शनिवार, 3 जुलाई 2010

बौद्धिक मतभेद : कारण और निवारण

बौद्धिक जनतंत्र स्थापना के लिए सर्व प्रथम यह अनिवार्य है कि बौद्धिक लोग एक मंच पर एकत्रित हों और देश को एक कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने हेतु एक मत हों. इसमें सब से बड़ी बाधा यह है बौद्धिक लोग प्रायः किसी बिंदु पर परस्पर समत नहीं होते. इसका लाभ देश के अन्य लोग उठाते हैं और वे बौद्धिक लोगों को एक किनारे कर देते हैं अथवा उनका उपयोग अपने हित साधन में करते हैं.

बौद्धिक लोगों में अन्य लोगों की तरह ही व्यक्तिगत अंतर होते हैं. इस अंतराल का प्रभाव उनके चिंतन पर भी पड़ता है. चूंकि बौद्धिक जनों की विशिष्टता ही यह होती है कि वे चिंतन करते हैं और चिंतन किये गए विषयों पर अपना मत विकसित करते हैं. चूंकि चिंतन पूर्णतः लक्ष्यपरक न होकर अंशतः व्यक्तिपरक होता है इसलिए बौद्धिक लोगों के मत प्रायः परस्पर भिन्न हो जाते हैं. इसके विपरीत जन-साधारण न तो कोई चिंतन करते हैं और न ही किसी विषय पर अपना कोई मत विकसित करते हैं. इसलिए वे किसी भी मत से असहमत नहीं होते. उनके समक्ष जो भी मत प्रकट किया जाता है वे उसी से युरांत एवं सहर्ष सहमत हो जाते हैं. साथ ही दूसरा मत उनके समक्ष आने पर वे उस से भी सहमति जता देते हैं. बौद्धिक और अबौद्धिक जनों के इस अंतराल के कारण बौद्धिक जनों में प्रायः मत-भेद और अबौद्धिकों में प्रायः सहमति पायी जाती है.

बौद्धिक लोगों में स्वाभाविक मतभेद होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनमें सहमति विकसित ही नहीं हो सकती, किन्तु यह दुष्कर अवश्य होती है. बौद्धिक लोगों में विचार शीलता के कारण असहमति होती है, और इसी विचार शीलता से ही उनमें सहमति विकसित की जा सकती है. इसके दो उपाय हैं, जिन दोनों को ही इस कार्य के लिया उपयोग किया जा सकता है.

बौद्धिक जनों में सहमति का प्रथम उपाय सतत विचारशीलता और विचार विमर्श है. विचार-शीलता का एकीकरण सिद्धांत यह है कि किसी एक समस्या का एक ही सर्वोत्तम हल होता है. इसलिए यदि अनेक व्यक्ति किसी एक समस्या पर सतत विचार करते रहें तो वे सभी अंततः एक ही समाधान पर पहुचेंगे. आवश्यकता बस यह है कि वे सर्वोत्तम समाधान की खोज में सतत चिंतन करते रहें.
उक्त सहमति का दूसरा उपाय यह है कि बौद्धिक जन अपना चिंतन लक्ष्यपरक करें जिसके लिए उन्हें व्यक्तिपरक चिंतन से दूर रहने का भरसक प्रयास करना होगा. पूर्णतः लक्ष्यपरक चिंतन भी सभी बौद्धिक जनों को एक ही लक्ष्य और उसके मार्ग पर पहुंचा देगा.   
How History Made the Mind: The Cultural Origins of Objective Thinking

भारत के समक्ष इस समय विकराल राजनैतिक संकट है, जिससे केवल बौद्धिक समाज ही मुक्ति दिला सकता है - अपने-अपने व्यक्तिगत अंतर भुला कर और किसी समाधान पर एक मत होकर. बौद्धिक जनतंत्र उनके विचार हेतु एक पृष्ठभूमि का कार्य कर सकता है. 

