भारत के समक्ष उपस्थित अनेक संकटों में से एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक संघर्ष है जो समाज की मान्यताओं और वास्तविकताओं के मध्य है. समाज की मान्यता को अंग्रेज़ी में मिथ कहा जाता है और इन्हें समाज परम्परागत रूप में मानता चलता है, बिना किसी सोच विचार के. ईश्वर, भाग्य, जन्म-जन्मान्तर, आदि ऐसी अनेक मान्यताएं हैं जो भारतीय समाज में पवित्र भावनाओं की तरह स्वीकृत हैं, जब कि ये न तो वैज्ञानिक स्तर पर परीक्षित हैं और न ही इनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध है. चौंकिए मत, उदहारण देता हूँ - अधिकाँश भारतीय भाग्य पर विश्वास करते हैं और बहुधा कहते हैं कि जो भाग्य में लिखा है वह तो होकर ही रहेगा, तथापि सभी लोग जीवन में उपलब्धियों के लिए संघर्ष करते हैं, भाग्य के लिखे पर निर्भर नहीं करते. इसी प्रकार प्रत्येक धर्मात्मा औरधर्म-परायण व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधाओं को कोसता रहता है और इन्हें तुच्छ कहता रहता है तथापि इन भौतिक सुख-सुविधाओं में ही जीता है और इनके संवर्धन के सतत प्रयास करता रहता है.
इस प्रकार एक ओर मान्यता होती है तो दूसरी ओर जीवन की वास्तविकता. इन दोनों के ही संघर्ष में मनुष्य जीवन भर अनिर्णीत रहता है. न तो उसे मान्यता पर आस्था होती है और न ही अपने प्रयासों पर विश्वास. इस प्रकार अधर में लटके मनुष्य वास्तव में मनुष्यता के प्रतीक - बौद्धिकता, का स्पर्श भी नहीं कर पाते.
मान्यताएं दो प्रकार से विकसित होती हैं - अनुवांशिक अनुभवों से, तथा समाज पर आरोपित विकृतियों से. ये दो विकास प्रक्रियाएं ठीक समान्तर रूप में संचालित होती हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समाज में सज्जन और दुर्जन प्रवृत्तियों के लोग होते हैं. वस्तुतः इन दोनों प्रवृत्तियों के लोग ही क्रमशः दोनों प्रकार की मान्यताओं को विकसित करते हैं. जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभवों को भविष्य में उपयोग के लिए अपनी स्मृति में संजो कर रखता है, उसी प्रकार प्रत्येक समाज भी अपने अंगों के अनुभवों को अनुवांशिक रूप में साथ लेकर चलता है और यथावश्यकता उनका उपयोग करता रहता है.
समाज के अनेक अंग व्यक्तिगत स्वार्थों के वशीभूत होकर दूसरे लोगों को ठगते हैं, और उन्हें कुमार्ग पर चलने को प्रेरित करते हैं. सामाजिक विकृतियाँ इन्हीं लोगों द्वारा विकसित की जाती हैं, जो अंततः मान्यताओं में परिणित हो जाती हैं. इसलिए समाज के बौद्धिक वर्ग का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह मान्यताओं की सतत समीक्षा करता रहे और उनमें से आरोपित विकृतियों की छटनी करने के प्रयास करता रहे. यूरोपीय समाज में लगभग ३०० वर्ष पूर्व ऐसा प्रयास किया गया था जिसे रेनैसांस अर्थात पुनर्जागरण कहा जाता है. इसके परिणामस्वरूप यूरोपीय समाज ने अपनी पुरानी अवैज्ञानिक मान्यताओं को त्यागते हुए विज्ञानं को जीवन में स्थान दिया. यूरोपे का वर्तमान विकास स्तर इसी पुनर्जागरण का परिणाम है. भारत में भी अनेक व्यक्ति इस प्रकार के प्रयास करते रहे हैं किन्तु एक बहुत बड़ा समुदाय विकृतियों के पक्ष में सतत प्रयास करता रहता है और पुनर्जागरण की स्थिति नहीं आने देता.
भारत को यदि अंधविश्वासों और रूढ़ियों से मुक्त कराना है तो यहाँ भी यूरोप जैसे पुनर्जागरण प्रयासों की आवश्यकता है जिसके लिए देश के बौद्धिक वर्ग को समन्वित प्रयास करने होंगे और विकृति फ़ैलाने वाले समुदायों को मुंह-तोड़ उत्तर देने होंगे. सार्वजनिक शिक्षा इसका सर्वोत्तम माध्यम है किन्तु वर्तमान राजतन्त्र इसमें केवल औपचारिकता स्तर तक ही रूचि रखता है. अतः वर्तमान राजनैतिक स्तिति में भारत का पुनर्जागरण सहज नहीं है, तथापि समन्वित प्रयास किये जाने चाहिए.
वर्तमान राज्य की लोगों को भाग्यवाद से दूर ले जाने की कोई मंशा नहीं है।
जवाब देंहटाएं