मंगलवार, 16 मार्च 2010

आतुर

What Do Authors Do?शास्त्रीय उपयोग में लिया गया शब्द 'आतुर' लैटिन भाषा के शब्द 'autor' से उद्भूत है जिसका अर्थ 'अधिकृत ज्ञान के आधार पर लेखन कार्य करने वाला व्यक्ति' है जिसे हिंदी में सामान्यतः 'लेखक' कहा जाता है, किन्तु किसी भी प्रकार का लेखन कार्य करने वाले व्यक्ति को भी लेखक कहा जा सकता है. वस्तुतः हिंदी में 'अधिकृत ज्ञान के आधार पर लेखन करने वाले व्यक्ति को 'आतुर' कहा जाना चाहिए. अतः शास्त्रों में जिन व्यक्तियों को आतुर कहा गया है, वे सभी उच्च कोटि के लेखक थे.
लैटिन के शब्द 'औटर' से ही आधुनिक अंग्रेज़ी शब्द 'author' बना है जिसका अर्थ 'writer' से भिन्न होता है.

चर, चरित, चरित्र

Soldier of Loveभारतीयों वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्द चर, चरित और चरित्र परस्पर सम्बंधित हैं और लैटिन भाषा के शब्दों cars, caritas, से उद्भूत हैं जिनके अर्थ क्रमशः .'प्रिय' एवं 'प्रेम' हैं. इन्ही से फ्रांसीसी भाषा का शब्द चरित्रे बना है जिसका अर्थ 'परोपकार' है जो प्रेम से ही उत्पन्न होता है. अतः शास्त्रीय शब्द चर का अर्थ 'प्रिय', तथा चरित का अर्थ 'प्रेम' हैं. चरित्र शब्द क्रिया शब्द है जिसका अर्थ 'प्रेम करना' है.

रविवार, 14 मार्च 2010

अकबर के मकबरे का छल

आगरा से लगभग ८ किलीमीटर की दूरी पर एक ऐतिहासिक स्थल है 'सिकन्दरा', जहां एक विशाल प्रांगण में अति भव्य भवन स्थित है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा इसे अकबर के मकबरे के नाम से प्रचारित किया जाता रहा है. इस के केन्द्रीय भवन में एक कब्र बनी है जिसपर तैनात एक मुस्लिम अपनी चन्दा वसूली करता रहता है. इसी भवन के एक बरामदे में दो कब्रें और बनी हैं जिन्हें अलबर की पुत्रियों की कब्रे कहा जाता है. इसी भवन के चारों ओर भव्य बरामदे हैंजिनकी भूमि खोखली है अर्थात नीचे भी कक्ष बने हैं. यह खोखलापन पदचापों की प्रतिध्वनियों से स्पष्ट हो जाता है. 

इस प्रांगन का मुख्य द्वार स्वस्तिक चिन्हों से सुशोभित है और अनेक सह-भवनों के पत्थरों पर अनेक पशु, पक्षी, वस्तु आदि के चित्र अंकित हैं. मैं लगभग पांच वर्ष पूर्व वहाँ गया था और समस्त प्रांगण की भव्यता एवं चित्रकारी से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि इस का सम्बन्ध किसी मुस्लिम से है, विशेषकर सर्वाधिक विलासी अकबर से. मैंने इस बारे में वहा तैनात पुरातत्व अधिकारी से बातचीत की.
 
मेरा पहला प्रश्न था कि अकबर का मकबरा किसने बनवाया, उसका पुत्र तो ऐसा कार्य कर नहीं सकता क्योंकि उसने तो अकबर से विद्रोह कर सत्ता हथियाती थी. इसका उत्तर जो मुझे दिया गया वह आश्चर्य काकित करने वाला है. उत्तर था - 'अकबर ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने लिए यह मकबरा बनवाया था.

मेरा दूसरा प्रश्न था कि एक कट्टर मुस्लिम के मकबरे पर स्वस्तिक चिन्ह और जीवों के चित्रों के अंकन का क्या रहस्य है? इसका उत्तर मिला कि अकबर सभी धर्मों का सम्मान करता था. इस पर मैंने पूछा कि इस सम्पूर्ण प्रांगण में मुझे कोई मुस्लिम प्रतीक दिखाइए, और मुझे इसका लोई उत्तर नहीं दिया गया. वस्तुतः संपूर्ण प्रांगण में कोई इस्लामिक चिन्ह उपस्थित नहीं है.

