व्यक्ति की परिस्थितियां उसके वश में नहीं होतीं अपितु इनका निर्माण समाज की दीर्घकालिक स्थिति पर निर्भर करता है. तथापि प्रत्येक व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से प्रभावित होता है और इन की अवहेलना नहीं कर सकता. किन्तु यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह परिस्थितियों को किस प्रकार अपनाता है जिसके दो तरीके हैं.
जन साधारण परिस्थितियों के समक्ष समर्पण कर देते हैं जिसके फलस्वरूप उनका अपने व्यवहार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता और यह पूरी तरह परिस्थितियों के अधीन होता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति का परिस्थितियों से कोई विरोध नहीं रहता और व्यक्ति का जीवन सरल एवं सहज कहा जा सकता है. परिस्थितियों की इसी अधीनता को ही व्यक्ति का भाग्य आदि कह दिया जाता है. तथापि इस स्थिति में व्यक्ति परिस्थितियों से पराजित हुआ अनुभव करता है और उसे आत्म-संतुष्टि प्राप्त नहीं होती.
कुछ व्यक्ति परिस्थितियों के समक्ष न तो स्वयं आत्म-समर्पण करते हैं और न ही परिस्थितियों को अपने वश में कर सकते हैं. ये व्यक्ति परिस्थितियों का स्वहित में उपयोग करते हैं. यह परिस्थितियों पर विजय तो नहीं होती किन्तु इसे व्यक्ति का परिस्थितियों की अधीन होना भी नहीं कहा जा सकता. यह व्यक्ति द्वारा परिस्थितियों का सदुपयोग कहा जाता है.
प्रत्येक परिस्थिति को व्यक्ति द्वारा दो प्रकार से देखा जा सकता है - एक विवशता के रूप में तथा दूसरे एक अवसर के रूप में. पारिस्थितिक विवशता स्वीकार करने पर व्यक्ति परिस्थितियों के अधीन होता है जो व्यक्ति की परिस्थितियों के समक्ष पराजय होती है. यह जीवन का एक यथार्थ है, इसके साथ ही जीवन का एक यथार्थ यह भी होता है कि प्रत्येक परिस्थिति व्यक्ति को एक अवसर प्रदान करती है, उसका उपयोग कर उससे कुछ शिक्षा गृहण करते हुए आगे बढ़ने के लिए. इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है.
अभी हाल ही में मेरे गाँव के एक गुंडे ने गाँव वालों की दृष्टि में मेरा सम्मान कम करने के उद्येश्य से अचानक मुझे गालियाँ देकर अपमानित किया और इस प्रकार मेरे समक्ष एक अप्रत्याशित परिस्थिति उत्पन्न कर दी. मैं न तो गलियों का उत्तर गालियों से देने में सामर्थ हूँ और न ही इसके लिए हिंसा कर सकता हूँ. मैंने उक्त घटना की रिपोर्ट पुलिस को की तो गुंडे ने पुलिस पर राजनैतिक दवाब डलवा कर कार्यवाही रुकवा दी. मैंने इस का विवरण अपने ब्लॉग पर लिख दिया. अनेक लोगों ने मेरे प्रति सहानुभूति दर्शाई और एक मित्र ने एक उच्च स्तरीय संगठन की सहायता ली जिसके सदस्यों में पुलिस के एक उच्च अधिकारी भी हैं. उन्होंने तुरंत स्थानीय पुलिस को मेरी रक्षा करते हुए गुंडे के विरुद्ध कठोर कार्यवाही का निर्देश दिया. पुलिस द्वारा ऐसा ही किया गया और गाँव में मेरा सम्मान और अधिक बढ़ गया. इस प्रकार मेरे विरुद्ध गुंडे का दुर्व्यवहार मेरे लिए एक सुअवसर सिद्ध हुआ. इसके विपरीत यदि मैं अपने अपमान को चुपचाप सह लेता तो शनैः-शनैः गाँव में मेरा सम्मान समाप्त हो जाता.
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
शनिवार, 3 जुलाई 2010
सत्ता हस्तांतरण : बुद्धि, बल और छल के मध्य
भारत में राज्य सता का हस्तांतरण बार-बार होता रहा है, जिसमें प्रमुखतः तीन गणक सम्मिलित रहे हैं - बल, छल और बुद्धि. भारत में राज्य सत्ता का श्री गणेश देवों द्वारा किया गया, किन्तु महाभारत संघर्ष में बल और छल-कपट की विजय हुई और नैतिक मूल्यों की पराजय. इस सिकंदर के समर्थन से महापद्मानंद भारत का सम्राट बना.
महापद्मानंद के सम्राट बनने के बाद विष्णु गुप्त चाणक्य सर्वाधिक हताहत हुए. उनके पास कोई बल शेष नहीं था किन्तु वे बुद्धि के धनी थे. अपने मित्र चित्र गुप्त और पुत्र चन्द्र गुप्त के साथ मिलकर उन्होंने बुद्धि का उपयोग करते हुए उन्होंने भारत की राज्य सत्ता पर अधिकार किया और चन्द्र गुप्त को भारत का सम्राट बनाया. यहीं से गुप्त वंश का शासन स्थापित हुआ जिसमें भारत को विश्व भर में 'सोने की चिड़िया' कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ.
पासा फिर पलटा. समुद्र गुप्त जैसे कुछ गुप्त वंश के शासकों के अतिरिक्त शेष शासक बुद्धि-संपन्न तो थे किन्तु उनमें बल का अभाव था. इसके लिए वे बलशालियों की सेना पर आश्रित थे. कालांतर में इन बल-शालियों ने राज्य सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया, और बुद्धि पराजित हुई. ये बल-शाली युद्ध कला में तो पारंगत थे किन्तु शासन व्यवस्था में अयोग्य सिद्ध हुए. इनके शासन में देश छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गया और शासकों का अधिकाँश समय युद्ध क्षेत्र में ही व्यतीत होने लगा. इससे शासन व्यवस्था चरमरा गयी. यह अराजकता भारत में लगभग ७०० वर्ष तक रही.
