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शुक्रवार, 25 जून 2010

हमारी कुतिया संस्कृति

कल सुबह मैं गाँव में अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था कि रास्ते में अचानक एक आवाज़ उभरी, "भाई साहेब, ज़रा सुनिए, आपसे कुछ जरूरी काम है." मैंने आवाज के दिशा में मुंह मोड़ा तो गाँव के एक भूतपूर्व सैनिक मुझे ही संबोधित करते पाए गए. उनके पास गया तो उनकी सुन्दर एवं बलिष्ठ पत्नी भी घूँघट किये पास आकर खडी हो गयीं. मुझे चारपाई पर स्थान दिया गया, और उन्होंने मुझे अपना कष्ट बयान किया, "परसों सुबह से हमारी कुतिया खो गयी है, जिसका कुछ पाता नहीं चल रहा". पत्नी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अपना बयान जारी रखा, "इनका कहना है कि आप अपने इन्टरनेट से हमारी कुतिया का पता लगा सकते हैं". सुन्दर पत्नी ने मधुर स्वर में कहा, "आपकी बड़ी मेहेरबानी होगी, मुझे उससे बड़ा लगाव है".

मैं उन दोनों की मूर्खता पर कुछ क्रोधमय मुस्कराया, तथापि मैंने संयत स्वर में निवेदन किया, "अच्छा ही है कुतिया खो गयी, आप खर्चे से भी बचे और उसकी गन्दगी से भी". इस पर मेरे मित्र बोले, "इन दोनों में से कोई विशेष कष्ट हमें नहीं था. उसे खाने के लिए तो हम एक-दो ग्रास ही देते थे, शेष वह अडोस-पड़ोस से पूर्ति कर लेती थी. मल-मूत्र के लिए हमने उसे आरम्भ सी दीक्षित कर दिया था. इनके लिए वह सदैव मार्ग पर ही चली जाती थी और शौच के बाद ही घर में घुसती थी". मैं असमंजस में पड़ गया कि इसे सुनकर मैं रोऊँ या हसूँ, एक ओर कुआ था तो दूसरी ओर गहरी खाई थी. एक ओर भारत की महान संस्कृति थी तो दूसरी ओर मेरा घोर विरोध. सभ्यता और संस्कृति का मेरा आलेख मेरे मस्तिष्क में गूँज गया. इन संस्कृत महोदय को मैं सभ्य समझ बैठा था.

कुछ देर में स्वयं को संयमित कर पाया तो मैंने उन्हें इन्टरनेट पर उपलब्ध सूचनाओं के बारे में बताया और उन दोनों को संतुष्ट किया कि इन्टरनेट उनकी कुतिया के बारे में कुछ भी नहीं जानता है. इन्टरनेट सुविधा पूरे जनपद के ग्रामीण क्षेत्रों में केवल मेरे ही पास है और मैं इसका व्यक्तिगत उपयोग ही करता हूँ. लोगों ने इन्टरनेट का नाम तो सुन लिया है किन्तु इसके उपयोगों के बारे में अनभिज्ञ हैं.

मेरे गाँव में लगभग ५०० परिवार हैं और लगभग १,००० अर्ध-आवारा कुत्ते-कुतिया जिनको उनके तथाकथित स्वामी एक-दो ग्रास खाना देते हैं और मल-मूत्र के लिए सारा जहाँ उनका शौचालय है. किसी भी काली स्थान पर इन कुत्ते-कुतियों के मल देखे जा सकते हैं, जो हमारी आदत में समाहित होने के कारण अटपटे नहीं लगते. इन कुत्ते-कुतियों में से अनेक को काटने की आदत भी है. लगभग १५ दिन पूर्व एक कुत्ते ने मुझे भी कटा था जिसकी चिकित्सा राजकीय चिकित्सालय में करवाने पर भी मुझे अपनी जेब से २५० रुपये की औषधियां खरीद कर खानी पडी थीं. परस्पर लड़ाई झगड़े और भौंका-भौंकी तो कुत्तों की आदत होती ही है जिसके कारण रात भर गाँव में इनसे रौनक बनी रहती है और जो मेरी तरह शारीरिक श्रम से थके हुए नहीं होते, वे ठीक से सो भी नहीं पाते.
Barking Dogs Never Bite (Ws Sub) 
जिन घरों में इस प्रकार के अर्ध-आवारा कुत्ते पाले जाते हैं उनके बर्तनों को मनुष्य कम किन्तु कुत्ते अधिक चाटते हैं. इस कारण से मैं ऐसे घरों में कुछ खाना पसंद नहीं करता. मेरा कुत्ता विरोध पूरे गाँव में जाना जाता है. स्वास्थ की दृष्टि से कुत्तों की समीपता बच्चों के मानसिक विकास में बाधक होती है और मैंने दीर्घकालिक विशेष अध्ययन से यह पाया है कि जिन घरों में कुत्ते पाले जाते हैं, उनके बच्चे उच्च शिक्षा स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते.     

