जिज्ञासा, अर्थात कुछ नया जानने की उत्कंठा, मनुष्य जाति का वह धर्म है जिसने इस जाति को इस धरा की सर्वोत्कृष्ट जाति बनाया है. यही मनुष्य को जीवंत बनाती है. इसी के कारण विशिष्ट वस्तुओं में हमारी रूचि जागृत होती है जिससे हमें प्रसन्नता प्राप्त होती है. यद्यपि जिज्ञासा जीवन की अन्तः प्रेरणा होती है, यह प्रतिकूल परिस्थितियों में मृतप्रायः हो सकती है तथा इसे प्रयासों से संवर्धित किया जा सकता है.
अपने चारों ओर के विश्व में अपनी जिज्ञासा जागृत करने की कुंजी हमारे द्वारा दृश्यों को देखने, ध्वनियों को श्रवन करने, गंधों को सूंघने, स्पर्श करने, स्वादों को चखने, आदि में निष्क्रिय रहने की अपेक्षा सक्रिय भूमिका है. जब हम किसी गली से होकर गुजरते हैं तो हमें अनेक वस्तुएं स्वतः दिखाई देती हैं किन्तु हम उनमें से कुछ वस्तुओं में ही रूचि लेते हैं. बाद में यदि उक्त दृश्यावली को स्मृत करें तो केवल हमरे द्वारा रूचि ली गयी वस्तुएं ही हमारे स्मरण में आती हैं जैसे कि अन्य वस्तुएं वहां उपस्थित ही न हों. इससे दो तथ्य उभरते हैं - हमारा मस्तिष्क उन्ही वस्तुओं को स्मृत रखता है जिनमें हम सक्रिय रूचि लेते हैं तथा हममें से प्रत्येक का विश्व वहीं तक सीमित होता है जहां तक हमारी रूचि का विस्तार होता है. अतः हमारी रूचि जो जिज्ञासा से उगती है, हमारे मस्तिष्क को सक्रिय बनाती है, और हमारी जिज्ञासा ही हमारे विश्व स्वरुप का निर्माण करती है.
जिज्ञासा ऊर्जित और संवर्धित करने के कुछ उपाय निम्नांकित हैं, अपनाईये और जीवंत बनिए. केवल जीवित होना जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है.
जीवन के उत्कर्ष
मुझे अभी तक अपनी प्रथम पुत्री के जन्म के समय उसका देखा जाना स्मृत है क्योंकि वह मेरे जीवन का उत्कर्ष भरा क्षण था, जबकि उसके बाद की अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं और दृश्य विस्मृत से हो गए हैं. ऐसे आह्लाद भरे क्षणों के अतिरिक्त हमारी चिंताएं, अनिश्चितताएं, आदि यद्यपि ऋणात्मक मानी जाती हैं किन्तु ये भी जीवन में उत्कर्ष के क्षण उत्पन्न करती हैं जिनसे हम अपने चारों ओर की वस्तुओं और घटनाओं के बारे में अधिक सचेत होते हैं. दूसरे शब्दों में, सहज जीवन के ये ऋणात्मक भाव भी हमारे मस्तिष्क को अधिक सक्रिय कर हमें जिज्ञासु बना सकते हैं. बस आवश्यकता होती है अपने जीवन में उत्कर्ष के क्षणों का सदुपयोग करने की, जागृत और सचेत होकर अपने चारों ओर की वस्तुओं, घटनाओं और परिस्थितियों के प्रति, जिनमें ही उत्कर्ष के पाल पाए जा सकते हैं.
जीवन के किनारे
जैसे नदी की मुख्य धारा का जल प्रवाह तो सभी का ध्यान आकृष्ट करता है किन्तु किनारे पर तैरते कूड़े-करकट के पुंज नगण्य समझ लिए जाते हैं. ध्यान दें तो इनमें भी अनेक कलात्मक दृश्य उजागर होते हैं. इसी प्रकार, अपनी मुख्य जीवन धारा पर तो हम सभी ध्यान देते हैं, किन्तु जीवन के किनारे, अर्थात छोटी-छोटी घटनाएँ, वस्तुएं, आदि, हमारी यात्रा में बिना ध्यान आकृष्ट किये ही पीछे छूटते जाते हैं. खोजने पर ज्ञात होता है कि इन नगण्य वस्तुओं, घटनाओं, आदि में भी बहुत कुछ जानने के लिए होता है. यह समय का नष्ट करना न होकर, जीवन को समग्र रूप में देखना होता है. किसी वृहत उपन्यास की मूल कथा कुछ शब्दों में कही जा सकती है किन्तु इससे श्रोताओं को मंत्रमुग्ध नहीं किया जा सकता, जिसके लिए कथा के ताने-बाने बारीकी से उभारे जाते हैं. श्रोताओं के बांधे रखने में ही कथा की सार्थकता निहित होती है. एक बार केरल की यात्रा में कोचीन-त्रिवेंदृम मुख्य मार्ग पर गाडी सरपट दौड़ी जा रही थी. यात्रा समाप्ति की शीघ्रता पर सभी का ध्यान था जिससे सड़क पर आते-जाते अन्य वाहन ही यात्रा की मुख्य धारा प्रतीत हो रहे थे. किन्तु मार्ग से हटकर खजूर वृक्षों के आलिंगनों में छोटे-छोटे चित्रात्मक भवन और उनके आसपास खेलते हुए बच्चे मुझे आह्लादित कर रहे थे जिनका यात्रा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था. स्वयं यात्रा का कोई महत्व नहीं होता यदि स्थानीय जीवन शैली और पारिस्थितिकी को आत्मसात न किया जाए.
पुनरावलोकन
हमें बहुधा प्रतीत होता है कि परिचित व्यक्तियों और वस्तुओं से हम पूरी तरह परिचित होते हैं, जबकि वस्तुतः ऐसा नहीं होता. प्रत्येक परिचित वस्तु अथवा व्यक्ति में भी अनाकानेक हमारे लिए अपरिचित तथ्य विद्यमान होते हैं जिन्हें बार-बार पुनरावलोकन से पाया जा सकता है. परिचय तभी तो पूर्ण हो पाता है. जिज्ञासा प्रवृत्ति जागृत बनाए रखने के लिए जब भी किसी परिचित वस्तु अथवा व्यक्ति को देखें उसमें कुछ नया खोजें, कुछ नया जानने का प्रयास करें. विश्वविद्यालयी जीवन काल में एक मित्र था जिसने शर्मीला टगोर अभिनीत एक फिल्म १८ बार देखी थी और उसका कहना था कि तब भी बहुत कुछ देखने योग्य शेष रह गया था. ऐसे कुछ अब्यासों के बाद उसकी आदत बन गयी थी कि वह फिल्म को एक बार देख कर ही उसके सूक्ष्मतम तथ्यों को आत्मसात कर लेता था और उनको बयान कर सकता था.
काम-काज में खेल
प्रत्येक कार्य करते हुए उसे खेल का रूप देने की संभावना होती है. किसी कार्य हेतु बैठे हुए यदा-कदा अपनी परछाईं को सूक्षमता से देखिये, इसमें आनंद मिलेगा जो कार्य को बोझिल नहीं होने देगा. इस प्रकार का आनंद कार्य से विमुख नहीं करता, उसे करने में रूचि बनाए रखता है जिससे कार्य-कौशल का संवर्धन होता है. इस प्रकार के आनंद और कार्य-कौशल का मूल स्रोत जिज्ञासा होती है - जो कुछ अप्रयासित हो रहा होता है उसके प्रति. रुड़की विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग का छात्र होने के समय मैं अपने एक अवकाश हेतु आवेदन में लिखा था, "... मैं कक्षा में उपस्थित रहने का आनंद नहीं ले सकूंगा..." इस पर कक्षाध्यापक ने आपत्ति की थी तो मैंने जिद करके कहा था, "मुझे कक्षा में अपने मित्रों के साथ उपस्थित रहने और शिक्षा गृहण करने में वास्तव में आनंद आता है इसलिए आवेदन में ऐसा लिखा जाना मेरी विवशता है....." यह विषय चर्चित हुआ और छात्र जीवन को एक नया दर्शन मिला. .
रूचि विविधता
एक-रसता जिज्ञासा का हनन करती है इसलिए निष्क्रियता को जन्म देती है. इसके विपरीत, विविधता जिज्ञासा और सक्रियता विकास में उत्प्रेरक होती है. मैं १५ प्रथक विषयों पर ब्लॉग लिखता हूँ जिसके लिए इन विविध विषयों का अध्ययन करता हूँ और लगातार १०-१२ घंटे अपनी मेज पर बैठा इन कार्यों से कभी ऊबता नहीं हूँ - केवल विषयों की विविधता के कारण. इससे मेरी सम्बद्ध विषयों में जिज्ञासा बनी रहती है और मैं अपने ज्ञान संवर्धन हेतु सदैव प्रयासरत रहता हूँ - एक नव-शिक्षु की तरह.
सोमवार, 6 सितंबर 2010
रविवार, 5 सितंबर 2010
विश्वीय दृष्टिकोण, स्थानीय कर्म
बौद्धिक जनतंत्र के लिए स्थानीय हितों की रक्षा सर्वोपरि होता है - राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, आदि के सापेक्ष. जबकि विकासशील विश्व में जनतंत्र के अंतर्गत प्रत्येक उत्तम वस्तु निर्यात कर दी जाती है उस विदेशी मुद्रा के लिए जिस के उपयोग से घटिया वस्तुएं देश में लाई जाती हैं. यह किसी व्यावसायिक इकाई के लिए हितकर प्रतीत हो सकता है किन्तु राष्ट्र और समाज के लिए अनेक प्रकार से अनुत्पादक सिद्ध होता है और बौद्धिक दृष्टि से अनैतिक भी है.
यहाँ एक मौलिक प्रश्न उभरता है - विश्वीय दृष्टिकोण की आवश्यकता ही क्या है? इसका हमारे पास एक अति उत्तम उत्तर है. यदि लोग जो चाहें, उन्हें सरकार द्वारा वही सब उपलब्ध कराया जाए तो वे संतुष्ट हो सकते हैं. किन्तु बौद्धिक विश्व इससे संतुष्ट नहीं हो सकता. लोग केवल वही चाह सकते हैं जो वे जानते हैं, किन्तु विश्व में उनके ज्ञान के अतिरिक्त भी बहुत कुछ होता है जो उन्हें शासन द्वारा उपलब्ध कराया जाना चाहिए. इससे शासन में लोगों की आस्था सुदृढ़ होती है और विश्वीय विकास से लोगों की सेवा संभव होती है. इसके लिए शासकों के विश्वीय दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य होता है.
विश्वीय दृष्टिकोण से स्थानीय कर्म संलग्न होने से शासन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकसित उत्पादों को देश में आयात की अनुमति प्राप्त ना होकर उन उत्पादों के देश में ही उत्पादन एवं लोगों द्वारा उपभोग उत्प्रेरित होता है. इससे देश में व्यवसाय और रोजगार के नए अवसर विकसित होते हैं जिनसे व्यक्तिगत और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होती है.
शासन का विश्वीय दृष्टिकोण देश की अर्थव्यवस्था के विश्वीकरण से भिन्न प्रक्रिया है. विश्वीकरण में विश्व-स्तरीय कर्म अपनाया जाता है जो पूरी तरह अव्यवहारिक होता है जब कि विश्वीय दृष्टिकोण में केवल विकास का विश्वीय दर्शन अपनाया जाता है जिसे स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल किया जाकर स्थानीय कर्मों में उसका उपयोग किया जाता है. इससे विकास प्रक्रिया स्थानीय कर्मों से संचालित होती है.
वस्तुतः, भूमंडल पर प्रशासनिक और भौगोलिक सीमाओं की उपस्थिति के कारण विभिन्न स्थानों पर भिन्न परिस्थितियों का सृजन होता है जिनके कारण विश्वीय कर्म संभव नहीं हो सकता. इसलिए कर्म स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप स्थानीय स्तर पर ही संभव होता है. केवल दृष्टिकोण ही विश्वीय हो सकता है जिसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार स्थानीय कर्म में परिणित किया जाता है. .
स्थानीय दृष्टिकोण से सीमित स्थानीय कर्म होने से स्थानीय विकास स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहता है जिसका लाभ अन्य स्थानों को प्राप्त नहीं हो पाता. विश्वीय दृष्टिकोण अपनाए जाने से दूसरे स्थानों के विकास का ही लाभ नहीं उठाया जाता, स्थानीय विकास का लाभ भी सुदूर स्थानों को प्राप्त होता है. इस प्रकार विश्वीय दृष्टिकोण विकास प्रक्रिया को विश्व स्तर तक विस्तृत करता है.
उपरोक्त के अतिरिक्त, विश्वीय दृष्टिकोण से संपन्न स्थानीय कर्म केवल कर्म-स्थल हेतु ही उपयुक्त नहीं होता अपितु उसी प्रकार के अन्य स्थलों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है. उदाहरणार्थ, विश्वीय दृष्टिकोण के साथ एक छोटे से गाँव में किया गया कर्म उस प्रकार के अन्य गाँवों में भी विकास के लहर का सृजन करता है. इस लहर के सृजन का कारण यह है कि दृष्टिकोण को स्थानीय पारिस्थितिकी हेतु अनुकूलित कर लिया गया होता है जिसे उसी पारिस्थितिकी के अन्य स्थानों पर भी सरलता से लागू किया जा सकता है.