इस अराजकता का लाभ उठाने के लिए कुछ लुटेरे भारत में आये जिनके पास बल और छल दोनों थे. इनका उपयोग करते हुए उन्होंने भारत में इस्लामी शासन स्थापित कर दिया, जो विभिन्न नामों से लगभग ७०० वर्ष चला. इस शासन की सर्वाधिक निर्बलता शासकों के भोग-विलास थे जिनके लिए वे ५०० की संख्या तक स्त्रियाँ रखते थे. इस प्रकार के विलासों ने शासकों की बुद्धि और बल दोनों का हरण कर लिया. इसके प्रभाव में उन्होंने बुद्धि संपन्न अंग्रेजों को भारत में आने के लिए आमंत्रित कर दिया. इस प्रकार बल और छल पर पुनः बुद्धि की विजय हुई, और देश में अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित कर लिया.
अंग्रेजों के सासन में भारत की धन-संपदा का सतत शोषण होता रहा जिससे ब्रिटिश खज़ाना भरता रहा.यह शोषण इस सीमा तक पहुँच गया कि जन-साधारण के पास जीवन की रक्षा के लिए 'करो या मरो' के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष न रहा. इस जन आन्दोलन का नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया. इसके साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 'आजाद हिंद सेना' का गठन कर अंग्रेजों को बल-शाली चुनौती भी दी. इन दोनों कारणों से अंग्रेजों को भारत स्वतंत्र करना पडा, और देश की राज्य सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में आ गयी जो शासन करने के लिए न तो बल से संपन्न थे और न ही बुद्धि से. अतः मात्र छल ही उनके शासन तंत्र की विशिष्टता रही.इस शासन का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरु ने किया.
नेहरु के बाद सत्ता की स्वामिनी इंदिरा बनी जिसे छल के साथ बल की भी आवश्यकता अनुभव हुई जिसके लिए उसने देश भर के असामाजिक तत्वों का आश्रय लिया और देश पर बल और छल के साथ शासन किया. कालांतर में बल-शालियों को अपनी सामर्थ्य का आभास हुआ और उन्होंने सत्ता हथियाने के साथ-साथ छल भी सीख लिए. इस प्रकार भारत में आज बल और छल का शासन स्थापित है.
अगला परिवर्तन में देश पर बुद्धि का शासन होना अवश्यम्भावी है किन्तु यह तभी होगा जब देश का प्रबुद्ध वर्ग इसके लिए जागृत हो और संघर्ष करे. जहां तक जन-साधारण का प्रश्न है, यह सता परिवर्तन में कभी भी महत्वपूर्ण गणक नहीं रहा है - यहाँ तक कि आज के तथाकथित जनतांत्रिक शासन में भी. आज की स्थिति कुछ उसी प्रकार की है जैसी कि विष्णुगुप्त चाणक्य के समय थी जब बुद्धि ने बल और छल दोनों को पराजित लिया था.
महापद्मानंद के सम्राट बनने के बाद विष्णु गुप्त चाणक्य सर्वाधिक हताहत हुए. उनके पास कोई बल शेष नहीं था किन्तु वे बुद्धि के धनी थे. अपने मित्र चित्र गुप्त और पुत्र चन्द्र गुप्त के साथ मिलकर उन्होंने बुद्धि का उपयोग करते हुए उन्होंने भारत की राज्य सत्ता पर अधिकार किया और चन्द्र गुप्त को भारत का सम्राट बनाया. यहीं से गुप्त वंश का शासन स्थापित हुआ जिसमें भारत को विश्व भर में 'सोने की चिड़िया' कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ.
पासा फिर पलटा. समुद्र गुप्त जैसे कुछ गुप्त वंश के शासकों के अतिरिक्त शेष शासक बुद्धि-संपन्न तो थे किन्तु उनमें बल का अभाव था. इसके लिए वे बलशालियों की सेना पर आश्रित थे. कालांतर में इन बल-शालियों ने राज्य सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया, और बुद्धि पराजित हुई. ये बल-शाली युद्ध कला में तो पारंगत थे किन्तु शासन व्यवस्था में अयोग्य सिद्ध हुए. इनके शासन में देश छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गया और शासकों का अधिकाँश समय युद्ध क्षेत्र में ही व्यतीत होने लगा. इससे शासन व्यवस्था चरमरा गयी. यह अराजकता भारत में लगभग ७०० वर्ष तक रही.
इस अराजकता का लाभ उठाने के लिए कुछ लुटेरे भारत में आये जिनके पास बल और छल दोनों थे. इनका उपयोग करते हुए उन्होंने भारत में इस्लामी शासन स्थापित कर दिया, जो विभिन्न नामों से लगभग ७०० वर्ष चला. इस शासन की सर्वाधिक निर्बलता शासकों के भोग-विलास थे जिनके लिए वे ५०० की संख्या तक स्त्रियाँ रखते थे. इस प्रकार के विलासों ने शासकों की बुद्धि और बल दोनों का हरण कर लिया. इसके प्रभाव में उन्होंने बुद्धि संपन्न अंग्रेजों को भारत में आने के लिए आमंत्रित कर दिया. इस प्रकार बल और छल पर पुनः बुद्धि की विजय हुई, और देश में अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित कर लिया.
