शनिवार, 8 मई 2010

देवनागरी लिपि

आधुनिक संस्कृत में 'देवनागरी लिपि' का अर्थ हिंदी, संस्कृत, मराठी आदि भाषाओँ की वर्णमाला है जिसका शास्त्रीय अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है.

देव उस जाति का नाम है जिसने भारत राष्ट्र की संकल्पना की और इसे विकसित किया.

नागरी शब्द फ्रांसीसी भाषा के शब्द  नाकाराड्स  से बना है जिसका अर्थ गहरा लाल-नारंगी रंग अथवा ऐसे रंग का सुकोमल वस्त्र है जिसे praacheen काल में देवों द्वारा उत्तरीय के रूप में उपयोग किया जाता था.

इस शब्द संग्रह में लिपि का अर्थ बाहरी वस्त्र है.

इस प्रकार देवनागरी लिपि का अर्थ 'देवों द्वारा उत्तरीय के रूप में धारण गहरे लाल-नारंगी रंग का वस्त्र' है.

व्यक्तित्त्व और आदर्शवादिता

प्रत्येक व्यक्ति के अन्तः में उसके दो स्वरुप उपस्थित होते हैं - एक वह जो वह वास्तव में होता है, तथा दूसरा वह जो वह होना चाहता है. प्रथम स्वरुप उसकी परिस्थितियों पर निर्भर करता है जबकि दूसरा उसके आदर्शों पर. इन दोनों स्वरूपों में अंतराल हो सकता है क्योंकि सभी समय व्यक्ति की परिस्तितियाँ उसे उसके मनोनुकूल नहीं होने देतीं. इसी व्यवहारिक अंतराल के कारण कुछ दुष्ट प्रवृत्ति वाले लोगों ने भाग्य का नाम दिया और उसके अध्ययन एवं सुधार के नाम पर ज्योतिष का व्यवसाय किया. 

बहुत सारे व्यक्ति मिलकर समाज बनाते हैं, और समाज की दीर्घकालिक स्थिति से प्रत्येक व्यक्ति की परिस्थितियां बनती हैं. इन्हें अनुकूल बनाने के प्रयास किये जा सकते हैं किन्तु इनकी सफलता सुनिश्चित नहीं की जा सकती. इसीलिये मनुष्य को परिस्थितियों का दास कहा जाता है. कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का स्वयं निर्माता होता है अथवा उन्हें अपने नियंत्रण में रख सकता है. किन्तु ऐसा कदापि संभव नहीं होता. ऐसी अवस्था में जो सर्वश्रेष्ठ किया जा सकता है वह परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को अभीष्ट रूप में संचालित किया जाये.

मनुष्य का शरीर और मन मिलकर एक इकाई के रूप में कार्य करते हैं जिससे उसकी जो छबि प्रत्यक्ष होती है उसे व्यक्ति का व्यक्तित्त्व कहा जाता है.  मनुष्य का मस्तिष्क उसके मन से प्रथक और स्वतंत्र रूप में कार्य करता है जिसमें उसकी स्मृति और चिंतन प्रमुख कर्म होते हैं.  इस प्रकार मन और मस्तिष्क में अंतर होता है. इन्ही मस्तिष्कीय कर्मों द्वारा व्यक्ति अपनी आदर्श धारणाएं विकसित करता है जो सामाजिक दृष्टि से अच्छी अथवा बुरी हो सकती हैं. इन आदर्श धारणाओं के अनुपालन के प्रयासों को व्यक्ति की आदर्शवादिता कहा जाता है.

अपने इन दो आतंरिक स्वरूपों के अतिरिक्त भी व्यक्ति का तीसरा स्वरुप होता है जो वह दूसरों को दर्शाना चाहता है, चाहे वह वास्तव में वैसा हो अथवा नो हो, या वैसा बनाने का प्रयास भी करता हो अथवा नहीं. व्यक्ति के इस तीसरे स्वरुप को उसका आडम्बर कहा जा सकता है. सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह होता है जिसके व्यक्तित्त्व, आदर्श और आडम्बर में समरूपता हो. चूंकि परिस्थितियोंवश ऐसा सभी समय संभव नहीं होता, इसलिए श्रेष्ठ व्यक्ति उसे माना जाता है जिसके आदर्श और आडम्बर में अंतराल न हो. जिनके आदर्श और आडम्बर में अंतराल होता है उन्हें पाखंडी कहा जाता है और ये व्यक्ति निम्न कोटि के होते हैं.

व्यवहारिक स्तर पर व्यक्ति के आदर्श और उसके व्यक्तित्त्व में अंतराल बना रहता है किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यक्ति को इस अंतराल को कम करने के प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं होती. श्रेष्ठ व्यक्ति इस अंतराल को न्यूनतम करने के सतत प्रयास करते रहते हैं, अर्थात वे सदैव परिस्थितियों से संघर्ष में रत रहते हैं.

गुरुवार, 6 मई 2010

उत्पाद गुणवत्ता एवं मूल्य नियंत्रण

बौद्धिक जनतंत्र की सुविचारित मान्यता है कि देश में घटिया वस्तुओं का उत्पादन संसाधनों की बर्बादी होता है और यह किसी भी वर्ग के हित में नहीं होता. इससे उत्पादक को को अपयश प्राप्त होता है तथा उपभोक्ता द्वारा खरीदारी में लगाया गया धन व्यर्थ जाता है.  देश की अर्थव्यवस्था खराब होती है तथा समाज में अराजकता फैलती है. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र में केवल उच्च कोटि के सामान का उत्पादन अनुमत होगा जिससे कि लोगों की जीवन-शैली उच्च कोटि की हो. बौद्धिक जनतंत्र में इसका दायित्व एक संवैधानिक आयोग 'उत्पाद गुणवत्ता एवं मूल्य नियंत्रण आयोग' को सौंपा जाएगा.

देश में प्रत्येक उत्पाद की केवल तीन निर्धारित कोटियाँ होंगी - उत्तम, मध्यम तथा साधारण, जिनके उपभोक्ता मूल्यों का अनुपात 6 : 5 : 4 होगा और तदनुसार ही कोटियाँ होंगी.  इनके अतिरिक्त कोटियों का उत्पादन एवं वितरण अवैध माना जायेगा जिसके उत्पादक तथा वितरक को दंड दिया जाएगा.

किसी वस्तु के उपभोक्ता मूल्य का निर्धारण उसकी उत्पादन लागत के अनुसार निर्धारित होगा तथा मध्यम्कोती के उत्पाद के लिए लागत मूल्य और उपभोलता मूल्य में केवल १५ प्रतिशत का अंतर रखा जायेगा ताकि उपभोक्ताओं को समुचित मूल्यों पर सामग्रियाँ प्राप्त हों. उत्पादक से उपभोलता के मध्य अधिकतम तीन स्तर के व्यापारी अनुमत होंगे,जिनमें से प्रत्येक का लाभ क्रमशः ३, ५ तथा ७ प्रतिशत होगा. इस प्रावधान से देश में मध्यस्थ व्यापारियों की संख्या सीमित रहेगी और अधिकाँश जनसँख्या उत्पादन कार्यों के लिए उपलब्ध होगी.

सामान्यतः किसी उपभोक्ता वस्तु का आयत नहीं किया जाएगा जिसके लिए दोहरी नीति अपनाई जायेगी - प्रत्येक उपभोक्ता वस्तु का उत्पादन देश में ही हो, तथा उपभोक्ता केवल देश में उत्पादित वस्तुओं को ही पर्याप्त स्वीकारे और उन्हीं पर निर्भर करे.

उपभोक्ता वस्तुएं केवल दो वर्गों की होंगी - उपभोग्य और उपयोक्त. उपभोग्य वस्तुएं अपने मूल रूप में केवल एक बार उपयोग जाती हैं, किन्तु उपयोक्त वस्तुएं बार बार उपयोग में ली जा सकती हैं तथापि उनके उपयोग-काल होते हैं  जिनके बाद वे असक्षम हो जाती हैं. प्रथम वर्ग की वस्तुएं प्रायः रूप परिवर्तन के बाद अन्य उपयोगों, जैसे उर्वरक के रूप में,  में ली जा सकती हैं. दूसरे वर्ग की वस्तुएं अनुपयोगी कचरे में परिवर्तित हो जाती हैं जिनका निस्तारण कठिन होता है. अतः उत्पादन में केवल उन सामग्रियों के उपयोग पर बल दिया जाएगा जो उपयोग के बाद किसी अन्य उपयोगी वस्तु में परिवर्तित हो जाती हों, जिससे कि देश में अनुपयोगी कचरे का उत्पादन न्यूनतम रहे. 

सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत मेरा अनुभव

सूचना अधिकार अधिनियम भारत का बहुचर्चित अधिनियम है जिसके अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को किसी भी सार्वजनिक कार्यालय सेउससे सम्बंधित विषयों पर सूचना पाने का अधिकार दिया गया है.  किन्तु इस बारे में मेरा अनुभव कुछ इस प्रावधान के विपरीत है. राजकीय पदों पर आसीन अधिकारियों ने अपने व्यक्तिगत हितों में ऐसे उपाय खोज लिए हैं जिनसे व्यक्ति को उसकी वांछित सूचना प्राप्ति से वंचित किया जा सकता है. 

अपने गाँव में विद्युत् उपलब्धि की स्थिति सधारने के लिए मैं लगभग ५ वर्षों से प्रयास और संघर्ष करता रहा हूँ, किन्तु उनसे कोई विशेष परिणाम नहीं मिला. अंततः मेरे एक मित्र के विद्युत् प्रशासन में उच्च पदासीन होने के कारण उसके स्थानीय अधिकारियों पर दवाब देने से गाँव में विद्युत् की जर्जर लाइनों को सुधारने का कार्य किया गया. इसके लिए स्थानीय अधिकारियों ने एक ठेकेदार को काम सौंपा. किन्तु ठेकेदार ने कार्य संतोषजनक नहीं किया. किन्तु मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता था जब तक कि मुझे यह पाता न चले कि ठेकेदार को क्या कार्य करने का आदेश दिया गया है. अतः मैंने निर्धारित शुल्क के साथ अधिशासी अभियंता, विद्युत् वितरण खंड ३, पश्चिमांचल विद्युत् वितरण निगम लिमिटेड, बुलंदशहर को आवेदन किया जिसमें मैंने गाँव खंदोई में लाइनों की दशा सुधारने हेतु ठेकेदार को दिए गए आदेश की प्रतिलिपि प्राप्त करनी चाही.

मेरे आवेदन पर सम्बंधित कर्मी ने मेरे प्रतिनिधि को बताया कि १ माह के अन्दर वांछित सूचना प्रदान कर दी जायेगी.  इसके बाद मेरा प्रतिनिधि अनेक बार उक्त कार्यालय गया किन्तु उसे किसी न किसी बहाने से सूचना प्रदान नहीं की गयी. आवेदन के लगभग ३ महीने बाद मैं स्वयं उक्त कार्यालय में गया और सम्बंधित कर्मी से सूचना की मांग की, जिसपर मुझे बताया गया कि सूचना डाक द्वारा भेज दी गयी है. मैंने उस सूचना के प्रतिलिपि लेनी चाही तो बताया गया कि अभी व्यस्तता के कारण यह संभव नहीं है और इसे बाद में दिया जा सकता है. मुझे इस बारे में डाक से कोई पत्र नहीं मिला.

इसके बाद के विगत तीन महीनों में मैं स्वयं तीन बार उक्त कार्यालय गया हूँ किन्तु कभी तो सम्बंधित कर्मी नहीं मिलता और जब मिलता है तो स्वयं को व्यस्त बताकर मुझे कोई सूचना प्रदान नहीं करता. मेरे पूछने पर उसने बताया कि सूचना डाकघर द्वारा उनके डाक-प्रेषण प्रमाण के अंतर्गत भेजी गयी थी किन्तु मुझे उसका कोई विवरण नईं दिया गया. यहाँ यह धताव्य है कि डाक-प्रेषण प्रमाण के अंतर्गत पत्र के पहुँचने की कोई सुनिश्चितता नहीं होती अतः डाक कर्मी द्वारा जारी ऐसे प्रमाण का कोई महत्व नहीं होता. इसीलिये सूचना न देने के लिए इस माध्यम का उपयोग किया जाता है. इससे सूचने दुए बिना ही सूचना दिए जाने की औपचारिकता पूर्ण कर ली जाती है. 

 चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन यापन की समस्याओं में इतना उलझा रहता है कि वह बार बार किसी सुदूर कार्यालय में जा नहीं सकता और उसे सूचना प्राप्ति से सरलता से वंचित किया जा सकता है. मुझे वांछित सूचना प्रदान न किये जाने से सिद्ध यही होता है कि गाँव में विद्युत् लाइनों के सुधार का कार्य ठेकेदार ने आदेश के अनुसार पूर्ण नहीं किया है और अधिकारियों के साथ मिलकर इस सम्बंधित धन का कुछ अंश हड़प लिया है. किन्तु मेरी अपनी व्यस्तताएं एवं संसाधनों का अभाव मुझे इसी कार्य के लिए पूर्ण समर्पण से रोके रहते हैं जिसका लाभ सम्बंधित अधिकारी उठा रहे हैं और मैं उनके तथाकथित भ्रिश आचरण को सहन कर रहा हूँ.