यहाँ एक मौलिक प्रश्न उभरता है - विश्वीय दृष्टिकोण की आवश्यकता ही क्या है? इसका हमारे पास एक अति उत्तम उत्तर है. यदि लोग जो चाहें, उन्हें सरकार द्वारा वही सब उपलब्ध कराया जाए तो वे संतुष्ट हो सकते हैं. किन्तु बौद्धिक विश्व इससे संतुष्ट नहीं हो सकता. लोग केवल वही चाह सकते हैं जो वे जानते हैं, किन्तु विश्व में उनके ज्ञान के अतिरिक्त भी बहुत कुछ होता है जो उन्हें शासन द्वारा उपलब्ध कराया जाना चाहिए. इससे शासन में लोगों की आस्था सुदृढ़ होती है और विश्वीय विकास से लोगों की सेवा संभव होती है. इसके लिए शासकों के विश्वीय दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य होता है.
विश्वीय दृष्टिकोण से स्थानीय कर्म संलग्न होने से शासन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकसित उत्पादों को देश में आयात की अनुमति प्राप्त ना होकर उन उत्पादों के देश में ही उत्पादन एवं लोगों द्वारा उपभोग उत्प्रेरित होता है. इससे देश में व्यवसाय और रोजगार के नए अवसर विकसित होते हैं जिनसे व्यक्तिगत और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होती है.
शासन का विश्वीय दृष्टिकोण देश की अर्थव्यवस्था के विश्वीकरण से भिन्न प्रक्रिया है. विश्वीकरण में विश्व-स्तरीय कर्म अपनाया जाता है जो पूरी तरह अव्यवहारिक होता है जब कि विश्वीय दृष्टिकोण में केवल विकास का विश्वीय दर्शन अपनाया जाता है जिसे स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल किया जाकर स्थानीय कर्मों में उसका उपयोग किया जाता है. इससे विकास प्रक्रिया स्थानीय कर्मों से संचालित होती है.
वस्तुतः, भूमंडल पर प्रशासनिक और भौगोलिक सीमाओं की उपस्थिति के कारण विभिन्न स्थानों पर भिन्न परिस्थितियों का सृजन होता है जिनके कारण विश्वीय कर्म संभव नहीं हो सकता. इसलिए कर्म स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप स्थानीय स्तर पर ही संभव होता है. केवल दृष्टिकोण ही विश्वीय हो सकता है जिसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार स्थानीय कर्म में परिणित किया जाता है. .
स्थानीय दृष्टिकोण से सीमित स्थानीय कर्म होने से स्थानीय विकास स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहता है जिसका लाभ अन्य स्थानों को प्राप्त नहीं हो पाता. विश्वीय दृष्टिकोण अपनाए जाने से दूसरे स्थानों के विकास का ही लाभ नहीं उठाया जाता, स्थानीय विकास का लाभ भी सुदूर स्थानों को प्राप्त होता है. इस प्रकार विश्वीय दृष्टिकोण विकास प्रक्रिया को विश्व स्तर तक विस्तृत करता है.
उपरोक्त के अतिरिक्त, विश्वीय दृष्टिकोण से संपन्न स्थानीय कर्म केवल कर्म-स्थल हेतु ही उपयुक्त नहीं होता अपितु उसी प्रकार के अन्य स्थलों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है. उदाहरणार्थ, विश्वीय दृष्टिकोण के साथ एक छोटे से गाँव में किया गया कर्म उस प्रकार के अन्य गाँवों में भी विकास के लहर का सृजन करता है. इस लहर के सृजन का कारण यह है कि दृष्टिकोण को स्थानीय पारिस्थितिकी हेतु अनुकूलित कर लिया गया होता है जिसे उसी पारिस्थितिकी के अन्य स्थानों पर भी सरलता से लागू किया जा सकता है.
रविवार, 29 अगस्त 2010
असत्यमेव जयते
शीर्षक देखकर चौंकिए नहीं, यह भारत का धरातलीय यथार्थ है, इसे अच्छी तरह पहचानिए. महाभारत कथा के छल-कपटों को छिपाए रखने के लिए 'सत्यमेव जयते' का भ्रम विकसित किया गया, जबकि सच्चाई यह है कि महाभारत में 'असत्यमेव जयते' का ही बोलबाला था. इसका परिणाम यह हुआ कि छल-कपटों के माध्यम से जो विजयी हुए उन्ही को सत्य का अनुयायी मान लिया गया. किसी में साहस नहीं हुआ कि महाभारत में असत्य की विजय को स्वीकारता. इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी कहा जाता है 'जो जीता वही सिकंदर'. इस प्रकार से विजय का आधार सत्य न होकर सत्य का आधार विजय बना.
इस 'सत्यमेव जयते' की भ्रमित मान्यता में बौद्धिकता का कोई उपयोग अथवा सम्मान नहीं था, इसका एकमात्र आधार सर्व व्यापक 'भय' था जो ईश्वर के नाम पर फैलाया गया और एक आतंकवादी को ईश्वर का अवतार सिद्ध किया गया. इस सिद्धि के लिए भी असत्यमेव जयते को आधार बनाया गया. इस ईश्वर का आतंक आज तक यथावत है, जिसके परिणामस्वरूप अधिकाँश मनुष्य इसके बारे में प्रश्न उठाने का भी साहस नहीं कर पाते.
जिस मस्तिष्क में ईश्वर को मान्यता प्राप्त है, उसमें बुद्धि का उपयोग निषेध होता है, वहां केवल आस्था ही सर्वोपरि होती है. आस्था का अर्थ होता है - किसी दूसरे व्यक्ति के कथन पर विश्वास करना और उसे बिना किसी कसौटी के सत्य स्वीकार कर लेना. जब कि बुद्धि का उपयोग कसौटी पर परीक्षण करने में ही होता है. महाभारत से लेकर आज तक का भारतीय जन-मानस के लिए सबसे अधिक घातक असत्य 'ईश्वर' है जिसे उसके महाभारत कालीन अवतार से पुष्ट किया गया. यही असत्य आज तक प्रचलित है और यही असत्य भारतीय जन-मानस द्वारा बुद्धि के उपयोग का निषेध करता रहा है.
ईश्वरीय व्यवसाय के अतिरिक्त विश्व में कोई ऐसा व्यवसाय नहीं है जो इतने लम्बे समय से अक्षुण चला आ रहा हो और जिसे संचालित बनाए रखने के लिए इतने अधिक संसाधनों - मानव-शक्ति, वित्तीय निवेश, आदि; का उपयोग किया जा रहा हो. यही व्यवसाय भारत में असत्य की स्थापना और उसका पोषण करता रहा है और उसे ही विजयश्री का अधिकारी सिद्ध करता रहा है. और इस भृष्ट आचरण पर पर्दा डाले रखने के लिए 'सत्यमेव जयते' का नारा दिया गया. इसके आधार पर सत्य को विजय के योग्य न माना जाकर विजय को ही सत्य की कसौटी माना जाता रहा है.
उक्त कारण से भारतीय जनमानस सत्य से निरपेक्ष रहकर केवल विजय की अभिलाषा करता रहा है जिसके आधार पर उसे सत्य की प्रतिमूर्ति माना जा सके. इसी से फल-फूलता रहा है भारत में चारित्रिक संकट जो आज विकराल रूप में हमारे समक्ष खडा है और संपूर्ण मानवीय नैतिकता को लील रहा है.
