हम सभी स्वप्न देखते हैं - सोयी अवस्था में, और जागृत अवस्था में भी. किन्तु सच यह है कि हम स्वप्नों में कुछ भी नहीं देखते हैं क्योंकि देखा तो आँखों से जाता है जो स्वप्नावस्था में उन दृश्यों को नहीं देखतीं. तथापि हमें लगता है कि हम स्वप्नावस्था में देख रहे होते हैं. वस्तुतः स्वप्नावस्था में हमारे मस्तिष्क का वही भाग देख रहा होता है जो आँखों द्वारा देखे जाते समय उपयोग में आता है. यह भी निश्चित है कि मस्तिष्क की अधिकाँश गतिविधियों में हमारी स्मृति भी सक्रिय होती है. स्वप्नावस्था में यह स्मृति उन दृश्यों को ही प्रस्तुत करती है जो हम कभी देख चुके होते हैं, अथवा जिनकी हमने कभी कल्पना की होती है, किन्तु अनियमित और अक्रमित रूप में. इस अनियमितता और अक्रमितता के कारण ही हमारे स्वप्न यथार्थ से परे के घटनाक्रमों पर आधारित होते हैं.
जब हम जागृत अवस्था में अपने कल्पना लोक में निमग्न रहते हैं तब भी हम आँखों के माध्यम से देखी जा रही वस्तुओं के अतिरिक्त भी बहुत कुछ देख रहे होते हैं. इस प्रकार हम देखने की क्रिया दो तरह से कर रहे होते हैं - आँखों से तथा मस्तिष्क से. किन्तु हमारे अनुभव हमें बताते हैं कि जब हम आँखों से देखने की क्रिया पर पूरी तरह केन्द्रित करते हैं, उस समय हमारी मस्तिष्क की देखने की क्रिया शिथिल हो जाती है और जब हम अपने कल्पनाओं के माध्यम से दिवा-स्वप्नों में लिप्त होते हैं तब हमारी आँखों से देखने की क्रिया क्षीण हो जाती है. इससे सिद्ध यह होता है कि दोनों प्रकार की देखने की क्रियाओं में मस्तिष्क का एक ही भाग उपयोग में आता है जो एक समय एक ही प्रकार से देखने में लिप्त होता है.
हमारा आँखों के माध्यम से देखना भी दो प्रकार का होता है - वह जो हमें स्वतः दिखाई पड़ता है, और वह जो हम ध्यान से देखते हैं. स्वतः दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं में हमारा मस्तिष्क लिप्त नहीं होता इसलिए यह हमारी स्मृति में भी संचित नहीं होता जब कि जो भी हम ध्यान से से देखते हैं वह हमारी स्मृति में भी संचित होता रहता है और भविष्य में उपयोग में लिया जाता है.
जो हमें बिना ध्यान दिए स्वतः दिखाई देता रहता है वह भी दो प्रकार का होता है - एक वह जिससे हम कोई सम्बन्ध नहीं रखते, और दूसरा वह जो हमारी स्मृति में पूर्व-समाहित होता है किन्तु ध्यान न दिए जाने के कारण नवीन रूप में स्मृति में प्रवेश नहीं करता. इस दूसरे प्रकार के देखने में हमारा अवचेतन मन सक्रिय होता है और हमारा मार्गदर्शन करता रहता है. जब हम कोई ऐसा कार्य करते हैं जिसके हम अभ्यस्त होते हैं तो हमें उस क्रिया पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होती, तब हमारा अवचेतन मन हमारे शरीर का सञ्चालन कर रहा होता है. ऐसी अवस्था में हम अपने चेतन मन को अन्य किसी विषय पर केन्द्रित कर सकते हैं.
वैज्ञानिकों में मतभेद है कि स्वप्नावस्था में दृश्य तरंग मस्तिष्क के किस अंग से आरम्भ होती है - दृष्टि क्षेत्र से अथवा स्मृति से किन्तु उनकी मान्यता है कि यह आँख से होकर मस्तिष्क में न जाकर मस्तिष्क में ही उठाती है. उनका ही मानना है कि व्यक्ति स्वप्न तभी देखता है जब उसकी सुषुप्त अवस्था में उसकी आँखों में तीव्र गति होती है. इस अवस्था को आर ई एम् (REM ) निद्रा कहा जाता है.
दिवास्वप्न देखना और कल्पना लोक में विचारना एक ही क्रिया के दो नाम हैं. व्यतीत काल की स्मृतियों में निमग्न रहना यद्यपि यदा-कदा सुखानुभूति दे सकता है किन्तु इसका जीवन में कोई विशेष महत्व नहीं होता. सुषुप्तावस्था के स्वप्न प्रायः भूतकाल की स्मृतियों पर आधारित होते हैं इस लिए ये भी प्रायः निरर्थक ही होते हैं.
मानवता एवं स्वयं के जीवन के लिए वही दिवास्वप्न महत्वपूर्ण होते हैं जो भविष्य के बारे में स्वस्थ मन के साथ देखे जाते हैं. ऐसे स्वप्नदृष्टा ही विश्व के मार्गदर्शक सिद्ध होते हैं. प्रगति सदैव व्यवहारिक क्रियाओं से होती है और प्रत्येक व्यवहारिक क्रिया से पूर्व उसका भाव उदित होता है जो दिवास्वप्न में ही उदित होता है. अतः प्रत्येक प्रगति कू मूल स्रोत एक दिवास्वप्न होता है.
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
आरम्भ एक नयी चुनौती का
मेरे गाँव खंदोई का प्रधान एक ऐसे व्यक्ति की पत्नी बन गयी है जिसे अधिकाँश लोग नहीं चाहते - उसके आपराधिक चरित्र के कारण. चूंकि वर्तमान भारतीय जनतंत्र की परम्परा के अनुसार, स्त्री प्रधानों के पति ही प्रधान पद का दायित्व एवं कार्यभार संभालते हैं, इसलिए उक्त आपराधिक चरित्र वाला व्यक्ति ही प्रधान माना जा रहा है.
उसे चुनाव में पड़े १५०० मतों में से केवल ४२२ मत पड़े, शेष चार विरोधियों में बँट गए जिसके कारण वह चुना गया. यह भारतीय जनतंत्र और संविधान की निर्बलता है जो अल्पमत प्राप्तकर्ता को भी विजयी बनाती है. ग्राम प्रधान विकास के लिए उत्तरदायी होता है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन प्रदान किया जाता है. इस धन के उपयोग में भारी हेरफेर की जाती है. इसी के लिए अधिकाँश प्रधान पद प्रत्याशी मतदाताओं पर भारी धन व्यय करके यह पद प्राप्त करने के प्रयास करते हैं.
