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मंगलवार, 24 मार्च 2015

वैदिक एवं आसुरी धार्मिक संस्कृत

अब से लगभग 2700 वर्ष पूर्व देव विद्वानों ने भारतीय उपमहाद्वीप को एक राष्ट्र के रूप में विकसित करने की संकल्पना की थी। उन्होंने इस क्षेत्र को विश्व में सर्वाधिक सम्पन्न  ही नहीं बनाया था अपितु इस क्षेत्र को विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि – देवनागरी, भी दी जो जनसामान्य को लिखित संवाद की सुविधा प्रदान करने के साथ-साथ देवों को अपने अनुभव सूत्र रूप में सुरक्षित करने में भी उपयोगी सिद्ध हुई थी। इस लिपि के माध्यम से एक ही पाठ्य में विविध विषयों से सम्बद्ध अनेक अर्थ समाहित किये जा सकते हैं जिन्हें गुप्त भी रखा जा सकता है ताकि शत्रु इन्हें न समझ सकें किन्तु समधर्मी लोग इन अर्थों को प्राप्त कर सकें।
देवों का नेतृत्व पुरूरवा के दो युगलों में उत्पन्न चार पुत्र ब्रह्मा तथा राम, एवं विष्णु तथा लक्ष्मण कर रहे थे।  जिनकी प्राथमिकता लोगों को स्वस्थ रखना थी ताकि वे स्वावलम्बी बन क्षेत्र के विकास में अपना भरपूर योगदान दे सकें। इसके लिए उन्होंने विश्व के प्रथम स्वास्थ-विज्ञान आयुर्वेद की स्थापना की और उस पर वृहद साहित्य तैयार किया।
साम्राज्यवाद
क्षेत्र की सम्पन्नता से लालायित होकर अनेक जंगली जातियां, यथा यदु, असुर, द्रविड़, रावण, एवं, आदि भी यहां आईं जो यहां के लोगो पर अपना शासन स्थापित कर उनके परिश्रम से प्राप्त सम्पदा पर वैभव भोग कर सकें। यही उनके द्वारा प्रोन्नत साम्राज्यवादी शासन का लक्ष्य होता है जिसमें लोगों को समस्याग्रस्त रखकर उन्हें परावलम्बी बनाया जाता है तथा उनसे पशुतुल्य श्रम कराया जाता है। सुविधा के लिए ये सभी जातियां असुर रूप में ही संगठित हुई जिनका नेतृत्व एक यदुवंशी के हाथ में था।  साम्राज्यवादी शासन सदैव किसी धर्म् के पाखण्ड द्वारा लोगों में हीन भावना विकसित कर उनपर राजनैतिक शासन स्थापित करने से पहले मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित किया जाता है।
वैदिक संस्कृत
चूंकि स्वस्थ, सम्पन्न एवं स्वावलम्बी लोगों पर शासन और उनका शोषण करना दुष्कर होता है, इसलिए शासन-लोलुप जातियां देवों द्वारा रचित स्वास्थ-परक साहित्य को नष्ट कर देतीं थीं। अतः भारत भूमि पर असुरों के आगमन के पश्चात इस प्रकार का साहित्य रचा गया जो बाह्य रूप में असुर समर्थक प्रतीत होता है किन्तु गूढ़ रूप में लोक-हितकारी अर्थ रखता है। इस प्रकार का देव साहित्य अपने गुप्त लेखन के कारण आज तक सुरक्षित है जिसके अंतिम पड़ाव विष्णु-पुराण, भावप्रकाश तथा अर्थशास्त्र हैं।
वर्तमान सन्दर्भ में इस प्रकार के साहित्य की भाषा को ही वैदिक संस्कृत कहा जाता है जिसमें प्रत्येक वर्ण तथा उसपर अंकित चिन्हों के रहस्यात्मक अर्थ होते हैं। इस प्रकार के बहुअर्थी लेखन के अर्थ पाना दुष्कर होता है, जिसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि विगत 2000 वर्षों में यह साहित्य उपलब्ध होने पर भी सही अनुवादित  नहीं किया गया। इस लेखक ने वैदिक संस्कृत के शोध पर अपने जीवन के २२ वर्ष लगाए है, तब जाकर इसके रहस्यात्मक अर्थों को समझने में सफलता पायी है, जिसके आधार पर वैदिक ग्रन्थ भावप्रकाश का  अनुवाद आरम्भ किया गया है।