महाभारत में जो घटा, वही आज भारत के प्रत्येक छोटे-बड़े समाज और शासन-प्रशासन में घटित हो रहा है, असत्य की सर्वस्व विजय हो रही है, जनमानस कराह रहा है. उसके पास आत्मसंतुष्टि के लिए एकमात्र आश्रय यही है 'जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा'. किन्तु उसे ज्ञान नहीं है कि यह उसका आत्मसंतुष्टि हेतु भ्रम है. इसके भ्रम होने का प्रमाण यही है कि 'जो जैसा करेगा, वैसा कब भरेगा - आज कल में, अपने जीवन के अंत में, अथवा अपने जन्मान्तर में'. आत्मसंतुष्टि इसी में निहित है कि ऐसा असुविधाजनक प्रश्न उठाया ही न जाए.
ऐसी निराधार आत्मसंतुष्टि जनमानस में निष्क्रियता उत्पन्न कर रही है, जिसके कारण वह किसी भी अत्याचार, भृष्टाचार, व्यभिचार, आदि के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार नहीं है और ये सब दुराचार निरंतर पनप रहे हैं - बिना किसी प्रतिकार के.
इस 'सत्यमेव जयते' की भ्रमित मान्यता में बौद्धिकता का कोई उपयोग अथवा सम्मान नहीं था, इसका एकमात्र आधार सर्व व्यापक 'भय' था जो ईश्वर के नाम पर फैलाया गया और एक आतंकवादी को ईश्वर का अवतार सिद्ध किया गया. इस सिद्धि के लिए भी असत्यमेव जयते को आधार बनाया गया. इस ईश्वर का आतंक आज तक यथावत है, जिसके परिणामस्वरूप अधिकाँश मनुष्य इसके बारे में प्रश्न उठाने का भी साहस नहीं कर पाते.
जिस मस्तिष्क में ईश्वर को मान्यता प्राप्त है, उसमें बुद्धि का उपयोग निषेध होता है, वहां केवल आस्था ही सर्वोपरि होती है. आस्था का अर्थ होता है - किसी दूसरे व्यक्ति के कथन पर विश्वास करना और उसे बिना किसी कसौटी के सत्य स्वीकार कर लेना. जब कि बुद्धि का उपयोग कसौटी पर परीक्षण करने में ही होता है. महाभारत से लेकर आज तक का भारतीय जन-मानस के लिए सबसे अधिक घातक असत्य 'ईश्वर' है जिसे उसके महाभारत कालीन अवतार से पुष्ट किया गया. यही असत्य आज तक प्रचलित है और यही असत्य भारतीय जन-मानस द्वारा बुद्धि के उपयोग का निषेध करता रहा है.
ईश्वरीय व्यवसाय के अतिरिक्त विश्व में कोई ऐसा व्यवसाय नहीं है जो इतने लम्बे समय से अक्षुण चला आ रहा हो और जिसे संचालित बनाए रखने के लिए इतने अधिक संसाधनों - मानव-शक्ति, वित्तीय निवेश, आदि; का उपयोग किया जा रहा हो. यही व्यवसाय भारत में असत्य की स्थापना और उसका पोषण करता रहा है और उसे ही विजयश्री का अधिकारी सिद्ध करता रहा है. और इस भृष्ट आचरण पर पर्दा डाले रखने के लिए 'सत्यमेव जयते' का नारा दिया गया. इसके आधार पर सत्य को विजय के योग्य न माना जाकर विजय को ही सत्य की कसौटी माना जाता रहा है.
उक्त कारण से भारतीय जनमानस सत्य से निरपेक्ष रहकर केवल विजय की अभिलाषा करता रहा है जिसके आधार पर उसे सत्य की प्रतिमूर्ति माना जा सके. इसी से फल-फूलता रहा है भारत में चारित्रिक संकट जो आज विकराल रूप में हमारे समक्ष खडा है और संपूर्ण मानवीय नैतिकता को लील रहा है.
महाभारत में जो घटा, वही आज भारत के प्रत्येक छोटे-बड़े समाज और शासन-प्रशासन में घटित हो रहा है, असत्य की सर्वस्व विजय हो रही है, जनमानस कराह रहा है. उसके पास आत्मसंतुष्टि के लिए एकमात्र आश्रय यही है 'जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा'. किन्तु उसे ज्ञान नहीं है कि यह उसका आत्मसंतुष्टि हेतु भ्रम है. इसके भ्रम होने का प्रमाण यही है कि 'जो जैसा करेगा, वैसा कब भरेगा - आज कल में, अपने जीवन के अंत में, अथवा अपने जन्मान्तर में'. आत्मसंतुष्टि इसी में निहित है कि ऐसा असुविधाजनक प्रश्न उठाया ही न जाए.
ऐसी निराधार आत्मसंतुष्टि जनमानस में निष्क्रियता उत्पन्न कर रही है, जिसके कारण वह किसी भी अत्याचार, भृष्टाचार, व्यभिचार, आदि के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार नहीं है और ये सब दुराचार निरंतर पनप रहे हैं - बिना किसी प्रतिकार के.
लेबल:
आत्मसंतुष्टि,
ईश्वरीय व्यवसाय,
महाभारत,
सत्यमेव जयते
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
समाज-कंटकों की अर्थ व्यवस्था
लगभग ३५०० की जनसँख्या वाले मेरे गाँव खंदोई में केवल ५-६ व्यक्ति समाज-कंटक कहे जा सकते हैं, किन्तु ये ५-६ ही सर्व व्यापक प्रतीत होते हैं. मूल रूप में इन का कार्य दूसरे लोगों की विवशताओं और निर्बलताओं का लाभ उठाते हुए उनका आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शोषण करना है. इनकी विशेषता यह है कि ये रोज शाम को शराब पीते हैं जब कि इनमें से कोई भी इतना संपन्न नहीं है कि स्वयं के धन से शराब पी सके या दूसरों को पिला सके. इसके लिए ये गाँव के लोगों में झगड़े-फसाद कराते हैं, और उसके बाद एक का पक्ष लेकर उसके धन से शराब पीते हैं.
इनकी शराबखोरी के लिए आय का दूसरा स्रोत वे लोग बनते हैं जो स्वयं अपराध करते हैं. इनके अपराध प्रकाश में आने से इन्हें रक्षा की आवश्यकता होती है जो इन्हें समाज कंटकों द्वारा सहर्ष प्रदान की जाती है. इस रक्षा के बदले अपराधी इनके लिए शराब आदि की व्यवस्था करते हैं. यद्यपि ये सभी मामलों में अपराधी को बचा नहीं पाते हैं किन्तु बचाए रखने का आश्वासन देकर और उसकी पुलिस से मध्यस्थता करते हुए अधिकाधिक लम्बे समय तक उसके धन से शराब पीते रहते हैं. इन्हीं के आश्रय पर गाँव में शराब विक्रय के अवैध केंद्र बने हुए हैं. उदाहरण के लिए गाँव में अभी हाल में हुए बलात्कार के मामले में उसकी पुलिस में शिकायत होने पर भी ये समाज-कंटक उस अपराधी को पुलिस से सुरक्षा का आश्वासन देते रहे और इस प्र्ताक्रिया में उसके २५,००० रुपये व्यय कराकर उसे स्वयं पुलिस के हवाले कर दिया, जिसके विरुद्ध समुचित कार्यवाही हुई.