मेरा तीसरा प्रश्न था कि ज्ञात इतिहास के अनुसार अकबर निःसंतान था और किसी सूफी की कृपादृष्टि से ही उसकी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ था. (वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसी कतिप का अर्थ मैथुन क्रिया ही होता है, जो अकबर के विरुद्ध विद्रोह का भी कारण हो सकता है.) अतः अकबर की कोई पुत्री थी ही नहीं पुत्रियों की कब्र कैसे बन गयीं. उपस्थित अधिकारी के पास इसका भी कोई उत्तर नहीं था.

इस सब का अर्थ यही है कि उक्त भवन अकबर का मकबरा नहीं है और न ही इसे भारत पर मुस्लिम शासन की अवधि में निर्मित किया गया. स्वस्तिक चिन्ह इसे देव जाति द्वारा निर्मित भवन सिद्ध करता है. राम की पत्नी का वास्तविक नाम 'स्वस्तिका' था  इसी आधार पर स्वस्तिक शब्द का अर्थ 'स्वास्थ' लिया जाता है क्योंकि उनके मुख लेखन स्वास्थ संबंधी है. देवों द्वारा भारत के विकास के समय लिखे गए अधिकाँश शास्त्र स्त्रियों द्वारा ही लिखे गए थे. अतः उक्त भवन राम की पत्नी स्वस्तिका का स्मारक है. इसी का एक अन्य प्रमाण इसी संलेख पर अगले आलेख में पढ़िए. .  

क्लिष्ट, क्लिष्टाक्लिष्टा

क्लिष्ट 
वेदों और शास्त्रों में 'क्लिष्ट' शब्द ग्रीक भाषा के शब्द 'kleistos' से लिया गया है जिसका अर्थ 'बंद' है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'कठिन' है जो वेदों और शास्त्रों के हिंदी अनुवादों में उपयोग करना गलत है.

क्लिष्टाक्लिष्टा 
पतंजलि योगसूत्र तथा संभवतः अन्य शास्त्रों में उपस्थित यह शब्द तत्कालीन भाषा विज्ञानं का शिक्षाप्रद  उदहारण है. क्लिष्ट शब्द के मौलिक अर्थ के अनुसार 'क्लिष्टाक्लिष्टा' का अर्थ 'बंद के अंतर्गत बंद' अर्थात 'परत दर परत बंद' है जो वानस्पतिक सन्दर्भों में 'बंद-गोभी' के लिए है. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि वह समय भाषाओँ के उदय का समय था और प्रत्येक वस्तु के लिए प्रथक शब्द विकसित नहीं हुए थे, अतः वस्तुओं को उनके विशिष्ट गुणों के माध्यम से व्यक्त किया गया.      

शनिवार, 13 मार्च 2010

महिला आरक्षण का षड्यंत्र

 महिलाओं के लिए विधायिकाओं में एक तिहाई स्थान प्रदान करने वाला आरक्षण बिल राज्यसभा में पारित हो गया, जो प्रत्यक्ष अनुभवों से कुछ भी न सीखने का सटीक उदाहरण है. पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण पहले से ही लागू है और इसके परिणाम घोर निराशाजनक सिद्ध हुए हैं.

मेरे गाँव के प्रधान एक निरक्षर महिला है और ऐसी ही एक महिला विकास खंड की प्रमुख है. मैं गाँव में ही रहता हूँ किन्तु मैंने कभी ग्राम प्रधान को कभी नहीं देखा क्योंकि वह घूँघट में रहती है. उसका निरक्षर एवं शराबी पति ही प्रधान की भूमिका का निर्वाह करता है. ग्रामवासियों को शराब पिलाकर ही उसने यह पड प्राप्त किया था जो भारत में जनतंत्र की वास्तविक स्थिति है. अन्य प्रत्याशी कुछ साक्षर थे और सौम्य भी, वे इस सीमा तक नहीं गिर सके और चुनाव में पराजित हो गए.