सोमवार, 7 जून 2010

बौद्धिक जन-समुदाय के समक्ष चुनौती

किसी भी परिवर्तनशील समाज अथवा देश में लोगों के लाभ और हानियाँ उनकी व्यक्तिगत या सामूहिक स्थिति के सापेक्ष परिवर्तन की दिशा पर निर्भर करते हैं. यथा यदि देश पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा होता है तो देश के पूंजीपति लाभान्वित होंगे किन्तु बौद्धिक लोगों और जन-साधारण के हितों को क्षति पहुंचेगी. किन्तु यदि देश का समस्त समाज एकीकृत है तो प्रत्येक परिवर्तन से सभी को एक समान लाभ होगा अथवा क्षति पहुंचेगी. जनतंत्र ऐसे ही एकीकृत समाज वाले देशों के लिए अभिकल्पित है और इसे अपनाने वाले प्रत्येक देश में एकीकृत समाज की अपेक्षा की जाती है. किन्तु भारत जैसे बहुपक्षीय एवं बहुरूपी समाज में प्रत्येक परिवर्तन का प्रभाव सभी पर एक समान होना संभव नहीं है. सभी लाभान्वित हों, इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अथवा उनके समुदायों के सापेक्ष सभी क्षेत्रों में परिवर्तन किये जाएँ.

इस संलेख के सन्दर्भ में हमारा अभिप्राय लोगों की बौद्धिक संपदा अथवा उसका अभाव है, इसलिए भारतीय समाज को हम इसी आधार पर वर्गीकृत करेंगे. बौद्धिकता के सन्दर्भ में विश्व इतिहास लोगों को दो वर्गों में रखता है - एक वर्ग अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए कठोर परिश्रम कर दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रगति करता है, जबकि दूसरा वर्ग अपनी मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक और व्यावसायिक युद्धनीति का उपयोग करते हुए प्रथम वर्ग की प्रगति का अवशोषण करता है. प्रथम वर्ग सृजन करता है और दूसरा वर्ग उसका अवशोषण करता है और आनंद पाता है. ऐसा होना अपरिहार्य है क्योंकि एक दार्शनिक राजनीतिज्ञ नहीं हो सकता और एक वैज्ञानिक योद्धा नहीं हो सकता.

विश्व के विकसित देशों में भी समाज ऐसे वर्गों में विभाजित होता है किन्तु वहां लेने और देने का संतुलन बना रहता है जिससे शोषण न्यूनतम होता है. इसका एक सटीक उदाहरण यह है कि इंग्लैंड के एक उपन्यास लेखक को करोड़ों पोंड की राशि अग्रिम मानदेय के रूप में प्राप्त हो जाती है जिसके कारण वह प्रकाशक अपनी प्रकाशन दक्षता और अपने निवेश से कई गुणित धन कमाता है. इसकी तुलना में, भारत में एक शीर्षस्थ लेखक को पुस्तक लिखने के बदले लगभग १०,000 रुपये तक प्राप्त होता है जबकि उसका प्रकाशक उसी पुस्तक से लाखों रुपये अर्जित करता है. भारत में सभी क्षेत्रों में कुछ ऐसा ही हो रहा है, क्योंकि यहाँ का समाज उपरोक्त प्रकार से वर्गीकृत है - दार्शनिक और व्यावसायिक वर्गों में.

यहाँ हमारे लिए आवश्यक है कि हम सभ्यता और संस्कृति के अंतराल को समझें. सभ्य समाज में संतुलित शोषण होता है जबकि संस्कृत समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार दूसरों का अविश्वास की सीमा तक भरपूर शोषण करता है. विकसित देश कुछ सीमा तक सभ्य हैं जब कि भारत दीर्घकालिक परतंत्रता के कारण संस्कृत है जहां शोषण ही जीवनधारा होता है. हम भारत-वासी अभी  तक उस दासता वाली मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं.

हमें अपनी दीर्घकालिक दासत्व संस्कृति से उबरने के लिए सभ्य होना होगा जो प्रक्रिया दो स्तरों पर संचालित होगी - व्यक्तिगत और सामाजिक. प्रत्येक व्यक्ति स्वयं सभ्य बन सकता है किन्तु यदि समाज सभ्य न हुआ तो वह व्यक्ति संस्कृत समाज में अवांछित घोषित कर दिया जाएगा. इस के लिए देश के सभी नागरिकों को साथ-साथ सभ्य होना होगा ताकि राष्ट्र अपनी संस्कृति का परित्याग कर सभ्य बन सके. किन्तु भारत में ऐसा होना इस लिए संभव नहीं है क्योंकि यहाँ लोगों के शरीर और मन दोनों में अभाव व्याप्त है. इस अभाव के कारण हम व्यक्तिगत रूप में अपने चेहरों पर से संस्कृति का नकाब उतारने में असफल ही रहेंगे.

