वेदों और शास्त्रों में पाया जाने वाला शब्द 'अक्ष' लैटिन भाषा के शब्द actus का प्रतिरूप है जिसका अर्थ 'कार्य करना', और यही अर्थ वेदों आदि के अनुवाद हेतु उपयोग में लिया जाना चाहिए.
'अक्ष' शब्द से ही उद्भूत है शास्त्रीय शब्द 'अक्षर' जो लैटिन भाषा के शब्द actuaris से बना है तथा जिसका अर्थ 'कार्य' करने वाला अर्थात कर्ता' है. आधुनिक संस्कृत में लिया गया इसका अर्थ 'वर्णमाला का एक ध्वनि प्रतीक शात्रीय अनुवाद के अनुकूल नहीं है.
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
रविवार, 11 जुलाई 2010
भारत समाधान का सूत्रपात
मेरी शिक्षा, अनुभव, निष्ठां और चिंतन के कारण और मेरे गाँव में सामाजिक रूप में सक्रिय होने से गाँव के ही नहीं आसपास के अनेक गाँवों के लोग मेरे पास अपनी समस्याएँ लेकर मेरे परामर्श और सहायता की आशा लेकर आते रहते हैं और मैं यथा-संभव उन्हें संतुष्ट करने के प्रयास भी करता रहा हूँ. मुझे गाँव का प्रधान बनने के लोगों के प्रयास भी इन्ही कारणों से किये गए हैं जिसके लिए मैं सहमत हो गया हूँ.
अभी मैं एक व्यक्ति के रूप में हूँ जिसके कारण मैं लोगों को परामर्श तो दे पाता हूँ किन्तु किसी कार्यालय में जाकर उनकी सहायता नहीं कर सकता, जिसकी आवश्यकता मुझे तथा अन्य लोगों को अनुभव होती रहती है. इसके लिए मुझे एक संगठन की आवश्यकता है. इसी उद्येश्य से मैंने लोगों की समस्याओं के निदान हेतु स्थानीय स्तर पर 'भारत समाधान संघ' नामक संगठन की स्थापना का मन बनाया है जिसकी वैधानिक औपचारिकताएं अभी पूरी की जानी हैं.
'भारत समाधान संघ' कोई जन-संगठन न होकर अभी केवल बुलंदशहर जनपद के बौद्धिक लोगों का संगठन होगा जो अपने सामाजिक दायित्वों के निर्वाह करने एवं ग्रामीण लोगों की समस्याएँ हल करने के लिए प्रयास करेंगे. इसका मुख्यालय मेरा गाँव खंदोई रहेगा. इस संगठन को अन्य राष्ट्रीय स्तर के संगठनों से लग्नित कर दिया जाएगा ताकि बड़ी समस्याओं के लिए उनकी सहायता ली जा सके और उनके लक्ष्यों और संदेशों को जन साधारण तक पहुँचाया जा सके. भारत समाधान मुख्यतः जन-साधारण के शोषण और भृष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करेगा.
'भारत समाधान संघ' के माध्यम से मैं अपने समाज और राष्ट्र की स्थिति सुधारने में अपना और अपने सहधर्मियों का योगदान समर्पित कर सकूंगा, जो राष्ट्रीय चेतना का उत्प्रेरक सिद्ध हो सकता है और भारतीय जनतंत्र के स्थान पर बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना में अपना योगदान दे सकता है. आप सभी का यथा संभव नैतिक सहयोग प्रार्थनीय है. इस संघ का ईमेल पता यह है -
bharat.samadhan@gmail.com
अभी मैं एक व्यक्ति के रूप में हूँ जिसके कारण मैं लोगों को परामर्श तो दे पाता हूँ किन्तु किसी कार्यालय में जाकर उनकी सहायता नहीं कर सकता, जिसकी आवश्यकता मुझे तथा अन्य लोगों को अनुभव होती रहती है. इसके लिए मुझे एक संगठन की आवश्यकता है. इसी उद्येश्य से मैंने लोगों की समस्याओं के निदान हेतु स्थानीय स्तर पर 'भारत समाधान संघ' नामक संगठन की स्थापना का मन बनाया है जिसकी वैधानिक औपचारिकताएं अभी पूरी की जानी हैं.
'भारत समाधान संघ' कोई जन-संगठन न होकर अभी केवल बुलंदशहर जनपद के बौद्धिक लोगों का संगठन होगा जो अपने सामाजिक दायित्वों के निर्वाह करने एवं ग्रामीण लोगों की समस्याएँ हल करने के लिए प्रयास करेंगे. इसका मुख्यालय मेरा गाँव खंदोई रहेगा. इस संगठन को अन्य राष्ट्रीय स्तर के संगठनों से लग्नित कर दिया जाएगा ताकि बड़ी समस्याओं के लिए उनकी सहायता ली जा सके और उनके लक्ष्यों और संदेशों को जन साधारण तक पहुँचाया जा सके. भारत समाधान मुख्यतः जन-साधारण के शोषण और भृष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करेगा.
