आज से लगभग २,४०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा विशुद्ध वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित भारत का विकास किया जा रहा था जिसकी ख्याति सुदूर भूभागों में भी पहुँची. ऐसे भारत पर अधिकार करने हेतु कुछ षड्यंत्रकारियों ने योजना बनायी जिसके अंतर्गत भारत को सांस्कृतिक रूप से प्रदूषित किया गया. इन षड्यंत्रकारियों ने दो मनोवैज्ञानिक शस्त्र विकसित किये - ईश्वर और धर्म, और इन्हें लेकर भारत में अपने पैर पसारे. तब से अब तक ये शस्त्र प्रभावी रूप में कार्य कर रहे हैं और देश की जनसँख्या का एक विकराल वर्ग इनके बहुविध प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है और जन-मानस को प्रदूषित कर उस पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित किये हुए है. इसका आरम्भ भारत में यहूदियों के आगमन से हुआ जिन्हें उस समय यदुवंशी कहा गया.
शनैः-शनैः विश्व भर में भारत के शत्रु बढ़ते गए और वे अनेक नामों से आकर भारत में बसते रहे और यदुवंशी समूह में सम्मिलित होते रहे तथा जिन्हें वामन भी कहा गया. इससे यह वर्ग और विकराल हुआ और अपना नाम 'यवन' भी रखा क्योंकि यवन जाति इस वर्ग की सर्वाधिक शक्तिशाली जाति थी और यह जाति भारत पर राजनैतिक शासन की स्थापना करना चाहती थी. इस प्रकार वामन सामाजिक और यवन राजनैतिक शासन की अपनी आकांक्षाओं के लिए कार्य करते रहे. राजनैतिक उथल-पुथलों में यवन साम्राज्य तो नष्ट हो गया किन्तु वामनों का सांस्कृतिक प्रदूषण के माध्यम से स्थापित मनोवैज्ञानिक शासन आज तक सतत चल रहा है. इससे एक तथ्य यह उजागर होता है कि किसी भी समाज का सांस्कृतिक प्रदूषण उस पर राजनैतिक आक्रमण से कहीं अधिक घातक और दूरगामी होता है.
इस सांस्कृतिक प्रदूषण का सबसे घातक छल यह रहा है कि आरम्भ में इसके लिए कोई ग्रन्थ ना लिखा जाकर देवों द्वारा रचित वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्दावली के अर्थ प्रदूषित कर उनके मंतव्यों को सांस्कृतिक प्रदूषण के हित में मोड़ लिया गया. इस घ्रणित उद्येश्य की प्राप्ति हेतु आधुनिक संस्कृत भाषा का विकास किया गया जिसका वेदों और शास्त्रों की भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं होते हुए भी इन बहुमूल्य ग्रंथों के अनुवाद इसी भाषा के आधार पर किये गए. इस प्रकार इस सांस्कृतिक प्रदूषण को समाज की सहज मान्यता मिल गयी क्योंकि यह समाज देवों के वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों से भरपूर वेदों और शास्त्रों को पहले से ही सम्मान देता आया था. इस प्रकार वेदों और शास्त्रों के अर्थों का प्रदूषण भारत के सांस्कृतिक प्रदूषण का आधार बना. इसी आधार पर सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु नए उपाय विकसित किये गए जिनमें अध्यात्म, ज्योतिष, भिक्षावृत्ति, गुरु-शिष्य परम्परा, यंत्र और तंत्र विद्याएँ, भूत-प्रेत, जन्म-जन्मान्तर, अवतारवाद, भाग्यवाद, पूजा-पाठ, यज्ञ, योग-विद्याएँ, आदि प्रमुख हैं जो सभी ईश्वर आर धर्म की छलिया परिकल्पनाओं के विस्तार हैं. इस सांस्कृतिक प्रदूषण के प्रसार हेतु अनेक कारक विकसित किये गए जिनमें साधू-महात्मा, संत, सन्यासी, भिखारी, पुजारी, योगी, अध्यात्मवादी, धर्माचार्य, मठाधीश, ज्योतिषी, कर्मकांडी पंडित, तांत्रिक, भिखारी, आदि आज भी सक्रिय हैं. इस सांस्कृतिक प्रदूषण को और भी बल मिला जब इस्लामी लुटेरों ने भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया जो लगभग ८०० वर्ष चला. इस शासन ने कुछ नए कारक इस प्रदूषण को प्रदान किये जिन्हें मुल्ला-मौलवी, फकीर, सूफी, आदि कहा जाता है.
आज इस सांस्कृतिक प्रदूषण में भारत की लगभग ५ प्रतिशत प्रतिष्ठित जनसँख्या संलग्न है जो बिना कोई उत्पादक कार्य किये केवल भ्रमों को प्रचारित करते हुए वैभव भोग रही है. बच्चे के जन्म से ही उसके मानस को प्रदूषित किया जाता है जिसके दुष्प्रभाव से वह जीवन पर्यंत उबर नहीं पाता. यह जनसँख्या प्रतिशत उस समय अपने चरम पर था जब सिद्धार्थ ने लाखों युवाओं को बौद्ध भिक्षु बनाकर इस सांस्कृतिक प्रदूषण को गौरव प्रदान किया. दुःख का विषय यह है कि देश में इस प्रदूषण का कोई प्रभावी प्रतिकार नहीं किया गया - केवल स्वामी रामानंद और उनके प्रिय शिष्य कबीर के अतिरिक्त.
यह सांस्कृतिक प्रदूषण मानवीय सभ्यता विकास के विरुद्ध कार्य करता है जिसके कारण मूल भारतीय सभ्यता का ह्रास हुआ है और इस प्रदूषित संस्कृति को ही भारत की महान संस्कृति कहा जाने लगा है. यह प्रदूषण मानव बुद्धि को कुंठित कर उसकी चिंतन सामर्थ्य को नष्ट करता है. जनमानस में ईश्वर का आतंक और उसका धर्मावलंबन इसके प्रमुख शस्त्र हैं.
गुरुवार, 10 जून 2010
सोमवार, 7 जून 2010
बौद्धिक जन-समुदाय के समक्ष चुनौती
किसी भी परिवर्तनशील समाज अथवा देश में लोगों के लाभ और हानियाँ उनकी व्यक्तिगत या सामूहिक स्थिति के सापेक्ष परिवर्तन की दिशा पर निर्भर करते हैं. यथा यदि देश पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा होता है तो देश के पूंजीपति लाभान्वित होंगे किन्तु बौद्धिक लोगों और जन-साधारण के हितों को क्षति पहुंचेगी. किन्तु यदि देश का समस्त समाज एकीकृत है तो प्रत्येक परिवर्तन से सभी को एक समान लाभ होगा अथवा क्षति पहुंचेगी. जनतंत्र ऐसे ही एकीकृत समाज वाले देशों के लिए अभिकल्पित है और इसे अपनाने वाले प्रत्येक देश में एकीकृत समाज की अपेक्षा की जाती है. किन्तु भारत जैसे बहुपक्षीय एवं बहुरूपी समाज में प्रत्येक परिवर्तन का प्रभाव सभी पर एक समान होना संभव नहीं है. सभी लाभान्वित हों, इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अथवा उनके समुदायों के सापेक्ष सभी क्षेत्रों में परिवर्तन किये जाएँ.
इस संलेख के सन्दर्भ में हमारा अभिप्राय लोगों की बौद्धिक संपदा अथवा उसका अभाव है, इसलिए भारतीय समाज को हम इसी आधार पर वर्गीकृत करेंगे. बौद्धिकता के सन्दर्भ में विश्व इतिहास लोगों को दो वर्गों में रखता है - एक वर्ग अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए कठोर परिश्रम कर दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रगति करता है, जबकि दूसरा वर्ग अपनी मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक और व्यावसायिक युद्धनीति का उपयोग करते हुए प्रथम वर्ग की प्रगति का अवशोषण करता है. प्रथम वर्ग सृजन करता है और दूसरा वर्ग उसका अवशोषण करता है और आनंद पाता है. ऐसा होना अपरिहार्य है क्योंकि एक दार्शनिक राजनीतिज्ञ नहीं हो सकता और एक वैज्ञानिक योद्धा नहीं हो सकता.
विश्व के विकसित देशों में भी समाज ऐसे वर्गों में विभाजित होता है किन्तु वहां लेने और देने का संतुलन बना रहता है जिससे शोषण न्यूनतम होता है. इसका एक सटीक उदाहरण यह है कि इंग्लैंड के एक उपन्यास लेखक को करोड़ों पोंड की राशि अग्रिम मानदेय के रूप में प्राप्त हो जाती है जिसके कारण वह प्रकाशक अपनी प्रकाशन दक्षता और अपने निवेश से कई गुणित धन कमाता है. इसकी तुलना में, भारत में एक शीर्षस्थ लेखक को पुस्तक लिखने के बदले लगभग १०,000 रुपये तक प्राप्त होता है जबकि उसका प्रकाशक उसी पुस्तक से लाखों रुपये अर्जित करता है. भारत में सभी क्षेत्रों में कुछ ऐसा ही हो रहा है, क्योंकि यहाँ का समाज उपरोक्त प्रकार से वर्गीकृत है - दार्शनिक और व्यावसायिक वर्गों में.