समाज कंटकों की आय का तीसरा स्रोत राजनैतिक सत्ताधारी हैं जो चुनाव के दिनों में जन-साधारण के मत पाने के लिए इनकी सहायता माँगते हैं और उसके बदले इन्हें धन देते हैं. बाद में ये राजनेता ही इनकी पुलिस और न्याय व्यवस्था से रक्षा करते हैं. इन सत्ताधारियों से संपर्क बनाए रखने के लिए ये स्वयं भी गाँव की राजनैतिक सत्ता हथियाने का प्रयास करते हैं जिसमें सम्बंधित राजनेता भी इनकी सहायता करते हैं. इस सत्ता को हथियाने के लिए ये लोग समाज में जातीय, धार्मिक, साम्प्रदायिक आदि विष घोलते हैं, लोगों में परस्पर मतभेद कराते हैं और उन्हें भ्रमित करके उनके मत पाकर राजनैतिक सत्ता हथियाते हैं. इस सत्ता के माध्यम से ये सार्वजनिक धन का दुरूपयोग करते हुए वैभवशाली जीवन जीते हैं.
इनकी आय का चौथा स्रोत पुलिस है जिससे ये घनिष्ठता बनाए रखते हैं जब कि जन-साधारण पुलिस से दूर रहना पसंद करता है. जब भी किसी जन-साधारण को पुलिस की सहायता की आवश्यकता होती है, ये लोग उस व्यक्ति की पुलिस के साथ मध्यस्थता करते हैं और पुलिस को उस व्यक्ति से धन दिलाते हैं, जिसमें इनका भी हिस्सा होता है. चूंकि ये लोग पुलिस को आय के मुख्य स्रोत हैं, पुलिस भी इन्हें महत्व देती है और इनसे संपर्क बनाए रखती है.
अभी आगामी ग्राम पंचायत चुनाव के लिए पुलिस कुछ तथाकथित समाज-कंटकों के विरुद्ध सदा के तरह कार्यवाही कर रही है जिसके लिए पुलिस इन्हीं समाज-कंटकों के साथ मिलकर सूची बना रही है. इस सूची में इनके नाम सम्मिलित नहीं किये जा रहे किन्तु अनेक सम्मानित लोग समाज-कंटकों के रूप में सूचीबद्ध किये गए हैं. इनमें से जिनको पुलिस कार्यवाही से बचना होता है वे इन्हीं समाज-कंटकों की सहायता माँगते हैं जिसके बदले इन्हें असली समाज कंटकों को शराब आदि पिलानी होती है. प्रत्येक चुनाव प्रक्रिया में ऐसा ही होता रहा है. सूचनार्थ बता दूं कि इस बार इन समाज-कंटकों ने मुझे पुलिस द्वारा आतंकवादी घोषित करने का प्रयास किया है जिसका मैं डटकर मुकाबला करूंगा.
ये समाज-कंटक स्वयं भी अनेक प्रकार के अपराध करते रहते हैं. इनमें से अनेक को हत्या, बलात्कार, आदि अपराधों के लिए न्यायालयों से दंड मिल चुके हैं किन्तु देश की न्याय प्रक्रिया के मंद और लचर होने के कारण ये दीर्घ काल तक जमानत पर छूटे रहते हैं. इनके अनेक परिवार वाले जघन्य अपराधों के मामलों में सम्मिलित होने के दण्डित हुए हैं किन्तु जमानत पर रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं. इसी प्रकार अब भी इनमें से प्रत्येक के विरुद्ध न्यायालयों में मुकदमे चल रहे हैं किन्तु इन्हें आशा है कि इनके जीवन काल में इन्हें कोई दंड नहीं दिया जा सकेगा. इसी आशा में ये अब भी निर्भीक रहकर अपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं.
इनकी शराबखोरी के लिए आय का दूसरा स्रोत वे लोग बनते हैं जो स्वयं अपराध करते हैं. इनके अपराध प्रकाश में आने से इन्हें रक्षा की आवश्यकता होती है जो इन्हें समाज कंटकों द्वारा सहर्ष प्रदान की जाती है. इस रक्षा के बदले अपराधी इनके लिए शराब आदि की व्यवस्था करते हैं. यद्यपि ये सभी मामलों में अपराधी को बचा नहीं पाते हैं किन्तु बचाए रखने का आश्वासन देकर और उसकी पुलिस से मध्यस्थता करते हुए अधिकाधिक लम्बे समय तक उसके धन से शराब पीते रहते हैं. इन्हीं के आश्रय पर गाँव में शराब विक्रय के अवैध केंद्र बने हुए हैं. उदाहरण के लिए गाँव में अभी हाल में हुए बलात्कार के मामले में उसकी पुलिस में शिकायत होने पर भी ये समाज-कंटक उस अपराधी को पुलिस से सुरक्षा का आश्वासन देते रहे और इस प्र्ताक्रिया में उसके २५,००० रुपये व्यय कराकर उसे स्वयं पुलिस के हवाले कर दिया, जिसके विरुद्ध समुचित कार्यवाही हुई.
समाज कंटकों की आय का तीसरा स्रोत राजनैतिक सत्ताधारी हैं जो चुनाव के दिनों में जन-साधारण के मत पाने के लिए इनकी सहायता माँगते हैं और उसके बदले इन्हें धन देते हैं. बाद में ये राजनेता ही इनकी पुलिस और न्याय व्यवस्था से रक्षा करते हैं. इन सत्ताधारियों से संपर्क बनाए रखने के लिए ये स्वयं भी गाँव की राजनैतिक सत्ता हथियाने का प्रयास करते हैं जिसमें सम्बंधित राजनेता भी इनकी सहायता करते हैं. इस सत्ता को हथियाने के लिए ये लोग समाज में जातीय, धार्मिक, साम्प्रदायिक आदि विष घोलते हैं, लोगों में परस्पर मतभेद कराते हैं और उन्हें भ्रमित करके उनके मत पाकर राजनैतिक सत्ता हथियाते हैं. इस सत्ता के माध्यम से ये सार्वजनिक धन का दुरूपयोग करते हुए वैभवशाली जीवन जीते हैं.