अंग्रेजों के सासन में भारत की धन-संपदा का सतत शोषण होता रहा जिससे ब्रिटिश खज़ाना भरता रहा.यह शोषण इस सीमा तक पहुँच गया कि जन-साधारण के पास जीवन की रक्षा के लिए 'करो या मरो' के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष न रहा. इस जन आन्दोलन का नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया. इसके साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 'आजाद हिंद सेना' का गठन कर अंग्रेजों को बल-शाली चुनौती भी दी. इन दोनों कारणों से अंग्रेजों को भारत स्वतंत्र करना पडा, और देश की राज्य सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में आ गयी जो शासन करने के लिए न तो बल से संपन्न थे और न ही बुद्धि से. अतः मात्र छल ही उनके शासन तंत्र की विशिष्टता रही.इस शासन का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरु ने किया.
नेहरु के बाद सत्ता की स्वामिनी इंदिरा बनी जिसे छल के साथ बल की भी आवश्यकता अनुभव हुई जिसके लिए उसने देश भर के असामाजिक तत्वों का आश्रय लिया और देश पर बल और छल के साथ शासन किया. कालांतर में बल-शालियों को अपनी सामर्थ्य का आभास हुआ और उन्होंने सत्ता हथियाने के साथ-साथ छल भी सीख लिए. इस प्रकार भारत में आज बल और छल का शासन स्थापित है.
अगला परिवर्तन में देश पर बुद्धि का शासन होना अवश्यम्भावी है किन्तु यह तभी होगा जब देश का प्रबुद्ध वर्ग इसके लिए जागृत हो और संघर्ष करे. जहां तक जन-साधारण का प्रश्न है, यह सता परिवर्तन में कभी भी महत्वपूर्ण गणक नहीं रहा है - यहाँ तक कि आज के तथाकथित जनतांत्रिक शासन में भी. आज की स्थिति कुछ उसी प्रकार की है जैसी कि विष्णुगुप्त चाणक्य के समय थी जब बुद्धि ने बल और छल दोनों को पराजित लिया था.
बौद्धिक मतभेद : कारण और निवारण
बौद्धिक जनतंत्र स्थापना के लिए सर्व प्रथम यह अनिवार्य है कि बौद्धिक लोग एक मंच पर एकत्रित हों और देश को एक कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने हेतु एक मत हों. इसमें सब से बड़ी बाधा यह है बौद्धिक लोग प्रायः किसी बिंदु पर परस्पर समत नहीं होते. इसका लाभ देश के अन्य लोग उठाते हैं और वे बौद्धिक लोगों को एक किनारे कर देते हैं अथवा उनका उपयोग अपने हित साधन में करते हैं.
बौद्धिक लोगों में अन्य लोगों की तरह ही व्यक्तिगत अंतर होते हैं. इस अंतराल का प्रभाव उनके चिंतन पर भी पड़ता है. चूंकि बौद्धिक जनों की विशिष्टता ही यह होती है कि वे चिंतन करते हैं और चिंतन किये गए विषयों पर अपना मत विकसित करते हैं. चूंकि चिंतन पूर्णतः लक्ष्यपरक न होकर अंशतः व्यक्तिपरक होता है इसलिए बौद्धिक लोगों के मत प्रायः परस्पर भिन्न हो जाते हैं. इसके विपरीत जन-साधारण न तो कोई चिंतन करते हैं और न ही किसी विषय पर अपना कोई मत विकसित करते हैं. इसलिए वे किसी भी मत से असहमत नहीं होते. उनके समक्ष जो भी मत प्रकट किया जाता है वे उसी से युरांत एवं सहर्ष सहमत हो जाते हैं. साथ ही दूसरा मत उनके समक्ष आने पर वे उस से भी सहमति जता देते हैं. बौद्धिक और अबौद्धिक जनों के इस अंतराल के कारण बौद्धिक जनों में प्रायः मत-भेद और अबौद्धिकों में प्रायः सहमति पायी जाती है.
बौद्धिक लोगों में स्वाभाविक मतभेद होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनमें सहमति विकसित ही नहीं हो सकती, किन्तु यह दुष्कर अवश्य होती है. बौद्धिक लोगों में विचार शीलता के कारण असहमति होती है, और इसी विचार शीलता से ही उनमें सहमति विकसित की जा सकती है. इसके दो उपाय हैं, जिन दोनों को ही इस कार्य के लिया उपयोग किया जा सकता है.
बौद्धिक जनों में सहमति का प्रथम उपाय सतत विचारशीलता और विचार विमर्श है. विचार-शीलता का एकीकरण सिद्धांत यह है कि किसी एक समस्या का एक ही सर्वोत्तम हल होता है. इसलिए यदि अनेक व्यक्ति किसी एक समस्या पर सतत विचार करते रहें तो वे सभी अंततः एक ही समाधान पर पहुचेंगे. आवश्यकता बस यह है कि वे सर्वोत्तम समाधान की खोज में सतत चिंतन करते रहें.
उक्त सहमति का दूसरा उपाय यह है कि बौद्धिक जन अपना चिंतन लक्ष्यपरक करें जिसके लिए उन्हें व्यक्तिपरक चिंतन से दूर रहने का भरसक प्रयास करना होगा. पूर्णतः लक्ष्यपरक चिंतन भी सभी बौद्धिक जनों को एक ही लक्ष्य और उसके मार्ग पर पहुंचा देगा.
भारत के समक्ष इस समय विकराल राजनैतिक संकट है, जिससे केवल बौद्धिक समाज ही मुक्ति दिला सकता है - अपने-अपने व्यक्तिगत अंतर भुला कर और किसी समाधान पर एक मत होकर. बौद्धिक जनतंत्र उनके विचार हेतु एक पृष्ठभूमि का कार्य कर सकता है.
