सोमवार, 2 अगस्त 2010

वर्तमान भारत का नायक कैसा हो

आधुनिक भारत में अनेक जन नायक हुए हैं, किन्तु कोई भी लम्बे समय तक नेतृत्व का दायित्व नहीं संभालता पाया गया है. महात्मा गाँधी निश्चित रूप से जन नायक थे किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वे नेतृत्व भर से मुक्त ही रहना चाहते थे, अतः उन्हें भी ऐसा जन नायक नहीं कहा जा सकता जो प्रत्येक स्थिति में जनता का नेतृत्व कर सके. अतः गांधी को जन नायक तो कहा जा सकता है किन्तु भारत नायक नहीं कहा जा सकता जिसके लिए कठोर एवं प्रखर राष्ट्रवाद की भावना की आवश्यकता है. इसके विपरीत गाँधी केवल मानवतावादी थे.

स्वतंत्र भारत के नेताओं में केवल एक नाम ऐसा है जो तब से अब तक सम्मान के साथ याद किया जाता है और जिसने अपने दायित्व निर्वाह से स्वयं को अद्वितीय सिद्ध किया था. यह नाम है 'सरदार वल्लभ भाई पटेल', जिन्होंने अंग्रेजों की देन विखंडित भारत को एक छ्त्र के नीचे ला दिया जिसकी क्षमता अन्य किसी नेता में नहीं थी. यदि स्वतंत्र भारत का नेतृत्व सरदार को दिया जाता तो आज देश की यह दुर्दशा न होती जो नेहरु और उसके परिवार ने की है.

दूसरा व्यक्ति जो भारत को सही नेतृत्व प्रदान करने में समर्थ था वह थे 'नेताजी सुभाष चन्द्र बोस' जिनके लिए देश सर्वोपरि था, लोगों की स्वतन्त्रता अथवा नेताओं के स्वार्थ राष्ट्र हित के समक्ष कोई महत्व नहीं रखते थे. इसी कारण से वे भारत में स्वतन्त्रता के तुरंत बाद जनतंत्र की स्थापना के विरोधी थे. वे चाहते थे कि जनतांत्रिक अधिकार पाने से पहले भारतीयों को अनुशासन सिखाना होगा जिसका उस समय तो नितांत अभाव था ही, आज की स्थिति और भी अधिक दयनीय हुई है.
स्वतन्त्रता से पूर्व के भारत, उसके बाद के भारत में केवल अंतर इतना है कि उस समय विदेशी भारतीयों का बहुविध शोषण कर रहे थे और आज देशी लोग भारतीयों का शोषण ही नहीं कर रहे, उन्हें बहुविध पथ-भृष्ट भी कर रहे हैं ताकि वे कुशासन के विरुद्ध सिर उठाने योग्य ही न रहें. आज के भारत का कुशासन अंग्रेज़ी कुशासन से अधिक घातक है.

भारतीयों में जिन गुणों का नितांत अभाव है तथापि सर्वाधिक अपरिहार्यता है, वे हैं - अनुशासन और राष्ट्रवाद. अतः भारत और भारतीयों को सही दिशा देने के लिए नायक में इन दोनों गुणों की सर्वाधिक आवश्यकता है. अनुशासन के सापेक्ष स्थिति इतनी विकृत कर दी गयी है कि कठोर कदम उठाये बिना इसकी स्थापना संभव नहीं रह गयी है. अतः वर्तमान भारत नायक को कठोर अनुशासक होने की आवश्यकता है जिसमें लोगों की वर्तमान निरंकुश स्वतन्त्रता] जिसने अब उद्दंडता का रूप ले लिया है, का हनन होना स्वाभाविक है. इस विषय में संदेह यह व्यक्त किया जाता है कि लोग इसे पसंद नहीं करेंगे. किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है, जन-साधारण आज के छोटे-बड़े नेताओं से इतना तृस्त है कि वे कठोर अनुशासक को पसंद करेंगे. इसका विशेष कारण यह है कि कठोर अनुशासन में जन-साधारण को कोई हानि नहीं है, हानि केवल आज के स्वार्थी नेतृत्व को ही होनी है. और यही जन-साधारण की हार्दिक अभिलाषा है.
Making Globalization Work

