कल सुबह मैं गाँव में अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था कि रास्ते में अचानक एक आवाज़ उभरी, "भाई साहेब, ज़रा सुनिए, आपसे कुछ जरूरी काम है." मैंने आवाज के दिशा में मुंह मोड़ा तो गाँव के एक भूतपूर्व सैनिक मुझे ही संबोधित करते पाए गए. उनके पास गया तो उनकी सुन्दर एवं बलिष्ठ पत्नी भी घूँघट किये पास आकर खडी हो गयीं. मुझे चारपाई पर स्थान दिया गया, और उन्होंने मुझे अपना कष्ट बयान किया, "परसों सुबह से हमारी कुतिया खो गयी है, जिसका कुछ पाता नहीं चल रहा". पत्नी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अपना बयान जारी रखा, "इनका कहना है कि आप अपने इन्टरनेट से हमारी कुतिया का पता लगा सकते हैं". सुन्दर पत्नी ने मधुर स्वर में कहा, "आपकी बड़ी मेहेरबानी होगी, मुझे उससे बड़ा लगाव है".
मैं उन दोनों की मूर्खता पर कुछ क्रोधमय मुस्कराया, तथापि मैंने संयत स्वर में निवेदन किया, "अच्छा ही है कुतिया खो गयी, आप खर्चे से भी बचे और उसकी गन्दगी से भी". इस पर मेरे मित्र बोले, "इन दोनों में से कोई विशेष कष्ट हमें नहीं था. उसे खाने के लिए तो हम एक-दो ग्रास ही देते थे, शेष वह अडोस-पड़ोस से पूर्ति कर लेती थी. मल-मूत्र के लिए हमने उसे आरम्भ सी दीक्षित कर दिया था. इनके लिए वह सदैव मार्ग पर ही चली जाती थी और शौच के बाद ही घर में घुसती थी". मैं असमंजस में पड़ गया कि इसे सुनकर मैं रोऊँ या हसूँ, एक ओर कुआ था तो दूसरी ओर गहरी खाई थी. एक ओर भारत की महान संस्कृति थी तो दूसरी ओर मेरा घोर विरोध. सभ्यता और संस्कृति का मेरा आलेख मेरे मस्तिष्क में गूँज गया. इन संस्कृत महोदय को मैं सभ्य समझ बैठा था.
कुछ देर में स्वयं को संयमित कर पाया तो मैंने उन्हें इन्टरनेट पर उपलब्ध सूचनाओं के बारे में बताया और उन दोनों को संतुष्ट किया कि इन्टरनेट उनकी कुतिया के बारे में कुछ भी नहीं जानता है. इन्टरनेट सुविधा पूरे जनपद के ग्रामीण क्षेत्रों में केवल मेरे ही पास है और मैं इसका व्यक्तिगत उपयोग ही करता हूँ. लोगों ने इन्टरनेट का नाम तो सुन लिया है किन्तु इसके उपयोगों के बारे में अनभिज्ञ हैं.
मेरे गाँव में लगभग ५०० परिवार हैं और लगभग १,००० अर्ध-आवारा कुत्ते-कुतिया जिनको उनके तथाकथित स्वामी एक-दो ग्रास खाना देते हैं और मल-मूत्र के लिए सारा जहाँ उनका शौचालय है. किसी भी काली स्थान पर इन कुत्ते-कुतियों के मल देखे जा सकते हैं, जो हमारी आदत में समाहित होने के कारण अटपटे नहीं लगते. इन कुत्ते-कुतियों में से अनेक को काटने की आदत भी है. लगभग १५ दिन पूर्व एक कुत्ते ने मुझे भी कटा था जिसकी चिकित्सा राजकीय चिकित्सालय में करवाने पर भी मुझे अपनी जेब से २५० रुपये की औषधियां खरीद कर खानी पडी थीं. परस्पर लड़ाई झगड़े और भौंका-भौंकी तो कुत्तों की आदत होती ही है जिसके कारण रात भर गाँव में इनसे रौनक बनी रहती है और जो मेरी तरह शारीरिक श्रम से थके हुए नहीं होते, वे ठीक से सो भी नहीं पाते.
जिन घरों में इस प्रकार के अर्ध-आवारा कुत्ते पाले जाते हैं उनके बर्तनों को मनुष्य कम किन्तु कुत्ते अधिक चाटते हैं. इस कारण से मैं ऐसे घरों में कुछ खाना पसंद नहीं करता. मेरा कुत्ता विरोध पूरे गाँव में जाना जाता है. स्वास्थ की दृष्टि से कुत्तों की समीपता बच्चों के मानसिक विकास में बाधक होती है और मैंने दीर्घकालिक विशेष अध्ययन से यह पाया है कि जिन घरों में कुत्ते पाले जाते हैं, उनके बच्चे उच्च शिक्षा स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते.