अंग्रेज़ी की एक सुप्रसिद्ध कथावत है - First deserve then desire अर्थात पहले सुयोग्य बनिए तब इच्छा कीजिये. मस्तिष्क स्तर पर हम सभी जानते हैं कि इच्छाओं की आपूर्ति के लिए हमें उनके सुयोग्य बनना चाहिए किन्तु मन के स्तर पर हम बिना सुयोग्य बने ही इच्छाएँ करने लगते हैं. इससे हम निराश होते हैं और यही हमारे अधिकाँश दुखों का कारण होता है.
प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत सी उपलब्धियां असंभव होती हैं क्योंकि वह उनके सुयोग्य नहीं होता. इन असंभव उपलब्धियों को संभव बनाने के लिए हमें उनके हेतु सुयोग्य होने की आवश्यकता होती है. अतः सुयोग्यता ही संभावनाओं के द्वार खोलती हैं. किन्तु सभी सुयोग्यताएं सभी व्यक्तियों द्वारा सभी समय प्राप्त नहीं की जा सकतीं, इसलिए व्यवहारिक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए सभी कुछ पाना संभव नहीं होता. इस प्रकार किसी उपलब्धि के लिये सुयोग्य बनने के नियोजन के सापेक्ष कहीं अधिक अच्छा होता है कि सुयोग्यता के आधार पर संभावनाओं की खोज की जाये. एक तरोताजा रोचक उदहारण है - पिछले सप्ताह एक २७ वर्षीय रूसी सुन्दरी ने मुझे पत्र लिखा कि वह जानना चाहती है कि क्या मैं उससे परिचय एवं सम्बन्ध स्थापित कर विवाह करना पसंद करूंगा. मैं एकाकी हूँ किन्तु ६२ वर्ष का हूँ, इसलिए उसके हेतु सुयोग्य नहीं हूँ और न ही कभी हो सकता हूँ. तदनुसार मैंने उसे उत्तर दे दिया और उसने मुझसे अपना मित्र बनाये रखने का आग्रह किया जो मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. अतः सुयोग्यता प्राप्त करने की कुछ पारिस्थितिक विवशताएँ होती हैं जो हमें स्वीकार करनी चाहिए और तदनुसार ही सम्भावनाओं के द्वारों पर दस्तक देनी चाहिए.
सैद्धांतिक स्तर पर असंभव कुछ नहीं होता, जैसा कि नेपोलियन ने कहा था, किन्तु सभी कुछ संभव करने के प्रयास दुखदायी हो सकते हैं, जैसा कि स्वयं नेपोलियन के रूस पर आक्रमण से हुआ - उसकी पराजय हुई थी. हिटलर ने भी सभी कुछ संभव करने के प्रयास किये थे और उसे भी पराजय का मुंह देखना पडा था. इसमें महत्वपूर्ण भूमिका पीटर सिद्धांत की होती है जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति उस स्तर तक आगे बढ़ने के प्रयास करता है जहां वह अयोग्य होता है. क्या ही अच्छा हो कि हम अपनी सुयोग्यताओं की संभावनाओं को पहले पहचानें और उसी सीमा तक आगे बढ़ने के प्रयास करें जहां तक हम सुयोग्य बने रहें. इस प्रकार हम अयोग्य होने से अपना बचाव कर सकते हैं.
अपनी निर्बलताएँ का ज्ञान मनुष्य को असफल होने से बचाता है, किन्तु यह दुष्कर होता है क्योंकि हम सर्वाधिक भूल अपने वयं के आकलन में करते हैं. बहुधा ऐसा भी होता है कि हम अपनी निर्बलता तो जानते हैं किन्तु किसी दूसरे के समक्ष उसे स्वीकार करने से कतराते हैं. इस प्रकार हमारी निर्बलता प्रकाश में न आने कारण मिटाई भी नहीं जाती. कभी-कभी हम इसके बारे में अन्धकार में भी रहते हैं, और ऐसे दुस्साहस कर बैठते हैं जो हमारी सामर्थ के परे होते हैं. इनमें असफल होने पर हमें दुःख होते हैं.
इस प्रकार सुखी जीवन के लिए हमें सदा अपनी सुयोग्यता की संभावनाओं के अनुसार उन्हें प्राप्त करना चाहिए, तदुपरांत उनका उपयोग करते हुए उपलब्धियों के प्रयास करने चाहिए. साथ ही हम वहीं तक आगे बढ़ने की इच्छा रखें जहाँ तक हम सुयोग्य बने रहें.
शनिवार, 26 जून 2010
शुक्रवार, 25 जून 2010
हमारी कुतिया संस्कृति
कल सुबह मैं गाँव में अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था कि रास्ते में अचानक एक आवाज़ उभरी, "भाई साहेब, ज़रा सुनिए, आपसे कुछ जरूरी काम है." मैंने आवाज के दिशा में मुंह मोड़ा तो गाँव के एक भूतपूर्व सैनिक मुझे ही संबोधित करते पाए गए. उनके पास गया तो उनकी सुन्दर एवं बलिष्ठ पत्नी भी घूँघट किये पास आकर खडी हो गयीं. मुझे चारपाई पर स्थान दिया गया, और उन्होंने मुझे अपना कष्ट बयान किया, "परसों सुबह से हमारी कुतिया खो गयी है, जिसका कुछ पाता नहीं चल रहा". पत्नी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अपना बयान जारी रखा, "इनका कहना है कि आप अपने इन्टरनेट से हमारी कुतिया का पता लगा सकते हैं". सुन्दर पत्नी ने मधुर स्वर में कहा, "आपकी बड़ी मेहेरबानी होगी, मुझे उससे बड़ा लगाव है".