'भारत समाधान संघ' के माध्यम से मैं अपने समाज और राष्ट्र की स्थिति सुधारने में अपना और अपने सहधर्मियों का योगदान समर्पित कर सकूंगा, जो राष्ट्रीय चेतना का उत्प्रेरक सिद्ध हो सकता है और भारतीय जनतंत्र के स्थान पर बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना में अपना योगदान दे सकता है. आप सभी का यथा संभव नैतिक सहयोग प्रार्थनीय है. इस संघ का ईमेल पता यह है -
bharat.samadhan@gmail.com
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
हम किधर जा रहे हैं
विगत लगभग एक माह में मेरे गाँव में कुछ घटनाएँ हुईं जो हमारे चारों ओर घट रही अनेक घटनाओं जैसी ही हैं किन्तु इनसे हमें स्पष्ट संकेत मलते हैं कि हम भारतवासी इस समय किधर जा रहे हैं, और इस मार्ग पर चलते हुए हमारा भविष्य क्या होगा.
अधिकार और चोरी
गाँव के एक वयोवृद्ध किसान अपने खेत की सिंचाई के लिए अपना ट्यूबवेल चला रहे थे जो ४४० वोल्ट पर चलता है. अचानक एक ११००० वोल्ट की लाइन का एक तार टूटा और ट्यूबवेल की ४०० वोल्ट लाइन पर आ पड़ा. मोटर को ११००० वोल्ट प्राप्त होने पर उसकी ध्वनि बदली तो किसान मोटर बंद करने के लिए स्टार्टर की ओर भागे. जैसे ही उन्होंने उसे छुआ, उनके शरीर में विद्युत् धारा प्रवाहित हुई, और वे ट्यूबवेल के कुए में गिर गए. वहां उनका एक पैर और एक हाथ कट गया. कुछ समय बाद उनका मृत शरीर कुए से निकाला गया. उनका शरीर और कपडे बुरी तरह झुलसे हुए थे.
मैंने उनके पुत्र को बताया कि मृत्यु विद्युत् प्रशासन की लापरवाहियों से हुई है इसलिए उन्हें इसकी पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए जिससे उन्हें ५ लाख रुपये तक की क्षतिपूर्ति हो सकेगी. किन्तु मेरा सुझाव यह कहकर नकार दिया गया कि उनकी आय बहुत है इसलिए वे किसी क्षतिपूर्ति की मांग नहीं करेंगे. शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया.
क्षतिपूर्ति किसान का अधिकार था किन्तु इसे प्राप्त करने के लिए कुछ संघर्ष करना पड़ता, जिससे बचा गया. यही परिवार घर में उपयोग के लिए बिजली की चोरी करता है जिसका बिल केवल १३२ रुपये प्रति माह देना पड़ता जिसे बचने के लिए चोरी की जा रही है. विचार कीजिये कि एक ओर ५ लाख रुपये को इसलिए ठुकराया गया कि घर में आय की कोई कमी नहीं है. दूसरी ओर रुपये ४.५० की प्रतिदिन चोरी की जा रही है. अब क्या हो नैतिकता का मूल्य, हमारी दृष्टि में.
एक प्रसिद्ध कथावत है - व्यक्ति को अधिकार भीख में नहीं मिलते, इन्हें आगे बढ़कर पाया जाता है. दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों के लिए भी संघर्ष करने की आवश्यकता होती है. जो लोग संघर्ष नहीं करते वे अपने अधिकारों से वंचित ही रह जाते हैं. इससे उनकी उपलब्धियां अल्प हो जाती हैं जिसके कारण वे जीवन को अभावग्रस्त अनुभव करते हैं और आत्म संतुष्ट नहीं हो पाते. इस अभाव की आपूर्ति के लिए वे छल-कपट का मार्ग अपनाते हैं जिससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं. भारत के जन साधारण की मानसिकता की वर्तमान स्थिति ऐसी ही है जो उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है.
शराबी का पतन
गाँव का एक सतीश नामक हृष्ट-पुष्ट युवा था बहुत परिश्रमी. मजदूरी करके परिवार का लालन-पालन करता था बड़ी खुशी के साथ. सन २००५ में गाँव में पंचायत प्रधान का चुनाव हुआ. चुनाव जीतने के लिए एक प्रत्याशी ने पूरे गाँव के शराबियों को इच्छानुसार पीने की दावतें दीन लगभग एक महीन तक, जिनमें लगभग १ लाख रूपया व्यय हुआ. उक्त युवा प्रत्याशी का मित्र था इसलिए दावतों में उसने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इसके बाद अन्य तथाकथित जनतांत्रिक चुनाव हुए और उनमें भी जी भर के शराब की दावतें हुईं. परिणामस्वरूप उक्त युवा सुबह से शाम तक पीने वाला शराबी बन गया. मुफ्त की शराब न मिलने पर उसने अपनी कमाई से शराब पीनी आरम्भ कर दी जिससे परिवार का लालन-पालन दूभर हो गया और घर में नित्य प्रति कलह होने लगी.
अभी कुछ दिन पूर्व, सतीश नशे में धुत अपने घर की छत पर सोया और रात्री में नीचे गिर गया. पत्नी उससे नाराज थी ही इसलिए उसने उसकी कोई परवाह नहीं की और वह रात भर वहीं पड़ा रहा. सुबह पत्नी उठी और वर्तमान ग्राम प्रधान, जिसने शराब पिलाकर पड़ प्राप्त किया था, के पास गयी और उससे उसके मित्र की हालत देखने को कहा. सतीश की गर्दन टूट चुकी थी और वह बेहोश था. उसे तुरंत दिल्ली अस्पताल भेजा गया. राजकीय अस्पताल में चिकित्सा पर लगभग ५०,००० रुपये व्यय करने के बाद अब सतीश गाँव में आ गया है. किन्तु उसके शरीर का नीचे का आधा भाग मृत है जिसके कारण वह केवल पड़े रहने में ही समर्थ है - जीवन की प्रत्येक कार्य के लिए पराश्रित. उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं, परिवार भूमिहीन है इसलिए अब आय का कोई साधन नहीं है. उसकी पत्नी की मजदूरी करके बच्चे पालना विवशता है किन्तु ऐसा करते हुए वह सतीश की देखभाल नहीं कर सकती. इस प्रकार भारत के तथाकथित जनतंत्र ने पूरे परिवार को बर्बाद कर दिया है.
गुंडे के पिता की मृत्यु
अभी कुछ दिन पूर्व एक गुंडे ने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया था जिसका दंड उसे पुलिस द्वारा दिया गया. दंड देने की प्रक्रिया को विलंबित और सुकोमल करने के लिए पुलिस ने उसके परिवार से ३२,००० रुपये की रिश्वत ली तथापि उसे दंड भी पर्याप्त दिया गया. मामला अब न्यायालय में है.
उक्त गुंडे का पिता एक सज्जन एवं परिश्रमी लगभग ५० वर्षीय किसान था तथापि पुत्र मोह में गुंडागर्दी का समर्थन करता था. वह अपने पुत्र के अपराध के कारण उक्त धन और अपमान की क्षति को सहन नहीं कर सका और पुलिस कार्यवाही के दो दिन बाद ह्रदय गति रुक जाने से मृत्यु को प्राप्त हो गया. इस प्रकार गुंडे के दंड में पिता की मृत्यु भी सम्मिलित हो गयी.
जब हम अपनों के दोषों की अवहेलना करने लगते हैं तो दोष में वृद्धि होती रहती है जो एक दिन विनाशकारी सिद्ध होती है.
अधिकार और चोरी
गाँव के एक वयोवृद्ध किसान अपने खेत की सिंचाई के लिए अपना ट्यूबवेल चला रहे थे जो ४४० वोल्ट पर चलता है. अचानक एक ११००० वोल्ट की लाइन का एक तार टूटा और ट्यूबवेल की ४०० वोल्ट लाइन पर आ पड़ा. मोटर को ११००० वोल्ट प्राप्त होने पर उसकी ध्वनि बदली तो किसान मोटर बंद करने के लिए स्टार्टर की ओर भागे. जैसे ही उन्होंने उसे छुआ, उनके शरीर में विद्युत् धारा प्रवाहित हुई, और वे ट्यूबवेल के कुए में गिर गए. वहां उनका एक पैर और एक हाथ कट गया. कुछ समय बाद उनका मृत शरीर कुए से निकाला गया. उनका शरीर और कपडे बुरी तरह झुलसे हुए थे.
मैंने उनके पुत्र को बताया कि मृत्यु विद्युत् प्रशासन की लापरवाहियों से हुई है इसलिए उन्हें इसकी पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए जिससे उन्हें ५ लाख रुपये तक की क्षतिपूर्ति हो सकेगी. किन्तु मेरा सुझाव यह कहकर नकार दिया गया कि उनकी आय बहुत है इसलिए वे किसी क्षतिपूर्ति की मांग नहीं करेंगे. शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया.
क्षतिपूर्ति किसान का अधिकार था किन्तु इसे प्राप्त करने के लिए कुछ संघर्ष करना पड़ता, जिससे बचा गया. यही परिवार घर में उपयोग के लिए बिजली की चोरी करता है जिसका बिल केवल १३२ रुपये प्रति माह देना पड़ता जिसे बचने के लिए चोरी की जा रही है. विचार कीजिये कि एक ओर ५ लाख रुपये को इसलिए ठुकराया गया कि घर में आय की कोई कमी नहीं है. दूसरी ओर रुपये ४.५० की प्रतिदिन चोरी की जा रही है. अब क्या हो नैतिकता का मूल्य, हमारी दृष्टि में.
एक प्रसिद्ध कथावत है - व्यक्ति को अधिकार भीख में नहीं मिलते, इन्हें आगे बढ़कर पाया जाता है. दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों के लिए भी संघर्ष करने की आवश्यकता होती है. जो लोग संघर्ष नहीं करते वे अपने अधिकारों से वंचित ही रह जाते हैं. इससे उनकी उपलब्धियां अल्प हो जाती हैं जिसके कारण वे जीवन को अभावग्रस्त अनुभव करते हैं और आत्म संतुष्ट नहीं हो पाते. इस अभाव की आपूर्ति के लिए वे छल-कपट का मार्ग अपनाते हैं जिससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं. भारत के जन साधारण की मानसिकता की वर्तमान स्थिति ऐसी ही है जो उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है.
शराबी का पतन
गाँव का एक सतीश नामक हृष्ट-पुष्ट युवा था बहुत परिश्रमी. मजदूरी करके परिवार का लालन-पालन करता था बड़ी खुशी के साथ. सन २००५ में गाँव में पंचायत प्रधान का चुनाव हुआ. चुनाव जीतने के लिए एक प्रत्याशी ने पूरे गाँव के शराबियों को इच्छानुसार पीने की दावतें दीन लगभग एक महीन तक, जिनमें लगभग १ लाख रूपया व्यय हुआ. उक्त युवा प्रत्याशी का मित्र था इसलिए दावतों में उसने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इसके बाद अन्य तथाकथित जनतांत्रिक चुनाव हुए और उनमें भी जी भर के शराब की दावतें हुईं. परिणामस्वरूप उक्त युवा सुबह से शाम तक पीने वाला शराबी बन गया. मुफ्त की शराब न मिलने पर उसने अपनी कमाई से शराब पीनी आरम्भ कर दी जिससे परिवार का लालन-पालन दूभर हो गया और घर में नित्य प्रति कलह होने लगी.
