होने दिया. इनके कल्याण और विकास के नाम पर इन्हें जो भिक्षा दी गयी, उसके माध्यम से इन्हें पारंपरिक भिखारी बना दिया जो विगत ६० वर्षों से शासकों द्वारा दी जाने वाली भीख पर पल रहे हैं और भारत की अर्थ व्यवस्था पर एक भारी बोझ हैं. इन्हीं में से कुछ लोग इनकी वोटों के ठेकेदार बनते रहे हैं और सत्ताधारी लोगों के साथ रंगरेलियां मनाते रहे हैं. शासकों और इनके ठेकेदारों का हित इसी में है कि वे इन दलितों को दलित ही बनाए रखकर इनकी वोटों के माध्यम से सत्तालाभ प्राप्त करते रहें. इसके लिए इन्हें निरंतर भीख दिए जाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी है. विगत ६० वर्षों में आरक्षण व्यवस्था का विस्तार इसी भीख दिए जाने की व्यवस्था का अंग है.
स्वतन्त्रता के बाद अनुशासनहीन भारतीयों के शासन में स्वतन्त्रता ने उद्दंडता का रूप ले लिया, जनतंत्र पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी, जिससे भारतीय राजनीति में हिंसा - मनोवैज्ञानिक, भौतिक, आर्थिक, आदि - का स्थान सर्वोपरि हो गया. जनतंत्र के नाम पर जो चुनाव होते हैं वे भी शोषण और हिंसा के साए में होते हैं जिनमें वोटों को बलपूर्वक प्राप्त किया जाता है अथवा धन प्रदान कर खरीदा जाता है. यह प्रक्रिया निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत से लेकर शीर्षस्थ स्तर भारतीय संसद तक चल रही है जिसमें कोई भी मानवीय तत्व विद्यमान नहीं है.
कोई देश हो अथवा उसकी राजनीति, सुचारू अर्थ व्यवस्था के बिना अपने पैरों पर खडी नहीं रह सकती. यह सार्वभौमिक सत्य भारतीय राजनीति के आदि-पुरुष विष्णुगुप्त चाणक्य ने जान लिया था और अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र के माध्यम से उन्होंने भारत की अर्थ व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सुदृढ़ नींव रख दी थी. उन्होंने समाज का एक वर्ग, जो उस समय शासक वर्ग भी था, इसी कार्य में लगा दिया था. यह वर्ग आज भी अर्थ व्यवस्था में लगा हुआ है किन्तु इसके अहिंसक होने के कारण शासन में इसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है. इसी वर्ग की देन है कि भारत की राजनीति में भीषण उतार-चढ़ाव होने पर भी इसकी सकल अर्थ व्यवस्था सदैव सुदृढ़ रही है.
भारत में एक जाति ऐसी रही है जो सदैव सत्तासीन जातियों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखती रही है, अधिकांशतः राजगुरु बनकर. इस कारण से यह जाति भारत पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन सदा बनाये रही है. अतः यह स्वभावतः सत्ताच्युत रहना पसंद नहीं करती. विगत २००० वर्षों से इस जाति ने भारतीय समाज को इस प्रकार विभाजित किया कि इसका वर्चस्व सदा बना रहे. समाज में अछूत, दलित, कमीन, आदि वर्ग इसी जाति की देन हैं. स्वतन्त्रता के बाद से ही भारतीय राजनीति में यह जाति अग्रणी रही और अपनी शोषण-परक रीति-नीतियों के कारण भारतीय राष्ट्र की संपदा पर अपना प्रभुत्व बढाती रही. आज भी यह जाति समाज की अग्रणी और धनाढ्य है जबकि अर्थ व्यवस्था चलाने में इसका कोई योगदान नहीं रहा है.
स्वतंत्र भारत के संविधान में दीर्घ काल से पद-दलित वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि ये शिक्षित और सभ्य होकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकें. किन्तु शासकों ने इन्हें न शिक्षा लेने दी और न ही किसी अन्य प्रकार से सुयोग्य होने दिया. इनके कल्याण और विकास के नाम पर इन्हें जो भिक्षा दी गयी, उसके माध्यम से इन्हें पारंपरिक भिखारी बना दिया जो विगत ६० वर्षों से शासकों द्वारा दी जाने वाली भीख पर पल रहे हैं और भारत की अर्थ व्यवस्था पर एक भारी बोझ हैं. इन्हीं में से कुछ लोग इनकी वोटों के ठेकेदार बनते रहे हैं और सत्ताधारी लोगों के साथ रंगरेलियां मनाते रहे हैं. शासकों और इनके ठेकेदारों का हित इसी में है कि वे इन दलितों को दलित ही बनाए रखकर इनकी वोटों के माध्यम से सत्तालाभ प्राप्त करते रहें. इसके लिए इन्हें निरंतर भीख दिए जाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी है. विगत ६० वर्षों में आरक्षण व्यवस्था का विस्तार इसी भीख दिए जाने की व्यवस्था का अंग है.
विगत २५०० वर्षों में भारत में अनेक विदेशी जाति बसती रही हैं जिनमें से अनेक जंगली जातियां थीं और जो स्वभावतः हिंसक थीं जिसके लिए जिन्हें सैनिक जातियां कहा जाता है. भारत में ये सैनिक जातियां युद्ध के लिए आयी थीं और इनका किसी मानवीय गुण से कोई परिचय नहीं था. मानवीय शासन के अधीन रहकर ये युद्ध करने में पारंगत सिद्ध होती थीं किन्तु स्वतंत्र रहकर ये अपने मूल हिंसक स्वभाव के कारण अपने जंगली व्यवहार पर उतर आती थीं. इनकी स्थिति आज भी ऐसी ही है और ये भारत की वर्तमान राजनीति में सक्रिय हैं और राजनीति में वही होता है जो ये जातियां चाहती हैं. .
स्वतन्त्रता के बाद अनुशासनहीन भारतीयों के शासन में स्वतन्त्रता ने उद्दंडता का रूप ले लिया, जनतंत्र पर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति चरितार्थ होने लगी, जिससे भारतीय राजनीति में हिंसा - मनोवैज्ञानिक, भौतिक, आर्थिक, आदि - का स्थान सर्वोपरि हो गया. जनतंत्र के नाम पर जो चुनाव होते हैं वे भी शोषण और हिंसा के साए में होते हैं जिनमें वोटों को बलपूर्वक प्राप्त किया जाता है अथवा धन प्रदान कर खरीदा जाता है. यह प्रक्रिया निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत से लेकर शीर्षस्थ स्तर भारतीय संसद तक चल रही है जिसमें कोई भी मानवीय तत्व विद्यमान नहीं है.
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