धार्मिक संस्कृत
वैदिक साहित्य के सही अनुवाद न होने का एक कारण इसका दुष्कर होना अवश्य है, किन्तु इसका प्रमुख कारण  धर्मावलम्बी साम्राज्यवादियों द्वारा एक अन्य संस्कृत का प्रचलन किया जाना रहा जिसमें वैदिक शब्दावली का ही उपयोग किन्तु भिन्न अर्थों के साथ किया जाता है। इस भाषा में वैदिक साहित्य के विकृत अर्थ प्रकाशित एवं बहुप्रचारित किये गए जिससे लोग वैदिक साहित्य को भी धर्म-समर्थक मानने लगे जबकि वैदिक मत एवं साहित्य पूर्णतः वैज्ञानिक रूप में किये गए परिश्रम के माध्यम से प्रगति के पक्षधर हैं। धार्मिक संस्कृत का प्रतिपादक एवं प्रथम इस भाषा का प्रथम लेखक शंकर था जो मूलतः असुर था। इसी ने ऐसा वृहद साहित्य रचा जो वैदिक साहित्य के दूषित अर्थ प्रतिपादित करता रहा है तथा जिसके कारण वैदिक साहित्य के सही अर्थ पाने के गंभीर प्रयास नहीं हुए।
ब्राह्मणवाद
यद्यपि भारत भूमि पर प्रथम धर्म् यदुवंशियों द्वारा लाया गया यहूदी धर्म् था, किन्तु यहां बहुप्रचारित धर्म् शंकर द्वारा प्रतिपादित सनातन धर्म् तथा सिद्धार्थ द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म् रहे। इसी सिद्धार्थ ने गौतम बुद्ध की पत्नि अहिल्या को छल कर उसे गर्भवती किया था जिसके कारण उसे उसके पिता शाक्य सिंह ने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था। इसके बाद वह कृष्ण का सहयोगी बन श्रीलंका द्वीप पर बस गया था। धार्मिक सिद्धांत की दृष्टि से शंकर एवं सिद्धार्थ परस्पर विरोधी क्रमशः ईश्वरवादी एवं अनीश्वरवादी थे , तथापि दोनों साम्राज्यवादी होने के कारण देवा विरोधी थे और कृष्ण के सहयोगी थे।
सनातन धर्म् के प्रचार के लिए शंकर ने प्रसिद्ध आतंकवादी एवं स्त्री अपहरणकर्त्ता रावणों का सहयोग लिया जिनके अपहृत स्त्रियों से उत्पन्न अवैध पुत्र ब्राह्मण कहलाये। इसी कारण से आधुनिक ब्राह्मण भी रावण को विद्वान के रूप में प्रचारित करते हैं। शंकर के मार्गदर्शन में ये ही धर्म् के प्रमुख प्रचारक के रूप में स्थापित हुए। यहूदी और सनातनधर्मी ही बाद में हिन्दू कहलाये।
संस्कृत की उपयोगिता
आधुनिक काल में धार्मिक संस्कृत का उपयोग केवल भृष्ट धार्मिक साहित्य के अर्थ पाने के लिए ही किया जा सकता है, जिससे समाज का अहित ही होगा । अन्यथा इसके आधार पर किसी युवा के भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। वैदिक संस्कृत का उपयोग भी प्रमुखतः वैदिक साहित्य के अनुवाद में ही किया जा सकता है जिससे मानव समाज को बहुविध लाभ होगा, विशेषकर इस भाषा में लिखित आयुर्वेद द्वारा जिसमें मनुष्य जाति को 500 वर्ष स्वस्थ जीवन प्रदान करने की सामर्थ्य निहित है।  इसी कारण से वैदिक विद्वानों ने इस ज्ञान  से  मानव-शत्रु असुरों को अनभिज्ञ रखने का निर्देश दिया है।