बौद्धिक लोगों में अन्य लोगों की तरह ही व्यक्तिगत अंतर होते हैं. इस अंतराल का प्रभाव उनके चिंतन पर भी पड़ता है. चूंकि बौद्धिक जनों की विशिष्टता ही यह होती है कि वे चिंतन करते हैं और चिंतन किये गए विषयों पर अपना मत विकसित करते हैं. चूंकि चिंतन पूर्णतः लक्ष्यपरक न होकर अंशतः व्यक्तिपरक होता है इसलिए बौद्धिक लोगों के मत प्रायः परस्पर भिन्न हो जाते हैं. इसके विपरीत जन-साधारण न तो कोई चिंतन करते हैं और न ही किसी विषय पर अपना कोई मत विकसित करते हैं. इसलिए वे किसी भी मत से असहमत नहीं होते. उनके समक्ष जो भी मत प्रकट किया जाता है वे उसी से युरांत एवं सहर्ष सहमत हो जाते हैं. साथ ही दूसरा मत उनके समक्ष आने पर वे उस से भी सहमति जता देते हैं. बौद्धिक और अबौद्धिक जनों के इस अंतराल के कारण बौद्धिक जनों में प्रायः मत-भेद और अबौद्धिकों में प्रायः सहमति पायी जाती है.
बौद्धिक लोगों में स्वाभाविक मतभेद होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनमें सहमति विकसित ही नहीं हो सकती, किन्तु यह दुष्कर अवश्य होती है. बौद्धिक लोगों में विचार शीलता के कारण असहमति होती है, और इसी विचार शीलता से ही उनमें सहमति विकसित की जा सकती है. इसके दो उपाय हैं, जिन दोनों को ही इस कार्य के लिया उपयोग किया जा सकता है.
बौद्धिक जनों में सहमति का प्रथम उपाय सतत विचारशीलता और विचार विमर्श है. विचार-शीलता का एकीकरण सिद्धांत यह है कि किसी एक समस्या का एक ही सर्वोत्तम हल होता है. इसलिए यदि अनेक व्यक्ति किसी एक समस्या पर सतत विचार करते रहें तो वे सभी अंततः एक ही समाधान पर पहुचेंगे. आवश्यकता बस यह है कि वे सर्वोत्तम समाधान की खोज में सतत चिंतन करते रहें.
उक्त सहमति का दूसरा उपाय यह है कि बौद्धिक जन अपना चिंतन लक्ष्यपरक करें जिसके लिए उन्हें व्यक्तिपरक चिंतन से दूर रहने का भरसक प्रयास करना होगा. पूर्णतः लक्ष्यपरक चिंतन भी सभी बौद्धिक जनों को एक ही लक्ष्य और उसके मार्ग पर पहुंचा देगा.
भारत के समक्ष इस समय विकराल राजनैतिक संकट है, जिससे केवल बौद्धिक समाज ही मुक्ति दिला सकता है - अपने-अपने व्यक्तिगत अंतर भुला कर और किसी समाधान पर एक मत होकर. बौद्धिक जनतंत्र उनके विचार हेतु एक पृष्ठभूमि का कार्य कर सकता है.
सोमवार, 28 जून 2010
पुलिस पर चर्चा का खुला आकाश
इसी संलेख पर मेरे एक आलेख 'अपराध और चिकित्सा सेवा' पर ग्राम्या उपनामित एक भारत पुत्री ने एक टिप्पणी की थी जिसमें पुलिस प्रशिक्षण पर प्रश्न उठाया था. मैंने वह टिप्पणी उत्तर प्रदेश पुलिस के उप महा निरीक्षक (प्रशिक्षण) श्री जसवीर सिंह को विचारार्थ भेज दी थी. सूचनार्थ पुनः बता दूं कि श्री जसवीर सिंह इंडिया रेजुविनेशन इनिशिएतिव से सम्बद्ध हैं और देश की स्थिति से चिंतित ही नहीं इसमें गुणात्मक सुधार हेतु प्रयासरत हैं. मुझपर उनका बड़ा उपकार है - उन्होंने मेरी गाँव में गुंडों के साथ संघर्ष में अभूतपूर्व सहायता की है. प्रिय ग्राम्या की उक्त टिप्पणी और श्री जसवीर सिंह जी का प्रत्युत्तर नीचे दिए जा रहे हैं, ताकि श्री सिंह द्वारा वांछित विषय पर प्रबुद्ध पाठक चर्चा कर सकें और राष्ट्र हित में अपना योगदान कर सकें.
ग्राम्या की टिप्पणी :
इस देश का आम आदमी पुलिस के पास अपनी समस्या लेकर जाने से डरता है। यदि वह आम औरत हो तो यह डर और भी बढ़ जाता है। क्या पुलिस की ट्रेनिंग में यह नहीं सिखाया जाता कि पुलिस को जनता के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए? हमारी पुलिस अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित है। धीरे-धीरे वह आम जनता में अपना विश्वास खो चुकी है। विशेषकर ग्रामीण इलाके के लोगों के साथ पुलिस का व्यवहार और भी आपत्तिजनक होता है। देश के कई हिस्सों में इस व्यवस्था के प्रति बढ़ रहे असंतोष को देखते हुए भी इन्हें आत्ममंथन की ज़रूरत महसूस नहीं होती।
श्री जसवीर सिंह का प्रत्युत्तर :
प्रिय राम राम बंसल जी,
मैं इस चर्चा के आरम्भ में यह कहना चाहूँगा कि गांधीजी ने उक्त इच्छा व्यक्त की थी किन्तु किसी ने उनकी इच्छा पर ध्यान नहीं दिया, विशेषकर नेहरु ने जिन्होंने स्वतन्त्रता के बाद देश के शासन की बागडोर संभाली थी. इस अवहेलना दूसरा बड़ा कारण यह था कि देश के लिए स्वतन्त्रता की मांग करने वाले लोगों ने स्वतन्त्रता से पूर्व कभी इस विषय पर चिंतन एवं विचार-विमर्श नहीं किया कि वे स्वतन्त्रता के बाद इस देश को कैसे चलाएंगे. अतः स्वतन्त्रता प्राप्ति पर इधर-उधर से नक़ल कर एक फूहड़ संविधान भारत पर थोप दिया गया जो भारत के जनमानस के अनुकूल सिद्ध नहीं हो पाया है.