मैं उन दोनों की मूर्खता पर कुछ क्रोधमय मुस्कराया, तथापि मैंने संयत स्वर में निवेदन किया, "अच्छा ही है कुतिया खो गयी, आप खर्चे से भी बचे और उसकी गन्दगी से भी". इस पर मेरे मित्र बोले, "इन दोनों में से कोई विशेष कष्ट हमें नहीं था. उसे खाने के लिए तो हम एक-दो ग्रास ही देते थे, शेष वह अडोस-पड़ोस से पूर्ति कर लेती थी. मल-मूत्र के लिए हमने उसे आरम्भ सी दीक्षित कर दिया था. इनके लिए वह सदैव मार्ग पर ही चली जाती थी और शौच के बाद ही घर में घुसती थी". मैं असमंजस में पड़ गया कि इसे सुनकर मैं रोऊँ या हसूँ, एक ओर कुआ था तो दूसरी ओर गहरी खाई थी. एक ओर भारत की महान संस्कृति थी तो दूसरी ओर मेरा घोर विरोध. सभ्यता और संस्कृति का मेरा आलेख मेरे मस्तिष्क में गूँज गया. इन संस्कृत महोदय को मैं सभ्य समझ बैठा था.
कुछ देर में स्वयं को संयमित कर पाया तो मैंने उन्हें इन्टरनेट पर उपलब्ध सूचनाओं के बारे में बताया और उन दोनों को संतुष्ट किया कि इन्टरनेट उनकी कुतिया के बारे में कुछ भी नहीं जानता है. इन्टरनेट सुविधा पूरे जनपद के ग्रामीण क्षेत्रों में केवल मेरे ही पास है और मैं इसका व्यक्तिगत उपयोग ही करता हूँ. लोगों ने इन्टरनेट का नाम तो सुन लिया है किन्तु इसके उपयोगों के बारे में अनभिज्ञ हैं.
मेरे गाँव में लगभग ५०० परिवार हैं और लगभग १,००० अर्ध-आवारा कुत्ते-कुतिया जिनको उनके तथाकथित स्वामी एक-दो ग्रास खाना देते हैं और मल-मूत्र के लिए सारा जहाँ उनका शौचालय है. किसी भी काली स्थान पर इन कुत्ते-कुतियों के मल देखे जा सकते हैं, जो हमारी आदत में समाहित होने के कारण अटपटे नहीं लगते. इन कुत्ते-कुतियों में से अनेक को काटने की आदत भी है. लगभग १५ दिन पूर्व एक कुत्ते ने मुझे भी कटा था जिसकी चिकित्सा राजकीय चिकित्सालय में करवाने पर भी मुझे अपनी जेब से २५० रुपये की औषधियां खरीद कर खानी पडी थीं. परस्पर लड़ाई झगड़े और भौंका-भौंकी तो कुत्तों की आदत होती ही है जिसके कारण रात भर गाँव में इनसे रौनक बनी रहती है और जो मेरी तरह शारीरिक श्रम से थके हुए नहीं होते, वे ठीक से सो भी नहीं पाते.
जिन घरों में इस प्रकार के अर्ध-आवारा कुत्ते पाले जाते हैं उनके बर्तनों को मनुष्य कम किन्तु कुत्ते अधिक चाटते हैं. इस कारण से मैं ऐसे घरों में कुछ खाना पसंद नहीं करता. मेरा कुत्ता विरोध पूरे गाँव में जाना जाता है. स्वास्थ की दृष्टि से कुत्तों की समीपता बच्चों के मानसिक विकास में बाधक होती है और मैंने दीर्घकालिक विशेष अध्ययन से यह पाया है कि जिन घरों में कुत्ते पाले जाते हैं, उनके बच्चे उच्च शिक्षा स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते.
मैं उन दोनों की मूर्खता पर कुछ क्रोधमय मुस्कराया, तथापि मैंने संयत स्वर में निवेदन किया, "अच्छा ही है कुतिया खो गयी, आप खर्चे से भी बचे और उसकी गन्दगी से भी". इस पर मेरे मित्र बोले, "इन दोनों में से कोई विशेष कष्ट हमें नहीं था. उसे खाने के लिए तो हम एक-दो ग्रास ही देते थे, शेष वह अडोस-पड़ोस से पूर्ति कर लेती थी. मल-मूत्र के लिए हमने उसे आरम्भ सी दीक्षित कर दिया था. इनके लिए वह सदैव मार्ग पर ही चली जाती थी और शौच के बाद ही घर में घुसती थी". मैं असमंजस में पड़ गया कि इसे सुनकर मैं रोऊँ या हसूँ, एक ओर कुआ था तो दूसरी ओर गहरी खाई थी. एक ओर भारत की महान संस्कृति थी तो दूसरी ओर मेरा घोर विरोध. सभ्यता और संस्कृति का मेरा आलेख मेरे मस्तिष्क में गूँज गया. इन संस्कृत महोदय को मैं सभ्य समझ बैठा था.
कुछ देर में स्वयं को संयमित कर पाया तो मैंने उन्हें इन्टरनेट पर उपलब्ध सूचनाओं के बारे में बताया और उन दोनों को संतुष्ट किया कि इन्टरनेट उनकी कुतिया के बारे में कुछ भी नहीं जानता है. इन्टरनेट सुविधा पूरे जनपद के ग्रामीण क्षेत्रों में केवल मेरे ही पास है और मैं इसका व्यक्तिगत उपयोग ही करता हूँ. लोगों ने इन्टरनेट का नाम तो सुन लिया है किन्तु इसके उपयोगों के बारे में अनभिज्ञ हैं.