विकास खंड कार्यालय में भी मुझे यदा-कदा जाना होता है, किन्तु मैंने कभी भी वहां प्रमुख महोदया को नहीं पाया, उसके लिए निर्धारित कुर्सी पर उसके पति ही विराजमान पाए जाते हैं. उन्होंने चुनाव में विजय के लिए प्रत्येक सदस्य को एक-एक लाख रुपये दिए थे और उन्हें लगभग १५ दिन ऋषिकेश के एक आश्रम में कैद करके रखा था.

ये महिला आरक्षण के व्यवहारिक पक्ष हैं और ऐसा ही कुछ विधायिकाओं में होगा. वहाँ सदस्य महिलाओं के पति उपस्थित तो संभवतः न हों किन्तु सडन के बाहर के सभी कार्य उनके पति ही करेंगे. ऐसे अनुभवों और संभावनाओं पर भी महिला आरक्षण पर बल दिया जा रहा है, इसका कुछ विशेष कारण तो होगा ही. आइये झांकें इसके यथार्थ में.

यह सर्वविदित है कि भारत के राजनेताओं की सपरिवार सत्ता में बने रहने की भूख अमिट और असीमित है  अनेक परिवारों के कई-कई सदस्य विधायिकाओं में विराजमान देखे जा सकते हैं. इस पर भी ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि विधायिकाओं में उनके परिवारों के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति प्रवेश न कर पाए, क्योंकि जितने अधिक परिवार वहाँ होंगे, राजनेताओं के कुत्सित व्यवसायों की सफलताओं में उतनी ही अधिक अनिश्चितता आयेगी. इनमें वे और केवल उनके परिवार ही उपस्थित रहें, महिला आरक्षण इसमें उनकी सहायता करेगा. 

भारत के लगभग सभी राजनैतिक दल राजनेताओं की जागीरें हैं जहाँ उनके एक छात्र शासन चलते हैं. विधायिकाओं में प्रवेश के टिकेट इन्हीं जागीरों से निर्धारित किये जाते हैं. महिलाओं के लिए आरक्षण न होने से अनेक बाहरी व्यक्ति भी इन जागीरदारों से अनुनय-विनय करके विदयिकाओं में प्रवेश पाने के प्रयास करते हैं. विधायिकाओं में महिला आरक्षण से पति-पत्नी दोनों ही चुने जाने के प्राकृत रूप से अधिकारी हो जायेंगे, अथवा प्रवेश टिकेट ऐसी अन्य मेलों को दिए जायेंगे जो पत्नी न होकर परनी-समतुल्य भूमिका का निर्वाह करने को तत्पर हों. इससे राज्नाताओं के सुविधा-संपन्न जीवन और अधिक सुविधा-संपन्न बन सकेंगे. 

मानव भाव अभिव्यक्ति

मनुष्यता की दो पहचानें मानवता को पशुता से प्रथक करती हैं - समाजीकरण एवं भाषा विकास. समाजीकरण का मूल मन्त्र कार्य विभाजन के साथ परस्पर सहयोग है, जबकि भाषा विकास का मूल भाव और शब्द का सम्बन्ध है. इन्ही दो माध्यमों से मानव समाज से महामानावोदय की संभावना है. सहयोग की चर्चा इस संलेख पर की जा चुकी है,  यहाँ प्रस्तुत है भाव और शब्द संबंधों की समीक्षा.

अभी कुछ दिन पूर्व एक आर्य समाज अनुयायी से मिलाना हुआ और उन्होंने मुझे बताया कि आर्य समाज की दृष्टि में विदों की ऋचाएं बनाने के बाद ऋषियों ने उनके अर्थ बनाये जिसके कारण ऋषि उन ऋचाओं के दृष्टा कहलाए. यह तो मैं निश्चित रूप में नहीं कह सकता कि यह आर्य समाज का अधिकृत दृष्टिकोण है किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि इससे अधिक मूर्खतापूर्ण दृष्टिकोण किसी लेखन के बारे में मुझे अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ है. शब्द कदापि अपने भाव से पूर्व अस्तित्व आ ही नहीं सकता.