वस्तुतः भारतीय जनमानस जनतांत्रिक शासन के लिए उपयक्त न तो तब था, न ही आज तक बन पाया है, और न ही इसका कोई प्रयास किया गया है. इसी कारण से भारत को एक नयी शासन व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे मैं बौद्धिक जनतंत्र कहता हूँ जिसमें देश की शासन व्यवस्था में बौद्धिक सुयोग्यता को आधार बनाया जाए और ऐसे प्रावधान हों कि प्रत्येक नागरिक को एक समान उत्थान के अवसर उपलब्ध हों. इसके लिए स्वास्थ सेवाएँ, शिक्षा और न्याय व्यवस्था पूरी तरह निःशुल्क हों. भूमि पर निजी स्वामित्व समाप्त हो तथा प्रत्येक नागरिक परिवार को आवास हेतु निःशुल्क भूमि प्रदान की जाये ताकि देश की इस प्राकृत संपदा पर सभी को पाँव धरने का सम्मान प्राप्त हो सके.
आगे निवेदन हैं कि सभी प्रबुद्ध जन इस विषय पर गंभीरता के साथ विचार करें, और अपने सुझाव देन ताकि भारत की पुलिस में गुणात्मक सुधारों के लिए एक पहल हो सके.
ग्राम्या की टिप्पणी :
इस देश का आम आदमी पुलिस के पास अपनी समस्या लेकर जाने से डरता है। यदि वह आम औरत हो तो यह डर और भी बढ़ जाता है। क्या पुलिस की ट्रेनिंग में यह नहीं सिखाया जाता कि पुलिस को जनता के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए? हमारी पुलिस अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित है। धीरे-धीरे वह आम जनता में अपना विश्वास खो चुकी है। विशेषकर ग्रामीण इलाके के लोगों के साथ पुलिस का व्यवहार और भी आपत्तिजनक होता है। देश के कई हिस्सों में इस व्यवस्था के प्रति बढ़ रहे असंतोष को देखते हुए भी इन्हें आत्ममंथन की ज़रूरत महसूस नहीं होती।
श्री जसवीर सिंह का प्रत्युत्तर :
प्रिय राम राम बंसल जी,
मैं आप से सहमत हूँ । यह भी देखना होगा की ऐसे कैसे हुया कि गांधी जी ने आजादी के बाद की पुलिस कैसे होगी के विषय में कहा था कि मैं अपने देश की पुलिस को सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में देखना चाहता हूं। लेकिन ऐसे क्यों हुया की पुलिस में आजादी के बाद कोई परिवर्तन नहीं आया या नहीं लाया गया। इस पर विचार करिएगा और मुझे भी बताईएयगा।
आप का धान्यवाद,
जसवीर मैं इस चर्चा के आरम्भ में यह कहना चाहूँगा कि गांधीजी ने उक्त इच्छा व्यक्त की थी किन्तु किसी ने उनकी इच्छा पर ध्यान नहीं दिया, विशेषकर नेहरु ने जिन्होंने स्वतन्त्रता के बाद देश के शासन की बागडोर संभाली थी. इस अवहेलना दूसरा बड़ा कारण यह था कि देश के लिए स्वतन्त्रता की मांग करने वाले लोगों ने स्वतन्त्रता से पूर्व कभी इस विषय पर चिंतन एवं विचार-विमर्श नहीं किया कि वे स्वतन्त्रता के बाद इस देश को कैसे चलाएंगे. अतः स्वतन्त्रता प्राप्ति पर इधर-उधर से नक़ल कर एक फूहड़ संविधान भारत पर थोप दिया गया जो भारत के जनमानस के अनुकूल सिद्ध नहीं हो पाया है.
वस्तुतः भारतीय जनमानस जनतांत्रिक शासन के लिए उपयक्त न तो तब था, न ही आज तक बन पाया है, और न ही इसका कोई प्रयास किया गया है. इसी कारण से भारत को एक नयी शासन व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे मैं बौद्धिक जनतंत्र कहता हूँ जिसमें देश की शासन व्यवस्था में बौद्धिक सुयोग्यता को आधार बनाया जाए और ऐसे प्रावधान हों कि प्रत्येक नागरिक को एक समान उत्थान के अवसर उपलब्ध हों. इसके लिए स्वास्थ सेवाएँ, शिक्षा और न्याय व्यवस्था पूरी तरह निःशुल्क हों. भूमि पर निजी स्वामित्व समाप्त हो तथा प्रत्येक नागरिक परिवार को आवास हेतु निःशुल्क भूमि प्रदान की जाये ताकि देश की इस प्राकृत संपदा पर सभी को पाँव धरने का सम्मान प्राप्त हो सके.
आगे निवेदन हैं कि सभी प्रबुद्ध जन इस विषय पर गंभीरता के साथ विचार करें, और अपने सुझाव देन ताकि भारत की पुलिस में गुणात्मक सुधारों के लिए एक पहल हो सके.