मेरे गाँव में लगभग ५०० परिवार हैं और लगभग १,००० अर्ध-आवारा कुत्ते-कुतिया जिनको उनके तथाकथित स्वामी एक-दो ग्रास खाना देते हैं और मल-मूत्र के लिए सारा जहाँ उनका शौचालय है. किसी भी काली स्थान पर इन कुत्ते-कुतियों के मल देखे जा सकते हैं, जो हमारी आदत में समाहित होने के कारण अटपटे नहीं लगते. इन कुत्ते-कुतियों में से अनेक को काटने की आदत भी है. लगभग १५ दिन पूर्व एक कुत्ते ने मुझे भी कटा था जिसकी चिकित्सा राजकीय चिकित्सालय में करवाने पर भी मुझे अपनी जेब से २५० रुपये की औषधियां खरीद कर खानी पडी थीं. परस्पर लड़ाई झगड़े और भौंका-भौंकी तो कुत्तों की आदत होती ही है जिसके कारण रात भर गाँव में इनसे रौनक बनी रहती है और जो मेरी तरह शारीरिक श्रम से थके हुए नहीं होते, वे ठीक से सो भी नहीं पाते.
जिन घरों में इस प्रकार के अर्ध-आवारा कुत्ते पाले जाते हैं उनके बर्तनों को मनुष्य कम किन्तु कुत्ते अधिक चाटते हैं. इस कारण से मैं ऐसे घरों में कुछ खाना पसंद नहीं करता. मेरा कुत्ता विरोध पूरे गाँव में जाना जाता है. स्वास्थ की दृष्टि से कुत्तों की समीपता बच्चों के मानसिक विकास में बाधक होती है और मैंने दीर्घकालिक विशेष अध्ययन से यह पाया है कि जिन घरों में कुत्ते पाले जाते हैं, उनके बच्चे उच्च शिक्षा स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते.
स्वतंत्र भारत में काला धन
अपनी जिस आय पर कोई व्यक्ति समुचित आयकर का भुगतान नहीं करता है, उतना धन व्यक्ति का कालाधन कहलाता है. अतः कालाधन वैध तथा अवैध दोनों प्रकार के आय स्रोतों से प्राप्त किया जा सकता है. चूंकि आय के अधिकाँश वैध स्रोत राज्य को ज्ञात होते हैं, उन पर प्रायः आयकर ले लिया जाता है. इस कारण कालेधन के मुख्य स्रोत अवैध आय के स्रोत होते हैं. स्वतन्त्रता के समय केवल व्यवसायियों के पास कालाधन था जिसके अधिकाँश स्रोत वैध व्यवसाय से आय थे किन्तु उन पर आय कर न दिए जाने के कारण यह कालेधन की संज्ञा पाता था. इसलिए तत्कालीन काला धन उतना काला नहीं था जितना कि देश में आज का काला धन है क्योंकि आज का काला धन अवैध आय स्रोतों से प्राप्त होता है. व्यवसायियों के पास उपलब्ध काला धन उनके व्यवसाय में लगा रहता है इसलिए उसका उत्पादक उपयोग होता है, जबकि अवैध आय स्रोतों से प्राप्त काला धन बहुधा किसी उत्पादक उपयोग में नहीं लगाया जाकर किसी अन्य काले धंधे में लगाया जाता है. अतः आज का काला धन देश की राजनीति, सामाजिक व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध होता है.
स्वतन्त्रता के लगभग २० वर्षों तक राजनेता राजनैतिक दलों के उपयोग के लिए व्यवसायियों के काले धन में से सीधे धन प्राप्त करते थे, प्रशासकों को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता था और अधिकाँश राजनेता भी इसमें व्यक्तिगत भागीदारी नहीं रखते थे. अतः यह काला धन केवल राजनैतिक दलों का होता था. इस कारण से राजनेता राज्यकर्मियों पर अपना नियंत्रण बनाये रखते थे जिससे उनका भृष्ट होना दुष्कर था. व्यवसायियों के पास काले धन का लाभ कुछ राज्यकर्मियों ने भी उठाया जिससे वे भी उसके हिस्सेदार बनने लगे और कालांतर में इसके अधिकाँश भाग के स्वामी हो गए. राज्यकर्मी इस काले धन का उपयोग अपने वैभव भोगों के लिए किया करते थे. उन पर राजनेताओं के नियंत्रण का भयबना रहता था.
इंदिरा गाँधी के शासन काल में राजनेताओं ने प्रशासकों को जनता से काला धन कमाने और उन्हें देने के लिए विवश करना आरम्भ कर दिया जिससे राजनेता और राज्यकर्मी जनता से लूटे गए कालेधन के परस्पर भागीदार बन गए, और कर्मी नेताओं के नियंत्रण से मुक्त हो गए. इस मुक्ति और नेताओं द्वारा काला धन कमाने के प्रोत्साहन से राज्यकर्मी भृष्टतर होते गए और वे निर्विघ्न जनता का शोषण करने लगे जो आज तक चल रहा है. इस प्रकार देश के अधिकाँश काले धन के स्वामी राजनेता और राज्यकर्मी बन गए, तथापि व्यवसायी काला धन कमाने के लिए बदनाम बने रहे. आज के व्यवसायी जो भी काला धन कमाते हैं उसका अधिकाँश भाग राज्यकर्मियों के माध्यम से राजनेताओं के पास पहुँच जाता है.
देश में काले धन के अर्थ-व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए अनेक वैधानिक प्रावधान किये गए हैं जो केवल व्यवसायियों पर लागू किये जाते हैं, और काले धन के वास्तविक स्वामी - राजनेता और राज्यकर्मी, इन वैधानिक प्रावधानों से मुक्त ही बने रहते हैं. वस्तुतः ये प्रावधान राजनेताओं तथा राज्यकर्मियों द्वारा ही इस चतुराई से बनाये जाते हैं वे स्वयं इनसे दुष्प्रभावित न हों.
यद्यपि कालेधन का आकलन किसी भी प्रकार से संभव नहीं है, तथापि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार भात में कालेधन का परिमाण १,०००,००० मिलियन रुपये है. आज भी व्यवसायियों का काला धन उनके उद्योग धंधों में लगा रहता है जिससे उसका उत्पादक उपयोग हो रहा है. किन्तु राजनेताओं और राज्यकर्मियों के काले धन का बड़ा भाग विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है. अतः इसका लाभ देश को न होकर विदेशों को हो रहा है. राजनेता इसका उपयोग राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए और राज्यकर्मी इसका उपयोग आर्थिक सत्ता हथियाने के लिए कर रहे हैं.
