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गुरुवार, 6 मई 2010

सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत मेरा अनुभव

सूचना अधिकार अधिनियम भारत का बहुचर्चित अधिनियम है जिसके अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को किसी भी सार्वजनिक कार्यालय सेउससे सम्बंधित विषयों पर सूचना पाने का अधिकार दिया गया है.  किन्तु इस बारे में मेरा अनुभव कुछ इस प्रावधान के विपरीत है. राजकीय पदों पर आसीन अधिकारियों ने अपने व्यक्तिगत हितों में ऐसे उपाय खोज लिए हैं जिनसे व्यक्ति को उसकी वांछित सूचना प्राप्ति से वंचित किया जा सकता है. 

अपने गाँव में विद्युत् उपलब्धि की स्थिति सधारने के लिए मैं लगभग ५ वर्षों से प्रयास और संघर्ष करता रहा हूँ, किन्तु उनसे कोई विशेष परिणाम नहीं मिला. अंततः मेरे एक मित्र के विद्युत् प्रशासन में उच्च पदासीन होने के कारण उसके स्थानीय अधिकारियों पर दवाब देने से गाँव में विद्युत् की जर्जर लाइनों को सुधारने का कार्य किया गया. इसके लिए स्थानीय अधिकारियों ने एक ठेकेदार को काम सौंपा. किन्तु ठेकेदार ने कार्य संतोषजनक नहीं किया. किन्तु मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता था जब तक कि मुझे यह पाता न चले कि ठेकेदार को क्या कार्य करने का आदेश दिया गया है. अतः मैंने निर्धारित शुल्क के साथ अधिशासी अभियंता, विद्युत् वितरण खंड ३, पश्चिमांचल विद्युत् वितरण निगम लिमिटेड, बुलंदशहर को आवेदन किया जिसमें मैंने गाँव खंदोई में लाइनों की दशा सुधारने हेतु ठेकेदार को दिए गए आदेश की प्रतिलिपि प्राप्त करनी चाही.

मेरे आवेदन पर सम्बंधित कर्मी ने मेरे प्रतिनिधि को बताया कि १ माह के अन्दर वांछित सूचना प्रदान कर दी जायेगी.  इसके बाद मेरा प्रतिनिधि अनेक बार उक्त कार्यालय गया किन्तु उसे किसी न किसी बहाने से सूचना प्रदान नहीं की गयी. आवेदन के लगभग ३ महीने बाद मैं स्वयं उक्त कार्यालय में गया और सम्बंधित कर्मी से सूचना की मांग की, जिसपर मुझे बताया गया कि सूचना डाक द्वारा भेज दी गयी है. मैंने उस सूचना के प्रतिलिपि लेनी चाही तो बताया गया कि अभी व्यस्तता के कारण यह संभव नहीं है और इसे बाद में दिया जा सकता है. मुझे इस बारे में डाक से कोई पत्र नहीं मिला.

इसके बाद के विगत तीन महीनों में मैं स्वयं तीन बार उक्त कार्यालय गया हूँ किन्तु कभी तो सम्बंधित कर्मी नहीं मिलता और जब मिलता है तो स्वयं को व्यस्त बताकर मुझे कोई सूचना प्रदान नहीं करता. मेरे पूछने पर उसने बताया कि सूचना डाकघर द्वारा उनके डाक-प्रेषण प्रमाण के अंतर्गत भेजी गयी थी किन्तु मुझे उसका कोई विवरण नईं दिया गया. यहाँ यह धताव्य है कि डाक-प्रेषण प्रमाण के अंतर्गत पत्र के पहुँचने की कोई सुनिश्चितता नहीं होती अतः डाक कर्मी द्वारा जारी ऐसे प्रमाण का कोई महत्व नहीं होता. इसीलिये सूचना न देने के लिए इस माध्यम का उपयोग किया जाता है. इससे सूचने दुए बिना ही सूचना दिए जाने की औपचारिकता पूर्ण कर ली जाती है. 

 चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन यापन की समस्याओं में इतना उलझा रहता है कि वह बार बार किसी सुदूर कार्यालय में जा नहीं सकता और उसे सूचना प्राप्ति से सरलता से वंचित किया जा सकता है. मुझे वांछित सूचना प्रदान न किये जाने से सिद्ध यही होता है कि गाँव में विद्युत् लाइनों के सुधार का कार्य ठेकेदार ने आदेश के अनुसार पूर्ण नहीं किया है और अधिकारियों के साथ मिलकर इस सम्बंधित धन का कुछ अंश हड़प लिया है. किन्तु मेरी अपनी व्यस्तताएं एवं संसाधनों का अभाव मुझे इसी कार्य के लिए पूर्ण समर्पण से रोके रहते हैं जिसका लाभ सम्बंधित अधिकारी उठा रहे हैं और मैं उनके तथाकथित भ्रिश आचरण को सहन कर रहा हूँ.

जन साधारण के ऐसे अनुभवों से सिद्ध यही होता है कि भारत में क़ानून केवल छापे जाने और प्रकाशित कर लोगों को भ्रमित करने के लिए बनाए जाते हैं, शासन-प्रशासन को सही मार्ग पर चलने अथवा जानता की कोई सहायता करने में वे असमर्थ ही रहते हैं. 
मेरे कुछ मित्रों के अनुभव भी इसी प्रकार के हैं जिनसे सिद्ध यही होता है कि यह प्रावधान भी अन्य जनसेवा प्रावधानों की तरह ही एक ढकोसला मात्र है, और यह प्रावधान लोगों को शासकों एवं प्रशासकों के मंतव्यों के बारे में भ्रमित करने हेतु ही लिया गया है.