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बौद्धिक जनतंत्र,
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रविवार, 27 जून 2010
मान्यता और वास्तविकता का संघर्ष
भारत के समक्ष उपस्थित अनेक संकटों में से एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक संघर्ष है जो समाज की मान्यताओं और वास्तविकताओं के मध्य है. समाज की मान्यता को अंग्रेज़ी में मिथ कहा जाता है और इन्हें समाज परम्परागत रूप में मानता चलता है, बिना किसी सोच विचार के. ईश्वर, भाग्य, जन्म-जन्मान्तर, आदि ऐसी अनेक मान्यताएं हैं जो भारतीय समाज में पवित्र भावनाओं की तरह स्वीकृत हैं, जब कि ये न तो वैज्ञानिक स्तर पर परीक्षित हैं और न ही इनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध है. चौंकिए मत, उदहारण देता हूँ - अधिकाँश भारतीय भाग्य पर विश्वास करते हैं और बहुधा कहते हैं कि जो भाग्य में लिखा है वह तो होकर ही रहेगा, तथापि सभी लोग जीवन में उपलब्धियों के लिए संघर्ष करते हैं, भाग्य के लिखे पर निर्भर नहीं करते. इसी प्रकार प्रत्येक धर्मात्मा औरधर्म-परायण व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधाओं को कोसता रहता है और इन्हें तुच्छ कहता रहता है तथापि इन भौतिक सुख-सुविधाओं में ही जीता है और इनके संवर्धन के सतत प्रयास करता रहता है.
इस प्रकार एक ओर मान्यता होती है तो दूसरी ओर जीवन की वास्तविकता. इन दोनों के ही संघर्ष में मनुष्य जीवन भर अनिर्णीत रहता है. न तो उसे मान्यता पर आस्था होती है और न ही अपने प्रयासों पर विश्वास. इस प्रकार अधर में लटके मनुष्य वास्तव में मनुष्यता के प्रतीक - बौद्धिकता, का स्पर्श भी नहीं कर पाते.
मान्यताएं दो प्रकार से विकसित होती हैं - अनुवांशिक अनुभवों से, तथा समाज पर आरोपित विकृतियों से. ये दो विकास प्रक्रियाएं ठीक समान्तर रूप में संचालित होती हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समाज में सज्जन और दुर्जन प्रवृत्तियों के लोग होते हैं. वस्तुतः इन दोनों प्रवृत्तियों के लोग ही क्रमशः दोनों प्रकार की मान्यताओं को विकसित करते हैं. जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभवों को भविष्य में उपयोग के लिए अपनी स्मृति में संजो कर रखता है, उसी प्रकार प्रत्येक समाज भी अपने अंगों के अनुभवों को अनुवांशिक रूप में साथ लेकर चलता है और यथावश्यकता उनका उपयोग करता रहता है.
समाज के अनेक अंग व्यक्तिगत स्वार्थों के वशीभूत होकर दूसरे लोगों को ठगते हैं, और उन्हें कुमार्ग पर चलने को प्रेरित करते हैं. सामाजिक विकृतियाँ इन्हीं लोगों द्वारा विकसित की जाती हैं, जो अंततः मान्यताओं में परिणित हो जाती हैं. इसलिए समाज के बौद्धिक वर्ग का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह मान्यताओं की सतत समीक्षा करता रहे और उनमें से आरोपित विकृतियों की छटनी करने के प्रयास करता रहे. यूरोपीय समाज में लगभग ३०० वर्ष पूर्व ऐसा प्रयास किया गया था जिसे रेनैसांस अर्थात पुनर्जागरण कहा जाता है. इसके परिणामस्वरूप यूरोपीय समाज ने अपनी पुरानी अवैज्ञानिक मान्यताओं को त्यागते हुए विज्ञानं को जीवन में स्थान दिया. यूरोपे का वर्तमान विकास स्तर इसी पुनर्जागरण का परिणाम है. भारत में भी अनेक व्यक्ति इस प्रकार के प्रयास करते रहे हैं किन्तु एक बहुत बड़ा समुदाय विकृतियों के पक्ष में सतत प्रयास करता रहता है और पुनर्जागरण की स्थिति नहीं आने देता.
भारत को यदि अंधविश्वासों और रूढ़ियों से मुक्त कराना है तो यहाँ भी यूरोप जैसे पुनर्जागरण प्रयासों की आवश्यकता है जिसके लिए देश के बौद्धिक वर्ग को समन्वित प्रयास करने होंगे और विकृति फ़ैलाने वाले समुदायों को मुंह-तोड़ उत्तर देने होंगे. सार्वजनिक शिक्षा इसका सर्वोत्तम माध्यम है किन्तु वर्तमान राजतन्त्र इसमें केवल औपचारिकता स्तर तक ही रूचि रखता है. अतः वर्तमान राजनैतिक स्तिति में भारत का पुनर्जागरण सहज नहीं है, तथापि समन्वित प्रयास किये जाने चाहिए.
इस प्रकार एक ओर मान्यता होती है तो दूसरी ओर जीवन की वास्तविकता. इन दोनों के ही संघर्ष में मनुष्य जीवन भर अनिर्णीत रहता है. न तो उसे मान्यता पर आस्था होती है और न ही अपने प्रयासों पर विश्वास. इस प्रकार अधर में लटके मनुष्य वास्तव में मनुष्यता के प्रतीक - बौद्धिकता, का स्पर्श भी नहीं कर पाते.
मान्यताएं दो प्रकार से विकसित होती हैं - अनुवांशिक अनुभवों से, तथा समाज पर आरोपित विकृतियों से. ये दो विकास प्रक्रियाएं ठीक समान्तर रूप में संचालित होती हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समाज में सज्जन और दुर्जन प्रवृत्तियों के लोग होते हैं. वस्तुतः इन दोनों प्रवृत्तियों के लोग ही क्रमशः दोनों प्रकार की मान्यताओं को विकसित करते हैं. जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभवों को भविष्य में उपयोग के लिए अपनी स्मृति में संजो कर रखता है, उसी प्रकार प्रत्येक समाज भी अपने अंगों के अनुभवों को अनुवांशिक रूप में साथ लेकर चलता है और यथावश्यकता उनका उपयोग करता रहता है.