स्वतन्त्रता के लगभग २० वर्षों तक राजनेता राजनैतिक दलों के उपयोग के लिए व्यवसायियों के काले धन में से सीधे धन प्राप्त करते थे, प्रशासकों को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता था और अधिकाँश राजनेता भी इसमें व्यक्तिगत भागीदारी नहीं रखते थे. अतः यह काला धन केवल राजनैतिक दलों का होता था. इस कारण से राजनेता राज्यकर्मियों पर अपना नियंत्रण बनाये रखते थे जिससे उनका भृष्ट होना दुष्कर था. व्यवसायियों के पास काले धन का लाभ कुछ राज्यकर्मियों ने भी उठाया जिससे वे भी उसके हिस्सेदार बनने लगे और कालांतर में इसके अधिकाँश भाग के स्वामी हो गए. राज्यकर्मी इस काले धन का उपयोग अपने वैभव भोगों के लिए किया करते थे. उन पर राजनेताओं के नियंत्रण का भयबना रहता था.
इंदिरा गाँधी के शासन काल में राजनेताओं ने प्रशासकों को जनता से काला धन कमाने और उन्हें देने के लिए विवश करना आरम्भ कर दिया जिससे राजनेता और राज्यकर्मी जनता से लूटे गए कालेधन के परस्पर भागीदार बन गए, और कर्मी नेताओं के नियंत्रण से मुक्त हो गए. इस मुक्ति और नेताओं द्वारा काला धन कमाने के प्रोत्साहन से राज्यकर्मी भृष्टतर होते गए और वे निर्विघ्न जनता का शोषण करने लगे जो आज तक चल रहा है. इस प्रकार देश के अधिकाँश काले धन के स्वामी राजनेता और राज्यकर्मी बन गए, तथापि व्यवसायी काला धन कमाने के लिए बदनाम बने रहे. आज के व्यवसायी जो भी काला धन कमाते हैं उसका अधिकाँश भाग राज्यकर्मियों के माध्यम से राजनेताओं के पास पहुँच जाता है.
देश में काले धन के अर्थ-व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए अनेक वैधानिक प्रावधान किये गए हैं जो केवल व्यवसायियों पर लागू किये जाते हैं, और काले धन के वास्तविक स्वामी - राजनेता और राज्यकर्मी, इन वैधानिक प्रावधानों से मुक्त ही बने रहते हैं. वस्तुतः ये प्रावधान राजनेताओं तथा राज्यकर्मियों द्वारा ही इस चतुराई से बनाये जाते हैं वे स्वयं इनसे दुष्प्रभावित न हों.
यद्यपि कालेधन का आकलन किसी भी प्रकार से संभव नहीं है, तथापि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार भात में कालेधन का परिमाण १,०००,००० मिलियन रुपये है. आज भी व्यवसायियों का काला धन उनके उद्योग धंधों में लगा रहता है जिससे उसका उत्पादक उपयोग हो रहा है. किन्तु राजनेताओं और राज्यकर्मियों के काले धन का बड़ा भाग विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है. अतः इसका लाभ देश को न होकर विदेशों को हो रहा है. राजनेता इसका उपयोग राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए और राज्यकर्मी इसका उपयोग आर्थिक सत्ता हथियाने के लिए कर रहे हैं.
मंगलवार, 22 जून 2010
अवचेतन, चेतन और अधिचेतन मन
प्रत्येक जीव के मन का सम्बन्ध सीधे उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग से होता है. यह सम्बन्ध शरीर और मस्तिष्क के सम्बन्ध से भिन्न है क्योंकि मन और मस्तिष्क एक दूसरे से भिन्न होते हैं. मन शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और चिंतन में असमर्थ होता है जबकि मस्तिष्क मनुष्य की स्मृति एवं चिंतन सामर्थ्यों का समन्वय होता है. इस कारण से व्यक्ति जो भी दोष करता है, वह अपने मन के अधीन होकर ही करता है.
मन तीन स्तरों पर कार्य करता है - अवचेतन, चेतन और अधिचेतन. अवचेतन मन शरीर की अनिवार्य क्रिया-प्रतिक्रियाओं का सञ्चालन एवं नियमन करता है जिसके लिए उसे मस्तिष्क की कोई आवश्यकता नहीं होती. इसी कारण से इस स्तर पर मन तीव्रतम गति पर कार्य करता है, जिनके लिए यह मूल रूप से प्रोग्रामित होता है. तथापि इन प्रोग्रामों में संशोधन किये जा सकते हैं, मन के चेतन स्तर द्वारा. शरीर की आतंरिक क्रियान के अतिरिक्त बाह्य रूप में व्यक्ति की अंतर्चेतानाएं (इंस्टिंक्ट), आदतें, आदि मन के इसी स्तर से संचालित होती हैं.
चेतन मन व्यक्ति के बाह्य जगत से सम्बन्ध रखता है और उसकी स्मृति और चिंतन सामर्थ (बुद्धि) का उपयोग करते हुए उसके जागतिक व्यवहार का संचालन करता है. चूंकि इस व्यवहार में मन और बुद्धि का समन्वय होता है, इसलिए इसके सञ्चालन में विलम्ब होता है. यदा-कदा मनुष्य इस समन्वय के विना ही अपनी आदत के अनुसार अपने अवचेतन मन के आदेश पर तुरंत जागतिक व्यवहार भी कर बैठता है जो बुद्धि के अभाव के कारण संतुलित नहीं हो पाता.