अभी कुछ दिन पूर्व, सतीश नशे में धुत अपने घर की छत पर सोया और रात्री में नीचे गिर गया. पत्नी उससे नाराज थी ही इसलिए उसने उसकी कोई परवाह नहीं की और वह रात भर वहीं पड़ा रहा. सुबह पत्नी उठी और वर्तमान ग्राम प्रधान, जिसने शराब पिलाकर पड़ प्राप्त किया था, के पास गयी और उससे उसके मित्र की हालत देखने को कहा. सतीश की गर्दन टूट चुकी थी और वह बेहोश था. उसे तुरंत दिल्ली अस्पताल भेजा गया. राजकीय अस्पताल में चिकित्सा पर लगभग ५०,००० रुपये व्यय करने के बाद अब सतीश गाँव में आ गया है. किन्तु उसके शरीर का नीचे का आधा भाग मृत है जिसके कारण वह केवल पड़े रहने में ही समर्थ है - जीवन की प्रत्येक कार्य के लिए पराश्रित. उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं, परिवार भूमिहीन है इसलिए अब आय का कोई साधन नहीं है. उसकी पत्नी की मजदूरी करके बच्चे पालना विवशता है किन्तु ऐसा करते हुए वह सतीश की देखभाल नहीं कर सकती. इस प्रकार भारत के तथाकथित जनतंत्र ने पूरे परिवार को बर्बाद कर दिया है.
गुंडे के पिता की मृत्यु
अभी कुछ दिन पूर्व एक गुंडे ने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया था जिसका दंड उसे पुलिस द्वारा दिया गया. दंड देने की प्रक्रिया को विलंबित और सुकोमल करने के लिए पुलिस ने उसके परिवार से ३२,००० रुपये की रिश्वत ली तथापि उसे दंड भी पर्याप्त दिया गया. मामला अब न्यायालय में है.
उक्त गुंडे का पिता एक सज्जन एवं परिश्रमी लगभग ५० वर्षीय किसान था तथापि पुत्र मोह में गुंडागर्दी का समर्थन करता था. वह अपने पुत्र के अपराध के कारण उक्त धन और अपमान की क्षति को सहन नहीं कर सका और पुलिस कार्यवाही के दो दिन बाद ह्रदय गति रुक जाने से मृत्यु को प्राप्त हो गया. इस प्रकार गुंडे के दंड में पिता की मृत्यु भी सम्मिलित हो गयी.
जब हम अपनों के दोषों की अवहेलना करने लगते हैं तो दोष में वृद्धि होती रहती है जो एक दिन विनाशकारी सिद्ध होती है.
हमारी परिस्थितियां और उनका प्रभाव
व्यक्ति की परिस्थितियां उसके वश में नहीं होतीं अपितु इनका निर्माण समाज की दीर्घकालिक स्थिति पर निर्भर करता है. तथापि प्रत्येक व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से प्रभावित होता है और इन की अवहेलना नहीं कर सकता. किन्तु यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह परिस्थितियों को किस प्रकार अपनाता है जिसके दो तरीके हैं.
जन साधारण परिस्थितियों के समक्ष समर्पण कर देते हैं जिसके फलस्वरूप उनका अपने व्यवहार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता और यह पूरी तरह परिस्थितियों के अधीन होता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति का परिस्थितियों से कोई विरोध नहीं रहता और व्यक्ति का जीवन सरल एवं सहज कहा जा सकता है. परिस्थितियों की इसी अधीनता को ही व्यक्ति का भाग्य आदि कह दिया जाता है. तथापि इस स्थिति में व्यक्ति परिस्थितियों से पराजित हुआ अनुभव करता है और उसे आत्म-संतुष्टि प्राप्त नहीं होती.
कुछ व्यक्ति परिस्थितियों के समक्ष न तो स्वयं आत्म-समर्पण करते हैं और न ही परिस्थितियों को अपने वश में कर सकते हैं. ये व्यक्ति परिस्थितियों का स्वहित में उपयोग करते हैं. यह परिस्थितियों पर विजय तो नहीं होती किन्तु इसे व्यक्ति का परिस्थितियों की अधीन होना भी नहीं कहा जा सकता. यह व्यक्ति द्वारा परिस्थितियों का सदुपयोग कहा जाता है.
प्रत्येक परिस्थिति को व्यक्ति द्वारा दो प्रकार से देखा जा सकता है - एक विवशता के रूप में तथा दूसरे एक अवसर के रूप में. पारिस्थितिक विवशता स्वीकार करने पर व्यक्ति परिस्थितियों के अधीन होता है जो व्यक्ति की परिस्थितियों के समक्ष पराजय होती है. यह जीवन का एक यथार्थ है, इसके साथ ही जीवन का एक यथार्थ यह भी होता है कि प्रत्येक परिस्थिति व्यक्ति को एक अवसर प्रदान करती है, उसका उपयोग कर उससे कुछ शिक्षा गृहण करते हुए आगे बढ़ने के लिए. इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है.
अभी हाल ही में मेरे गाँव के एक गुंडे ने गाँव वालों की दृष्टि में मेरा सम्मान कम करने के उद्येश्य से अचानक मुझे गालियाँ देकर अपमानित किया और इस प्रकार मेरे समक्ष एक अप्रत्याशित परिस्थिति उत्पन्न कर दी. मैं न तो गलियों का उत्तर गालियों से देने में सामर्थ हूँ और न ही इसके लिए हिंसा कर सकता हूँ. मैंने उक्त घटना की रिपोर्ट पुलिस को की तो गुंडे ने पुलिस पर राजनैतिक दवाब डलवा कर कार्यवाही रुकवा दी. मैंने इस का विवरण अपने ब्लॉग पर लिख दिया. अनेक लोगों ने मेरे प्रति सहानुभूति दर्शाई और एक मित्र ने एक उच्च स्तरीय संगठन की सहायता ली जिसके सदस्यों में पुलिस के एक उच्च अधिकारी भी हैं. उन्होंने तुरंत स्थानीय पुलिस को मेरी रक्षा करते हुए गुंडे के विरुद्ध कठोर कार्यवाही का निर्देश दिया. पुलिस द्वारा ऐसा ही किया गया और गाँव में मेरा सम्मान और अधिक बढ़ गया. इस प्रकार मेरे विरुद्ध गुंडे का दुर्व्यवहार मेरे लिए एक सुअवसर सिद्ध हुआ. इसके विपरीत यदि मैं अपने अपमान को चुपचाप सह लेता तो शनैः-शनैः गाँव में मेरा सम्मान समाप्त हो जाता.
जन साधारण परिस्थितियों के समक्ष समर्पण कर देते हैं जिसके फलस्वरूप उनका अपने व्यवहार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता और यह पूरी तरह परिस्थितियों के अधीन होता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति का परिस्थितियों से कोई विरोध नहीं रहता और व्यक्ति का जीवन सरल एवं सहज कहा जा सकता है. परिस्थितियों की इसी अधीनता को ही व्यक्ति का भाग्य आदि कह दिया जाता है. तथापि इस स्थिति में व्यक्ति परिस्थितियों से पराजित हुआ अनुभव करता है और उसे आत्म-संतुष्टि प्राप्त नहीं होती.
कुछ व्यक्ति परिस्थितियों के समक्ष न तो स्वयं आत्म-समर्पण करते हैं और न ही परिस्थितियों को अपने वश में कर सकते हैं. ये व्यक्ति परिस्थितियों का स्वहित में उपयोग करते हैं. यह परिस्थितियों पर विजय तो नहीं होती किन्तु इसे व्यक्ति का परिस्थितियों की अधीन होना भी नहीं कहा जा सकता. यह व्यक्ति द्वारा परिस्थितियों का सदुपयोग कहा जाता है.
प्रत्येक परिस्थिति को व्यक्ति द्वारा दो प्रकार से देखा जा सकता है - एक विवशता के रूप में तथा दूसरे एक अवसर के रूप में. पारिस्थितिक विवशता स्वीकार करने पर व्यक्ति परिस्थितियों के अधीन होता है जो व्यक्ति की परिस्थितियों के समक्ष पराजय होती है. यह जीवन का एक यथार्थ है, इसके साथ ही जीवन का एक यथार्थ यह भी होता है कि प्रत्येक परिस्थिति व्यक्ति को एक अवसर प्रदान करती है, उसका उपयोग कर उससे कुछ शिक्षा गृहण करते हुए आगे बढ़ने के लिए. इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है.
अभी हाल ही में मेरे गाँव के एक गुंडे ने गाँव वालों की दृष्टि में मेरा सम्मान कम करने के उद्येश्य से अचानक मुझे गालियाँ देकर अपमानित किया और इस प्रकार मेरे समक्ष एक अप्रत्याशित परिस्थिति उत्पन्न कर दी. मैं न तो गलियों का उत्तर गालियों से देने में सामर्थ हूँ और न ही इसके लिए हिंसा कर सकता हूँ. मैंने उक्त घटना की रिपोर्ट पुलिस को की तो गुंडे ने पुलिस पर राजनैतिक दवाब डलवा कर कार्यवाही रुकवा दी. मैंने इस का विवरण अपने ब्लॉग पर लिख दिया. अनेक लोगों ने मेरे प्रति सहानुभूति दर्शाई और एक मित्र ने एक उच्च स्तरीय संगठन की सहायता ली जिसके सदस्यों में पुलिस के एक उच्च अधिकारी भी हैं. उन्होंने तुरंत स्थानीय पुलिस को मेरी रक्षा करते हुए गुंडे के विरुद्ध कठोर कार्यवाही का निर्देश दिया. पुलिस द्वारा ऐसा ही किया गया और गाँव में मेरा सम्मान और अधिक बढ़ गया. इस प्रकार मेरे विरुद्ध गुंडे का दुर्व्यवहार मेरे लिए एक सुअवसर सिद्ध हुआ. इसके विपरीत यदि मैं अपने अपमान को चुपचाप सह लेता तो शनैः-शनैः गाँव में मेरा सम्मान समाप्त हो जाता.