इनकी आय का चौथा स्रोत पुलिस है जिससे ये घनिष्ठता बनाए रखते हैं जब कि जन-साधारण पुलिस से दूर रहना पसंद करता है. जब भी किसी जन-साधारण को पुलिस की सहायता की आवश्यकता होती है, ये लोग उस व्यक्ति की पुलिस के साथ मध्यस्थता करते हैं और पुलिस को उस व्यक्ति से धन दिलाते हैं, जिसमें इनका भी हिस्सा होता है. चूंकि ये लोग पुलिस को आय के मुख्य स्रोत हैं, पुलिस भी इन्हें महत्व देती है और इनसे संपर्क बनाए रखती है.
अभी आगामी ग्राम पंचायत चुनाव के लिए पुलिस कुछ तथाकथित समाज-कंटकों के विरुद्ध सदा के तरह कार्यवाही कर रही है जिसके लिए पुलिस इन्हीं समाज-कंटकों के साथ मिलकर सूची बना रही है. इस सूची में इनके नाम सम्मिलित नहीं किये जा रहे किन्तु अनेक सम्मानित लोग समाज-कंटकों के रूप में सूचीबद्ध किये गए हैं. इनमें से जिनको पुलिस कार्यवाही से बचना होता है वे इन्हीं समाज-कंटकों की सहायता माँगते हैं जिसके बदले इन्हें असली समाज कंटकों को शराब आदि पिलानी होती है. प्रत्येक चुनाव प्रक्रिया में ऐसा ही होता रहा है. सूचनार्थ बता दूं कि इस बार इन समाज-कंटकों ने मुझे पुलिस द्वारा आतंकवादी घोषित करने का प्रयास किया है जिसका मैं डटकर मुकाबला करूंगा.
ये समाज-कंटक स्वयं भी अनेक प्रकार के अपराध करते रहते हैं. इनमें से अनेक को हत्या, बलात्कार, आदि अपराधों के लिए न्यायालयों से दंड मिल चुके हैं किन्तु देश की न्याय प्रक्रिया के मंद और लचर होने के कारण ये दीर्घ काल तक जमानत पर छूटे रहते हैं. इनके अनेक परिवार वाले जघन्य अपराधों के मामलों में सम्मिलित होने के दण्डित हुए हैं किन्तु जमानत पर रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं. इसी प्रकार अब भी इनमें से प्रत्येक के विरुद्ध न्यायालयों में मुकदमे चल रहे हैं किन्तु इन्हें आशा है कि इनके जीवन काल में इन्हें कोई दंड नहीं दिया जा सकेगा. इसी आशा में ये अब भी निर्भीक रहकर अपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं.
लेबल:
न्याय प्रक्रिया,
पुलिस,
शराबखोरी,
समाज-कंटक
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
हमारी सर्वोत्तम संपदा - वर्तमान ज्ञान
विगत सप्ताह एक दुर्घटना हुई - गाँव में एक व्यक्ति ने एक निर्दोष महिला के साथ बलात्कार किया और मामला मेरे समक्ष पहुंचा, आरोपित व्यक्ति को दंड दिलवाने के लिए. यह तीक्ष्ण चर्चाओं का विषय बना क्योंकि आरोपित व्यक्ति ने कभी कोई दुष्कर्म नहीं किया था और उसकी छबि एक सज्जन व्यक्ति की थी. विविध स्थानों पर गहन चर्चाओं और तर्क-वितर्कों से यह सिद्ध हुआ कि आरोपित व्यक्ति ने अपराध किया था जो उसने स्वयं भी स्वीकारा. इस कारण से उस व्यक्ति को दंड दिया जाना अपरिहार्य था. तथापि अपराधी के भी कुछ समर्थक बने रहे जो उसे दंड प्रक्रिया से बचाना चाहते थे, केवल इस आधार पर कि आरोपित व्यक्ति के भूत काल के चरित्र के कारण इस प्रकरण में कभी कुछ नए तथ्य उभर कर सामने आ सकते हैं जिनके कारण उसका निर्दोष होना संभव हो सकता है. इन समर्थकों ने पीड़ित महिला की व्यथा-कथा पर कोई ध्यान नहीं दिया. मेरा स्पष्ट एवं दृढ मत यह था कि इस प्रकरण में हमारा वर्तमान ज्ञान ही हमारे अगले कदम का आधार होना चाहिए और इसे भविष्य के किसी संभावित ज्ञान के लिए टाला नहीं जा सकता.
इस बारे में मेरा तर्क यह भी था कि भविष्य में हमें यह भी ज्ञात हो सकता है कि आरोपित व्यक्ति ने पहले भी अनेक अपराध किये थे जिनपर अभी तक पर्दा पडा हुआ है, और जिनके लिए उसे और भी अधिक दंड दिया जाने की आवश्यकता हो सकती है. इस कारण से भविष्य के संभावित ज्ञान के लिए वर्तमान ज्ञान की अवहेलना नहीं की जा सकती. यही प्रकरण इस आलेख का आधार है ताकि इस विषय की अच्छी तरह समीक्षा हो.
यद्यपि ज्ञान सर्वदा संवर्धित होता रहता है, तथापि प्रत्येक सामयिक बिंदु पर तत्कालीन ज्ञान ही मनुष्य जाति की सर्वोत्तम संपदा होती है. इस प्रकार भविष्य में संभावित ज्ञान के लिए वर्तमान ज्ञान की अवहेलना कदापि नहीं की जा सकती. किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वर्तमान ज्ञान को ही अंतिम मान कर इसे संवर्धित करने के प्रयास न किये जाएँ, अथवा बिना किसी सार्थक पुष्टि के किसी भी सूचना को वर्तमान ज्ञान मान लिया जाए और उसी के आधार पर निर्णय लिए जाएँ. वस्तुतः निर्णय से पूर्व प्रत्येक सम्बंधित सूचना को पुष्ट कर लिया जाना चाहिए.
आइये समय के तीन चरणों - भूत, वर्तमान, भविष्य - की दृष्टि से वर्तमान ज्ञान के महत्व को परखते हैं. वर्तमान में हम और हमारा वर्तमान ज्ञान हमारे भूत के उत्पाद होते हैं. भूत काल में जो कुछ भी हुआ, उससे हम विकसित हुए हैं - अपने अनुभवों द्वारा. इस प्रकार अपने भूत से हम अपना समग्र वर्तमान पाते हैं - जिसके प्रमुख तत्व हमारा अस्तित्व और हमारा ज्ञान होते हैं., बस यही महत्व है हमारे भूत का, इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं. हमारा वर्तमान - अस्तित्व और ज्ञान, हमारे उस भविष्य की आधारशिला बनता है जिसमें हमारी सभी अभिलाषाएं, आकांक्षाएं, योजनाएं, आदि समाहित होती हैं. अतः हमारा भविष्य ही हमारे जीवन का लक्ष्य होता है जिसकी प्राप्ति के लिए हमें अपने वर्तमान से संबल प्राप्त होता है. इसलिए वर्तमान अस्तित्व और ज्ञान की किसी प्रकार से भी अवहेलना हमारे भविष्य को दुष्प्रभावित करती है और हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहते हैं. इस कारण से हमारी सर्वोत्तम संपदा हमारा वर्तमान है जिसमें हमारा ज्ञान भी सम्मिलित होता है.