व्यक्ति के अवचेतन और चेतन मन ही उसके यथार्थ होते हैं, उसके अधिचेतन मन का उसके यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु उसका व्यवहार उसकी किसी कल्पना पर आधारित होता है. यह कल्पना कभी उसके अवचेतन मन को आच्छादित करती है तो कभी उसके चेतन मन को. इसके अधीन व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है. प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति स्वयं को अपने यथार्थ के अतिरिक्त कुछ अन्य समझने लगता है और उसी प्रकार व्यवहार करने लगता है. स्वयं को दिव्य शक्तियों से संपन्न माँ लेना, भूत-प्रेतों के प्रभाव को स्वीकार कर लेना, किसी अन्य व्यक्ति के वशीभूत हो जाना, आदि के अंतर्गत व्यवहार व्यक्ति के अधिचेतन मन द्वारा ही संचालित होते हैं जो उसके यथार्थ को आच्छादित रखता है. इसी कारण से ऐसे प्रभाव सीमित समय के लिए ही होते हैं. व्यक्ति का यथार्थ प्रकट होते ही उसकी कल्पना तिरोहित हो जाती है. अध्यात्मवाद का प्रचार-प्रसार भी अदिचेतन मन के माध्यम से किया जाता है, जो वस्तुतः सभी यथार्थ से परे एवं पूर्णतः काल्पनिक होता है. इसका मनुष्य की बुद्धि से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता.
मन तीन स्तरों पर कार्य करता है - अवचेतन, चेतन और अधिचेतन. अवचेतन मन शरीर की अनिवार्य क्रिया-प्रतिक्रियाओं का सञ्चालन एवं नियमन करता है जिसके लिए उसे मस्तिष्क की कोई आवश्यकता नहीं होती. इसी कारण से इस स्तर पर मन तीव्रतम गति पर कार्य करता है, जिनके लिए यह मूल रूप से प्रोग्रामित होता है. तथापि इन प्रोग्रामों में संशोधन किये जा सकते हैं, मन के चेतन स्तर द्वारा. शरीर की आतंरिक क्रियान के अतिरिक्त बाह्य रूप में व्यक्ति की अंतर्चेतानाएं (इंस्टिंक्ट), आदतें, आदि मन के इसी स्तर से संचालित होती हैं.
चेतन मन व्यक्ति के बाह्य जगत से सम्बन्ध रखता है और उसकी स्मृति और चिंतन सामर्थ (बुद्धि) का उपयोग करते हुए उसके जागतिक व्यवहार का संचालन करता है. चूंकि इस व्यवहार में मन और बुद्धि का समन्वय होता है, इसलिए इसके सञ्चालन में विलम्ब होता है. यदा-कदा मनुष्य इस समन्वय के विना ही अपनी आदत के अनुसार अपने अवचेतन मन के आदेश पर तुरंत जागतिक व्यवहार भी कर बैठता है जो बुद्धि के अभाव के कारण संतुलित नहीं हो पाता.
व्यक्ति के अवचेतन और चेतन मन ही उसके यथार्थ होते हैं, उसके अधिचेतन मन का उसके यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु उसका व्यवहार उसकी किसी कल्पना पर आधारित होता है. यह कल्पना कभी उसके अवचेतन मन को आच्छादित करती है तो कभी उसके चेतन मन को. इसके अधीन व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है. प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति स्वयं को अपने यथार्थ के अतिरिक्त कुछ अन्य समझने लगता है और उसी प्रकार व्यवहार करने लगता है. स्वयं को दिव्य शक्तियों से संपन्न माँ लेना, भूत-प्रेतों के प्रभाव को स्वीकार कर लेना, किसी अन्य व्यक्ति के वशीभूत हो जाना, आदि के अंतर्गत व्यवहार व्यक्ति के अधिचेतन मन द्वारा ही संचालित होते हैं जो उसके यथार्थ को आच्छादित रखता है. इसी कारण से ऐसे प्रभाव सीमित समय के लिए ही होते हैं. व्यक्ति का यथार्थ प्रकट होते ही उसकी कल्पना तिरोहित हो जाती है. अध्यात्मवाद का प्रचार-प्रसार भी अदिचेतन मन के माध्यम से किया जाता है, जो वस्तुतः सभी यथार्थ से परे एवं पूर्णतः काल्पनिक होता है. इसका मनुष्य की बुद्धि से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता.
सोमवार, 21 जून 2010
आखिर क्या चाहता है जन-साधारण ?
गाँव में रहकर जो मैं कर रहा हूँ, और बदले में जो मेरे साथ हो रहा है - यह सब आपके समक्ष है. जो कर रहा हूँ वह अपने लिए नहीं, गाँव के जन-साधारण के लिए और उसी के आगृह पर कर रहा हूँ, और उसी के लिए अग्रणी समाज द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा हूँ. यह सब जानते हैं - जन-साधारण भी. किन्तु कोई भी मेरे साथ कंधे से कन्धा मिलकर खड़े रहने को तैयार नहीं है, जैसे कि इस सबसे उनका कोई वास्ता ही नहीं.
इस सबसे दुखी होकर जब पीछे हटने लगता हूँ तो यही जन-साधारण अपनी रक्षा और विकास की दुहाईयाँ देकर मुझे आगे कर देते हैं, क्योंकि इन्हें आशा है कि मैं ही इनके कष्टों का निवारण कर सकता हूँ और गाँव को पूरी निष्ठां और ईमानदारी के साथ विकसित कर सकता हूँ. इसलिए ये लोग मुझे ढाल तो बनाना चाहते हैं किन्तु उस ढाल के पीछे अपना सीना तान कर खड़े नहीं रखना चाहते. ये डरपोक हैं. अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का साहस इनमें नहीं है.