सोमवार, 28 जून 2010

पुलिस पर चर्चा का खुला आकाश

 इसी संलेख पर मेरे एक आलेख 'अपराध और चिकित्सा सेवा' पर ग्राम्या उपनामित एक भारत पुत्री ने एक टिप्पणी की थी जिसमें पुलिस प्रशिक्षण पर प्रश्न उठाया था. मैंने वह टिप्पणी उत्तर प्रदेश पुलिस के उप महा निरीक्षक (प्रशिक्षण) श्री जसवीर सिंह को विचारार्थ भेज दी थी. सूचनार्थ पुनः बता दूं कि श्री जसवीर सिंह इंडिया रेजुविनेशन इनिशिएतिव से सम्बद्ध हैं और देश की स्थिति से चिंतित ही नहीं इसमें गुणात्मक सुधार हेतु प्रयासरत हैं. मुझपर उनका बड़ा उपकार है - उन्होंने मेरी गाँव में गुंडों के साथ संघर्ष में अभूतपूर्व सहायता की है. प्रिय ग्राम्या की उक्त टिप्पणी और श्री जसवीर सिंह जी का प्रत्युत्तर नीचे दिए जा रहे हैं, ताकि श्री सिंह द्वारा वांछित विषय पर प्रबुद्ध पाठक चर्चा कर सकें और राष्ट्र हित में अपना योगदान कर सकें.   

ग्राम्या की टिप्पणी :
इस देश का आम आदमी पुलिस के पास अपनी समस्या लेकर जाने से डरता है। यदि वह आम औरत हो तो यह डर और भी बढ़ जाता है। क्या पुलिस की ट्रेनिंग में यह नहीं सिखाया जाता कि पुलिस को जनता के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए? हमारी पुलिस अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित है। धीरे-धीरे वह आम जनता में अपना विश्वास खो चुकी है। विशेषकर ग्रामीण इलाके के लोगों के साथ पुलिस का व्यवहार और भी आपत्तिजनक होता है। देश के कई हिस्सों में इस व्यवस्था के प्रति बढ़ रहे असंतोष को देखते हुए भी इन्हें आत्ममंथन की ज़रूरत महसूस नहीं होती।

श्री जसवीर सिंह  का प्रत्युत्तर :
प्रिय राम राम बंसल जी,
                                          मैं आप से सहमत हूँ । यह भी देखना होगा की ऐसे कैसे हुया कि गांधी जी ने आजादी के बाद की  पुलिस कैसे होगी के विषय में कहा था कि मैं अपने देश की पुलिस को सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में देखना चाहता हूं। लेकिन ऐसे क्यों हुया की पुलिस में आजादी के बाद कोई परिवर्तन नहीं आया या नहीं लाया गया। इस पर विचार करिएगा और मुझे भी बताईएयगा। 
आप का धान्यवाद,
जसवीर

मैं इस चर्चा के आरम्भ में यह कहना चाहूँगा कि गांधीजी ने उक्त इच्छा व्यक्त की थी किन्तु किसी ने उनकी इच्छा पर ध्यान नहीं दिया, विशेषकर नेहरु ने जिन्होंने स्वतन्त्रता के बाद देश के शासन की बागडोर संभाली थी. इस अवहेलना दूसरा बड़ा कारण यह था कि देश के लिए स्वतन्त्रता की मांग करने वाले लोगों ने स्वतन्त्रता से पूर्व कभी इस विषय पर चिंतन एवं विचार-विमर्श नहीं किया कि वे स्वतन्त्रता के बाद इस देश को कैसे चलाएंगे. अतः स्वतन्त्रता प्राप्ति पर इधर-उधर से नक़ल कर एक फूहड़ संविधान भारत पर थोप दिया गया जो भारत के जनमानस के अनुकूल सिद्ध नहीं हो पाया है.