हाँ, इतना अवश्य है कि हमें प्रत्येक विषय पर सदैव और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मुक्त ही नहीं जिज्ञासु भी होना चाहिए और उस समय पर अपने कार्य-कलाप तदनुसार ही निर्धारित करने चाहिए. इस प्रकार के किसी संभावित ज्ञान के लिए हम अपने वर्तमान कार्य-कलापों के निर्धारण में कोई स्थान नहीं दे सकते. इसे केवल अप्रत्याशित ज्ञान के वर्ग में रखा जा सकता है जिसके लिए उसी समय कार्यवाही की जा सकती है, अभी कुछ नहीं. क्योंकि जो अप्रत्याशित है, उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि यह कुछ भी हो सकता है.
विगत एक दशक से वैधानिक प्रक्रिया में मृत्यु दंड दिए जाने का विरोध किया जा रहा है जिसका आधार यह है कि भविष्य में कभी आरोपित व्यक्ति निर्दोष सिद्ध हो सकता है और ऐसी स्थिति में मृत्यु दंड को निरस्त नहीं किया जा सकेगा जो एक अन्याय होगा. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ, क्योंकि ऐसी संभावनाएं तो हमें जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई भी निर्णय लेने में बाधाएं खडी कर देंगी और समस्त मानव जीवन दूभर हो जाएगा. सभी समय सशक्त सुविचारित निर्णय ही तो मानव का प्रबल सकारात्मक गुण है जिसे सतत पुष्ट किया जाना चाहिए. इसे निर्बल करना मानवता के लिए घातक हो सकता है.
अतः, हम भविष्य में क्या होंगे अथवा उस समय हमारा ज्ञान क्या होगा, उसके लिए हम कदापि अपने वर्तमान ज्ञान की अवहेलना नहीं कर सकते क्यों कि यही तो हमारे भविष्य के ज्ञान की आधारशिला है और आधारशिला की अवहेलना कर हम भवन का निर्माण नहीं कर सकते.
इस बारे में मेरा तर्क यह भी था कि भविष्य में हमें यह भी ज्ञात हो सकता है कि आरोपित व्यक्ति ने पहले भी अनेक अपराध किये थे जिनपर अभी तक पर्दा पडा हुआ है, और जिनके लिए उसे और भी अधिक दंड दिया जाने की आवश्यकता हो सकती है. इस कारण से भविष्य के संभावित ज्ञान के लिए वर्तमान ज्ञान की अवहेलना नहीं की जा सकती. यही प्रकरण इस आलेख का आधार है ताकि इस विषय की अच्छी तरह समीक्षा हो.
यद्यपि ज्ञान सर्वदा संवर्धित होता रहता है, तथापि प्रत्येक सामयिक बिंदु पर तत्कालीन ज्ञान ही मनुष्य जाति की सर्वोत्तम संपदा होती है. इस प्रकार भविष्य में संभावित ज्ञान के लिए वर्तमान ज्ञान की अवहेलना कदापि नहीं की जा सकती. किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वर्तमान ज्ञान को ही अंतिम मान कर इसे संवर्धित करने के प्रयास न किये जाएँ, अथवा बिना किसी सार्थक पुष्टि के किसी भी सूचना को वर्तमान ज्ञान मान लिया जाए और उसी के आधार पर निर्णय लिए जाएँ. वस्तुतः निर्णय से पूर्व प्रत्येक सम्बंधित सूचना को पुष्ट कर लिया जाना चाहिए.
आइये समय के तीन चरणों - भूत, वर्तमान, भविष्य - की दृष्टि से वर्तमान ज्ञान के महत्व को परखते हैं. वर्तमान में हम और हमारा वर्तमान ज्ञान हमारे भूत के उत्पाद होते हैं. भूत काल में जो कुछ भी हुआ, उससे हम विकसित हुए हैं - अपने अनुभवों द्वारा. इस प्रकार अपने भूत से हम अपना समग्र वर्तमान पाते हैं - जिसके प्रमुख तत्व हमारा अस्तित्व और हमारा ज्ञान होते हैं., बस यही महत्व है हमारे भूत का, इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं. हमारा वर्तमान - अस्तित्व और ज्ञान, हमारे उस भविष्य की आधारशिला बनता है जिसमें हमारी सभी अभिलाषाएं, आकांक्षाएं, योजनाएं, आदि समाहित होती हैं. अतः हमारा भविष्य ही हमारे जीवन का लक्ष्य होता है जिसकी प्राप्ति के लिए हमें अपने वर्तमान से संबल प्राप्त होता है. इसलिए वर्तमान अस्तित्व और ज्ञान की किसी प्रकार से भी अवहेलना हमारे भविष्य को दुष्प्रभावित करती है और हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहते हैं. इस कारण से हमारी सर्वोत्तम संपदा हमारा वर्तमान है जिसमें हमारा ज्ञान भी सम्मिलित होता है.
हाँ, इतना अवश्य है कि हमें प्रत्येक विषय पर सदैव और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मुक्त ही नहीं जिज्ञासु भी होना चाहिए और उस समय पर अपने कार्य-कलाप तदनुसार ही निर्धारित करने चाहिए. इस प्रकार के किसी संभावित ज्ञान के लिए हम अपने वर्तमान कार्य-कलापों के निर्धारण में कोई स्थान नहीं दे सकते. इसे केवल अप्रत्याशित ज्ञान के वर्ग में रखा जा सकता है जिसके लिए उसी समय कार्यवाही की जा सकती है, अभी कुछ नहीं. क्योंकि जो अप्रत्याशित है, उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि यह कुछ भी हो सकता है.
विगत एक दशक से वैधानिक प्रक्रिया में मृत्यु दंड दिए जाने का विरोध किया जा रहा है जिसका आधार यह है कि भविष्य में कभी आरोपित व्यक्ति निर्दोष सिद्ध हो सकता है और ऐसी स्थिति में मृत्यु दंड को निरस्त नहीं किया जा सकेगा जो एक अन्याय होगा. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ, क्योंकि ऐसी संभावनाएं तो हमें जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई भी निर्णय लेने में बाधाएं खडी कर देंगी और समस्त मानव जीवन दूभर हो जाएगा. सभी समय सशक्त सुविचारित निर्णय ही तो मानव का प्रबल सकारात्मक गुण है जिसे सतत पुष्ट किया जाना चाहिए. इसे निर्बल करना मानवता के लिए घातक हो सकता है.
अतः, हम भविष्य में क्या होंगे अथवा उस समय हमारा ज्ञान क्या होगा, उसके लिए हम कदापि अपने वर्तमान ज्ञान की अवहेलना नहीं कर सकते क्यों कि यही तो हमारे भविष्य के ज्ञान की आधारशिला है और आधारशिला की अवहेलना कर हम भवन का निर्माण नहीं कर सकते.