देश का जन-साधारण स्वतंत्र रहकर अपने दायित्व का निर्वाह करने से बचता है, जबकि स्वतन्त्रता और दायित्व तो साथ-साथ ही चलते हैं. जिससे निष्कर्ष यह निकलता है कि ये स्वतंत्र रहने योग्य नहीं हैं. राष्ट्र और समाज के प्रति अपना दायित्व न समझने के कारण भारतीय जन-साधारण स्वतन्त्रता प्राप्ति पर उद्दंड होने की बहुत अधिक संभावना रखता है. इस कारण से स्वतन्त्रता के भारतीय अनुभवों में देश में अनुशासन की अपेक्षा उद्दंडता का बहुत अधिक प्रसार हुआ है. इस उद्दंडता के संयमन हेतु देश में कठोर न्याय व्यवस्था की अतीव आवश्यकता है जिसका भी यहाँ नितात अभाव है. ऐसी स्थिति में में कठोर, अनुशासित व्यवस्थापक ही भारतीय समाज को सद्मार्ग पर चला सकता है. इसी धरना के साथ मैं गाँव स्तर पर व्यवस्था करने के लिए तैयार हुआ हूँ.
मेरी व्यवस्था की उग्रता और व्यग्रता देखकर जन-साधारण निश्चिन्त अनुभव करता है, किन्तु इस समाज पर शासनाभिलाषी मेरे विरुद्ध कार्य करने लगे हैं, जिनमें देश की वर्त्तमान राजनैतिक व्यवस्था भी सम्मिलित है. अब समस्या यह है कि पीछे हटता हूँ तो समाज पिसता है जिससे मुझे सहानुभूति है और जिसके लिए मैं एक नयी व्यवस्था देना चाहता हूँ. आगे बढ़ता हूँ तो वर्तमान शासन मेरे विरुद्ध खडा हो जाता है जिसे मेरी उपस्थिति से खतरा है. मुझे भी इसके विरुद्ध उठ खड़ा होना होगा, किन्तु जन-साधारण मेरे इस संघर्ष में मेरा साथ नहीं देता है. इसे मुझ पर तो भरोसा है किन्तु स्वयं पर नहीं है.
आज मेरा जो संकट है, वही स्थिति देश के प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक की है, शासन व्यवस्था के विरुद्ध कोई भी अकेले खड़े होने में सामर्थ नहीं है, किन्तु अपने समाज को निस्सहाय भी नहीं छोड़ सकता. इसलिए एकमात्र विकल्प यह है कि सभी प्रबुद्ध नागरिक एकजुट हों और परस्पर सहयोग करें जिससे कि वे अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य कर सकें. देश, समाज और स्वयं के हितों की रक्षा के लिए बदलाव तो लाना ही होगा. यही समय की मांग है, यही देशभक्ति है.
इस सबसे दुखी होकर जब पीछे हटने लगता हूँ तो यही जन-साधारण अपनी रक्षा और विकास की दुहाईयाँ देकर मुझे आगे कर देते हैं, क्योंकि इन्हें आशा है कि मैं ही इनके कष्टों का निवारण कर सकता हूँ और गाँव को पूरी निष्ठां और ईमानदारी के साथ विकसित कर सकता हूँ. इसलिए ये लोग मुझे ढाल तो बनाना चाहते हैं किन्तु उस ढाल के पीछे अपना सीना तान कर खड़े नहीं रखना चाहते. ये डरपोक हैं. अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का साहस इनमें नहीं है.
देश का जन-साधारण स्वतंत्र रहकर अपने दायित्व का निर्वाह करने से बचता है, जबकि स्वतन्त्रता और दायित्व तो साथ-साथ ही चलते हैं. जिससे निष्कर्ष यह निकलता है कि ये स्वतंत्र रहने योग्य नहीं हैं. राष्ट्र और समाज के प्रति अपना दायित्व न समझने के कारण भारतीय जन-साधारण स्वतन्त्रता प्राप्ति पर उद्दंड होने की बहुत अधिक संभावना रखता है. इस कारण से स्वतन्त्रता के भारतीय अनुभवों में देश में अनुशासन की अपेक्षा उद्दंडता का बहुत अधिक प्रसार हुआ है. इस उद्दंडता के संयमन हेतु देश में कठोर न्याय व्यवस्था की अतीव आवश्यकता है जिसका भी यहाँ नितात अभाव है. ऐसी स्थिति में में कठोर, अनुशासित व्यवस्थापक ही भारतीय समाज को सद्मार्ग पर चला सकता है. इसी धरना के साथ मैं गाँव स्तर पर व्यवस्था करने के लिए तैयार हुआ हूँ.
मेरी व्यवस्था की उग्रता और व्यग्रता देखकर जन-साधारण निश्चिन्त अनुभव करता है, किन्तु इस समाज पर शासनाभिलाषी मेरे विरुद्ध कार्य करने लगे हैं, जिनमें देश की वर्त्तमान राजनैतिक व्यवस्था भी सम्मिलित है. अब समस्या यह है कि पीछे हटता हूँ तो समाज पिसता है जिससे मुझे सहानुभूति है और जिसके लिए मैं एक नयी व्यवस्था देना चाहता हूँ. आगे बढ़ता हूँ तो वर्तमान शासन मेरे विरुद्ध खडा हो जाता है जिसे मेरी उपस्थिति से खतरा है. मुझे भी इसके विरुद्ध उठ खड़ा होना होगा, किन्तु जन-साधारण मेरे इस संघर्ष में मेरा साथ नहीं देता है. इसे मुझ पर तो भरोसा है किन्तु स्वयं पर नहीं है.
आज मेरा जो संकट है, वही स्थिति देश के प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक की है, शासन व्यवस्था के विरुद्ध कोई भी अकेले खड़े होने में सामर्थ नहीं है, किन्तु अपने समाज को निस्सहाय भी नहीं छोड़ सकता. इसलिए एकमात्र विकल्प यह है कि सभी प्रबुद्ध नागरिक एकजुट हों और परस्पर सहयोग करें जिससे कि वे अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य कर सकें. देश, समाज और स्वयं के हितों की रक्षा के लिए बदलाव तो लाना ही होगा. यही समय की मांग है, यही देशभक्ति है.
लेबल:
जन-साधारण,
प्रबुद्ध वर्ग,
शासनाभिलाषी
रविवार, 20 जून 2010
अधीनत्व, आस्था और अनुशासन
अधीनत्व, आस्था और अनुशासन जीवन को संयमित करने वाले तीन महत्वपूर्ण कारण पाए जाते हैं. किसी व्यक्ति में ये तीनों उपस्थित होते हैं तो कुछ में कोई दो, तथा कुछ अन्य में कोई एक विद्यमान होता हैं. तो क्या तीनों समान रूप से सद्गुण हैं - इसी पर विचार को समर्पित है यह आलेख.
अधीनता व्यक्ति की परतंत्रता के पर्याय के रूप में जानी जाती है जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार हेतु स्वतंत्र न होकर दूसरे के आदेश अथवा इच्छानुसार नियोजित होता है. यह अधीनता जीवन के सपूर्ण कार्य-कलापों के लिए अथवा जीवन के किसी सीमित पक्ष हेतु हो सकती है. यथा स्वतंत्र व्यक्ति भी अपनी आजीविका हेतु किसी के अधीनस्थ होकर कार्य कर सकता है जिसमें व्यक्त सीमित समय हेतु ही किसी अन्य व्यक्ति के अधीन होता है. तकनीकी स्तर पर अधीनता की स्थिति में व्यक्ति दूसरे द्वारा निर्धारित लक्ष्य के लिए कार्य करता है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह अपने विवेक का सीमित उपयोग ही कर पाता है. ऐसे व्यक्ति के लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति सर्वोपरि होती है अर्थात व्यक्ति का जीवन बहुलांश में लक्ष्य्परक होता है, उसे व्यक्तिपरक होने की स्वतन्त्रता नहीं होती. कोई भी व्यक्ति अधीनता किसी विवशता के कारण ही स्वीकार करता है. पराधीन व्यक्ति अपने कर्म के दायित्व से मुक्त होता है क्योंकि उसका कर्म स्वयं द्वारा निर्धारित नहीं होता.
व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति अथवा प्रतीक के प्रति समर्पण भाव व्यक्ति की उसमें आस्था कहलाती है. अतः आस्थावान व्यक्ति स्वयं को आस्थास्रोत के सापेक्ष तुच्छ होना स्वीकार करता है तथा अपना जीवन-व्यवहार उसी के आदेश अथवा इच्छानुसार नियमित करता है. इस प्रकार आस्था अधीनता का ही एक स्वरुप है जिसमें व्यक्ति किसी विवशता के बिना ही स्वेच्छा से इसे स्वीकार करता है. यह आस्था किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक व्यक्ति अथवा व्यक्ति के प्रति हो सकती है. आस्थावान व्यक्ति प्रायः अपने कर्म के प्रति दायित्व से भारित न होकर यह भार आस्थास्रोत पर डाल देता है और वह स्वयं को दायित्व से मुक्त अनुभव करता है.
इस प्रकार हम पाते हैं कि अधीनता और आस्था में कुछ साम्य है - व्यक्ति का स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति का. तथापि इन दोनों में जो महत्वपूर्ण अंतराल है वह है विवशता और स्वेच्छा का. अधीनता का कारण विवशता होती है किन्तु आस्था स्वेच्छा से स्वीकार की जाती है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्र व्यक्ति भी दायित्व से मुक्ति के लिए आस्था का आश्रय लेता है अथवा ले सकता है.
आस्था सद्गुण है अथवा दुर्गुण, इस पर विचार की आवश्यकता है. आस्था प्रायः सम्मान भाव से उगती है और इसका परिणाम स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति होता है अथवा हो सकता है. उदाहरण के लिए व्यक्ति अपने माता-पिता का सम्मान करता है और उनके प्रति आस्थावान होता है जिसके कारण उनकी आज्ञा का पालन करता है और ऐसे कर्मों के प्रति दायित्व-मुक्त होता है. इसके विपरीत आस्था दायित्व से मुक्ति के लिए स्वीकार की जा सकती है जिसका परिणाम आस्थास्रोत में सम्मान हो सकता है. यथा - व्यक्ति दुष्कर्म करने निकलता है किन्तु उसका भय उसे किसी इष्ट देवता में आस्था व्यक्त करने को विवश करता है जिससे कि वह स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्त अनुभव कर सकता है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि आस्था के दो उद्भव स्रोत हो सकते हैं - सम्मान अथवा दायित्व से मुक्ति. आस्था का कारण यदि स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति है तो इसे दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए, किन्तु यदि आस्था का कारण स्रोत के प्रति सम्मान भाव है तो आस्था सद्गुण सिद्ध होती है. वास्तविक व्यक्तियों में आस्था प्रायः सम्मान से ही उगती है इसलिए सद्गुण होने की अधिक संभावना रखती है. किन्तु किसी काल्पनिक व्यक्ति, शक्ति अथवा वस्तु में आस्था संदेहास्पद हो सकती है क्यों कि इसका कारण वास्तविक सम्मान न होकर दायित्व से मुक्ति हो सकती है. लोगों की ईश्वर अथवा उसके किसी प्रतीक के प्रति आस्था इसी प्रकार की होना संभव है. इस रूप में आस्था व्यक्ति की निर्बलता के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है, जिसे व्यक्ति का आडम्बर भी कहा जा सकता है. अतः आस्था संदेहास्पद हो सकती है.
अनुशासन व्यक्ति का निस्संदेह सद्गुण होता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति स्वयं के कर्मों पर स्वेच्छा से अंकुश लगाता है. इसका स्रोत व्यक्ति की बुद्धि होती है जिसके उपयोग से व्यक्ति अपने कर्म का निर्धारण स्वयं को श्रेष्ठ बनाने हेतु करता है. इस प्रकार अनुशासन आस्था के सापेक्ष उच्च स्थान रखता है. अनुशासन में सम्मान-जनित आस्था भी समाहित होती है जिसमें कोई कृत्रिमता अथवा विवशता भी नहीं होती. अतः अनुशासन ही महामानव का अनिवार्य लक्षण होता है.