यहाँ हमारे लिए आवश्यक है कि हम सभ्यता और संस्कृति के अंतराल को समझें. सभ्य समाज में संतुलित शोषण होता है जबकि संस्कृत समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार दूसरों का अविश्वास की सीमा तक भरपूर शोषण करता है. विकसित देश कुछ सीमा तक सभ्य हैं जब कि भारत दीर्घकालिक परतंत्रता के कारण संस्कृत है जहां शोषण ही जीवनधारा होता है. हम भारत-वासी अभी तक उस दासता वाली मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं.
हमें अपनी दीर्घकालिक दासत्व संस्कृति से उबरने के लिए सभ्य होना होगा जो प्रक्रिया दो स्तरों पर संचालित होगी - व्यक्तिगत और सामाजिक. प्रत्येक व्यक्ति स्वयं सभ्य बन सकता है किन्तु यदि समाज सभ्य न हुआ तो वह व्यक्ति संस्कृत समाज में अवांछित घोषित कर दिया जाएगा. इस के लिए देश के सभी नागरिकों को साथ-साथ सभ्य होना होगा ताकि राष्ट्र अपनी संस्कृति का परित्याग कर सभ्य बन सके. किन्तु भारत में ऐसा होना इस लिए संभव नहीं है क्योंकि यहाँ लोगों के शरीर और मन दोनों में अभाव व्याप्त है. इस अभाव के कारण हम व्यक्तिगत रूप में अपने चेहरों पर से संस्कृति का नकाब उतारने में असफल ही रहेंगे.
इसलिए भारत की विवशता है कि देश में बौद्धिक शासन की स्थापना के लिए बलपूर्वक परिवर्तन किया जाये जिसके लिए आरम्भ में कुछ लोगों की निरंकुश स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाया जाए जिसे उनके व्यवहार में सम्यक परिवर्तन आने पर शनैः-शनैः शिथिल किया जाए. इससे अंततः सभी का सभ्य व्यवहार होने पर सभी को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जा सकेगी. इस निरंकुश स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाना उन लोगों के लिए कष्टकर होगा जो अभी संस्कृत समाज में शोषण कर रहे हैं, इसलिए वे इसका डट कर विरोध करेंगे. अभी देश में इस प्रकार के लोगों की जनसँख्या लगभग १५ प्रतिशत है किन्तु ये राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप में सर्वाधिक शक्तिशाली हैं और देश की लगभग ४० प्रतिशत आर्थिक संपदा और १०० प्रतिशत राजनैतिक सत्ता के स्वामी बने हुए हैं. इसी संपदा और सत्ता के माध्यम से ये जनसाधारण पर अपना शिकंजा कसे रहते हैं.
देश की ६० प्रतिशत जनसँख्या का इतना अधिक शोषण किया जा रहा है कि उनके समक्ष जीवन-मरण का प्रश्न मुंह बाए खड़ा रहता है जिसके कारण उन्हें इस विषय में कोई रूचि नहीं हो सकती कि देश में संस्कृत राजनैतिक शासन हो अथवा सभ्य दार्शनिक व्यवस्था. यह जनसँख्या दूसरों के मार्गदर्शन पर आश्रित रहती है और अभी राजनैतिक शासकों के चंगुल में है. तथापि इस विशाल जनसँख्या को उसके शोषण से अवगत किया जा सकता है जिससे कि वह वर्तमान राजनैतिक षड्यंत्र को समझ सके और परिवर्तन में अपनी भागीदारी बना सके. यही जनसँख्या खेतों और कल-कारखानों में श्रम करने के कारण देश की अर्थव्यवस्था की मेरु है, तथापि देश की केवल ३० प्रतिशत संपदा की स्वामी है.
इस प्रकार देश केवल २५ प्रतिशत जनसँख्या को बौद्धिक जनतंत्र में रूचि होने की संभावना है जो देश की अर्थ-व्यवस्था का सञ्चालन भी करती है तथा जिसकी बौद्धिकता का राजनीतिज्ञों द्वारा शोषण भी किया जा रहा है. इसलिए, यदि देश की दूसरी स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया जाता है तो देश की लगभग ३० प्रतिशत संपदा वाली इसी ३० प्रतिशत जनसँख्या को देश की ४० प्रतिशत संपदा की स्वामी केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या से जूझना होगा. यह संघर्ष मूलतः मनोवैज्ञानिक होगा जिसमें बौद्धिक समुदाय का साथ ६० प्रतिशत सर्वाधिक पीड़ित जनसँख्या भी दे सकती है.