वस्तुतः भारतीय जनमानस जनतांत्रिक शासन के लिए उपयक्त न तो तब था, न ही आज तक बन पाया है, और न ही इसका कोई प्रयास किया गया है. इसी कारण से भारत को एक नयी शासन व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे मैं बौद्धिक जनतंत्र कहता हूँ जिसमें देश की शासन व्यवस्था में बौद्धिक सुयोग्यता को आधार बनाया जाए और ऐसे प्रावधान हों कि प्रत्येक नागरिक को एक समान उत्थान के अवसर उपलब्ध हों. इसके लिए स्वास्थ सेवाएँ, शिक्षा और न्याय व्यवस्था पूरी तरह निःशुल्क हों. भूमि पर निजी स्वामित्व समाप्त हो तथा प्रत्येक नागरिक परिवार को आवास हेतु निःशुल्क भूमि प्रदान की जाये ताकि देश की इस प्राकृत संपदा पर सभी को पाँव धरने का सम्मान प्राप्त हो सके.

आगे निवेदन हैं कि सभी प्रबुद्ध जन इस विषय पर गंभीरता के साथ विचार करें, और अपने सुझाव देन ताकि भारत की पुलिस में गुणात्मक सुधारों के लिए एक पहल हो सके.

रविवार, 27 जून 2010

मान्यता और वास्तविकता का संघर्ष

भारत के समक्ष उपस्थित अनेक संकटों में से एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक संघर्ष है जो समाज की मान्यताओं और वास्तविकताओं के मध्य है. समाज की मान्यता को अंग्रेज़ी में मिथ कहा जाता है और इन्हें समाज परम्परागत रूप में मानता चलता है, बिना किसी सोच विचार के. ईश्वर, भाग्य, जन्म-जन्मान्तर, आदि ऐसी अनेक मान्यताएं हैं जो भारतीय समाज में पवित्र भावनाओं की तरह स्वीकृत हैं, जब कि ये न तो वैज्ञानिक स्तर पर परीक्षित हैं और न ही इनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध है.  चौंकिए मत, उदहारण देता हूँ - अधिकाँश भारतीय भाग्य पर विश्वास करते हैं और बहुधा कहते हैं कि जो भाग्य में लिखा है वह तो होकर ही रहेगा, तथापि सभी लोग जीवन में उपलब्धियों के लिए संघर्ष करते हैं, भाग्य के लिखे पर निर्भर नहीं करते. इसी प्रकार प्रत्येक धर्मात्मा औरधर्म-परायण व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधाओं को कोसता रहता है और इन्हें तुच्छ कहता रहता है तथापि इन भौतिक सुख-सुविधाओं में ही जीता है और इनके संवर्धन के सतत प्रयास करता रहता है.

इस प्रकार एक ओर मान्यता होती है तो दूसरी ओर जीवन की वास्तविकता. इन दोनों के ही संघर्ष में मनुष्य जीवन भर अनिर्णीत रहता है. न तो उसे मान्यता पर आस्था होती है और न ही अपने प्रयासों पर विश्वास. इस प्रकार अधर में लटके मनुष्य वास्तव में मनुष्यता के प्रतीक - बौद्धिकता, का स्पर्श भी नहीं कर पाते.

मान्यताएं दो प्रकार से विकसित होती हैं - अनुवांशिक अनुभवों से, तथा समाज पर आरोपित विकृतियों से. ये दो विकास प्रक्रियाएं ठीक समान्तर रूप में संचालित होती हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समाज में सज्जन और दुर्जन प्रवृत्तियों के लोग होते हैं. वस्तुतः इन दोनों प्रवृत्तियों के लोग ही क्रमशः दोनों प्रकार की मान्यताओं को विकसित करते हैं. जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभवों को भविष्य में उपयोग के लिए अपनी स्मृति में संजो कर रखता है, उसी प्रकार प्रत्येक समाज भी अपने अंगों के अनुभवों को अनुवांशिक रूप में साथ लेकर चलता है और यथावश्यकता उनका उपयोग करता रहता है.