शनिवार, 3 जुलाई 2010
सत्ता हस्तांतरण : बुद्धि, बल और छल के मध्य
भारत में राज्य सता का हस्तांतरण बार-बार होता रहा है, जिसमें प्रमुखतः तीन गणक सम्मिलित रहे हैं - बल, छल और बुद्धि. भारत में राज्य सत्ता का श्री गणेश देवों द्वारा किया गया, किन्तु महाभारत संघर्ष में बल और छल-कपट की विजय हुई और नैतिक मूल्यों की पराजय. इस सिकंदर के समर्थन से महापद्मानंद भारत का सम्राट बना.
महापद्मानंद के सम्राट बनने के बाद विष्णु गुप्त चाणक्य सर्वाधिक हताहत हुए. उनके पास कोई बल शेष नहीं था किन्तु वे बुद्धि के धनी थे. अपने मित्र चित्र गुप्त और पुत्र चन्द्र गुप्त के साथ मिलकर उन्होंने बुद्धि का उपयोग करते हुए उन्होंने भारत की राज्य सत्ता पर अधिकार किया और चन्द्र गुप्त को भारत का सम्राट बनाया. यहीं से गुप्त वंश का शासन स्थापित हुआ जिसमें भारत को विश्व भर में 'सोने की चिड़िया' कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ.
पासा फिर पलटा. समुद्र गुप्त जैसे कुछ गुप्त वंश के शासकों के अतिरिक्त शेष शासक बुद्धि-संपन्न तो थे किन्तु उनमें बल का अभाव था. इसके लिए वे बलशालियों की सेना पर आश्रित थे. कालांतर में इन बल-शालियों ने राज्य सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया, और बुद्धि पराजित हुई. ये बल-शाली युद्ध कला में तो पारंगत थे किन्तु शासन व्यवस्था में अयोग्य सिद्ध हुए. इनके शासन में देश छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गया और शासकों का अधिकाँश समय युद्ध क्षेत्र में ही व्यतीत होने लगा. इससे शासन व्यवस्था चरमरा गयी. यह अराजकता भारत में लगभग ७०० वर्ष तक रही.
इस अराजकता का लाभ उठाने के लिए कुछ लुटेरे भारत में आये जिनके पास बल और छल दोनों थे. इनका उपयोग करते हुए उन्होंने भारत में इस्लामी शासन स्थापित कर दिया, जो विभिन्न नामों से लगभग ७०० वर्ष चला. इस शासन की सर्वाधिक निर्बलता शासकों के भोग-विलास थे जिनके लिए वे ५०० की संख्या तक स्त्रियाँ रखते थे. इस प्रकार के विलासों ने शासकों की बुद्धि और बल दोनों का हरण कर लिया. इसके प्रभाव में उन्होंने बुद्धि संपन्न अंग्रेजों को भारत में आने के लिए आमंत्रित कर दिया. इस प्रकार बल और छल पर पुनः बुद्धि की विजय हुई, और देश में अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित कर लिया.
अंग्रेजों के सासन में भारत की धन-संपदा का सतत शोषण होता रहा जिससे ब्रिटिश खज़ाना भरता रहा.यह शोषण इस सीमा तक पहुँच गया कि जन-साधारण के पास जीवन की रक्षा के लिए 'करो या मरो' के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष न रहा. इस जन आन्दोलन का नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया. इसके साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 'आजाद हिंद सेना' का गठन कर अंग्रेजों को बल-शाली चुनौती भी दी. इन दोनों कारणों से अंग्रेजों को भारत स्वतंत्र करना पडा, और देश की राज्य सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में आ गयी जो शासन करने के लिए न तो बल से संपन्न थे और न ही बुद्धि से. अतः मात्र छल ही उनके शासन तंत्र की विशिष्टता रही.इस शासन का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरु ने किया.
नेहरु के बाद सत्ता की स्वामिनी इंदिरा बनी जिसे छल के साथ बल की भी आवश्यकता अनुभव हुई जिसके लिए उसने देश भर के असामाजिक तत्वों का आश्रय लिया और देश पर बल और छल के साथ शासन किया. कालांतर में बल-शालियों को अपनी सामर्थ्य का आभास हुआ और उन्होंने सत्ता हथियाने के साथ-साथ छल भी सीख लिए. इस प्रकार भारत में आज बल और छल का शासन स्थापित है.
अगला परिवर्तन में देश पर बुद्धि का शासन होना अवश्यम्भावी है किन्तु यह तभी होगा जब देश का प्रबुद्ध वर्ग इसके लिए जागृत हो और संघर्ष करे. जहां तक जन-साधारण का प्रश्न है, यह सता परिवर्तन में कभी भी महत्वपूर्ण गणक नहीं रहा है - यहाँ तक कि आज के तथाकथित जनतांत्रिक शासन में भी. आज की स्थिति कुछ उसी प्रकार की है जैसी कि विष्णुगुप्त चाणक्य के समय थी जब बुद्धि ने बल और छल दोनों को पराजित लिया था.
महापद्मानंद के सम्राट बनने के बाद विष्णु गुप्त चाणक्य सर्वाधिक हताहत हुए. उनके पास कोई बल शेष नहीं था किन्तु वे बुद्धि के धनी थे. अपने मित्र चित्र गुप्त और पुत्र चन्द्र गुप्त के साथ मिलकर उन्होंने बुद्धि का उपयोग करते हुए उन्होंने भारत की राज्य सत्ता पर अधिकार किया और चन्द्र गुप्त को भारत का सम्राट बनाया. यहीं से गुप्त वंश का शासन स्थापित हुआ जिसमें भारत को विश्व भर में 'सोने की चिड़िया' कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ.