इसलिए भारत की विवशता है कि देश में बौद्धिक शासन की स्थापना के लिए बलपूर्वक परिवर्तन किया जाये जिसके लिए आरम्भ में कुछ लोगों की निरंकुश स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाया जाए जिसे उनके व्यवहार में सम्यक परिवर्तन आने पर शनैः-शनैः शिथिल किया जाए. इससे अंततः सभी का सभ्य व्यवहार होने पर सभी को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जा सकेगी. इस निरंकुश स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाना उन लोगों के लिए कष्टकर होगा जो अभी संस्कृत समाज में शोषण कर रहे हैं, इसलिए वे इसका डट कर विरोध करेंगे. अभी देश में इस प्रकार के लोगों की जनसँख्या लगभग १५ प्रतिशत है किन्तु ये राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप में सर्वाधिक शक्तिशाली हैं और देश की लगभग ४० प्रतिशत आर्थिक संपदा और १०० प्रतिशत राजनैतिक सत्ता के स्वामी बने हुए हैं. इसी संपदा और सत्ता के माध्यम से ये जनसाधारण पर अपना शिकंजा कसे रहते हैं.

देश की ६० प्रतिशत जनसँख्या का इतना अधिक शोषण किया जा रहा है कि उनके समक्ष जीवन-मरण का प्रश्न मुंह बाए खड़ा रहता है जिसके कारण उन्हें इस विषय में कोई रूचि नहीं हो सकती कि देश में संस्कृत राजनैतिक शासन हो अथवा सभ्य दार्शनिक व्यवस्था. यह जनसँख्या दूसरों के मार्गदर्शन पर आश्रित रहती है और अभी राजनैतिक शासकों के चंगुल में है. तथापि इस विशाल जनसँख्या को उसके शोषण से अवगत किया जा सकता है जिससे कि वह वर्तमान राजनैतिक षड्यंत्र को समझ सके और परिवर्तन में अपनी भागीदारी बना सके. यही जनसँख्या खेतों और कल-कारखानों में श्रम करने के कारण देश की अर्थव्यवस्था की मेरु है, तथापि देश की केवल ३० प्रतिशत संपदा की स्वामी है. 

इस प्रकार देश केवल २५ प्रतिशत जनसँख्या को बौद्धिक जनतंत्र में रूचि होने की संभावना है जो देश की अर्थ-व्यवस्था का सञ्चालन भी करती है तथा जिसकी बौद्धिकता का राजनीतिज्ञों द्वारा शोषण भी किया जा रहा है. इसलिए, यदि देश की दूसरी स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया जाता है तो देश की लगभग ३० प्रतिशत संपदा वाली इसी ३० प्रतिशत जनसँख्या को देश की ४० प्रतिशत संपदा की स्वामी केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या से जूझना होगा. यह संघर्ष मूलतः मनोवैज्ञानिक होगा जिसमें बौद्धिक समुदाय का साथ ६० प्रतिशत सर्वाधिक पीड़ित जनसँख्या भी दे सकती है. 

इस संघर्ष में खतरा बड़ा है किन्तु इसके संभावित लाभ खतरे से कई गुणित हैं जिसमें देश की ८५ प्रतिशत जनता लाभान्वित होगी तथा केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या को सामान्य स्तर पर लाया जाएगा. वर्तमान शासकों द्वारा दुष्प्रचारित 'भारत महान', 'विश्वगुरु भारत', 'भारत प्रगति पथ पर' आदि इसी संघर्ष को रोकने के लिए है. जबकि वस्तुस्थिति यह है कि विश्व में भारत को कोई सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं है, तथा विश्व की ३० प्रतिशत निर्धनतम जनसँख्या भारत में बसती है. यहाँ का प्रबुद्ध वर्ग विश्व भर में सस्ते मजदूरों के रूप में विख्यात है, जिसका उपयोग करके विकसित देश तेजी से विकास कर रहे हैं और भारत को उसका कोई लाभ प्राप्त नहीं हो रहा है. इस सबके लिए शासक वर्ग उत्तरदायी है जो स्वयं के शासन पर देश के कराधान का ४० प्रतिशत व्यय कर रहा है जबकि विश्व के अन्य देशों में यह केवल १० प्रतिशत है. 

यदि बौद्धिक वर्ग इस मनोवैज्ञानिक क्रांति को नहीं अपनाता है तो निकट भविष्य में भारत में फ्रांस जैसी रक्त-रंजित क्रांति अवश्यम्भावित है जिसमें सत्ता परिवर्तन तो होगा किन्तु विनाश के बाद, और निश्चित रूप में यह भी नहीं कहा जा सकता कि नए सत्ताधारी कौन होंगे, जो कोई विदेशी भी हो सकते हैं जिससे देश पुनः परतंत्रता में जकड लिया जाएगा. आर्थिक रूप में भारत आज भी परतंत्र ही है यह परतंत्रता राजनैतिक भी हो सकती है.

इस संलेख में देश की व्यवस्था के लिए रूपरेखा दी गयी है जिसपर गंभीर विचार मंथन की आवश्यकता है और भारत भविष्य निर्माण के लिए सार्थक कदम उठाये जाने की आवस्यकता है.