समाज के अनेक अंग व्यक्तिगत स्वार्थों के वशीभूत होकर दूसरे लोगों को ठगते हैं, और उन्हें कुमार्ग पर चलने को प्रेरित करते हैं. सामाजिक विकृतियाँ इन्हीं लोगों द्वारा विकसित की जाती हैं, जो अंततः मान्यताओं में परिणित हो जाती हैं. इसलिए समाज के बौद्धिक वर्ग का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह मान्यताओं की सतत समीक्षा करता रहे और उनमें से आरोपित विकृतियों की छटनी करने के प्रयास करता रहे. यूरोपीय समाज में लगभग ३०० वर्ष पूर्व ऐसा प्रयास किया गया था जिसे रेनैसांस अर्थात पुनर्जागरण कहा जाता है. इसके परिणामस्वरूप यूरोपीय समाज ने अपनी पुरानी अवैज्ञानिक मान्यताओं को त्यागते हुए विज्ञानं को जीवन में स्थान दिया. यूरोपे का वर्तमान विकास स्तर इसी पुनर्जागरण का परिणाम है. भारत में भी अनेक व्यक्ति  इस प्रकार के प्रयास करते रहे हैं किन्तु एक बहुत बड़ा समुदाय विकृतियों के पक्ष में सतत प्रयास करता रहता है और पुनर्जागरण की स्थिति नहीं आने देता.
Renaissance Lives: Portraits Of An Age 
भारत को यदि अंधविश्वासों और रूढ़ियों से मुक्त कराना है तो यहाँ भी यूरोप जैसे पुनर्जागरण प्रयासों की आवश्यकता है जिसके लिए देश के बौद्धिक वर्ग को समन्वित प्रयास करने होंगे और विकृति फ़ैलाने वाले समुदायों को मुंह-तोड़ उत्तर देने होंगे. सार्वजनिक शिक्षा इसका सर्वोत्तम माध्यम है किन्तु वर्तमान राजतन्त्र इसमें केवल औपचारिकता स्तर तक ही रूचि रखता है. अतः वर्तमान राजनैतिक स्तिति में भारत का पुनर्जागरण सहज नहीं है, तथापि समन्वित प्रयास किये जाने चाहिए.   

इतिहास की पुनरावृत्ति

'इतिहास दोहराता है' - यह सुना था किन्तु आशा नहीं थी कि यह कथावत मेरे समक्ष चरितार्थ होगी. सन १९४० में पिताजी श्री करन लाल अपनी युवावस्था में ही देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े थे और ४२ में क्षेत्र के क्रांतिकारियों में गिने जाने लगे थे. उस समय ब्रिटिश सरकार ने पिताजी का दमन करने का भरसक प्रयास किया. स्वतंत्र भारत में देश के विदेश मंत्री रहे श्री सुरेन्द्र पाल सिंह जैसे अँगरेज़ भक्त पिताजी की हस्ती मिटाने के लिए कृतसंकल्प थे. गाँव के जमींदार और उनके पिट्ठू प्रत्येक तरीके से उन्हें कारागार में डलवाने और मरवाने में अपना योगदान देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे.

दूसरी ओर पिताजी क्षेत्र में इतने लोकप्रिय हो गए थे कि आम आदमी अपनी जान हथेली पर रख कर भी उनके जीवन की रक्षा के लिए तैयार रहता था. इसके कारण अँगरेज़ सरकार, जमींदार, तथा दूसरे देशद्रोही पिताजी का बाल भी बांका न कर सके. इसी समर्थन के कारण पिताजी ने अंग्रेजों को क्रांति का सन्देश देने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ अंग्रेज़ी सरकार के चरोरा निरीक्षण भवन को आग लगा दी. इस काण्ड के बाद तो दोनों पक्षों में और भी अधिक ठन गयी. पिताजी के अतिरिक्त अन्य सभी साथी पकडे गए, कुछ ने क्षमा मांग ली, तो कुछ अंग्रेजों के गवाह बन गए, किन्तु अधिकाँश टस से मस नहीं हुए और दंड के भागी बने. पिताजी फरार हो गए. अंततः पिताजी के विरुद्ध देखते ही गोली मारने के आदेश जारी कर दिए.