भाषा विकास और उपयोग की यात्रा में सबसे पहले कोई भाव उदित होता है तदुपरांत उस भाव को व्यक्त करने हेतु शब्दों की रचना की जाती है. यही प्रक्रिया प्रत्येक भाषा की संदाचना में अपनाई जाती है और यही विकसित भाषा के उपयोग में लेखन प्रक्रिया में.

आधुनिक काल में भाषा और लिपि को प्रथक-प्रथक माना जाता है किन्तु जिस समय मानवों ने अपने उपयोग हेतु भाषा विकास आरम्भ किये उस समय इन दोनों को प्रथक नहीं माना जाता था, प्रत्येक भाषा की एक निर्धारित लिपि होती टी और उसे भी भाषा के अंग के रूप में ही जाना जाता था. इस कारण उस काल में लिपि शब्द का उद्भव नहीं हुआ था. उदाहरण के लिए भारत इतिहास के आरंभिक काल में देवनागरी को ही भाषा कहा जाता था जिसमें लिपि, शब्द, और व्याकरण अंगों के रूप में सम्मिलित किये गए. उस काल की देवनागरी भाषा को आज वैदिक संस्कृत कहा जाता है. वस्तुतः 'लिपि' शब्द की आवश्यकता उस समय हुई जब एक ही लिपि के उपयोग से भावों को व्यक्त करने हेतु अनेक भाषाओँ का विकास हुआ. वैदिक संस्कृत, आधुनिक संस्कृत और हिंदी तीनों भाषाएँ देवनागरी लिपि पर आधारित हैं. इन तीन भाषाओँ में शब्दार्थ एवं व्याकरण नियम भिन्न हैं. वर्तमान अध्ययन में हम लिपि को भाषा से प्रथक नहीं मान रहे हैं, अर्थात लिपि, शब्द और व्याकरण तीनों को हम भाषा के अंग ही कहेंगे. इसलिए 'लिपि' शब्द की हमें आगे आवश्यकता नहीं होगी.

भाषा विकास में सबसे पहले अक्षर अर्थात ध्वनियों की अभिव्यक्तियों के लिए लिखित प्रतीक चुने जाते हैं, जिनके संग्रह को वर्णमाला कहा जाता है. इसके बाद उदित प्रत्येक अर्थ के लिए एक शब्द चुना जाता है और इन दोनों के समन्वय को शब्दार्थ कहा जाता है. शब्दों के सार्थक समूह को वाक्य कहते हैं जिनकी संरचना के नियमों को व्याकरण कहा जाता है. इसके बाद उदित भावों को अभिव्यक्त करने हेतु वाक्यों की रचना की जाती है. इस प्रकार प्रत्येक भाषा के तीन अंग होते हैं - वर्णमाला, शब्दार्थ और व्याकरण. अक्षर, शब्द और वाक्य अभिव्यक्तियों के केवल प्रतीक होते हैं, मूल अभिव्यक्ति नहीं. इनकी मूल अभिव्यक्तियाँ क्रमशः ध्वनि, अर्थ और भाव होते हैं.

मस्तिष्क में सबसे पहले कोई भाव उदित होता है, उसे अभिव्यक्त करने हेतु अर्थ चुने जाते हैं. प्रत्येक अर्थ के लिए एक शब्द चुना जाता है. प्रत्येक शब्द ध्वनियों का सार्थक समूह होता है तथा प्रत्येक ध्वनि की अभिव्यक्ति हेतु अक्षर चुना जाता है. इस प्रकार अक्षरों के सार्थक समूहन से शब्द बनाते हैं और शब्दों के सार्थक समूहन से वाक्य बनते हैं.

यद्यपि भाव अभिव्यक्ति मानवीय कर्म है किन्तु यह इतना महत्वपूर्ण है कि जीव जगत में यह ही मानवता की विशिष्ट पहचान है. अर्थात समस्त जीव जगत में केवल मानव ही अपने भावों की लिखित अभिव्यक्ति से संपन्न हैं. महामानवता को इससे भी आगे जाना होगा किन्तु यह तभी संभव होगा जब कोई मानव पूरी तरह इस प्रक्रिया से आत्मसात होगा. यही महामानवता का सोपान है.    .