जन साधारण के ऐसे अनुभवों से सिद्ध यही होता है कि भारत में क़ानून केवल छापे जाने और प्रकाशित कर लोगों को भ्रमित करने के लिए बनाए जाते हैं, शासन-प्रशासन को सही मार्ग पर चलने अथवा जानता की कोई सहायता करने में वे असमर्थ ही रहते हैं. 
मेरे कुछ मित्रों के अनुभव भी इसी प्रकार के हैं जिनसे सिद्ध यही होता है कि यह प्रावधान भी अन्य जनसेवा प्रावधानों की तरह ही एक ढकोसला मात्र है, और यह प्रावधान लोगों को शासकों एवं प्रशासकों के मंतव्यों के बारे में भ्रमित करने हेतु ही लिया गया है.

मंगलवार, 4 मई 2010

भारत की आदि भाषा और लिपियाँ

प्रत्येक मानव समुदाय की आदि भाषा ध्वन्यात्मक होती रही है जिसमें शब्दों के सुनिश्चित स्वरुप नहीं होते थे. ध्वनि के स्रोत जिह्वा को शास्त्रों में 'लिंग' कहा गया है, जिसे स्वर के भाव में भी लिया गया है. अंग्रेज़ी का आधुनिक शब्द  lenguage  भी इसी शब्द से बना है.

लेखन प्रक्रिया के प्रादुर्भाव ने शब्दों को सुनिश्चित स्वरुप दिए हैं. इसलिए प्रत्येक भाषा विकास का आरम्भ अक्षरों के स्वरुप निर्धारण से ही हुआ है. भारत में भी ऐसा ही हुआ. अक्षरों के विन्यास को आधुनिक काल में 'लिपि' कहा जाता है किन्तु भारत के शास्त्रीय काल में ऐसा नहीं था. उस समय 'लिपि' का अर्थ 'चिकनाई' था.

आधुनिक काल की तरह शास्त्रीय काल में भाषा और लिपि के लिए प्रथक शब्द नहीं थे, अतः दोनों के लिए एक ही शब्द 'श्री' का उपयोग किया जाता था. इसी शब्द का उपयोग 'लिखित' के भाव में भी किया जाता रहा है. तदनुसार अनेक शास्त्रों के नाम श्री से आरम्भ होते हैं यथा 'श्रीमद्भगवद्गीता', श्रीमद्भागवत' आदि जहां 'श्री' का तात्पर्य लिखित स्वरुप से है.

भारत भूमि पर सर्वप्रथम ज्ञात श्री 'ब्राह्मी' थी जो ब्रह्मा द्वारा प्रस्तावित की गयी थी और आरंभिक ग्रंथों और शिलालेखों में इसका उपयोग किया गया था. ब्रह्मा को ही रामायण में राम कहा गया है. भारत विकास को समर्पित और ब्रह्मा एवं विश्वामित्र के सहयोगी मित्र जीसस ख्रीस्त थे जिन्होंने खरोष्टि श्री का प्रस्ताव किया. भारत के अनेक शिलालेख खरोष्टि में भी उपलब्ध हैं. आरम्भ में यह श्री दायें से बाएं को लिखी जाती थी. इसका कारण इसके प्रनायक का मूल स्थान इजराइल होना है जिस क्षेत्र की लिपियाँ पर्शियन, अरबिक आदि का दायें से बाएं लिखा जाना था. ब्राह्मी के प्रभाव में खरोष्टि को संशोधित कर बाएं से दायें लिखे जाने हेतु विकसित किया गया.



उपरोक्त देवों ने ही बाद में एक वैज्ञानिक श्री का विकास किया जिसे 'देवनागरी' नाम दिया गया. इसके बाद सभी वेदों और शास्त्रों को इसी श्री में लिखा गया. जिनकी भाषा तथा लिपि 'देवनागरी' ही कही जाती है. आज देवनागरी को एक लिपि के रूप में जाना जाता है, जबकि देवनागरी भाषा को 'वैदिक संस्कृत' कह दिया जाता है. यह श्री एक लिपि के रूप में आज भी प्रचलित है तथा भारत की एक भाषाओं जैसे संस्कृत, हिंदी, मराठी, आदि की अधिकृत लिपि है.

लिंग, शिवलिंग

Speaking in Tonguesशास्त्रीय शब्द 'लिंग' लैटिन भाषा के शब्द  'lingua'  से बनाया हुआ है जिसका अर्थ 'जिह्वा' है. इसे वचनों के भाव में भी लिया गया है. तदनुसार 'शिवलिंग' का अर्थ 'सुवचन' है. इसे 'पालन करने योग्य' संकेतों के रूप में भी लिया गया है. आधुनिक संस्कृत में लिंग का अर्थ नर, मादा भेद के लिए किया जाता है जिसका शास्त्रीय सन्दर्भों से कोई मेल नहीं है.