उस समय बुलंदशहर के एक न्यायाधीश श्री डी. पद्मनाभन थे जो देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे और पिताजी के विरुद्ध मुकदमा उन्ही के नयायालय में था. उन्होंने पिताजी को गुप्त सन्देश भिजवाया कि जब तक हार्डी बुलंदशहर का कलेक्टर है, तब तक फरार हे रहें और अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखें. तदनुसार पिताजी १६ माह फरार रहे और अंततः श्री डी. पद्मनाभन के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. इस अवधि में वे अधिकाँश रात्रियाँ खेतों में छिप कर व्यतीत करते थे और दिन में गुप्त सभाएं करके जन-जागरण करते थे. लोग उन्हें अपनी बैलगाड़ियों में बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते थे.

स्वतन्त्रता आन्दोलन में पिताजी अनेक बार कारागार में रहे किन्तु कभी क्षमा नहीं माँगी. स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने १९५२ में सोशलिस्ट पार्टी की ओर से विधान सभा का चुनाव लड़ा किन्तु ३०० मतों से पराजित हुए. वे गाँव के तीन बार प्रधान चुने गए और उन्होंने गाँव में अनेक विकास कार्य किये थे. वे निर्भीक रहकर निर्धन निस्सहाय लोगों लोगों की सहायता करते थे, इसलिए गाँव के जमींदार और उनके संगी पिताजी के शत्रु बने रहे और अनेक बार उन्हें मरवाने के षड्यंत्र रचे. आम लोगों के सहयोग के कारण सभी षड्यंत्र असफल रहे और पिताजी सभी षड्यंत्रकारियों की मृत्यु के पश्चात् ९३ वर्ष की परिपक्व अवस्था में सन २००३ में मृत्यु को प्राप्त हुए. तब तक उनके सभी पुत्र-पुत्री समाज और अपने कार्यों में प्रतिष्ठा पा चुके थे अतः वे परिवार से संतुष्ट थे. किन्तु देश की बिगड़ती हुई राजनैतिक स्थिति से सदैव चिंतित रहते थे.

पिताजी की मृत्यु से पूर्व मैं गाँव में रहने लगा था और समाज में मुझे उन जैसा ही सम्मान प्राप्त हो रहा है. पिताजी के शत्रुओं के परिजन ही आज मेरे शत्रु बने हुए हैं और मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचते रहते हैं. इस प्रकार बदली हुई परिस्थितियों में भी गाँव का इतिहास दोहरा रहा है.

मेरे विरुद्ध जो षड्यंत्र रचा गया उसमें देश के प्रतिष्ठित पदाधिकारी श्री सुनील कुमार आई. ए. एस., श्री जसवीर सिंह आई. पी. एस., श्री नीलेश कुमार आई पी. एस. ने मेरी उसी तरह सहायता की है जिस तरह पिताजी की श्री डी. पद्मनाभन ने की थी. और इस सब सहायता के लिए श्रेय श्री जय कुमार झा को जाता है.    

शनिवार, 26 जून 2010

उपलब्धयों के द्वार - सुयोग्यता की संभावनाएं

अंग्रेज़ी की एक सुप्रसिद्ध कथावत है - First deserve then desire अर्थात पहले सुयोग्य बनिए तब इच्छा कीजिये. मस्तिष्क स्तर पर हम सभी जानते हैं कि इच्छाओं की आपूर्ति के लिए हमें उनके सुयोग्य बनना चाहिए किन्तु मन के स्तर पर हम बिना सुयोग्य बने ही इच्छाएँ करने लगते हैं. इससे हम निराश होते हैं और यही हमारे अधिकाँश दुखों का कारण होता है.