इस व्यक्ति को प्रधान बनने से रोकने के सभी प्रयास असफल होने के बाद, निराश, निस्सहाय, निर्धन ग्रामवासियों ने मुझे दायित्व दिया है कि मैं सार्वजनिक धन के दुरूपयोग को न होने दूं. किसी पद या प्रतिष्ठा की लालसा न होते हुए भी मैं इस दायित्व से पीछे नहीं हट सकता. इस दायित्व के लिए ग्राम के निर्धनतम और दलित लोगों ने मुझे अपने मोहल्ले से अपने प्रतिनिधि के रूप में ग्राम पंचायत का सदस्य चुना है. मेरे सदस्य पद पर चुने जाने की अनेक विशेषताएं रही हैं.
इससे उक्त नए दायित्व का भार मेरे कन्धों पर आ गया है. इसके साथ ही उक्त प्रधान पति के आपराधिक गिरोह से मेरी शत्रुता भी प्रबल होगी, क्योंकि वे अपने दुश्चरित्रता से बाज नहीं आने वाले और मैं अपने विरोध से. ग्राम पंचायत के कार्य क्षेत्र विकास कार्यालय से संचालित होते हैं. इसलिए मैंने ग्राम पंचायत का सदस्य चुने जाने के तुरंत बाद क्षेत्र विकास अधिकारियों से दो निवेदन किये हैं -
उसे चुनाव में पड़े १५०० मतों में से केवल ४२२ मत पड़े, शेष चार विरोधियों में बँट गए जिसके कारण वह चुना गया. यह भारतीय जनतंत्र और संविधान की निर्बलता है जो अल्पमत प्राप्तकर्ता को भी विजयी बनाती है. ग्राम प्रधान विकास के लिए उत्तरदायी होता है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन प्रदान किया जाता है. इस धन के उपयोग में भारी हेरफेर की जाती है. इसी के लिए अधिकाँश प्रधान पद प्रत्याशी मतदाताओं पर भारी धन व्यय करके यह पद प्राप्त करने के प्रयास करते हैं.
इस व्यक्ति को प्रधान बनने से रोकने के सभी प्रयास असफल होने के बाद, निराश, निस्सहाय, निर्धन ग्रामवासियों ने मुझे दायित्व दिया है कि मैं सार्वजनिक धन के दुरूपयोग को न होने दूं. किसी पद या प्रतिष्ठा की लालसा न होते हुए भी मैं इस दायित्व से पीछे नहीं हट सकता. इस दायित्व के लिए ग्राम के निर्धनतम और दलित लोगों ने मुझे अपने मोहल्ले से अपने प्रतिनिधि के रूप में ग्राम पंचायत का सदस्य चुना है. मेरे सदस्य पद पर चुने जाने की अनेक विशेषताएं रही हैं.
सत्ता पक्ष ने मेरा भरपूर विरूद्ध - नैतिक एवं अनैतिक, किया. यहाँ तक कि मतदाताओं को नकद धन के प्रलोभन भी दिए गए. ये अधिकाँश मतदाता भूमिहीन मजदूर हैं और बहुत से प्रधान समूह के यहाँ मजदूरी करके अपने आजीविका चलाते हैं. इसलिए उन्हें मजदूरी न दिए जाने की धमकियां भी दी गयीं. तथापि मतदाता मेरे समर्थन पर अडिग रहे. ऐसा विरल ही होता है, विशेषकर तब जब मतदाता अशिक्षित एवं निर्धन हों. इसका एक विशेष कारण यह था कि मतदाता अपने हितों की रक्षा के लिए स्वयं मुझे अपना प्रतिनिधि चुनना चाहते थे जब कि मुझे इसमें कोई रूचि नहीं थी. उन्हें मुझ पर भरोसा है कि मैं उन्हें कोई हानि नहीं होने दूंगा तथा मेरे कारण ग्राम विकास कार्यों में भी भृष्टाचार नहीं होगा.
इससे उक्त नए दायित्व का भार मेरे कन्धों पर आ गया है. इसके साथ ही उक्त प्रधान पति के आपराधिक गिरोह से मेरी शत्रुता भी प्रबल होगी, क्योंकि वे अपने दुश्चरित्रता से बाज नहीं आने वाले और मैं अपने विरोध से. ग्राम पंचायत के कार्य क्षेत्र विकास कार्यालय से संचालित होते हैं. इसलिए मैंने ग्राम पंचायत का सदस्य चुने जाने के तुरंत बाद क्षेत्र विकास अधिकारियों से दो निवेदन किये हैं -
- ग्राम खंदोई से सम्बंधित सभी बैठकों में केवल विधिवत चुने गए व्यक्ति ही उपस्थित हों न कि उनके पति अथवा अन्य संबंधी.
- ग्राम खंदोई में आपराधिक चरित्र के लोगों का बोलबाला है इसलिए ग्राम संबंधी सभी अनुलेखों की जांच-पड़ताल ध्यान से की जाये. इसमें कोई भी भूल अथवा धांधली होने पर मैं उसका डटकर विरोध करूंगा.
इस सबसे ग्राम कार्यों में मेरी व्यस्तता और भी अधिक बढ़ जायेगी.
लेबल:
ग्राम पंचायत,
ग्राम प्रधान,
भारतीय जनतंत्र,
मतदाता,
संविधान,
सार्वजनिक धन
सोमवार, 22 नवंबर 2010
आदर्श और वास्तविकता में सामंजस्य स्थापन
अधिकाँश लोग अपनी वास्तविकताओं से दूर भागने के प्रयासों में अपने आदर्श की कल्पनाओं में निमग्न रहते हैं. यही उनके दुखों का कारण बनता है. शोधों में पाया गया है कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अपनी वास्तविकता से अधिक असंतुष्ट रहती हैं. साथ ही यह भी पाया गया है कि पुरुषों के आदर्शों में स्त्रियों के आदर्शों की तुलना में अधिक भिन्नता होती है, जिसका अर्थ यह है कि पुरुष भिन्न प्रकार से सोचते हैं जब कि सभी स्त्रियाँ लगभग एक जैसा सोचती हैं. इसका अर्थ यह भी है कि पुरुष अपनी वास्तविकताओं से समझौता करने में अधिक निपुण होते हैं. फलस्वरूप पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक दुखी रहती हैं.
इसके निराकरण के दो उपाय हैं - अपनी वास्तविकता को ही अपना आदर्श बनाएं अथवा अपने आदर्श को अपनी वास्तविकता बनायें. सीधे रूप में ये दोनों प्रक्रियाएं ही दुष्कर प्रतीत होती हैं. इसका दूसरा उपाय अधिक व्यवहारिक है जो हमें पुरुष प्रकृति से प्राप्त होता है - अपने आदर्श को अधिकतम व्यापक बनाएं जिससे कि अधिकतर वास्तविकताएं इसके घेरे में आ जाएँ. प्राकृत रूप से पुरुष इसमें अधिक समर्थ होते हैं, स्त्रियों के लिए कुछ दुष्कर है. इसका कारण है स्त्रियों की सुकोमलता और उनमें समर्पण भाव का आधिक्य, जो दोनों ही सकारात्मक गुण हैं. अतः इन्हें भी निर्बल नहीं किया जाना चाहिए.
आदर्श प्रमुखतः दो प्रकार के होते हैं - मुझे कैसा बनना है, और मुझे क्या चाहिए. किन्तु दोनों का मूल पारस्परिक अनुकूलता है. अतः प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श उसकी दूसरों से अनुकूलता द्वारा निर्धारित होता है. इसलिए आदर्श की व्यापकता के लिए हम सोचें कि हम किस-किस के अनुकूल हैं न कि हमारे अनुकूल कौन है और साथ ही हम अपनी अनुकूलता को अधिकाधिक व्यापक करें. अनुकूलता की व्यापकता चारित्रिक लचक प्रतीत होती है किन्तु यह उससे से भिन्न है. व्यक्ति अपने चरित्र और स्वभाव पर अडिग रहते हुए भी अपनी अनुकूलता को व्यापक कर सकता है, अधिकाधिक अध्ययन से - लोगों का, समाज का, वस्तुओं का, और सर्वोपरि स्वयं के व्यक्तित्व, जीवन शैली और बाहरी प्रस्तुति का.
व्यक्ति क्या है - एक शरीर और तदनुसार उसका मन, एक बुद्धि और तदनुसार उसका व्यवहार, एक संकल्प और तदनुसार उसके कार्य-कलाप, एक रूप और तदनुसार उसकी प्रभाविता, और एक सार्वभौमिक इच्छाशक्ति - जीवन का आनंद, आदि, आदि.. स्वयं का अध्ययन करें, अन्वेषण करें और अपने परिभाषा को व्यापक स्वरुप दें. आदर्श की व्यापकता के लिए इनमें से किसी को भी लचकदार बनाने की आवश्यकता नहीं है अपितु इन सभी के समावेश की आवश्यकता होती है.
इसके निराकरण के दो उपाय हैं - अपनी वास्तविकता को ही अपना आदर्श बनाएं अथवा अपने आदर्श को अपनी वास्तविकता बनायें. सीधे रूप में ये दोनों प्रक्रियाएं ही दुष्कर प्रतीत होती हैं. इसका दूसरा उपाय अधिक व्यवहारिक है जो हमें पुरुष प्रकृति से प्राप्त होता है - अपने आदर्श को अधिकतम व्यापक बनाएं जिससे कि अधिकतर वास्तविकताएं इसके घेरे में आ जाएँ. प्राकृत रूप से पुरुष इसमें अधिक समर्थ होते हैं, स्त्रियों के लिए कुछ दुष्कर है. इसका कारण है स्त्रियों की सुकोमलता और उनमें समर्पण भाव का आधिक्य, जो दोनों ही सकारात्मक गुण हैं. अतः इन्हें भी निर्बल नहीं किया जाना चाहिए.
आदर्श प्रमुखतः दो प्रकार के होते हैं - मुझे कैसा बनना है, और मुझे क्या चाहिए. किन्तु दोनों का मूल पारस्परिक अनुकूलता है. अतः प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श उसकी दूसरों से अनुकूलता द्वारा निर्धारित होता है. इसलिए आदर्श की व्यापकता के लिए हम सोचें कि हम किस-किस के अनुकूल हैं न कि हमारे अनुकूल कौन है और साथ ही हम अपनी अनुकूलता को अधिकाधिक व्यापक करें. अनुकूलता की व्यापकता चारित्रिक लचक प्रतीत होती है किन्तु यह उससे से भिन्न है. व्यक्ति अपने चरित्र और स्वभाव पर अडिग रहते हुए भी अपनी अनुकूलता को व्यापक कर सकता है, अधिकाधिक अध्ययन से - लोगों का, समाज का, वस्तुओं का, और सर्वोपरि स्वयं के व्यक्तित्व, जीवन शैली और बाहरी प्रस्तुति का.
व्यक्ति क्या है - एक शरीर और तदनुसार उसका मन, एक बुद्धि और तदनुसार उसका व्यवहार, एक संकल्प और तदनुसार उसके कार्य-कलाप, एक रूप और तदनुसार उसकी प्रभाविता, और एक सार्वभौमिक इच्छाशक्ति - जीवन का आनंद, आदि, आदि.. स्वयं का अध्ययन करें, अन्वेषण करें और अपने परिभाषा को व्यापक स्वरुप दें. आदर्श की व्यापकता के लिए इनमें से किसी को भी लचकदार बनाने की आवश्यकता नहीं है अपितु इन सभी के समावेश की आवश्यकता होती है.
लेबल:
अनुकूलता,
आदर्श,
वास्तविकता,
व्यक्तित्व,
सार्वभौमिक इच्छाशक्ति
शनिवार, 20 नवंबर 2010
भारतीय समाज में अवसरवादिता का विष
भारत में मानवीय चरित्र का संकट है और गन्तार होता जा रहा है. इस चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लोगों के किसी भी विषय पर अपने मत नहीं होते, इसलिए वे सभी मतों से सामयिक तौर पर सरलता से सहमत प्रतीत होने लगते हैं. साथ ही दृष्टि से ओझल होते ही अपनी सहमति को भूल जाते हैं तथा किसी विरोधी मत से भी तुरंत सहमत हो सकते हैं. इसका मूल कारण बुद्धिहीनता है किन्तु इस प्रकार के लोग इसे कूटनीति अथवा डिप्लोमेसी कहते हैं जिसमें व्यक्ति जो कहता है उसका मंतव्य वह नहीं होता अपितु कुछ और होता है. अर्थात कूटनीति में मानवीय मौलिकता एवं नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता. इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग किसी विषय में अपना कोई मत नहीं रखते, वे कूटनीतिज्ञ हो सकते हैं.