आधुनिक विश्व और वैश्वीकरण के सन्दर्भ में राष्ट्रवाद का महत्व क्षीण है, किन्तु भारत के हितों की रक्षा के लिए और विदेशियों द्वारा इसके शोषण को रोकने के लिए इसकी नितांत आवश्यकता है. राष्ट्रवाद राष्ट्र स्तर पर अपना घर संभालने जैसा कार्य है. आज की विडम्बना यह है कि भारत की आतंरिक स्थिति संभाले बिना इसे वैश्वीकरण में धकेल दिया गया है. जिसके कारण अनेक धनाढ्य देश भारतीय हितों के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं और भारत के वर्तमान नेता भारत के इस शोषण में निजी स्वार्थों के लिए सहयोग दे रहे हैं. अतः, आज आवश्यकता यह है कि हमें विश्व की ओर से अपने द्वार कुछ समय के लिए बंद कर अपना घर संभालना चाहिए, जिसके बाद वैस्वीकरण से भारत के हितों को कोई आंच नहीं आ सकेगी. अतः वर्तमान भारत के नायक के लिए कठोर अनुशासक होने के साथ-साथ प्रखर राष्ट्रवादी होने की आवश्यकता है.

रविवार, 1 अगस्त 2010

इच्छाशक्ति

एक मान्यता के अनुसार इच्छाशक्ति मनुष्य की वह आतंरिक इच्छा होती है जिसकी प्रबलता उसे अपने लक्ष्य को पाने की शक्ति प्रदान करती है. इच्छाशक्ति के स्रोतों और प्रभावों के बारे में निरंतर शोध होते रहे हैं. एक अत्याधुनिक शोध ने इच्छाशक्ति के बारे में नवीन परिणाम पाए हैं जो अब तक की मान्यताओं को नकारने के कारण चमत्कारिक कहे जा सकते हैं.

इच्छाशक्ति के अधीन व्यक्ति स्वयं से वार्तालाप में लिप्त रहता है जिसके अंतर्गत उसके चिंतन, विभिन्न संभावनाओं में से सर्वोत्तम के चयन, अपने मंतव्य, आशाएं, भय आदि मध्य उसकी गतिविधियों का सञ्चालन होता है. स्वयं से यह वार्तालाप सतत चलता रहता है.

अभी पाया यह गया है कि जब मनुष्य का मस्तिष्क किसी दृढ इच्छा शक्ति के साथ सफलता के लिए कार्य करता है तो उसकी सफलता की संभावना उस स्थिति की तुलना में कम हो जाती है जब वह मुक्त भाव से कार्य करता है. अर्थात मस्तिष्क को मुक्त रख कर कार्य करने से व्यक्ति की कार्य क्षमता अधिक होती है. इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सफलता की प्रबल कामना से व्यक्ति का मस्तिष्क एक संकुचित दायरे में कार्य करता है, जब कि किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उसके मस्तिष्क के वातायन नवाचार एवं नए विचारों के लिए खुले रहें और ऐसा तभी होता है जब व्यक्ति अपनी कामना के बंधन से मुक्त होकर सफलता की सभी संभावनाओं के लिए प्रस्तुत रहे.

इच्छाशक्ति के बारे में दो संभावनाएं होती हैं - इच्छापूर्ति के भरसक प्रयास करना, तथा इच्छ्पूर्ति के लिए प्रस्तुत रहना अथवा उससे दूर न भागना. आधुनिक शोधों में पाया यह गया है कि कार्य के स्वस्थ सञ्चालन के लिए व्यक्ति को अपनी इच्छापूर्ति के लिए केवल प्रस्तुत रहने की आवश्यकता होती है. इच्छापूर्ति के बंधन में रहने के परिणाम अच्छे सिद्ध नहीं हुए हैं.

