मंगलवार, 4 मई 2010

लिपि

Fat: An Appreciation of a Misunderstood Ingredient, with Recipesशास्त्रों में उपस्थित शब्द 'लिपि' दो भावों में उपयोग किया गया है. एक भाव में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द  'lipidus'  से बना है जिसका अर्थ चिकनाई वाले द्रव्य जैसे वसा, तेल, घी, आदि है.

दूसरे भाव में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द  lepis   से बना है जिसका अर्थ छिलका अथवा आवरक परत है. इसी भाव में इसे वस्त्रों के लिए भी उपयोग किया गया है. 



आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'लेखन प्रतीक' है जिसका शास्त्रीय शब्द से कोई सम्बन्ध नहीं है.

संस्कार, संस्कृत

Final Examinationशब्द 'संस्कार' और' संस्कृत' प्रायः परस्पर सबंधित माने जाते हैं, किन्तु शास्त्रीय भाषा में ऐसा नहीं है.

किसी भी शब्द के आदि में 'सं' लगा होने का अर्थ होता है कि करता और कर्म साथ-साथ चलित हैं. संस्कार और संस्कृत ऐसे ही शब्द हैं जो लैटिन भाषा के क्रमशः  scar  और  scrut   शब्दों से बनाए गए हैं. इनमें से प्रथम का अर्थ 'दाग' तथा दूसरे का अर्थ 'परीक्षा' है. इस प्रकार शास्त्रों में 'संस्कार' शब्द का अर्थ 'दाग-सहित' और 'संस्कृत' का अर्थ 'परीक्षित होना' है. शास्त्रों में उपस्थित शब्द 'संस्कृत' का आधुनिक भाषा 'संस्कृत' से कोई सम्बन्ध नहीं है. वस्तुतः उस समय संस्कृत नामक कोई भाषा थी ही नहीं. 

स्वचेतना और प्रयोगधर्मिता

अपने बारे में जानने की उत्सुकता तो सभी मनुष्यों में होगी ही - ऐसी व्यापक धारणा है. किन्तु सत्य इसके विपरीत है. मनुष्य प्रायः दूसरों के बारे में जानने के लिए अपने बारे में जानने से अधिक उत्सुक रहते हैं, विशेषकर दूसरों के छिद्रान्वेषण में उन्हें अतीव आनंद  आता है. इसके पीछे एक बलवती धारणा यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने बारे में तो जानता ही होगा. अपने बारे में जानना ही स्वचेतना कहलाता है.

प्रत्येक मनुष्य में कुछ सद्गुण तथा कुछ दुर्गुण होते हैं. अपने सद्गुणों को पहचानना तथा उनका प्रचार-प्रसार करना सभी को अच्छा लगता है किन्तु अपने दुर्गुणों अथवा अपनी निर्बलताओं को पहचानना प्रायः असुविधाजनक होता है इसलिए इसके प्रयास नगण्य ही किये जाते हैं. वस्तुतः किसी मनुष्य की असफलता का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही होता है कि वह अपनी निर्बलताओं को नहीं जानता  है, इसलिए अवांछित दुस्साहस कर बैठता है और असफल होता है. इसलिए अपनी निर्बलताओं को जानना अपनी सबलताओं को जानने से अधिक महत्वपूर्ण होता है. निर्बलताओं को जानकर वह सफल हो या न हो, असफल होने से अवश्य बच सकता है. और यदि व्यक्ति अपनी निर्बलताओं को नष्ट करना चाहे तो उसे अपनी निर्बलताओं को प्रकाशित भी करना होगा - स्वयं के लिए. ऐसा करके ही वह इन्हें दूर करने के लिए सार्थक प्रयास कर सकता है.

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य अपनी निर्बलताओं को स्वयं नहीं पहचानता, इसके लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है - विशेषकर व्यसन जैसी उन निर्बलताओं को जो उसकी आदत में समाहित हो गयी होती हैं. इसी लिए किसी कवि ने कहा है -

निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छबाय,
बिन पानी साबुन बिना निर्मल हॉट सुभाय.

अर्थात आलोचक को समीप रखने से अपने स्वभाव की समीक्षा और उसका परिष्कारण हो सकता है.

सही आलोचक वही होता है जो मनुष्य की निर्बलताओं और सबलताओं दोनों को पहचाने, क्योंकि निर्बलताओं का दमन सबलताओं के माध्यम से ही होता है. जो आलोचक केवल छिद्रान्वेषी होते हैं, वे मनुष्य में निर्बलताओं के प्रति हीन भावना उत्पन्न करते हैं किन्तु उससे उबरने में सहायक नहीं होते. इसलिए निंदकों के प्रति भी सचेत रहना चाहिए.  

मनुष्य का अपनी  निर्बलताओं को जानना जितना आवश्यक होता है, उतना ही आवश्यक अपनी सबलताओं को जानना होता है. अन्यथा सबलताओं का सदुपयोग ही नहीं हो पाता. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य अपनी सबलताओं को भली-भांति जानता है किन्तु परिस्थितियोंवश उनका सदुपयोग नहीं कर पाता. इससे मनुष्य में अवसाद और निराशा उत्पन्न होते हैं.

अपनी सबलताओं का आकलन तभी होता है जब उनके व्यवहारिक उपयोग के प्रयास किये जाएँ. बहुधा ऐसा होता है कि मनुष्य को अपनी सबलता के बारे में सकारात्मक भ्रम होता है किन्तु जब उस सबलता के परीक्षण का समय आता है तो मनुष्य असफल होता है और उसका भ्रम दूर होता है. असफल होकर भ्रम दूर करना बुद्धिमत्ता नहीं है, इसलिए सबलता के व्यवहारिक उपयोग से पूर्व ही व्यक्ति को उसका परीक्षण कर लेना चाहिए. इस में व्यक्ति का प्रयोगधर्मी होना अत्यधिक सहायता करता है.

व्यक्ति का प्रयोगधर्मी होना भी उसकी एक सबलता होती है. इसी के माध्यम से व्यक्ति अपनी सबलताओं और निर्बलताओं का सही आकलन कर सकता है. अनजाने निर्जन पथों पर अग्रसरण करने का साहस ही प्रयोगधर्मिता का स्रोत होता है. अनजाना पथ वही है जिसपर व्यक्ति पहले कभी न गया हो, तथा निर्जन पथ का आशय उस पथ से है जिस पर कभी कोई न चला हो अथवा जिसपर नगण्य ही कभी चले हों. ऐसे पथों पर चलने हेतु मनुष्य में अदम्य साहस की आवश्यकता होती है. अतः साहस प्रयोगधर्मिता का, और प्रयोगधर्मिता स्वचेतना के मूल होते हैं.

व्यक्ति के प्रयोगधर्मी होने की पृष्ठभूमि यह है कि प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ सबलताएँ अवश्य होती हैं किन्तु इनका ज्ञान होना सहज नहीं होता, कभी-कभी परिस्थितियां भी इनके ज्ञान में बाधक होती हैं. बच्चे प्रायः जो हाथ पड़ता है उसी के विविध उपयोग करने के प्रयास करते हैं, यह उनकी प्रयोगधर्मिता हे होती है जो उन्हें अनजाने पथों पर अग्रसरित करती है. इसीसे यह भी सिद्ध होता है कि प्रयोगधर्मिता मनुष्य की अंतर्चेतना में समाहित होती है किन्तु किन्तु परिस्थितिवश यह उजागर नहीं हो पाती. अतः अंतर्चेतना के स्फुरित होने के लिए परिस्थितियों का दमन भी आवश्यक हो जाता है.

व्यवहारिक जीवन में परिस्थितियों का दमन लगभग असंभव होता है किन्तु प्रायोगिक स्तर पर इन्हें सरलता से अनदेखा किया जा सकता है. अतः प्रयोगधर्मिता परिस्थितियों से मुक्त होती है जिसका उपयोग स्वचेतना के लिए कभी भी किया जा सकता है.

अंत में प्रयोगधर्मिता के बारे में भी कुछ शब्द प्रासंगिक हैं. प्रयोगधर्मिता का अर्थ है - सावधानीपूर्वक दुस्साहस करते हुए अंधे मार्ग पर चलना और पूर्ण संचेतना के साथ परिणामों का पर्यवेक्षण करना. इस प्रकार प्राप्त सकारात्मक परिणाम सबलताएँ और ऋणात्मक परिणाम निर्बलताएँ स्वीकार की जाएँ.       

रविवार, 2 मई 2010

मांग पूर्वाकलन एवं उत्पादन नियोजन

मानव जाति ने अपना समाजीकरण पारस्परिक सहयोग हेतु किया ताकि जंगली प्रतिस्पर्द्धा भावना को समाप्त किया जा सके. समाज बनाकर और सभ्यता विकास कर प्रतिस्पर्द्धा को अपनाना मानव जाति के लिए हानिकर एवं अवांछित है. ऐसी स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब किसी वस्तु की मांग और आपूर्ति में असंतुलन हो, जिसे समुचित नियोजन से समाप्त किया जा सकता है. 

प्रतिस्पर्द्धाएं मानवीय ऊर्जाओं का दुरूपयोग करती हैं जिससे उत्पादन क्षमता का ह्रास होता है और मानव समाज प्रगति पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र मानव समाज से प्रतिस्पर्द्धा को विलुप्त करने हेतु कृतसंकल्प है जिसके लिए प्रतिस्पर्द्धा के मूल कारण मांग और आपूर्ति में असंतुलन को समाप्त किया जायेगा. बौद्धिक शासन व्यवस्था में इसके हेतु एक संवैधानिक आयोग - मांग पूर्वाकलन एवं उत्पादन नियोजन आयोग, का गठन होगा जो प्रत्येक वस्तु एवं सेवा की मांगों का पूर्वाकलन कर देश में तदनुसार उत्पादन का नियोजन करता रहेगा.

उक्त आयोग शासन एवं उद्योगों के लिए एक परामर्शदाता के रूप में कार्य करेगा जिससे उत्पादन इकाइयां अपने उत्पादन नियोजित करने हेतु स्वतंत्र होंगी किन्तु उन्हें समुचित लाभ एवं प्रतिस्पर्द्धा से बचे रहने हेतु मार्गदर्शन उपलब्ध रहेगा.  किन्तु शासन नियोजित निःशुल्क सेवाएँ जैसे स्वास्थ, शिक्षा, न्याय, आदि इसी मार्गदर्शन के अनुरूप संचालित की जायेंगी ताकि इनमें प्रतिस्पर्द्धा पूरी तरह से अनुपस्थित रहे और जन-संसाधनों का समुचित उपयोग किया जा सके. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि असंतुलन के साथ अधिकतम सकल राष्ट्रीय उत्पाद भी लाभकर होने के स्थान पर संसाधनों के दुरूपयोग होने के कारण हानिकर सिद्ध होता है.

बौद्धिक जनतंत्र में निर्यात संवर्धन को कोई महत्व नहीं दिया जाएगा, अपितु इसके स्थान पर प्रत्येक नागरिक को सभी आवश्यक वस्तुएं और सेवाएँ प्राप्त कराना शासन का लक्ष्य होगा. विदेशी व्यावसायिक घराने देश में उत्पादन केवल निर्यात हेतु ही कर सकंगे जिससे कि वे स्थानीय उद्योगों से प्रतिस्पर्द्धा न कर सकें. इसी प्रकार वस्तुओं के आयात को न्यूनतम रखा जायेगा जिसके लिए जो वस्तुएं देश में उपलब्ध है उन्ही को पर्याप्त माना जायेगा अथवा मांग के अनुसार उत्पादन किया जायेगा. सभी नियोजन तदनुसार ही होंगे. केवल तकनीकी के आयात ही सामान्यतः अनुमत होंगे ताकि उनके उपयोग से देश में आधुनिक वस्तुओं के उत्पादन किये जा सकें और लोगों को उपलब्ध कराये जा सकें.    