व्यवसाय प्रबंधन की पुस्तकों में सफल व्यवसाय का मूल मन्त्र पढ़ा है - अवसरों का शोषण व्यवसायिक सफलता की कुंजी है. यह सच है किन्तु केवल व्यवसाय के लिए, क्योंकि व्यवसाय व्यक्ति नहीं होता, उसमें भावनाएं नहीं होतीं. इसके दोनों शब्द 'अवसर' तथा 'शोषण' मानवीयता शब्दकोष के बाहर के हैं. मानव जीवन अवसरों का लाभ उठाने के लिए नहीं, उनकी रचना करने के लिए अभिकल्पित है, और शोषण तो 'कोरी स्वार्थपरता है जबकि मानवीयता शोषणविहीन समाज के सपने को व्यवहार में लाने के लिए विकसित हुई. किन्तु ये दोनों ही भूतकाल की बातें हैं.
अभी जनतांत्रिक चुनाव हुए, उनमें अधिकाँश लोगों का विचार था कि वे उसी प्रत्याशी को अपना मत देंगे जो विजयी होता प्रतीत होगा. कितनी बड़ी मूर्खता है यह. वस्तुतः विजय मतों से होती है किन्तु यहाँ तो विजय के कारण मत प्राप्त होते हैं. ऐसे मतदाता आधुनिक समाज के अग्रणी हैं, जिनका कोई अपना मत नहीं है प्रत्याशियों के पक्ष अथवा विपक्ष में. इनके यहाँ अच्छे- बुरे, योग्य-अयोग्य, चतुर-चालाक, बुद्धिमान-मूर्ख, आदि विरोधाभासी शब्द युगलों का कोई महत्व नहीं है. यही अवसरवाद है जो पूरी तरह अमानवीय है. मैं इससे भिन्न मत रखता हूँ - एकनिष्ठ, किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में - उसके गुणों के आधार पर, चाहे वह जीते अथवा हारे. उसको मत देकर मुझे संतुष्टि प्राप्त होती है - उसके हारने पर भी. किन्तु आधुनिक समाज के मानदंड के अनुसार पराजित प्रत्याशी को डाला गया मत व्यर्थ चला गया. इसी मूर्खतापूर्ण अवसरवादिता के कारण भारत के जनतांत्रिक चुनावों में मूर्ख विजयी होते रहे हैं और बुद्धिमान पिछड़ते जा रहे हैं. उदाहरण सामने हैं - मेरे क्षेत्र का संसद सदस्य निरक्षर है जो एक सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी को पराजित करके विजयी हुआ. मेरा जिला पंचायत सदस्य एक जाने माने अपराधी की पत्नी है. भारत में महिला आरक्षण ने महिलाएं चुनी जाती हैं और उनके पति पदासीन होते हैं - हम जनतांत्रिक न होकर जनतंत्र की लाश ढो रहे हैं.
मूर्खों के किसी भी विषय में अपने कोई विचार नहीं होते, वे अवसरानुसार किसी से भी सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं, इसलिए ये शीघ्र ही और अकारण ही एकता के सूत्र में बंध जाते हैं. जबकि बुद्धिमान अपने-अपने विचार रखने के कारण उनपर तर्क-वितर्क करते हुए बिखरे हुए रह जाते हैं. यही समाज और यही अवसरवादिता जनतंत्र को मूर्खों का शासन सिद्ध करता है.
एक सभा हुई समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिए. कुछ बुद्धिसम्पन्न लोगों ने अपने-अपने विचार रखे और उनमें आपस में बहस छिड़ गयी. एक मूर्ख उठा और बोला एकता के लिए हमें केवल हुआ-हुआ पुकारना है. जो ऐसा करेंगे वे सब एकता के सूत्र में बंधे माने जायेंगे, उनमें कभी कोई मतभेद नहीं होगा क्योंकि उनमें से किसी का कोई विचार नहीं होगा, बस हुआ-हुआ का शोर करना होगा. ऐसा ही हुआ और सभी मूर्ख अकारण ही एक स्वर से हुआ-हुआ करने लगे और एक हो गए. इस शोरगुल में बुद्धिसम्पन्न लोगों के विचार तिरोहित हो गए. यही है भारतीय समाज का सच, और यही है भारतीय जनतंत्र की वस्तुस्थिति, और यही है हमारी प्रगति की दिशा,. और यही है हमारी महान भारतीय संस्कृति.
जोर से बोलो, शोर से बोलो - 'हुआ-हुआ'. इति शुभम.
व्यवसाय प्रबंधन की पुस्तकों में सफल व्यवसाय का मूल मन्त्र पढ़ा है - अवसरों का शोषण व्यवसायिक सफलता की कुंजी है. यह सच है किन्तु केवल व्यवसाय के लिए, क्योंकि व्यवसाय व्यक्ति नहीं होता, उसमें भावनाएं नहीं होतीं. इसके दोनों शब्द 'अवसर' तथा 'शोषण' मानवीयता शब्दकोष के बाहर के हैं. मानव जीवन अवसरों का लाभ उठाने के लिए नहीं, उनकी रचना करने के लिए अभिकल्पित है, और शोषण तो 'कोरी स्वार्थपरता है जबकि मानवीयता शोषणविहीन समाज के सपने को व्यवहार में लाने के लिए विकसित हुई. किन्तु ये दोनों ही भूतकाल की बातें हैं.
अभी जनतांत्रिक चुनाव हुए, उनमें अधिकाँश लोगों का विचार था कि वे उसी प्रत्याशी को अपना मत देंगे जो विजयी होता प्रतीत होगा. कितनी बड़ी मूर्खता है यह. वस्तुतः विजय मतों से होती है किन्तु यहाँ तो विजय के कारण मत प्राप्त होते हैं. ऐसे मतदाता आधुनिक समाज के अग्रणी हैं, जिनका कोई अपना मत नहीं है प्रत्याशियों के पक्ष अथवा विपक्ष में. इनके यहाँ अच्छे- बुरे, योग्य-अयोग्य, चतुर-चालाक, बुद्धिमान-मूर्ख, आदि विरोधाभासी शब्द युगलों का कोई महत्व नहीं है. यही अवसरवाद है जो पूरी तरह अमानवीय है. मैं इससे भिन्न मत रखता हूँ - एकनिष्ठ, किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में - उसके गुणों के आधार पर, चाहे वह जीते अथवा हारे. उसको मत देकर मुझे संतुष्टि प्राप्त होती है - उसके हारने पर भी. किन्तु आधुनिक समाज के मानदंड के अनुसार पराजित प्रत्याशी को डाला गया मत व्यर्थ चला गया. इसी मूर्खतापूर्ण अवसरवादिता के कारण भारत के जनतांत्रिक चुनावों में मूर्ख विजयी होते रहे हैं और बुद्धिमान पिछड़ते जा रहे हैं. उदाहरण सामने हैं - मेरे क्षेत्र का संसद सदस्य निरक्षर है जो एक सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी को पराजित करके विजयी हुआ. मेरा जिला पंचायत सदस्य एक जाने माने अपराधी की पत्नी है. भारत में महिला आरक्षण ने महिलाएं चुनी जाती हैं और उनके पति पदासीन होते हैं - हम जनतांत्रिक न होकर जनतंत्र की लाश ढो रहे हैं.
मूर्खों के किसी भी विषय में अपने कोई विचार नहीं होते, वे अवसरानुसार किसी से भी सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं, इसलिए ये शीघ्र ही और अकारण ही एकता के सूत्र में बंध जाते हैं. जबकि बुद्धिमान अपने-अपने विचार रखने के कारण उनपर तर्क-वितर्क करते हुए बिखरे हुए रह जाते हैं. यही समाज और यही अवसरवादिता जनतंत्र को मूर्खों का शासन सिद्ध करता है.
एक सभा हुई समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिए. कुछ बुद्धिसम्पन्न लोगों ने अपने-अपने विचार रखे और उनमें आपस में बहस छिड़ गयी. एक मूर्ख उठा और बोला एकता के लिए हमें केवल हुआ-हुआ पुकारना है. जो ऐसा करेंगे वे सब एकता के सूत्र में बंधे माने जायेंगे, उनमें कभी कोई मतभेद नहीं होगा क्योंकि उनमें से किसी का कोई विचार नहीं होगा, बस हुआ-हुआ का शोर करना होगा. ऐसा ही हुआ और सभी मूर्ख अकारण ही एक स्वर से हुआ-हुआ करने लगे और एक हो गए. इस शोरगुल में बुद्धिसम्पन्न लोगों के विचार तिरोहित हो गए. यही है भारतीय समाज का सच, और यही है भारतीय जनतंत्र की वस्तुस्थिति, और यही है हमारी प्रगति की दिशा,. और यही है हमारी महान भारतीय संस्कृति.
जोर से बोलो, शोर से बोलो - 'हुआ-हुआ'. इति शुभम.
लेबल:
अवसरवादिता,
तर्क-वितर्क,
बुद्धिसम्पन्न,
भारतीय जनतंत्र,
समाज
रविवार, 14 नवंबर 2010
चरित्र, आम भारतीय का
कुछ परेशान हूँ - क्या होगा इस देश का, क्या होगा हम सब का, कुछ भी तो पसंद आने लायक नहीं दीखता अपने आस-पास. भारतीय चरित्रहीनता के गहनतम सागर में डूब चुके हैं, और आनंदित हैं. सामर्थ्यवान अपने पदों का दुरूपयोग करते हैं तो समझ में आता है, यह मानवीय निर्बलता है. किन्तु आम आदमी, जिसमें कोई सामर्थ नहीं है, वह भी चतुराई के मार्ग खोजने में इतना तल्लीन रहता है कि कुछ भी मानवीय नहीं कर पाता. सामर्थवान अपनी सामर्थ्य के कारण चतुराई करता है और सामर्थ्हीं अपनी निर्बलताओं को चतुराई से ढकता है. यहाँ तक कि चतुराई ही भारतीयता का प्रतीक बन गयी है और इसी को नोर्मल होना स्वीकार जा चुका है.
किसी को कोई रोग लग जाये तो उससे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति उसे तुरंत कोई न कोई अचूक उपचार बताये बिना नहीं रहेगा, जब कि ऐसा प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रोग से पीड़ित होता है. गाँव में अभी एक व्यक्ति की मृत्यु हुई है जो अपने बचपन से ही रोगी होने कारण शरीर और बुद्धि से अविकसित था, किन्तु वही व्यक्ति जीवनभर अपनी तथाकथित अलौकिक शक्तियों से बच्चों की चिकित्सा करता था - केवल बच्चों पर दृष्टिपात करके. स्त्रियाँ अपने बच्चों को ठीक कराने के लिए उसके पास जाती रहती थीं. कभी किसी को कोई लाभ हुआ या नहीं, इस पर किसी ने कोई विचार नहीं किया. एक मूर्ख की चतुराई भी जीवन-पर्यंत चलती रही.
जीवन में कोई भी समस्या हो, अपना दुःख हल्का करने के उद्येश्य से किसी मित्र से कहिये. तुरंत ही अचूक हल दे दिया जायेगा जब कि मित्र भी अनेक समस्याओं में उलझा होगा और समाधान न पा रहा होगा. विगत १० वर्षों से गाँव में रहता हूँ, सरल, शुद्ध, तनाव-मुक्त जीवन जीने के लिए क्योंकि पैसा कमाते रहने की मेरी विवशताएँ समाप्त हो गयी हैं, सभी बच्चे प्रतिष्ठित कार्यों में लगे हैं, पर्याप्त कमाते हैं और आनंदित हैं. मुझे उनकी चिंता नहीं है और वे मेरी ओर से निश्चिन्त हैं.
गाँव में यथासंभव लोगों की सहायता करता हूँ, उनके दुःख-दर्द में उनके काम आता हूँ, इसलिए कोई न कोई मेरे पास आता ही रहता है, बहुधा अपनी समस्या में मेरी सहायता लेने के लिए. तथापि जो भी आता है मुझे परामर्श अवश्य देता है कि मुझे अपने बच्चों का ध्यान रखना चाहिए, उन्ही के पास रहना चाहिए, आदि, आदि. अपना काम निकालने के बाद लोगों की मुझसे शिकायत रहती है कि मुझे अपने बच्चों से भी मोह नहीं है तो मैं किसी दूसरे के क्या काम आऊँगा. कुछ लोग इसे मेरे विरुद्ध एक षड्यंत्र के रूप में भी उपयोग करते हैं - मुझे बदनाम करने के लिए.