इस विषय में गीता के तथाकथित 'निष्काम कर्म' के उपदेश की चर्चा भी प्रासंगिक है जिसके अनुसार फल की इच्छा रखना भी वर्जित है. जब कि हम सभी जानते हैं कि फल की इच्छा के बिना कोई भी कर्म संभव नहीं होता है. विश्व में आज तक किसी भी व्यक्ति ने फल की इच्छा के बिना एक भी कदम नहीं उठाया है, और न ही कभी उठाएगा. अतः 'निष्काम कर्म' की धारणा अव्यवहारिक होने के कारण एक भ्रान्ति मात्र है.
Kiplinger's WILLPower
उपरोक्त अध्ययन से निष्कर्ष यह निकलता है कि व्यक्ति द्वारा इच्छा रखना कार्य सम्पादन के लिए अनिवार्य है किन्तु उससे पूरी तरह बंधकर उसकी पूर्ति के लिए प्रयास करना वांछित नहीं है. यहाँ यह भी आवश्यक है कि इच्छा रखने से पूर्व व्यक्ति को उसके लिए सुयोग्य होना चाहिए. इस प्रकार सुयोग्य व्यक्ति द्वारा इच्छा रखते हुए मुक्त भाव से कर्म करना ही सफलता का सर्वोत्तम मार्ग है. उसकी इच्छा मात्र ही सफलता के द्वार खोल देने के लिए पर्याप्त होती है.

सोमवार, 26 जुलाई 2010

जंगली व्यवहार, दंड व्यवस्था और वास्तविक दोषी

गाँव के एक युवा ने मेरे साथ जो अशोभनीय व्यवहार किया था, उसका उसे कड़ा दंड मिला था - पुलिस द्वारा और प्रकृति द्वारा भी. उसे न्यायालय से जमानत करानी पडी और अब कुछ समय तक बार-बार न्यायालय में उपस्थित होना होगा. इसके अतिरिक्त प्रकृति ने उसे और भी अधिक कड़ा दंड दिया - उसे बंदी बनाये जाने के दो दिन बाद उसके पिताजी की ह्रदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गयी जो एक सज्जन एवं सहृदय व्यक्ति थे. गाँव के लोगों का मानना है कि उनके पुत्र द्वारा किये गए दुर्व्यवहार और बंदी बनाये जाने पर परिवार का अपमान उन्हें सहन नहीं हुआ. यद्यपि उन्हें ह्रदय की समस्या पहले से थी.

उक्त दोनों डंडों के कारण युवा को परिवार में बहुत विरोध झेलना पडा और उस पर उसके भाइयों द्वारा दवाब दिया गया कि वह शराब पीनी छोड़ दे अन्यथा वे उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लेंगे. इसी शराब के कारण वह उद्दंडता करता था, लोगों को अपमानित करता था और इसी के कारण उसे उपरोक्त दोहरे दंड मिले. परिणाम बहुत आशाजनक हुए हैं - लगभग एक माह से अधिक समय से उसने शराब नहीं पी है और अब वह गाँव में निरंकुश नहीं घूमता है, तथा अपने परिवार के कृषि व्यवसाय पर पूरा ध्यान देता है. इस सब से गाँव के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

उपरोक्त विवरण देने का मेरा तात्पर्य यह है कि निरंकुश प्रकृति को अनुशासित करने के लिए दंड दिया जाना एक प्रभावी उपाय है. यद्यपि क्षमा भी सीमित प्रभाव रखती है किन्तु दंड की तुलना में यह प्रभाव तुच्छ होता है.

प्रत्येक व्यक्ति की मूल प्रकृति उद्दंडता है, किन्तु सामाजिकता, और दंड के भय से मनुष्य अनुशासित रहता है. अधिकाँश मनुष्य सामाजिकता के कारण स्वतः ही अनुशासित रहते हैं किन्तु शराब आदि के नशे में अथवा किसी लोभ वश, अथवा किसी विवशता में लोग उद्दंड व्यवहार करते हैं. इन तीन कारणों में से दो - नशा तथा विवशता, समाज की ही देनें हैं. शराब आदि नशीले द्रव्य सरकार द्वारा राजस्व लाभ के लिए प्रचारित, प्रसारित किये जा रहे हैं.जबकि इनका प्रभाव राष्ट्र को आर्थिक तथा सामाजिक क्षति पहुंचा रहा है. किन्तु देश के शासक-प्रशासक इस यथार्थ से अनभिज्ञ बने बैठे हैं.

