'इतिहास दोहराता है' - यह सुना था किन्तु आशा नहीं थी कि यह कथावत मेरे समक्ष चरितार्थ होगी. सन १९४० में पिताजी श्री करन लाल अपनी युवावस्था में ही देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े थे और ४२ में क्षेत्र के क्रांतिकारियों में गिने जाने लगे थे. उस समय ब्रिटिश सरकार ने पिताजी का दमन करने का भरसक प्रयास किया. स्वतंत्र भारत में देश के विदेश मंत्री रहे श्री सुरेन्द्र पाल सिंह जैसे अँगरेज़ भक्त पिताजी की हस्ती मिटाने के लिए कृतसंकल्प थे. गाँव के जमींदार और उनके पिट्ठू प्रत्येक तरीके से उन्हें कारागार में डलवाने और मरवाने में अपना योगदान देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे.
दूसरी ओर पिताजी क्षेत्र में इतने लोकप्रिय हो गए थे कि आम आदमी अपनी जान हथेली पर रख कर भी उनके जीवन की रक्षा के लिए तैयार रहता था. इसके कारण अँगरेज़ सरकार, जमींदार, तथा दूसरे देशद्रोही पिताजी का बाल भी बांका न कर सके. इसी समर्थन के कारण पिताजी ने अंग्रेजों को क्रांति का सन्देश देने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ अंग्रेज़ी सरकार के चरोरा निरीक्षण भवन को आग लगा दी. इस काण्ड के बाद तो दोनों पक्षों में और भी अधिक ठन गयी. पिताजी के अतिरिक्त अन्य सभी साथी पकडे गए, कुछ ने क्षमा मांग ली, तो कुछ अंग्रेजों के गवाह बन गए, किन्तु अधिकाँश टस से मस नहीं हुए और दंड के भागी बने. पिताजी फरार हो गए. अंततः पिताजी के विरुद्ध देखते ही गोली मारने के आदेश जारी कर दिए.
उस समय बुलंदशहर के एक न्यायाधीश श्री डी. पद्मनाभन थे जो देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे और पिताजी के विरुद्ध मुकदमा उन्ही के नयायालय में था. उन्होंने पिताजी को गुप्त सन्देश भिजवाया कि जब तक हार्डी बुलंदशहर का कलेक्टर है, तब तक फरार हे रहें और अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखें. तदनुसार पिताजी १६ माह फरार रहे और अंततः श्री डी. पद्मनाभन के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. इस अवधि में वे अधिकाँश रात्रियाँ खेतों में छिप कर व्यतीत करते थे और दिन में गुप्त सभाएं करके जन-जागरण करते थे. लोग उन्हें अपनी बैलगाड़ियों में बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते थे.
स्वतन्त्रता आन्दोलन में पिताजी अनेक बार कारागार में रहे किन्तु कभी क्षमा नहीं माँगी. स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने १९५२ में सोशलिस्ट पार्टी की ओर से विधान सभा का चुनाव लड़ा किन्तु ३०० मतों से पराजित हुए. वे गाँव के तीन बार प्रधान चुने गए और उन्होंने गाँव में अनेक विकास कार्य किये थे. वे निर्भीक रहकर निर्धन निस्सहाय लोगों लोगों की सहायता करते थे, इसलिए गाँव के जमींदार और उनके संगी पिताजी के शत्रु बने रहे और अनेक बार उन्हें मरवाने के षड्यंत्र रचे. आम लोगों के सहयोग के कारण सभी षड्यंत्र असफल रहे और पिताजी सभी षड्यंत्रकारियों की मृत्यु के पश्चात् ९३ वर्ष की परिपक्व अवस्था में सन २००३ में मृत्यु को प्राप्त हुए. तब तक उनके सभी पुत्र-पुत्री समाज और अपने कार्यों में प्रतिष्ठा पा चुके थे अतः वे परिवार से संतुष्ट थे. किन्तु देश की बिगड़ती हुई राजनैतिक स्थिति से सदैव चिंतित रहते थे.
पिताजी की मृत्यु से पूर्व मैं गाँव में रहने लगा था और समाज में मुझे उन जैसा ही सम्मान प्राप्त हो रहा है. पिताजी के शत्रुओं के परिजन ही आज मेरे शत्रु बने हुए हैं और मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचते रहते हैं. इस प्रकार बदली हुई परिस्थितियों में भी गाँव का इतिहास दोहरा रहा है.
मेरे विरुद्ध जो षड्यंत्र रचा गया उसमें देश के प्रतिष्ठित पदाधिकारी श्री सुनील कुमार आई. ए. एस., श्री जसवीर सिंह आई. पी. एस., श्री नीलेश कुमार आई पी. एस. ने मेरी उसी तरह सहायता की है जिस तरह पिताजी की श्री डी. पद्मनाभन ने की थी. और इस सब सहायता के लिए श्रेय श्री जय कुमार झा को जाता है.