प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत सी उपलब्धियां असंभव होती हैं क्योंकि वह उनके सुयोग्य नहीं होता. इन असंभव उपलब्धियों को संभव बनाने के लिए हमें उनके हेतु सुयोग्य होने की आवश्यकता होती है. अतः सुयोग्यता ही संभावनाओं के द्वार खोलती हैं. किन्तु सभी सुयोग्यताएं सभी व्यक्तियों द्वारा सभी समय प्राप्त नहीं की जा सकतीं, इसलिए व्यवहारिक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए सभी कुछ पाना संभव नहीं होता. इस प्रकार किसी उपलब्धि के लिये सुयोग्य बनने के नियोजन के सापेक्ष कहीं अधिक अच्छा होता है कि सुयोग्यता के आधार पर संभावनाओं की खोज की जाये. एक तरोताजा रोचक उदहारण है - पिछले सप्ताह एक २७ वर्षीय रूसी सुन्दरी ने मुझे पत्र लिखा कि वह जानना चाहती है कि क्या मैं उससे परिचय एवं सम्बन्ध स्थापित कर विवाह करना पसंद करूंगा. मैं एकाकी हूँ किन्तु ६२ वर्ष का हूँ, इसलिए उसके हेतु सुयोग्य नहीं हूँ और न ही कभी हो सकता हूँ. तदनुसार मैंने उसे उत्तर दे दिया और उसने मुझसे अपना मित्र बनाये रखने का आग्रह किया जो मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. अतः सुयोग्यता प्राप्त करने की कुछ पारिस्थितिक विवशताएँ होती हैं जो हमें स्वीकार करनी चाहिए और तदनुसार ही सम्भावनाओं के द्वारों पर दस्तक देनी चाहिए.

सैद्धांतिक स्तर पर असंभव कुछ नहीं होता, जैसा कि नेपोलियन ने कहा था, किन्तु सभी कुछ संभव करने के प्रयास दुखदायी हो सकते हैं, जैसा कि स्वयं नेपोलियन के रूस पर आक्रमण से हुआ - उसकी पराजय हुई थी. हिटलर ने भी सभी कुछ संभव करने के प्रयास किये थे और उसे भी पराजय का मुंह देखना पडा था. इसमें महत्वपूर्ण भूमिका पीटर सिद्धांत की होती है जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति उस स्तर तक आगे बढ़ने के प्रयास करता है जहां वह अयोग्य होता है. क्या ही अच्छा हो कि हम अपनी सुयोग्यताओं की संभावनाओं को पहले पहचानें और उसी सीमा तक आगे बढ़ने के प्रयास करें जहां तक हम सुयोग्य बने रहें. इस प्रकार हम अयोग्य होने से अपना बचाव कर सकते हैं.
 
अपनी निर्बलताएँ का ज्ञान मनुष्य को असफल होने से बचाता है, किन्तु यह दुष्कर होता है क्योंकि हम सर्वाधिक भूल अपने वयं के आकलन में करते हैं. बहुधा ऐसा भी होता है कि हम अपनी निर्बलता तो जानते हैं किन्तु किसी दूसरे के समक्ष उसे स्वीकार करने से कतराते हैं. इस प्रकार हमारी निर्बलता प्रकाश में न आने कारण मिटाई भी नहीं जाती. कभी-कभी हम इसके बारे में अन्धकार में भी रहते हैं, और ऐसे दुस्साहस कर बैठते हैं जो हमारी सामर्थ के परे होते हैं. इनमें असफल होने पर हमें दुःख होते हैं.
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इस प्रकार सुखी जीवन के लिए हमें सदा अपनी सुयोग्यता की संभावनाओं के अनुसार उन्हें प्राप्त करना चाहिए, तदुपरांत उनका उपयोग करते हुए उपलब्धियों के प्रयास करने चाहिए. साथ ही हम वहीं तक आगे बढ़ने की इच्छा रखें जहाँ तक हम सुयोग्य बने रहें. 

शुक्रवार, 25 जून 2010

हमारी कुतिया संस्कृति

कल सुबह मैं गाँव में अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था कि रास्ते में अचानक एक आवाज़ उभरी, "भाई साहेब, ज़रा सुनिए, आपसे कुछ जरूरी काम है." मैंने आवाज के दिशा में मुंह मोड़ा तो गाँव के एक भूतपूर्व सैनिक मुझे ही संबोधित करते पाए गए. उनके पास गया तो उनकी सुन्दर एवं बलिष्ठ पत्नी भी घूँघट किये पास आकर खडी हो गयीं. मुझे चारपाई पर स्थान दिया गया, और उन्होंने मुझे अपना कष्ट बयान किया, "परसों सुबह से हमारी कुतिया खो गयी है, जिसका कुछ पाता नहीं चल रहा". पत्नी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अपना बयान जारी रखा, "इनका कहना है कि आप अपने इन्टरनेट से हमारी कुतिया का पता लगा सकते हैं". सुन्दर पत्नी ने मधुर स्वर में कहा, "आपकी बड़ी मेहेरबानी होगी, मुझे उससे बड़ा लगाव है".