जब भी मुझसे किसी का कोई काम पड़ता है, वह मुझसे मेरी विद्वता की प्रशंसा करता है और अपनी समस्या में मेरी सहायता की याचना करता है. सहायता मिलते ही वह बुद्धिमान हो जाता है और मुझे मूर्ख समझते हुए कुछ उपदेश एकर चला जाता है. गाँव के विकास, स्वच्छता, कार्यशैली, आदि के बारे में किसी से कुछ कहता हूँ तो तुरंत उत्तर मिलता है कि मैं अभी गाँव में नया आया हूँ और यहाँ के तौर-तरीकों से अनभिग्य हूँ जबकि वह इस मामले में चिरपरिचित है. इस प्रकार किसी को भी मेरे परामर्श की आवश्यकता नहीं होती.
अभी-अभी ग्राम पंचायत के चुनाव संपन्न हुए हैं. ग्राम विकास की दृष्टि से मैंने किसी सुयोग्य और इमानदार व्यक्ति को ग्राम-प्रधान पद के लिए चुनने का परामर्श दिया तो मुझे ग्राम-राजनीति से अनभिग्य कहकर नकार दिया गया. पांच प्रत्याशी मैदान में उतरे, सभी सार्वजनिक धन और संपदा को हड़पने के लिए लालायित थे. मतदाताओं को प्रसन्न करने के लिए सभी ने ग्रामवासियों को निःशुल्क शराब पिलाई, तरह-तरह के लालच दिए और अंततः कुछ ने मत पाने के लिए नकद धन भी वितरित किया. परिणाम यह हुआ कि सबसे अधिक भृष्ट व्यक्ति ग्राम-प्रधान चुना गया जिसके लिए उसे लगभग २८ प्रतिशत मिले. इससे शेष ७२ प्रतिशत मतदाता परेशान हैं और उन्हें परेशान किये जाने की आशंका है.
अब लोगों को मेरी सहायता की आवश्यकता पद रही है तो मेरी बुद्धिमत्ता और कार्यकुशलता की प्रशंसा होने लगी है. मुझसे ग्राम पंचायत का सदस्य बनकर ग्राम-प्रधान के कार्य-कलापों पर कड़ी दृष्टि रखने का आग्रह किया जा रहा है जिससे कि उसपर लगाम कसी रहे, अनियमितताएं न कर सके और ग्रामवासियों को परेशान न करे.
चूंकि गाँव में रहने का मेरा एक लक्ष्य लोगों की सहायता करना भी है इसलिए मैं उक्त दायित्व से इनकार भी नहीं कर सकता किन्तु इसके लिए आवश्यक स्थिति की मांग करता हूँ तो मेरी नहीं सुनी जाती. सभी अपने स्वार्थपरक मार्ग पर चलते रहना चाहते हैं किन्तु मेरे संरक्षण में. यह विरोधाभास है जिसमें मैं आजकल उलझा हुआ हूँ.
किसी को कोई रोग लग जाये तो उससे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति उसे तुरंत कोई न कोई अचूक उपचार बताये बिना नहीं रहेगा, जब कि ऐसा प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रोग से पीड़ित होता है. गाँव में अभी एक व्यक्ति की मृत्यु हुई है जो अपने बचपन से ही रोगी होने कारण शरीर और बुद्धि से अविकसित था, किन्तु वही व्यक्ति जीवनभर अपनी तथाकथित अलौकिक शक्तियों से बच्चों की चिकित्सा करता था - केवल बच्चों पर दृष्टिपात करके. स्त्रियाँ अपने बच्चों को ठीक कराने के लिए उसके पास जाती रहती थीं. कभी किसी को कोई लाभ हुआ या नहीं, इस पर किसी ने कोई विचार नहीं किया. एक मूर्ख की चतुराई भी जीवन-पर्यंत चलती रही.
जीवन में कोई भी समस्या हो, अपना दुःख हल्का करने के उद्येश्य से किसी मित्र से कहिये. तुरंत ही अचूक हल दे दिया जायेगा जब कि मित्र भी अनेक समस्याओं में उलझा होगा और समाधान न पा रहा होगा. विगत १० वर्षों से गाँव में रहता हूँ, सरल, शुद्ध, तनाव-मुक्त जीवन जीने के लिए क्योंकि पैसा कमाते रहने की मेरी विवशताएँ समाप्त हो गयी हैं, सभी बच्चे प्रतिष्ठित कार्यों में लगे हैं, पर्याप्त कमाते हैं और आनंदित हैं. मुझे उनकी चिंता नहीं है और वे मेरी ओर से निश्चिन्त हैं.
गाँव में यथासंभव लोगों की सहायता करता हूँ, उनके दुःख-दर्द में उनके काम आता हूँ, इसलिए कोई न कोई मेरे पास आता ही रहता है, बहुधा अपनी समस्या में मेरी सहायता लेने के लिए. तथापि जो भी आता है मुझे परामर्श अवश्य देता है कि मुझे अपने बच्चों का ध्यान रखना चाहिए, उन्ही के पास रहना चाहिए, आदि, आदि. अपना काम निकालने के बाद लोगों की मुझसे शिकायत रहती है कि मुझे अपने बच्चों से भी मोह नहीं है तो मैं किसी दूसरे के क्या काम आऊँगा. कुछ लोग इसे मेरे विरुद्ध एक षड्यंत्र के रूप में भी उपयोग करते हैं - मुझे बदनाम करने के लिए.
जब भी मुझसे किसी का कोई काम पड़ता है, वह मुझसे मेरी विद्वता की प्रशंसा करता है और अपनी समस्या में मेरी सहायता की याचना करता है. सहायता मिलते ही वह बुद्धिमान हो जाता है और मुझे मूर्ख समझते हुए कुछ उपदेश एकर चला जाता है. गाँव के विकास, स्वच्छता, कार्यशैली, आदि के बारे में किसी से कुछ कहता हूँ तो तुरंत उत्तर मिलता है कि मैं अभी गाँव में नया आया हूँ और यहाँ के तौर-तरीकों से अनभिग्य हूँ जबकि वह इस मामले में चिरपरिचित है. इस प्रकार किसी को भी मेरे परामर्श की आवश्यकता नहीं होती.
अभी-अभी ग्राम पंचायत के चुनाव संपन्न हुए हैं. ग्राम विकास की दृष्टि से मैंने किसी सुयोग्य और इमानदार व्यक्ति को ग्राम-प्रधान पद के लिए चुनने का परामर्श दिया तो मुझे ग्राम-राजनीति से अनभिग्य कहकर नकार दिया गया. पांच प्रत्याशी मैदान में उतरे, सभी सार्वजनिक धन और संपदा को हड़पने के लिए लालायित थे. मतदाताओं को प्रसन्न करने के लिए सभी ने ग्रामवासियों को निःशुल्क शराब पिलाई, तरह-तरह के लालच दिए और अंततः कुछ ने मत पाने के लिए नकद धन भी वितरित किया. परिणाम यह हुआ कि सबसे अधिक भृष्ट व्यक्ति ग्राम-प्रधान चुना गया जिसके लिए उसे लगभग २८ प्रतिशत मिले. इससे शेष ७२ प्रतिशत मतदाता परेशान हैं और उन्हें परेशान किये जाने की आशंका है.
अब लोगों को मेरी सहायता की आवश्यकता पद रही है तो मेरी बुद्धिमत्ता और कार्यकुशलता की प्रशंसा होने लगी है. मुझसे ग्राम पंचायत का सदस्य बनकर ग्राम-प्रधान के कार्य-कलापों पर कड़ी दृष्टि रखने का आग्रह किया जा रहा है जिससे कि उसपर लगाम कसी रहे, अनियमितताएं न कर सके और ग्रामवासियों को परेशान न करे.
चूंकि गाँव में रहने का मेरा एक लक्ष्य लोगों की सहायता करना भी है इसलिए मैं उक्त दायित्व से इनकार भी नहीं कर सकता किन्तु इसके लिए आवश्यक स्थिति की मांग करता हूँ तो मेरी नहीं सुनी जाती. सभी अपने स्वार्थपरक मार्ग पर चलते रहना चाहते हैं किन्तु मेरे संरक्षण में. यह विरोधाभास है जिसमें मैं आजकल उलझा हुआ हूँ.
अपनी त्रुटियाँ स्वीकारें और उन से सीखें
जो व्यक्ति कार्य करते हैं, उन सभी से त्रुटियाँ भी होती हैं - यह एक सार्वभौमिक सत्य है. किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि त्रुटियाँ करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हमें इनके प्रति निरपेक्ष रहना चाहिए. वस्तुतः त्रुटियाँ सदुपयोग द्वारा व्यक्तिगत और संगठनात्मक सुधारों की माध्यम सिद्ध होती हैं. त्रुटियाँ वही कही जाती हैं जो मनुष्य से अनजाने में हो जाती हैं. इसके विपरीत जो दोषपूर्ण कार्य जान-बूझकर किये जाते हैं, उन्हें त्रुटियाँ नहीं कहकर अपराध अथवा दोष कहा जाता है. इस आलेख में हम त्रुटियों पर केन्द्रित करेंगे.
अधिकाँश व्यक्ति त्रुटि करके उस पर पाश्चाताप करते हैं, और उससे हुई हानि का आकलन करके उन्हें छिपाने के प्रयास करते हैं और अपने अन्दर हीनता का भाव विकसित करते हैं. इससे उनकी उत्पादकता कुप्रभावित होती है. अंततः यह हीनभाव बहुत हानिकर सिद्ध होता है.
अपनी त्रुटि को स्वीकार कर लेने से उनके भविष्य में दोहराया जाना प्रतिबंधित होता है, इसलिए स्वीकार करके आगे बढ़ते जाना बहुत लाभकर सिद्ध होता है. इसलिए पूरी पारदर्शिता के साथ अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए उससे आहत हुए व्यक्तियों से क्षमा मांगिये. इससे त्रुटि को सुधारते हुए आगे बढ़ने और भविष्य की गतिविधियों पर केन्द्रित होने में सहायता मिलती है और अन्य लोगों का भरपूर सहयोग प्राप्त होता है.
व्यक्ति द्वारा अपनी त्रुटि दूसरों द्वारा उंगली उठाने से पूर्व ही पाकर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए इससे किसी को दोषारोपण का अवसर नहीं मिलता. त्रुटि को स्वीकारने के बाद उसके कारणों का विश्लेषण कीजिये और सम्बंधित लोगों को स्पष्ट कीजिये कि वह त्रुटि आपसे क्यों हुई थी, और इससे क्या शिक्षा मिलती है. त्रुटि में किसी एक व्यक्ति की भूमिका पूरी अथवा आंशिक हो सकती है. साथ ही त्रुटि के कारण सम्बद्ध व्यक्ति के नियंत्रण के बाहर भी हो सकते हैं. इससे सभी द्वारा त्रुटि को नए दृष्टिकोण से देखना संभव होता है. इस प्रकार त्रुटि को एक भार से एक संपदा के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है.
त्रुटि होने पर वांछित परिणाम पाना संभावित होता है किन्तु ऐसा सुनिश्चित नहीं होता. साथ ही वांछित परिणाम न प्राप्त होना त्रुटि होने का सुनिश्चित संकेत नहीं होता. इसलिए त्रुटि को परिणाम के सापेक्ष न देखकर उसका परिणाम-निरपेक्ष विश्लेषण किया जाना चाहिए.
त्रुटि का मूल्यांकन
त्रुटि से कुछ हानियाँ होती हैं, साथ ही उससे कुछ शिक्षाएं भी मिलती हैं. अतः वे त्रुटियाँ लाभदायक होती हैं जिनसे हानियाँ अल्प तथा शिक्षाएं मूल्यवान प्राप्त हुई हों. इससे यह भी सिद्ध होता है कि सभी त्रुटियाँ अपने सकल प्रभाव में हानिकर नहीं होतीं. सगठनों की कार्य-संस्कृति ऐसी होनी चाहिए जिससे त्रुटियों को मात्र आर्थिक परिणाम के सापेक्ष न देखा जाकर उनके सकल प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए. अतः संगठन के दृष्टिकोण में त्रुटियाँ शिक्षण और अनुभव के माध्यम होनी चाहिए न कि दंड देने के कारण.
किसी व्यक्ति से त्रुटि होने का मुख्य कारण यह होता है कि व्यक्ति सक्रिय है और प्रयोगधर्मी है. ये दोनों ही सकारात्मक गुण हैं और बनाये रखने चाहिए, त्रुटियाँ होने पर भी. यदि त्रुटियों का सदुपयोग किया जाता रहे तो वे क्रमशः कम होती जाती हैं और व्यक्ति को उत्कृष्टता की ओर ले जाती हैं. अतः त्रुटियाँ असक्षमता और निर्बलता का प्रतीक नहीं होतीं किन्तु व्यक्ति के साहसी प्रयोगधर्मी होने का संकेत देती हैं यदि व्यक्ति इनसे निराश न होकर इनसे सीखने के लिए लालायित रहता है.