कुछ वर्ष पूर्व हरियाणा के मुख्य मंत्री श्री बंसीलाल ने एक सराहनीय कदम उठाते हुए अपने राज्य में शराब पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसके परिणामस्वरूप अगले चुनाव में लोगों ने उन्हें सताच्युत कर दिया था. इस से सिद्ध होता है कि हमारा समाज एक गलत दिशा में इतना आगे बढ़ गया है कि अब उसकी समझ में गलत और सही का अंतराल मिट गया है. समाज का यही पतन कुछ लोगों को शराब आदि को इतना अधिक अभ्यस्त बना देता है कि वे मानवीय सभ्यता को त्याग जंगली व्यवहार करने लगते हैं. फिर यही विकृत समाज व्यवस्था उन्हें दंड देती है.
The Business of Spirits: How Savvy Marketers, Innovative Distillers, and Entrepreneurs Changed How We Drink 
अतः आवश्यकता इस की है कि हम समाज की दिशा बदलें और एक सशक्त जन मत का विकास कर सरकारों को विवश करें कि वे नशीले द्रव्यों के दुश्चक्र से समाज को बचाने के ओर साहसिक कदम उठायें. बिना जन मत के सरकार इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाएंगी.   

शनिवार, 24 जुलाई 2010

उपनिवेशीकरण - विदेशी और देशी

एक देश से किसी अन्य देश पर शासन करना उपनिवेशीकरण कहलाता है. भारत लम्बे समय तक परतंत्र रहा है किन्तु भारत  मुग़ल शासन का उपनिवेश नहीं था क्योंकि मुग़ल इसी भूमि पर रहकर लोगों पर शासन करते थे. ब्रिटिश शासन में लन्दन स्थित राज सिंहासन से भारत पर शासन किया जाता था. ब्रिटिश शासन के जो प्रतिनिधि भारत में शासन व्यवस्था का संचालन करते थे वे भी स्थानीय शासक ही थे यद्यपि उन्हें प्रशासक कहा जाता था. उनकी दृष्टि में भारतीय मनुष्य न होकर केवल उनके गुलाम थे. इसलिए भारत में रह रहे ब्रिटिश नागरिक भारतीय नागरिकों से स्पष्ट दूरी बनाए रखते थे. उनके मत में ऐसा करके वे जनता पर अच्छा प्रशासन कर सकते थे.

इस दूरी को बनाये रखने के लिए ब्रिटिश लोगों के निवास भारतीयों के निवासों से प्रथक बनाए जाते थे. इसका एक कारण भारतीय  और ब्रिटिश नागरिकों के रहन-सहन और संस्कृति का विशाल अंतराल भी था. प्रशासक होने के कारण, ब्रिटिश लोग अपने निवासों में तत्कालीन सभी सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करते थे जो भारतीयों के निवासों में उपलब्ध नहीं होती थीं. इस अंतराल का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी होता था जिसके कारण ब्रिटिश नागरिक भारतीयों की दृष्टि में भी श्रेष्ठ माने जाते थे. इस मान्यता के कारण भारतीयों द्वारा ब्रिटिश नागरिकों के आदेशों की अवहेलना करना असंभव सा था चाहे वे आदेश कितने भी अवैधानिक हों. इन्हीं के कारण ब्रिटिश भारतीयों के विविध प्रकार के शोषण करते थे.

ब्रिटिश भारत से चले गए किन्तु प्रशासन के अपने पदचिन्ह यहाँ छोड़ गए. आज भारत स्वतंत्र कहा जाता है किन्तु यहाँ का शासन-प्रशासन ब्रिटिश पद-चिन्हों का ही अनुगमन कर रहा है - विशेषकर कुशल दमनकारी प्रशासन के लिए प्रशासकों और जन साधारण में दूरी बनाए रखकर. इस की व्यवस्था के लिए भारत की केंद्र और राज्य सरकारों के प्रत्येक विभाग के अधिकारियों तथा कर्मियों के लिए अत्याधुनिक बस्तियां बसाई गयी हैं. इन बस्तियों में विद्युत्, जल, संचार आदि की ऐसी विशेष व्यवस्थाएं हैं जो अन्य जन-साधारण की बस्तियों में नहीं हैं और न ही इनके होने की कल्पना की जा सकती है. यथा, भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में जन साधारण के लिए ४-५ घंटे प्रतिदिन से अधिक विद्युत् उपलब्ध नहीं है जब कि प्रशासक बस्तियों में इसकी २४ घंटे उपलब्धता सुनिश्चित की जाती है.

प्रशासकों के जन साधारण से प्रथक व्यवस्थाओं में रहने से प्रशासकों को सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि वे जन-साधारण की समस्याओं से पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों का पालन बिना किसी तनाव के करते हैं. इस प्रथक व्यवस्था का दूसरा लाभ मनोवैज्ञानिक है - प्रशासक स्वयं को जन-साधारण से श्रेष्ठ समझते हैं और चाहते हैं कि जनता भी ऐसा ही समझे जिसकी वे ब्रिटिश प्रशासकों को समझते थे.
Civilization 4: Colonization

भारत में ब्रिटिश प्रशासकों की संख्या जन-साधारण की तुलना में नगण्य होती थी जिससे उनके लिए प्रथक आवास व्यवस्था की लागत बहुत अल्प होती थी. किन्तु स्वतंत्र भारत में सभी राज्यकर्मी प्रशासकों की भूमिकाओं में हैं जिनकी संख्या कुल जनसँख्या का लगभग १० प्रतिशत है. इन सबके लिए प्रथक आवासीय व्यवस्था पर बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन व्यय किया जा रहा है.

भारत सधार हेतु संगठनात्मक रूपरेखा

भारत की स्थिति वास्तव में उग्र रूप से रुग्ण है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बहुत सारे बुद्धिजीवी स्थिति में सुधार हेतु संगठन खड़े कर रहे हैं, जिनमें से कुछ राष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रहे हैं किन्तु अधिकाँश स्थानीय समस्याओं के समाधानों के प्रयासों में लगे हैं. यह सब अच्छा ही हो रहा है क्योंकि यही देश के बारे में लोगों की चिंता और चिंतन दर्शाता है.

स्थानीय संगठन
आज भारत में भ्रीष्टाचार और कुव्यवस्था शीर्षस्थ स्तर से लेकर ग्राम स्तर तक पहुच गए हैं और ये लोगों को स्थानीय स्तर पर ही इतना पीड़ित कर रहे हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर का चिंतन नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए लोगों में राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए उन्हें स्थानीय समस्याओं से मुक्त करना अपरिहार्य हो गया है. राष्ट्रीय स्तर के संगठनों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे प्रत्येक स्थानीय समस्या को समझ नहीं सकते और न ही अपना सार्थक योगदान प्रदान कर पाते हैं. इसके लिए स्थानीय संगठन ही उपयोगी हो सकते हैं.

भारत विविध भाषाओँ, संस्कृतियों और जातियों का देश है, इसलिए लोगों की अपेक्षाएं भी विविध हैं. इनकी संतुष्टि के लिए स्थानीय संगठनों की आवश्यकता है जो लोगों को उनकी भाषा में उनके साथ सौहार्द स्थापित कर सकें. इनके माध्यम से यह आवश्यक नहीं कि लोगों की सभी समस्याएँ सुलझ जाएँ किन्तु इनके माध्यम से लोग आश्वस्त अवश्य किये जा सकते हैं. यह आश्वस्ति ही लोगों को राष्ट्रीय हित चिंतन का अवसर प्रदान कर सकती है.

राष्ट्रीय संगठन
अधिकाँश जन समस्याएँ स्थानीय होती हैं तथापि कुछ समस्याएँ ऐसी भी होती हैं जिनके मूल और समाधान राष्ट्रीय स्तर पर ही संभव होते हैं. इस प्रकार की समस्याओं के लिए राष्ट्र स्तर के संगठन की आवश्यकता है और इसे केवल उच्च स्तर की समस्याओं के समाधानों पर ही चिंतन एवं प्रयास करने चाहिए. यही संगठन स्थानीय संगठनों के महासंघ के रूप में भी कार्य करेगा, उन्हें मार्गदर्शन देगा तथा उनसे प्राप्त उच्च स्तरीय समस्याओं के समाधानों के प्रयास करेगा.