शनिवार, 1 मई 2010

आरक्षण का विष

भारत के स्वतंत्रता संग्राम की यह एक गंभीर त्रुटि रही कि स्वतंत्रता की मांग करने वालों ने कभी यह विचार नहीं किया कि वे स्वतन्त्रता के बाद इस विशाल और समस्याग्रस्त देश को कैसे चलाएंगे. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता प्राप्ति पर देश का नेतृत्व विभाजित हो देश के हितों की चिंता किये बिना वर्गीय हितों में उलझ गया, जिसमें बाबासाहेब अम्बेदकर ने दलितों के हितों को लेकर बवंडर खडा कर दिया और उनके नाम पर देश के विभाजन की मांग उठायी. उनकी तुष्टि के लिए सौदेबाजी हुई और उन्हें संविधान में दलित हितों की सुरक्षा के उपाय करने के आश्वासन के साथ विधान सभा का अध्यक्ष बना दिया गया. परिणामस्वरूप अनुसूचित और जन जातियों के लिए १० वर्ष तक शिक्षा और राज्य नियुक्तियों में आरक्षण के प्रावधान कर दिए गए. यह कदम दलितों के हितों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त समझा गया.

आरक्षण के आरम्भ में नियत १० वर्ष व्यतीत होने पर संविधान का पुनः संशोधन किया गया और आरक्षण प्रावधान अगले १० वर्षों के लिए बढ़ा दिए गए. इसी प्रकार प्रत्येक १० वर्ष बाद ये प्रावधान अगले १० वर्षों के लिए बार-बार बढ़ाये जाते रहे हैं और आज स्वतन्त्र संविधान के लागू किये जाने के ६० वर्ष बाद आरक्षण भारतीय संविधान और शासन प्रणाली का अभिन्न अंग बन गया है.

इसी अवधि में भारतीय समाज में एक नया वर्ग 'पिछड़ी जातियों' का बनाया गया जिसके लिए प्रथाकारक्षण प्रावधान किये गए.  अभी हाल ही में स्त्रियों को भारतीय सामान्य समाज से प्रथक कर उनके लिए १/३ स्थानों का आरक्षण किया गया है.  इस प्रकार में वर्तमान में लगभग ६७ प्रतिशत स्थान आरक्षित हैं, जब कि शेष ३३ प्रतिशत स्थान सभी वर्गों के लिए खुले हैं जिनमें अनुसूचित जातियां, जनजातियाँ, पिछड़ी जातियां तथा महिलायें भी सम्मिलित हैं. अतः व्यवहारिक स्तर पर सामान्य वर्ग के पुरुषों के लिए शिक्षा संस्थानों, राजकीय सेवाओं, पंचायतों, विधायिकाओं, आदि में नगण्य स्थान उपलब्ध हैं जिसके फलस्वरूप वे ही आज के शोषित वर्ग में हैं.

आरक्षण के इन ६० वर्षों का अनुभव निम्नलिखित बिन्दुओं से प्रदर्शित किया जा सकता है -
  1. शिक्षा के अभाव में जनजातियाँ आरक्षण का नगण्य लाभ उठा पाई हैं, और वे जिस स्थिति में ६० वर्ष पहले थीं आज भी उसी स्थिति में हैं.
  2.  अनुसूचित जातियों में से जाटव जाति की लगभग १० प्रतिशत जनसँख्या विकास कर पायी है, इसके सदस्यों ने उच्च शासकीय पद प्राप्त किये हैं,  तथा अपनी आर्थिक स्थिति सुधारी है. यही जनसँख्या देश के धनाढ्य वर्ग में सम्मिलित है, तथापि आरक्षण के सभी प्रावधानों का बारम्बार लाभ उठाती जा रही है. शेष ९०प्रतिशत जाटव आज भी उसी स्थिति में हैं जहाँ ६० वर्ष पूर्व थे. 
  3. शिक्षा और जागरूकता के अभाव में अनुसूचित जाति की हरिजन जाति आरक्षण का कोई लाभ नहीं उठा पायी है.
  4. राजनैतिक स्वार्थों के आधार पर देश की पिछड़ी जातियों में अनेक धनाढ्य और भूमिधर जातियां भी सम्मिलित कर ली गयी हैं  जो इस वर्ग के समस्त आरक्षण प्रावधानों का लाभ उठा रही हैं और वास्तविक पिछड़े लोगों को आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है.
  5. आरक्षण से अयोग्य व्यक्ति प्रशासनिक और तकनीकी दायित्वों के पदों पर पहुँच रहे हें जिससे देश का प्रशासन और तकनीकी सञ्चालन ठीक नहीं हो रहा है. 
  6. सामान्य वर्ग के सुयोग्य व्यक्तियों को देश में कोई रोजगार नहीं मिल रहे हैं और वे देश से पलायन करने को बाध्य हैं, जिससे उनकी शिक्षा-दीक्षा पर किये गए व्यय का देश को कोई लाभ नहीं मिल रहा है, जिसका लाभ अनेक देश उठा रहे हैं.
  7. आरक्षण और अन्य कल्याण योजनाओं के कारण कुछ लोगों को बिना परिश्रम किये अप्रत्याशित लाभ प्राप्त हो रहे हैं, जिससे उनमें भिखारी की मानसिकता विकसित हो गयी है और वे परिश्रम से विमुख हो गए हैं. देश की उत्पादकता इससे कुप्रभावित हुई है.     
  8. आरक्षण से देश के सवर्ण वर्ग में आरक्षित वर्गों के प्रति घराना की भावना पनपी है जिससे आरक्षित वर्ग का सामाजिक सम्मान कम हुआ है.
  9. और उक्त सभी कारणों से देश में भृष्टाचार निरंतर संवर्धित होता जा रहा है.
इन कारणों से आरक्षण देश के लिए एक विष की भांति कार्य कर रहा है जिससे विश्व विकास की तुलना में देश पिछड़ता जा रहा है.  अतः आरक्षण के वर्तमान प्रावधानों की राष्ट्र हित में समीक्षा किये जाने की अतीव आवश्यकता है. यदि समाज के पिछड़े वर्गों को वास्तव में आगे बढ़ाना है तो उन्हें और अधिक  शिक्षा सुविधाएं दी जानी चाहिए ताकि वे आजीविका हेतु अन्य वर्गों के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर सकें और समाज में सम्मानित जीवन जी सकें.  

    शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

    व्यक्तिपरक एवं लक्ष्यपरक विचार

    किसी भी विषय पर कोई व्यक्ति दो प्रकार से विचार कर सकता है - स्वयं के सापेक्ष अथवा लक्ष्य के सापेक्ष. उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आपको निर्णय लेना है कि आगामी चुनाव में किस प्रत्याशी को अपना मत देना है. इसका निर्णय आप दो आधारों पर कर सकते हैं - स्वयं के हिताहित पर विचार करके, अथवा प्रत्याशियों के सद्गुणों तथा दुर्गुणों पर विचार करके. प्रथम विचार को व्यक्तिपरक एवं द्वितीय विचार को लक्ष्यपरक  कहा जाता है.

    साधारणतः लक्ष्यपरक विचार को ही श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि व्यक्तिपरक विचार व्यक्ति के निजी स्वार्थों पर आधारित होता है. इस दृष्टि से बहुधा कहा जाता है कि व्यक्ति को व्यक्तिपरक न होकर लक्ष्य्परक ही होना चाहिए. सैद्धांतिक रूप में यह सही है किन्तु व्यवहारिक रूप में गहन चिंतन से ज्ञात होता है कि कोई भी व्यक्ति व्यक्तिपरक होने से मुक्त नहीं हो सकता चाहे वह कितना भी लक्ष्यपरक होने का प्रयास करे. उसके निर्णय में सदैव उसके अपने व्यक्तित्व की छाप अवश्य उपस्थित रहती है. उपरोक्त चुनाव संबंधी उदाहरण को ही देखें और मान लें कि व्यक्ति पूर्ण रूप से लक्ष्यपरक होने का प्रयास करता है और मतदान के लिए प्रत्याशियों के गुणों पर विचार करता है. चूंकि व्यक्ति गुणों का आकलन स्वयं की बुद्धि से ही करता है, इसलिए इस विषयक उसका चिंतन व्यक्तिपरक होने से मुक्त नहीं हो सकता.

    इसका तात्पर्य यह है कि लक्ष्यपरक होना एक आदर्श अवधारणा है और व्यक्ति को यथासंभव निजी स्वार्थों से मुक्त होकर ही निर्णय लेने चाहिए विशेषकर ऐसी स्थितियों में जब निर्णय व्यक्तिगत विषय पर न हो. इसका अर्थ यह भी है कि व्यक्ति कदापि अपने बौद्धिक स्तर से मुक्त नहीं हो सकता, उसके प्रत्येक कार्य-कलाप पर उसकी बुद्धि का प्रभाव पड़ता ही है. इसी आधार पर व्यक्ति की बुद्धि को ही उसका सर्वोपरि एवं अपरिहार्य संसाधन माना जाता है.

    इसी से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि व्यक्ति का बौद्धिक विकास ही उसके और मानव समाज के लिए सर्वाधिक महत्व रखता है और इसी के कारण मनुष्य अन्य जीवधारियों से श्रेष्ठ स्थिति में है. बुद्धिसम्पन्न व्यक्ति का व्यक्तिपरक होना भी कोई दुष्प्रभाव नहीं रखता, जब कि बुद्धिहीन व्यक्ति लक्ष्य्परक हो ही नहीं सकता. अतः व्यक्तिपरक अथवा लक्ष्य्परक होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना व्यक्ति का बुद्धिसम्पन्न होना होता है.

    इन्ही अवधारानाओं से सम्बंधित एक अन्य अवधारणा पर विचार करना भी यहाँ प्रासंगिक है, और वह है व्यक्ति का स्वकेंद्रित होना, जो व्यक्तिपरक होने से भिन्न भाव रखता है. व्यक्तिपरक विचार में व्यक्ति स्वयं के हितों के अनुसार निर्णय लेता है, जबकि स्वकेंद्रित व्यक्ति प्रत्येक विषय वस्तु में स्वयं को ही केंद्र मानता है. इसे एक व्यवहारिक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है. मेरा एक मित्र है - बहुत अधिक संवेदनशील किन्तु पूर्णतः स्वकेंद्रित. एक दिन मैं अपने उद्यान से कुछ आलूबुखारा फल लेकर उसके घर पहुंचा. फलों का आकार व्यावसायिक फलों से बहुत छोटा था. उन्हें देखते ही वह बोला - 'ये तो बहुत छोटे हैं, हमारे उद्यान में तो बहुत बड़े फल लगते हैं'. जबकि मुझे यह जानने में कोई रूचि नहीं थी कि उसके उद्यान के फल छोटे हैं या बड़े, क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि उसने जो एक-दो वृक्ष लगा रखे हैं उनमें आलूबुखारा फल के वृक्ष हैं ही नहीं. वह भी यह जानता है किन्तु उसने उपरोक्त झूंठ इसीलिये बोला क्योंकि वह अपनी आदत के अनुसार इस विषय में भी स्वयं को ही केंद्र में रखना चाहता था.

    स्वकेंद्रित व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का विषयवस्तु के केंद्र में होना सहन नहीं कर पाता और वह भरसक प्रयत्न करता है कि वह विषयवस्तु को स्वयं पर ही केन्द्रित करे, चाहे उसे विषयवस्तु में परिवर्तन करना पड़े अथवा झूंठ बोलना पड़े. इस प्रकार व्यक्तिपरकता का गुण व्यक्ति की विचारशीलता का विषय होता है जबकि स्वकेंद्रण व्यक्ति के व्यक्तित्व का एक दोष होता है.