समाज के अनेक अंग व्यक्तिगत स्वार्थों के वशीभूत होकर दूसरे लोगों को ठगते हैं, और उन्हें कुमार्ग पर चलने को प्रेरित करते हैं. सामाजिक विकृतियाँ इन्हीं लोगों द्वारा विकसित की जाती हैं, जो अंततः मान्यताओं में परिणित हो जाती हैं. इसलिए समाज के बौद्धिक वर्ग का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह मान्यताओं की सतत समीक्षा करता रहे और उनमें से आरोपित विकृतियों की छटनी करने के प्रयास करता रहे. यूरोपीय समाज में लगभग ३०० वर्ष पूर्व ऐसा प्रयास किया गया था जिसे रेनैसांस अर्थात पुनर्जागरण कहा जाता है. इसके परिणामस्वरूप यूरोपीय समाज ने अपनी पुरानी अवैज्ञानिक मान्यताओं को त्यागते हुए विज्ञानं को जीवन में स्थान दिया. यूरोपे का वर्तमान विकास स्तर इसी पुनर्जागरण का परिणाम है. भारत में भी अनेक व्यक्ति इस प्रकार के प्रयास करते रहे हैं किन्तु एक बहुत बड़ा समुदाय विकृतियों के पक्ष में सतत प्रयास करता रहता है और पुनर्जागरण की स्थिति नहीं आने देता.
भारत को यदि अंधविश्वासों और रूढ़ियों से मुक्त कराना है तो यहाँ भी यूरोप जैसे पुनर्जागरण प्रयासों की आवश्यकता है जिसके लिए देश के बौद्धिक वर्ग को समन्वित प्रयास करने होंगे और विकृति फ़ैलाने वाले समुदायों को मुंह-तोड़ उत्तर देने होंगे. सार्वजनिक शिक्षा इसका सर्वोत्तम माध्यम है किन्तु वर्तमान राजतन्त्र इसमें केवल औपचारिकता स्तर तक ही रूचि रखता है. अतः वर्तमान राजनैतिक स्तिति में भारत का पुनर्जागरण सहज नहीं है, तथापि समन्वित प्रयास किये जाने चाहिए.
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अन्धविश्वास,
पुनर्जागरण,
मान्यता,
वास्तविकता,
सामाजिक विकृति
इतिहास की पुनरावृत्ति
'इतिहास दोहराता है' - यह सुना था किन्तु आशा नहीं थी कि यह कथावत मेरे समक्ष चरितार्थ होगी. सन १९४० में पिताजी श्री करन लाल अपनी युवावस्था में ही देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े थे और ४२ में क्षेत्र के क्रांतिकारियों में गिने जाने लगे थे. उस समय ब्रिटिश सरकार ने पिताजी का दमन करने का भरसक प्रयास किया. स्वतंत्र भारत में देश के विदेश मंत्री रहे श्री सुरेन्द्र पाल सिंह जैसे अँगरेज़ भक्त पिताजी की हस्ती मिटाने के लिए कृतसंकल्प थे. गाँव के जमींदार और उनके पिट्ठू प्रत्येक तरीके से उन्हें कारागार में डलवाने और मरवाने में अपना योगदान देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे.
दूसरी ओर पिताजी क्षेत्र में इतने लोकप्रिय हो गए थे कि आम आदमी अपनी जान हथेली पर रख कर भी उनके जीवन की रक्षा के लिए तैयार रहता था. इसके कारण अँगरेज़ सरकार, जमींदार, तथा दूसरे देशद्रोही पिताजी का बाल भी बांका न कर सके. इसी समर्थन के कारण पिताजी ने अंग्रेजों को क्रांति का सन्देश देने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ अंग्रेज़ी सरकार के चरोरा निरीक्षण भवन को आग लगा दी. इस काण्ड के बाद तो दोनों पक्षों में और भी अधिक ठन गयी. पिताजी के अतिरिक्त अन्य सभी साथी पकडे गए, कुछ ने क्षमा मांग ली, तो कुछ अंग्रेजों के गवाह बन गए, किन्तु अधिकाँश टस से मस नहीं हुए और दंड के भागी बने. पिताजी फरार हो गए. अंततः पिताजी के विरुद्ध देखते ही गोली मारने के आदेश जारी कर दिए.
उस समय बुलंदशहर के एक न्यायाधीश श्री डी. पद्मनाभन थे जो देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे और पिताजी के विरुद्ध मुकदमा उन्ही के नयायालय में था. उन्होंने पिताजी को गुप्त सन्देश भिजवाया कि जब तक हार्डी बुलंदशहर का कलेक्टर है, तब तक फरार हे रहें और अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखें. तदनुसार पिताजी १६ माह फरार रहे और अंततः श्री डी. पद्मनाभन के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. इस अवधि में वे अधिकाँश रात्रियाँ खेतों में छिप कर व्यतीत करते थे और दिन में गुप्त सभाएं करके जन-जागरण करते थे. लोग उन्हें अपनी बैलगाड़ियों में बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते थे.