अधीनता व्यक्ति की परतंत्रता के पर्याय के रूप में जानी जाती है जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार हेतु स्वतंत्र न होकर दूसरे के आदेश अथवा इच्छानुसार नियोजित होता है. यह अधीनता जीवन के सपूर्ण कार्य-कलापों के लिए अथवा जीवन के किसी सीमित पक्ष हेतु हो सकती है. यथा स्वतंत्र व्यक्ति भी अपनी आजीविका हेतु किसी के अधीनस्थ होकर कार्य कर सकता है जिसमें व्यक्त सीमित समय हेतु ही किसी अन्य व्यक्ति के अधीन होता है. तकनीकी स्तर पर अधीनता की स्थिति में व्यक्ति दूसरे द्वारा निर्धारित लक्ष्य के लिए कार्य करता है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह अपने विवेक का सीमित उपयोग ही कर पाता है. ऐसे व्यक्ति के लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति सर्वोपरि होती है अर्थात व्यक्ति का जीवन बहुलांश में लक्ष्य्परक होता है, उसे व्यक्तिपरक होने की स्वतन्त्रता नहीं होती. कोई भी व्यक्ति अधीनता किसी विवशता के कारण ही स्वीकार करता है. पराधीन व्यक्ति अपने कर्म के दायित्व से मुक्त होता है क्योंकि उसका कर्म स्वयं द्वारा निर्धारित नहीं होता.
व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति अथवा प्रतीक के प्रति समर्पण भाव व्यक्ति की उसमें आस्था कहलाती है. अतः आस्थावान व्यक्ति स्वयं को आस्थास्रोत के सापेक्ष तुच्छ होना स्वीकार करता है तथा अपना जीवन-व्यवहार उसी के आदेश अथवा इच्छानुसार नियमित करता है. इस प्रकार आस्था अधीनता का ही एक स्वरुप है जिसमें व्यक्ति किसी विवशता के बिना ही स्वेच्छा से इसे स्वीकार करता है. यह आस्था किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक व्यक्ति अथवा व्यक्ति के प्रति हो सकती है. आस्थावान व्यक्ति प्रायः अपने कर्म के प्रति दायित्व से भारित न होकर यह भार आस्थास्रोत पर डाल देता है और वह स्वयं को दायित्व से मुक्त अनुभव करता है.
इस प्रकार हम पाते हैं कि अधीनता और आस्था में कुछ साम्य है - व्यक्ति का स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति का. तथापि इन दोनों में जो महत्वपूर्ण अंतराल है वह है विवशता और स्वेच्छा का. अधीनता का कारण विवशता होती है किन्तु आस्था स्वेच्छा से स्वीकार की जाती है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्र व्यक्ति भी दायित्व से मुक्ति के लिए आस्था का आश्रय लेता है अथवा ले सकता है.
आस्था सद्गुण है अथवा दुर्गुण, इस पर विचार की आवश्यकता है. आस्था प्रायः सम्मान भाव से उगती है और इसका परिणाम स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति होता है अथवा हो सकता है. उदाहरण के लिए व्यक्ति अपने माता-पिता का सम्मान करता है और उनके प्रति आस्थावान होता है जिसके कारण उनकी आज्ञा का पालन करता है और ऐसे कर्मों के प्रति दायित्व-मुक्त होता है. इसके विपरीत आस्था दायित्व से मुक्ति के लिए स्वीकार की जा सकती है जिसका परिणाम आस्थास्रोत में सम्मान हो सकता है. यथा - व्यक्ति दुष्कर्म करने निकलता है किन्तु उसका भय उसे किसी इष्ट देवता में आस्था व्यक्त करने को विवश करता है जिससे कि वह स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्त अनुभव कर सकता है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि आस्था के दो उद्भव स्रोत हो सकते हैं - सम्मान अथवा दायित्व से मुक्ति. आस्था का कारण यदि स्वकर्म के प्रति दायित्व से मुक्ति है तो इसे दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए, किन्तु यदि आस्था का कारण स्रोत के प्रति सम्मान भाव है तो आस्था सद्गुण सिद्ध होती है. वास्तविक व्यक्तियों में आस्था प्रायः सम्मान से ही उगती है इसलिए सद्गुण होने की अधिक संभावना रखती है. किन्तु किसी काल्पनिक व्यक्ति, शक्ति अथवा वस्तु में आस्था संदेहास्पद हो सकती है क्यों कि इसका कारण वास्तविक सम्मान न होकर दायित्व से मुक्ति हो सकती है. लोगों की ईश्वर अथवा उसके किसी प्रतीक के प्रति आस्था इसी प्रकार की होना संभव है. इस रूप में आस्था व्यक्ति की निर्बलता के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है, जिसे व्यक्ति का आडम्बर भी कहा जा सकता है. अतः आस्था संदेहास्पद हो सकती है.
अनुशासन व्यक्ति का निस्संदेह सद्गुण होता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति स्वयं के कर्मों पर स्वेच्छा से अंकुश लगाता है. इसका स्रोत व्यक्ति की बुद्धि होती है जिसके उपयोग से व्यक्ति अपने कर्म का निर्धारण स्वयं को श्रेष्ठ बनाने हेतु करता है. इस प्रकार अनुशासन आस्था के सापेक्ष उच्च स्थान रखता है. अनुशासन में सम्मान-जनित आस्था भी समाहित होती है जिसमें कोई कृत्रिमता अथवा विवशता भी नहीं होती. अतः अनुशासन ही महामानव का अनिवार्य लक्षण होता है.
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