मैं उन दोनों की मूर्खता पर कुछ क्रोधमय मुस्कराया, तथापि मैंने संयत स्वर में निवेदन किया, "अच्छा ही है कुतिया खो गयी, आप खर्चे से भी बचे और उसकी गन्दगी से भी". इस पर मेरे मित्र बोले, "इन दोनों में से कोई विशेष कष्ट हमें नहीं था. उसे खाने के लिए तो हम एक-दो ग्रास ही देते थे, शेष वह अडोस-पड़ोस से पूर्ति कर लेती थी. मल-मूत्र के लिए हमने उसे आरम्भ सी दीक्षित कर दिया था. इनके लिए वह सदैव मार्ग पर ही चली जाती थी और शौच के बाद ही घर में घुसती थी". मैं असमंजस में पड़ गया कि इसे सुनकर मैं रोऊँ या हसूँ, एक ओर कुआ था तो दूसरी ओर गहरी खाई थी. एक ओर भारत की महान संस्कृति थी तो दूसरी ओर मेरा घोर विरोध. सभ्यता और संस्कृति का मेरा आलेख मेरे मस्तिष्क में गूँज गया. इन संस्कृत महोदय को मैं सभ्य समझ बैठा था.

कुछ देर में स्वयं को संयमित कर पाया तो मैंने उन्हें इन्टरनेट पर उपलब्ध सूचनाओं के बारे में बताया और उन दोनों को संतुष्ट किया कि इन्टरनेट उनकी कुतिया के बारे में कुछ भी नहीं जानता है. इन्टरनेट सुविधा पूरे जनपद के ग्रामीण क्षेत्रों में केवल मेरे ही पास है और मैं इसका व्यक्तिगत उपयोग ही करता हूँ. लोगों ने इन्टरनेट का नाम तो सुन लिया है किन्तु इसके उपयोगों के बारे में अनभिज्ञ हैं.

मेरे गाँव में लगभग ५०० परिवार हैं और लगभग १,००० अर्ध-आवारा कुत्ते-कुतिया जिनको उनके तथाकथित स्वामी एक-दो ग्रास खाना देते हैं और मल-मूत्र के लिए सारा जहाँ उनका शौचालय है. किसी भी काली स्थान पर इन कुत्ते-कुतियों के मल देखे जा सकते हैं, जो हमारी आदत में समाहित होने के कारण अटपटे नहीं लगते. इन कुत्ते-कुतियों में से अनेक को काटने की आदत भी है. लगभग १५ दिन पूर्व एक कुत्ते ने मुझे भी कटा था जिसकी चिकित्सा राजकीय चिकित्सालय में करवाने पर भी मुझे अपनी जेब से २५० रुपये की औषधियां खरीद कर खानी पडी थीं. परस्पर लड़ाई झगड़े और भौंका-भौंकी तो कुत्तों की आदत होती ही है जिसके कारण रात भर गाँव में इनसे रौनक बनी रहती है और जो मेरी तरह शारीरिक श्रम से थके हुए नहीं होते, वे ठीक से सो भी नहीं पाते.
Barking Dogs Never Bite (Ws Sub) 
जिन घरों में इस प्रकार के अर्ध-आवारा कुत्ते पाले जाते हैं उनके बर्तनों को मनुष्य कम किन्तु कुत्ते अधिक चाटते हैं. इस कारण से मैं ऐसे घरों में कुछ खाना पसंद नहीं करता. मेरा कुत्ता विरोध पूरे गाँव में जाना जाता है. स्वास्थ की दृष्टि से कुत्तों की समीपता बच्चों के मानसिक विकास में बाधक होती है और मैंने दीर्घकालिक विशेष अध्ययन से यह पाया है कि जिन घरों में कुत्ते पाले जाते हैं, उनके बच्चे उच्च शिक्षा स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते.