एक मान्यता के अनुसार इच्छाशक्ति मनुष्य की वह आतंरिक इच्छा होती है जिसकी प्रबलता उसे अपने लक्ष्य को पाने की शक्ति प्रदान करती है. इच्छाशक्ति के स्रोतों और प्रभावों के बारे में निरंतर शोध होते रहे हैं. एक अत्याधुनिक शोध ने इच्छाशक्ति के बारे में नवीन परिणाम पाए हैं जो अब तक की मान्यताओं को नकारने के कारण चमत्कारिक कहे जा सकते हैं.
इच्छाशक्ति के अधीन व्यक्ति स्वयं से वार्तालाप में लिप्त रहता है जिसके अंतर्गत उसके चिंतन, विभिन्न संभावनाओं में से सर्वोत्तम के चयन, अपने मंतव्य, आशाएं, भय आदि मध्य उसकी गतिविधियों का सञ्चालन होता है. स्वयं से यह वार्तालाप सतत चलता रहता है.
अभी पाया यह गया है कि जब मनुष्य का मस्तिष्क किसी दृढ इच्छा शक्ति के साथ सफलता के लिए कार्य करता है तो उसकी सफलता की संभावना उस स्थिति की तुलना में कम हो जाती है जब वह मुक्त भाव से कार्य करता है. अर्थात मस्तिष्क को मुक्त रख कर कार्य करने से व्यक्ति की कार्य क्षमता अधिक होती है. इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सफलता की प्रबल कामना से व्यक्ति का मस्तिष्क एक संकुचित दायरे में कार्य करता है, जब कि किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उसके मस्तिष्क के वातायन नवाचार एवं नए विचारों के लिए खुले रहें और ऐसा तभी होता है जब व्यक्ति अपनी कामना के बंधन से मुक्त होकर सफलता की सभी संभावनाओं के लिए प्रस्तुत रहे.
इच्छाशक्ति के बारे में दो संभावनाएं होती हैं - इच्छापूर्ति के भरसक प्रयास करना, तथा इच्छ्पूर्ति के लिए प्रस्तुत रहना अथवा उससे दूर न भागना. आधुनिक शोधों में पाया यह गया है कि कार्य के स्वस्थ सञ्चालन के लिए व्यक्ति को अपनी इच्छापूर्ति के लिए केवल प्रस्तुत रहने की आवश्यकता होती है. इच्छापूर्ति के बंधन में रहने के परिणाम अच्छे सिद्ध नहीं हुए हैं.
इस विषय में गीता के तथाकथित 'निष्काम कर्म' के उपदेश की चर्चा भी प्रासंगिक है जिसके अनुसार फल की इच्छा रखना भी वर्जित है. जब कि हम सभी जानते हैं कि फल की इच्छा के बिना कोई भी कर्म संभव नहीं होता है. विश्व में आज तक किसी भी व्यक्ति ने फल की इच्छा के बिना एक भी कदम नहीं उठाया है, और न ही कभी उठाएगा. अतः 'निष्काम कर्म' की धारणा अव्यवहारिक होने के कारण एक भ्रान्ति मात्र है.
उपरोक्त अध्ययन से निष्कर्ष यह निकलता है कि व्यक्ति द्वारा इच्छा रखना कार्य सम्पादन के लिए अनिवार्य है किन्तु उससे पूरी तरह बंधकर उसकी पूर्ति के लिए प्रयास करना वांछित नहीं है. यहाँ यह भी आवश्यक है कि इच्छा रखने से पूर्व व्यक्ति को उसके लिए सुयोग्य होना चाहिए. इस प्रकार सुयोग्य व्यक्ति द्वारा इच्छा रखते हुए मुक्त भाव से कर्म करना ही सफलता का सर्वोत्तम मार्ग है. उसकी इच्छा मात्र ही सफलता के द्वार खोल देने के लिए पर्याप्त होती है.
विचारणीय प्रस्तुती ,इक्षाशक्ति के साथ-साथ उद्देश्य का भी अच्छा और मानवता के हित में होना आज बहुत आवश्यक है ...
जवाब देंहटाएंबात तो सारी सही कही है। पर गीता की व्याख्या गलत कर दी है। गीता में बातें साफ औऱ सारगर्भित दोनो है। निष्काम कर्म इसलिए कहा गया कि इसको मानने से आपका ज्यादा ऊर्जा से काम करेगें मुक्त होकर काम करेगें। जैसा काम करेगें तो उसके परिणाम ठीक वैसे ही आएंगे तो उसकी चिंता क्या करनी। अगर आप को पता है कि पेड़ बबूल का बोया है तो उसमें आम नहीं उगेगा। निष्काम कर्म का ये मतलब है। यानि अच्छा किया है उसका परिणाम अच्छा ही आएगा, तो फिर चिंता कैसी। इस सिद्धांत के साथ साथ ये भी कहा गया कि कोई कार्य सोच विचार के ही शुरु करना चाहिए। महाभारत में काफी सोच कर ही पांड़व मैदाम में उतरे थे। जब उतरे गए तो फिर से मोह में पड़ना गलत था। इसलिए निष्काम कर्म का उपदेश दिया गया। एक बार समर में उतर गए, अब अपना कर्म करो।
जवाब देंहटाएं