रविवार, 22 अगस्त 2010
बौद्धिक हलचल
एक ओर भारत के राजनैतिक अपराधी अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए देश के सघन शहरों से लेकर सुदूर ग्रामों तक आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को प्रोत्साहित कर रहे हैं ताकि लोग आक्रांत रहते हुए उनकी शरण पाने हेतु लालायित रहें, तो दूसरी ओर देश के चुनिन्दा बुद्धिजीवी अल्प संख्या में होने पर भी देश में सकारात्मक परिवर्तन लाने के प्रयास कर रहे हैं. आज २२ अगस्त २०१० को इन बुद्धिजीवियों ने दिल्ली में लोदी मार्ग स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर के एक कक्ष में इंडिया रिजुवेनेशन इनिशिएटिव के तत्वाधान में विचार विमर्श किया जो उनकी २३वीन बैठक थी. इस बैठक की विशेषता यह रही कि एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन हेतु संकल्पित भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा एवं अन्य वर्गों के अनेकानेक सेवारत और सेवानिवृत अधिकारी उपस्थित थे तो दूसरी ओर जन-सामान्य के स्तर पर कार्य करने वाले अनेक समर्पित बुद्धिजीवी भी वहां उपस्थित थे. इन दोनों वर्गों की उपस्थिति स्पष्ट संकेत देती है कि परिवर्तन के प्रयास ग्राम स्तर से लेकर राष्ट्र स्तर तक किये जा रहे हैं.
राष्ट्र स्तर पर सक्रिय उक्त बुद्धिजीवियों में सर्वश्री विजय शंकर पाण्डेय, सुनील कुमार, जाविद चौधरी (सभी आई ए एस), श्री बी. आर. लाल (आई पी एस), सहित एक दर्ज़न सज्जन उपस्थित थे. जिन सज्जनों की उपस्थिति अपेक्षित थी उनमें सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश श्री आर सी लाहोटी, और उत्तर प्रदेश पुलिस के उप महा निरीक्षक (प्रशिक्षण) थे जो कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण उपस्थित न हो सके.
ग्राम से जनपद स्तर पर कार्य करने वालों में मैं स्वयं, इटावा के श्री महेश मानव, राजस्थान के विधायक श्री सुखराम कोली, आदि ने भाग लिया. दोनों वर्गों के समन्वय का श्रेय ओनेस्टी प्रोजेक्ट के श्री जय कुमार झा को जाता है. श्री महेश मानव अनेक वर्षों से इस कार्य में लगे हैं और देश भर में समधर्मियों से मिलकर देश में एक सर्वव्यापक आन्दोलन की रचना कर रहे हैं. श्री सुखराम कोली विधायक होते हुए भी अपनी सरलता और सहजता के साथ जन सामान्य के हितों के लिए समर्पित हैं. वे यात्राओं के लिए जन साधारण की तरह सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करते हैं, और अपनी सुख सुविधा के लिए सार्वजनिक धन के उपयोग से बचे ही रहते हैं.
इंडिया रिजुवेनेशन इनिशिएटिव ने स्विस बैंकों में जमा देश के १,४५६ बिलियन डॉलर को देश में वापिस लाने हेतु एक अभियान चला रखा है जिसको अनेक समाचार पत्रों और ब्लोगों पर प्रकाशित किया गया है. यह धन देश के कुल विदेशी ऋण का लगभग ७ गुणित है तथा इसके देश में ही उपयोग किये जाने से भारत में विश्व स्तर के साधन बड़ी सुगमता से विकसित किये जा सकते हैं जिससे भारत तुरंत विकसित देशों की श्रेणी में पहुँच सकता है.
धरा स्तर पर कार्य करने वाले बुद्धिजीवियों ने अपनी कठिनाइयाँ बताते हुए उनसे अपने सतत संघर्षों के संकल्प व्यक्त किये. उच्च स्तर पर कार्यरत बुद्धिजीवियों ने धरा स्तर पर कार्य करने वाले लोगों को अपने पूरे सहयोग का आश्वासन देते हुए उनका उत्साह बढाया. वस्तुतः धरा स्तर पर कार्य करना अधिक दुष्कर है क्यों कि अधिकाँश भृष्ट अधिकारी और राजनेता उनके कार्यों में बाधाएं खडी करते रहते हैं.
राष्ट्र स्तर पर सक्रिय उक्त बुद्धिजीवियों में सर्वश्री विजय शंकर पाण्डेय, सुनील कुमार, जाविद चौधरी (सभी आई ए एस), श्री बी. आर. लाल (आई पी एस), सहित एक दर्ज़न सज्जन उपस्थित थे. जिन सज्जनों की उपस्थिति अपेक्षित थी उनमें सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश श्री आर सी लाहोटी, और उत्तर प्रदेश पुलिस के उप महा निरीक्षक (प्रशिक्षण) थे जो कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण उपस्थित न हो सके.
ग्राम से जनपद स्तर पर कार्य करने वालों में मैं स्वयं, इटावा के श्री महेश मानव, राजस्थान के विधायक श्री सुखराम कोली, आदि ने भाग लिया. दोनों वर्गों के समन्वय का श्रेय ओनेस्टी प्रोजेक्ट के श्री जय कुमार झा को जाता है. श्री महेश मानव अनेक वर्षों से इस कार्य में लगे हैं और देश भर में समधर्मियों से मिलकर देश में एक सर्वव्यापक आन्दोलन की रचना कर रहे हैं. श्री सुखराम कोली विधायक होते हुए भी अपनी सरलता और सहजता के साथ जन सामान्य के हितों के लिए समर्पित हैं. वे यात्राओं के लिए जन साधारण की तरह सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करते हैं, और अपनी सुख सुविधा के लिए सार्वजनिक धन के उपयोग से बचे ही रहते हैं.
इंडिया रिजुवेनेशन इनिशिएटिव ने स्विस बैंकों में जमा देश के १,४५६ बिलियन डॉलर को देश में वापिस लाने हेतु एक अभियान चला रखा है जिसको अनेक समाचार पत्रों और ब्लोगों पर प्रकाशित किया गया है. यह धन देश के कुल विदेशी ऋण का लगभग ७ गुणित है तथा इसके देश में ही उपयोग किये जाने से भारत में विश्व स्तर के साधन बड़ी सुगमता से विकसित किये जा सकते हैं जिससे भारत तुरंत विकसित देशों की श्रेणी में पहुँच सकता है.
धरा स्तर पर कार्य करने वाले बुद्धिजीवियों ने अपनी कठिनाइयाँ बताते हुए उनसे अपने सतत संघर्षों के संकल्प व्यक्त किये. उच्च स्तर पर कार्यरत बुद्धिजीवियों ने धरा स्तर पर कार्य करने वाले लोगों को अपने पूरे सहयोग का आश्वासन देते हुए उनका उत्साह बढाया. वस्तुतः धरा स्तर पर कार्य करना अधिक दुष्कर है क्यों कि अधिकाँश भृष्ट अधिकारी और राजनेता उनके कार्यों में बाधाएं खडी करते रहते हैं.
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