सभी त्रुटियों के प्रभाव एक समान नहीं होते. कुछ व्यक्तिगत त्रुटियाँ दूसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. यदि ऐसा है तो उस व्यक्ति से क्षमा याचना करते हुए उस त्रुटि के कारण स्पष्ट कर देने चाहिए. सामूहिक त्रुटियाँ प्रायः क्षम्य होती हैं क्योंकि उनके प्रभाव वितरित हो जाते हैं.
त्रुटियों के बारे में क्या करें -
अधिकाँश व्यक्ति त्रुटि करके उस पर पाश्चाताप करते हैं, और उससे हुई हानि का आकलन करके उन्हें छिपाने के प्रयास करते हैं और अपने अन्दर हीनता का भाव विकसित करते हैं. इससे उनकी उत्पादकता कुप्रभावित होती है. अंततः यह हीनभाव बहुत हानिकर सिद्ध होता है.
अपनी त्रुटि को स्वीकार कर लेने से उनके भविष्य में दोहराया जाना प्रतिबंधित होता है, इसलिए स्वीकार करके आगे बढ़ते जाना बहुत लाभकर सिद्ध होता है. इसलिए पूरी पारदर्शिता के साथ अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए उससे आहत हुए व्यक्तियों से क्षमा मांगिये. इससे त्रुटि को सुधारते हुए आगे बढ़ने और भविष्य की गतिविधियों पर केन्द्रित होने में सहायता मिलती है और अन्य लोगों का भरपूर सहयोग प्राप्त होता है.
व्यक्ति द्वारा अपनी त्रुटि दूसरों द्वारा उंगली उठाने से पूर्व ही पाकर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए इससे किसी को दोषारोपण का अवसर नहीं मिलता. त्रुटि को स्वीकारने के बाद उसके कारणों का विश्लेषण कीजिये और सम्बंधित लोगों को स्पष्ट कीजिये कि वह त्रुटि आपसे क्यों हुई थी, और इससे क्या शिक्षा मिलती है. त्रुटि में किसी एक व्यक्ति की भूमिका पूरी अथवा आंशिक हो सकती है. साथ ही त्रुटि के कारण सम्बद्ध व्यक्ति के नियंत्रण के बाहर भी हो सकते हैं. इससे सभी द्वारा त्रुटि को नए दृष्टिकोण से देखना संभव होता है. इस प्रकार त्रुटि को एक भार से एक संपदा के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है.
त्रुटि होने पर वांछित परिणाम पाना संभावित होता है किन्तु ऐसा सुनिश्चित नहीं होता. साथ ही वांछित परिणाम न प्राप्त होना त्रुटि होने का सुनिश्चित संकेत नहीं होता. इसलिए त्रुटि को परिणाम के सापेक्ष न देखकर उसका परिणाम-निरपेक्ष विश्लेषण किया जाना चाहिए.
त्रुटि का मूल्यांकन
त्रुटि से कुछ हानियाँ होती हैं, साथ ही उससे कुछ शिक्षाएं भी मिलती हैं. अतः वे त्रुटियाँ लाभदायक होती हैं जिनसे हानियाँ अल्प तथा शिक्षाएं मूल्यवान प्राप्त हुई हों. इससे यह भी सिद्ध होता है कि सभी त्रुटियाँ अपने सकल प्रभाव में हानिकर नहीं होतीं. सगठनों की कार्य-संस्कृति ऐसी होनी चाहिए जिससे त्रुटियों को मात्र आर्थिक परिणाम के सापेक्ष न देखा जाकर उनके सकल प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए. अतः संगठन के दृष्टिकोण में त्रुटियाँ शिक्षण और अनुभव के माध्यम होनी चाहिए न कि दंड देने के कारण.
किसी व्यक्ति से त्रुटि होने का मुख्य कारण यह होता है कि व्यक्ति सक्रिय है और प्रयोगधर्मी है. ये दोनों ही सकारात्मक गुण हैं और बनाये रखने चाहिए, त्रुटियाँ होने पर भी. यदि त्रुटियों का सदुपयोग किया जाता रहे तो वे क्रमशः कम होती जाती हैं और व्यक्ति को उत्कृष्टता की ओर ले जाती हैं. अतः त्रुटियाँ असक्षमता और निर्बलता का प्रतीक नहीं होतीं किन्तु व्यक्ति के साहसी प्रयोगधर्मी होने का संकेत देती हैं यदि व्यक्ति इनसे निराश न होकर इनसे सीखने के लिए लालायित रहता है.
सभी त्रुटियों के प्रभाव एक समान नहीं होते. कुछ व्यक्तिगत त्रुटियाँ दूसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. यदि ऐसा है तो उस व्यक्ति से क्षमा याचना करते हुए उस त्रुटि के कारण स्पष्ट कर देने चाहिए. सामूहिक त्रुटियाँ प्रायः क्षम्य होती हैं क्योंकि उनके प्रभाव वितरित हो जाते हैं.
त्रुटियों के बारे में क्या करें -
- त्रुटि में अपनी भूमिका को तुरंत स्वीकारें.
- सिद्ध करें कि त्रुटि से आपने कुछ शिक्षा प्राप्त की है और भविष्य में ऐसा नहीं होगा.
- सम्बंधित लोगों को विश्वास दिलाएं कि आप की सामर्थ पर विश्वास किया जा सकता है.
क्या न करें -
- त्रुटि से बचने का बहाना न खोजें और इसके लिए किसी अन्य पर दायित्व न डालें.
- ऐसी त्रुटियों के करने से बचें जिनसे आप पर दूसरों का विश्वास विखंडित होता हो.
- त्रुटि होने पर अपनी प्रयोगधर्मिता न त्यागें किन्तु इसे और अधिक उत्साह और त्रुतिहीनता के साथ करें.
- कुछ ऐसे निर्णय होते हैं जिनकी वापिसी असंभव होती है. ऐसे निर्णय में त्रुटि होने पर उसका निराकरण भी असंभव होता है. अतः ऐसे निर्णय लेने में बहुत सोच-विचार कर ही लें जिसमें कुछ समय लगायें. ध्यान रखें कि इस में किसी त्रुटि की संभावना तो नहीं है.
- अनेक बार हमारी त्रुटियाँ हमें नए मार्ग भी दर्शाती हैं. अनेक वैज्ञानिक खोजें त्रुटियों के कारण हुई हैं. अतः प्रयोगधर्मी बने रहिये, त्रुटि होने की आशंका मत घबराइए.
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