पासा फिर पलटा. समुद्र गुप्त जैसे कुछ गुप्त वंश के शासकों के अतिरिक्त शेष शासक बुद्धि-संपन्न तो थे किन्तु उनमें बल का अभाव था. इसके लिए वे बलशालियों की सेना पर आश्रित थे. कालांतर में इन बल-शालियों ने राज्य सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया, और बुद्धि पराजित हुई. ये बल-शाली युद्ध कला में तो पारंगत थे किन्तु शासन व्यवस्था में अयोग्य सिद्ध हुए. इनके शासन में देश छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गया और शासकों का अधिकाँश समय युद्ध क्षेत्र में ही व्यतीत होने लगा. इससे शासन व्यवस्था चरमरा गयी. यह अराजकता भारत में लगभग ७०० वर्ष तक रही.
इस अराजकता का लाभ उठाने के लिए कुछ लुटेरे भारत में आये जिनके पास बल और छल दोनों थे. इनका उपयोग करते हुए उन्होंने भारत में इस्लामी शासन स्थापित कर दिया, जो विभिन्न नामों से लगभग ७०० वर्ष चला. इस शासन की सर्वाधिक निर्बलता शासकों के भोग-विलास थे जिनके लिए वे ५०० की संख्या तक स्त्रियाँ रखते थे. इस प्रकार के विलासों ने शासकों की बुद्धि और बल दोनों का हरण कर लिया. इसके प्रभाव में उन्होंने बुद्धि संपन्न अंग्रेजों को भारत में आने के लिए आमंत्रित कर दिया. इस प्रकार बल और छल पर पुनः बुद्धि की विजय हुई, और देश में अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित कर लिया.
अंग्रेजों के सासन में भारत की धन-संपदा का सतत शोषण होता रहा जिससे ब्रिटिश खज़ाना भरता रहा.यह शोषण इस सीमा तक पहुँच गया कि जन-साधारण के पास जीवन की रक्षा के लिए 'करो या मरो' के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष न रहा. इस जन आन्दोलन का नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया. इसके साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 'आजाद हिंद सेना' का गठन कर अंग्रेजों को बल-शाली चुनौती भी दी. इन दोनों कारणों से अंग्रेजों को भारत स्वतंत्र करना पडा, और देश की राज्य सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में आ गयी जो शासन करने के लिए न तो बल से संपन्न थे और न ही बुद्धि से. अतः मात्र छल ही उनके शासन तंत्र की विशिष्टता रही.इस शासन का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरु ने किया.
नेहरु के बाद सत्ता की स्वामिनी इंदिरा बनी जिसे छल के साथ बल की भी आवश्यकता अनुभव हुई जिसके लिए उसने देश भर के असामाजिक तत्वों का आश्रय लिया और देश पर बल और छल के साथ शासन किया. कालांतर में बल-शालियों को अपनी सामर्थ्य का आभास हुआ और उन्होंने सत्ता हथियाने के साथ-साथ छल भी सीख लिए. इस प्रकार भारत में आज बल और छल का शासन स्थापित है.
अगला परिवर्तन में देश पर बुद्धि का शासन होना अवश्यम्भावी है किन्तु यह तभी होगा जब देश का प्रबुद्ध वर्ग इसके लिए जागृत हो और संघर्ष करे. जहां तक जन-साधारण का प्रश्न है, यह सता परिवर्तन में कभी भी महत्वपूर्ण गणक नहीं रहा है - यहाँ तक कि आज के तथाकथित जनतांत्रिक शासन में भी. आज की स्थिति कुछ उसी प्रकार की है जैसी कि विष्णुगुप्त चाणक्य के समय थी जब बुद्धि ने बल और छल दोनों को पराजित लिया था.
बौद्धिक मतभेद : कारण और निवारण
बौद्धिक जनतंत्र स्थापना के लिए सर्व प्रथम यह अनिवार्य है कि बौद्धिक लोग एक मंच पर एकत्रित हों और देश को एक कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने हेतु एक मत हों. इसमें सब से बड़ी बाधा यह है बौद्धिक लोग प्रायः किसी बिंदु पर परस्पर समत नहीं होते. इसका लाभ देश के अन्य लोग उठाते हैं और वे बौद्धिक लोगों को एक किनारे कर देते हैं अथवा उनका उपयोग अपने हित साधन में करते हैं.
बौद्धिक लोगों में अन्य लोगों की तरह ही व्यक्तिगत अंतर होते हैं. इस अंतराल का प्रभाव उनके चिंतन पर भी पड़ता है. चूंकि बौद्धिक जनों की विशिष्टता ही यह होती है कि वे चिंतन करते हैं और चिंतन किये गए विषयों पर अपना मत विकसित करते हैं. चूंकि चिंतन पूर्णतः लक्ष्यपरक न होकर अंशतः व्यक्तिपरक होता है इसलिए बौद्धिक लोगों के मत प्रायः परस्पर भिन्न हो जाते हैं. इसके विपरीत जन-साधारण न तो कोई चिंतन करते हैं और न ही किसी विषय पर अपना कोई मत विकसित करते हैं. इसलिए वे किसी भी मत से असहमत नहीं होते. उनके समक्ष जो भी मत प्रकट किया जाता है वे उसी से युरांत एवं सहर्ष सहमत हो जाते हैं. साथ ही दूसरा मत उनके समक्ष आने पर वे उस से भी सहमति जता देते हैं. बौद्धिक और अबौद्धिक जनों के इस अंतराल के कारण बौद्धिक जनों में प्रायः मत-भेद और अबौद्धिकों में प्रायः सहमति पायी जाती है.