स्वतन्त्रता आन्दोलन में पिताजी अनेक बार कारागार में रहे किन्तु कभी क्षमा नहीं माँगी. स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने १९५२ में सोशलिस्ट पार्टी की ओर से विधान सभा का चुनाव लड़ा किन्तु ३०० मतों से पराजित हुए. वे गाँव के तीन बार प्रधान चुने गए और उन्होंने गाँव में अनेक विकास कार्य किये थे. वे निर्भीक रहकर निर्धन निस्सहाय लोगों लोगों की सहायता करते थे, इसलिए गाँव के जमींदार और उनके संगी पिताजी के शत्रु बने रहे और अनेक बार उन्हें मरवाने के षड्यंत्र रचे. आम लोगों के सहयोग के कारण सभी षड्यंत्र असफल रहे और पिताजी सभी षड्यंत्रकारियों की मृत्यु के पश्चात् ९३ वर्ष की परिपक्व अवस्था में सन २००३ में मृत्यु को प्राप्त हुए. तब तक उनके सभी पुत्र-पुत्री समाज और अपने कार्यों में प्रतिष्ठा पा चुके थे अतः वे परिवार से संतुष्ट थे. किन्तु देश की बिगड़ती हुई राजनैतिक स्थिति से सदैव चिंतित रहते थे.
पिताजी की मृत्यु से पूर्व मैं गाँव में रहने लगा था और समाज में मुझे उन जैसा ही सम्मान प्राप्त हो रहा है. पिताजी के शत्रुओं के परिजन ही आज मेरे शत्रु बने हुए हैं और मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचते रहते हैं. इस प्रकार बदली हुई परिस्थितियों में भी गाँव का इतिहास दोहरा रहा है.
मेरे विरुद्ध जो षड्यंत्र रचा गया उसमें देश के प्रतिष्ठित पदाधिकारी श्री सुनील कुमार आई. ए. एस., श्री जसवीर सिंह आई. पी. एस., श्री नीलेश कुमार आई पी. एस. ने मेरी उसी तरह सहायता की है जिस तरह पिताजी की श्री डी. पद्मनाभन ने की थी. और इस सब सहायता के लिए श्रेय श्री जय कुमार झा को जाता है.
दूसरी ओर पिताजी क्षेत्र में इतने लोकप्रिय हो गए थे कि आम आदमी अपनी जान हथेली पर रख कर भी उनके जीवन की रक्षा के लिए तैयार रहता था. इसके कारण अँगरेज़ सरकार, जमींदार, तथा दूसरे देशद्रोही पिताजी का बाल भी बांका न कर सके. इसी समर्थन के कारण पिताजी ने अंग्रेजों को क्रांति का सन्देश देने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ अंग्रेज़ी सरकार के चरोरा निरीक्षण भवन को आग लगा दी. इस काण्ड के बाद तो दोनों पक्षों में और भी अधिक ठन गयी. पिताजी के अतिरिक्त अन्य सभी साथी पकडे गए, कुछ ने क्षमा मांग ली, तो कुछ अंग्रेजों के गवाह बन गए, किन्तु अधिकाँश टस से मस नहीं हुए और दंड के भागी बने. पिताजी फरार हो गए. अंततः पिताजी के विरुद्ध देखते ही गोली मारने के आदेश जारी कर दिए.
उस समय बुलंदशहर के एक न्यायाधीश श्री डी. पद्मनाभन थे जो देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे और पिताजी के विरुद्ध मुकदमा उन्ही के नयायालय में था. उन्होंने पिताजी को गुप्त सन्देश भिजवाया कि जब तक हार्डी बुलंदशहर का कलेक्टर है, तब तक फरार हे रहें और अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखें. तदनुसार पिताजी १६ माह फरार रहे और अंततः श्री डी. पद्मनाभन के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. इस अवधि में वे अधिकाँश रात्रियाँ खेतों में छिप कर व्यतीत करते थे और दिन में गुप्त सभाएं करके जन-जागरण करते थे. लोग उन्हें अपनी बैलगाड़ियों में बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते थे.
स्वतन्त्रता आन्दोलन में पिताजी अनेक बार कारागार में रहे किन्तु कभी क्षमा नहीं माँगी. स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने १९५२ में सोशलिस्ट पार्टी की ओर से विधान सभा का चुनाव लड़ा किन्तु ३०० मतों से पराजित हुए. वे गाँव के तीन बार प्रधान चुने गए और उन्होंने गाँव में अनेक विकास कार्य किये थे. वे निर्भीक रहकर निर्धन निस्सहाय लोगों लोगों की सहायता करते थे, इसलिए गाँव के जमींदार और उनके संगी पिताजी के शत्रु बने रहे और अनेक बार उन्हें मरवाने के षड्यंत्र रचे. आम लोगों के सहयोग के कारण सभी षड्यंत्र असफल रहे और पिताजी सभी षड्यंत्रकारियों की मृत्यु के पश्चात् ९३ वर्ष की परिपक्व अवस्था में सन २००३ में मृत्यु को प्राप्त हुए. तब तक उनके सभी पुत्र-पुत्री समाज और अपने कार्यों में प्रतिष्ठा पा चुके थे अतः वे परिवार से संतुष्ट थे. किन्तु देश की बिगड़ती हुई राजनैतिक स्थिति से सदैव चिंतित रहते थे.
पिताजी की मृत्यु से पूर्व मैं गाँव में रहने लगा था और समाज में मुझे उन जैसा ही सम्मान प्राप्त हो रहा है. पिताजी के शत्रुओं के परिजन ही आज मेरे शत्रु बने हुए हैं और मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचते रहते हैं. इस प्रकार बदली हुई परिस्थितियों में भी गाँव का इतिहास दोहरा रहा है.
मेरे विरुद्ध जो षड्यंत्र रचा गया उसमें देश के प्रतिष्ठित पदाधिकारी श्री सुनील कुमार आई. ए. एस., श्री जसवीर सिंह आई. पी. एस., श्री नीलेश कुमार आई पी. एस. ने मेरी उसी तरह सहायता की है जिस तरह पिताजी की श्री डी. पद्मनाभन ने की थी. और इस सब सहायता के लिए श्रेय श्री जय कुमार झा को जाता है.
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