इस प्रकार के महासंघीय ढांचे में यह आवश्यक नहीं है कि राष्ट्रीय और स्थानीय संगठनों के नामों में कोई पूर्व निर्धारित समानता हों. साथ ही यह भी आवश्यक नहीं है कि स्थानीय संगठनों के स्थापन के समय ही राष्ट्रीय संगठन की भी स्थापना हो. पूरे देश में जनपद स्तर के स्थानीय संगठनों की तुरंत आवश्यकता है और उन्हें अपने कार्य यथाशीघ्र आरम्भ कर देने चाहिए.

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

सुख और खुशी का अंतर

बहुधा सुख और खुशी शब्दों को एक दूसरे के पर्याय के रूप में जाना जाता है, जब कि वास्तव में सुख धरातलीय स्थायी अनुभूति है और खुशी क्षणिक हवा के झोंके की तरह तिरोहितेय. सुख जीवन के यथार्थ से सम्बन्ध रखता है, और कोई खुशी काल्पनिक उडान हो सकती है. प्रथम एक अनुभव होता है किन्तु द्वितीय एक अनुभूति. सुख निर्मल जल की झील है तो खुशी एक मृग मरीचिका सिद्ध हो सकती है.

अधिकाँश मनुष्य खुशियों की खोज में और उन्हें पाने में अपना जीवन लगा देते हैं अतः क्षण-प्रतिक्षण खुशियाँ खोजते अथवा पाते हुए एक अनंत यात्रा पर चलते रहते हैं, विराम अथवा विश्राम उन्हें प्राप्त नहीं होता. जो सुख पा लेता है, उसे विश्राम भी स्वतः प्राप्त हो जाता है क्योंकि उसे आगे कुछ खोजने की लालसा अथवा पाने की इच्छा नहीं रहती. इससे उसे स्थायी खुशी प्राप्त होती है. इस प्रकार, सुख से खुशियाँ निश्चित रूप से प्राप्त होती हैं, किन्तु खुशियों से सुख प्राप्ति सुनिश्चित नहीं होती.

खुशी का सुख से भिन्न होने का अर्थ यह नहीं है जीवन में खुशी का कोई महत्व नहीं है. प्रत्येक खुशी मनुष्य के मानसिक तथा शारीरिक तनाव को दूर करती है जिस से उसे स्वास्थ लाभ होता है. यदि कोई मनुष्य क्षण प्रति क्षण खुशी पाता रहे तो उसे अन्य किसी सुख की आवश्यकता ही नहीं रहती. सतत खुशियों का संचयन भी सुख ही होता है. अच्छा स्वास्थ एक सुख अवश्य है, किन्तु सुख स्वास्थ सुनिश्चित नहीं करता, जब कि प्रत्येक खुशी स्वास्थप्रद होती है.

मनुष्य को खुशी अनेक प्रकार से प्राप्त होती हैं - यथा विचित्र वस्तु देखकर, किसी का असामान्य व्यवहार देखकर, कल्पना करके अथवा काल्पनिक कथा जान कर, मनोरंजक चुटकला आदि सुनकर, आदि. किन्तु इन सबसे सुख प्राप्त नहीं होता. वस्तुतः खुशी अपने स्रोत में उपस्थित नहीं होती, इसे मनुष्य का मस्तिष्क स्रोत के किसी अवयव में खोज लेता है. इस खोज का स्रोत की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता. उदाहरण के लिए मैथुन क्रिया खुशी के सर्वोच्च साधन मानी जाती है, किन्तु इसका यथार्थ स्त्री का गर्भ गृहण कराना भी होता है जो अनेक परिस्थितियों में अवांछित तथा दुखमय हो सकता है.

Pleasureनित्य प्रति देखी जाने वाली एवं उपयोगी वस्तुएं हमें उतनी खुशी प्रदान नहीं कर पाती जितनी कि कोई नवीन वस्तु प्रदान करती है, चाहे उसका हमारे जीवन में कोई उपयोग न हो. इसका अर्थ यह भी है कि हम खुशियों के लिए अपने जीवन के यथार्थों से दूर भागते हैं. स्त्री के मुख मंडल पर काला तिल, यद्यपि एक त्वचा विकार होता है, किन्तु मनुष्य जाति इसे सौन्दय संवर्धक मानता है और इसे देख कर खुश होती है. इस प्रकार हमारी अनेक खुशियाँ हमारे अतार्किक होने के कारण प्राप्त होती हैं.