बौद्धिक लोगों में स्वाभाविक मतभेद होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनमें सहमति विकसित ही नहीं हो सकती, किन्तु यह दुष्कर अवश्य होती है. बौद्धिक लोगों में विचार शीलता के कारण असहमति होती है, और इसी विचार शीलता से ही उनमें सहमति विकसित की जा सकती है. इसके दो उपाय हैं, जिन दोनों को ही इस कार्य के लिया उपयोग किया जा सकता है.
बौद्धिक जनों में सहमति का प्रथम उपाय सतत विचारशीलता और विचार विमर्श है. विचार-शीलता का एकीकरण सिद्धांत यह है कि किसी एक समस्या का एक ही सर्वोत्तम हल होता है. इसलिए यदि अनेक व्यक्ति किसी एक समस्या पर सतत विचार करते रहें तो वे सभी अंततः एक ही समाधान पर पहुचेंगे. आवश्यकता बस यह है कि वे सर्वोत्तम समाधान की खोज में सतत चिंतन करते रहें.
उक्त सहमति का दूसरा उपाय यह है कि बौद्धिक जन अपना चिंतन लक्ष्यपरक करें जिसके लिए उन्हें व्यक्तिपरक चिंतन से दूर रहने का भरसक प्रयास करना होगा. पूर्णतः लक्ष्यपरक चिंतन भी सभी बौद्धिक जनों को एक ही लक्ष्य और उसके मार्ग पर पहुंचा देगा.
भारत के समक्ष इस समय विकराल राजनैतिक संकट है, जिससे केवल बौद्धिक समाज ही मुक्ति दिला सकता है - अपने-अपने व्यक्तिगत अंतर भुला कर और किसी समाधान पर एक मत होकर. बौद्धिक जनतंत्र उनके विचार हेतु एक पृष्ठभूमि का कार्य कर सकता है.
बौद्धिक लोगों में अन्य लोगों की तरह ही व्यक्तिगत अंतर होते हैं. इस अंतराल का प्रभाव उनके चिंतन पर भी पड़ता है. चूंकि बौद्धिक जनों की विशिष्टता ही यह होती है कि वे चिंतन करते हैं और चिंतन किये गए विषयों पर अपना मत विकसित करते हैं. चूंकि चिंतन पूर्णतः लक्ष्यपरक न होकर अंशतः व्यक्तिपरक होता है इसलिए बौद्धिक लोगों के मत प्रायः परस्पर भिन्न हो जाते हैं. इसके विपरीत जन-साधारण न तो कोई चिंतन करते हैं और न ही किसी विषय पर अपना कोई मत विकसित करते हैं. इसलिए वे किसी भी मत से असहमत नहीं होते. उनके समक्ष जो भी मत प्रकट किया जाता है वे उसी से युरांत एवं सहर्ष सहमत हो जाते हैं. साथ ही दूसरा मत उनके समक्ष आने पर वे उस से भी सहमति जता देते हैं. बौद्धिक और अबौद्धिक जनों के इस अंतराल के कारण बौद्धिक जनों में प्रायः मत-भेद और अबौद्धिकों में प्रायः सहमति पायी जाती है.
बौद्धिक लोगों में स्वाभाविक मतभेद होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनमें सहमति विकसित ही नहीं हो सकती, किन्तु यह दुष्कर अवश्य होती है. बौद्धिक लोगों में विचार शीलता के कारण असहमति होती है, और इसी विचार शीलता से ही उनमें सहमति विकसित की जा सकती है. इसके दो उपाय हैं, जिन दोनों को ही इस कार्य के लिया उपयोग किया जा सकता है.
बौद्धिक जनों में सहमति का प्रथम उपाय सतत विचारशीलता और विचार विमर्श है. विचार-शीलता का एकीकरण सिद्धांत यह है कि किसी एक समस्या का एक ही सर्वोत्तम हल होता है. इसलिए यदि अनेक व्यक्ति किसी एक समस्या पर सतत विचार करते रहें तो वे सभी अंततः एक ही समाधान पर पहुचेंगे. आवश्यकता बस यह है कि वे सर्वोत्तम समाधान की खोज में सतत चिंतन करते रहें.
उक्त सहमति का दूसरा उपाय यह है कि बौद्धिक जन अपना चिंतन लक्ष्यपरक करें जिसके लिए उन्हें व्यक्तिपरक चिंतन से दूर रहने का भरसक प्रयास करना होगा. पूर्णतः लक्ष्यपरक चिंतन भी सभी बौद्धिक जनों को एक ही लक्ष्य और उसके मार्ग पर पहुंचा देगा.
भारत के समक्ष इस समय विकराल राजनैतिक संकट है, जिससे केवल बौद्धिक समाज ही मुक्ति दिला सकता है - अपने-अपने व्यक्तिगत अंतर भुला कर और किसी समाधान पर एक मत होकर. बौद्धिक जनतंत्र उनके विचार हेतु एक पृष्ठभूमि का कार्य कर सकता है.
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