इस संघर्ष में खतरा बड़ा है किन्तु इसके संभावित लाभ खतरे से कई गुणित हैं जिसमें देश की ८५ प्रतिशत जनता लाभान्वित होगी तथा केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या को सामान्य स्तर पर लाया जाएगा. वर्तमान शासकों द्वारा दुष्प्रचारित 'भारत महान', 'विश्वगुरु भारत', 'भारत प्रगति पथ पर' आदि इसी संघर्ष को रोकने के लिए है. जबकि वस्तुस्थिति यह है कि विश्व में भारत को कोई सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं है, तथा विश्व की ३० प्रतिशत निर्धनतम जनसँख्या भारत में बसती है. यहाँ का प्रबुद्ध वर्ग विश्व भर में सस्ते मजदूरों के रूप में विख्यात है, जिसका उपयोग करके विकसित देश तेजी से विकास कर रहे हैं और भारत को उसका कोई लाभ प्राप्त नहीं हो रहा है. इस सबके लिए शासक वर्ग उत्तरदायी है जो स्वयं के शासन पर देश के कराधान का ४० प्रतिशत व्यय कर रहा है जबकि विश्व के अन्य देशों में यह केवल १० प्रतिशत है.
यदि बौद्धिक वर्ग इस मनोवैज्ञानिक क्रांति को नहीं अपनाता है तो निकट भविष्य में भारत में फ्रांस जैसी रक्त-रंजित क्रांति अवश्यम्भावित है जिसमें सत्ता परिवर्तन तो होगा किन्तु विनाश के बाद, और निश्चित रूप में यह भी नहीं कहा जा सकता कि नए सत्ताधारी कौन होंगे, जो कोई विदेशी भी हो सकते हैं जिससे देश पुनः परतंत्रता में जकड लिया जाएगा. आर्थिक रूप में भारत आज भी परतंत्र ही है यह परतंत्रता राजनैतिक भी हो सकती है.
इस संलेख में देश की व्यवस्था के लिए रूपरेखा दी गयी है जिसपर गंभीर विचार मंथन की आवश्यकता है और भारत भविष्य निर्माण के लिए सार्थक कदम उठाये जाने की आवस्यकता है.
इस संलेख के सन्दर्भ में हमारा अभिप्राय लोगों की बौद्धिक संपदा अथवा उसका अभाव है, इसलिए भारतीय समाज को हम इसी आधार पर वर्गीकृत करेंगे. बौद्धिकता के सन्दर्भ में विश्व इतिहास लोगों को दो वर्गों में रखता है - एक वर्ग अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए कठोर परिश्रम कर दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रगति करता है, जबकि दूसरा वर्ग अपनी मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक और व्यावसायिक युद्धनीति का उपयोग करते हुए प्रथम वर्ग की प्रगति का अवशोषण करता है. प्रथम वर्ग सृजन करता है और दूसरा वर्ग उसका अवशोषण करता है और आनंद पाता है. ऐसा होना अपरिहार्य है क्योंकि एक दार्शनिक राजनीतिज्ञ नहीं हो सकता और एक वैज्ञानिक योद्धा नहीं हो सकता.
विश्व के विकसित देशों में भी समाज ऐसे वर्गों में विभाजित होता है किन्तु वहां लेने और देने का संतुलन बना रहता है जिससे शोषण न्यूनतम होता है. इसका एक सटीक उदाहरण यह है कि इंग्लैंड के एक उपन्यास लेखक को करोड़ों पोंड की राशि अग्रिम मानदेय के रूप में प्राप्त हो जाती है जिसके कारण वह प्रकाशक अपनी प्रकाशन दक्षता और अपने निवेश से कई गुणित धन कमाता है. इसकी तुलना में, भारत में एक शीर्षस्थ लेखक को पुस्तक लिखने के बदले लगभग १०,000 रुपये तक प्राप्त होता है जबकि उसका प्रकाशक उसी पुस्तक से लाखों रुपये अर्जित करता है. भारत में सभी क्षेत्रों में कुछ ऐसा ही हो रहा है, क्योंकि यहाँ का समाज उपरोक्त प्रकार से वर्गीकृत है - दार्शनिक और व्यावसायिक वर्गों में.
यहाँ हमारे लिए आवश्यक है कि हम सभ्यता और संस्कृति के अंतराल को समझें. सभ्य समाज में संतुलित शोषण होता है जबकि संस्कृत समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार दूसरों का अविश्वास की सीमा तक भरपूर शोषण करता है. विकसित देश कुछ सीमा तक सभ्य हैं जब कि भारत दीर्घकालिक परतंत्रता के कारण संस्कृत है जहां शोषण ही जीवनधारा होता है. हम भारत-वासी अभी तक उस दासता वाली मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं.
हमें अपनी दीर्घकालिक दासत्व संस्कृति से उबरने के लिए सभ्य होना होगा जो प्रक्रिया दो स्तरों पर संचालित होगी - व्यक्तिगत और सामाजिक. प्रत्येक व्यक्ति स्वयं सभ्य बन सकता है किन्तु यदि समाज सभ्य न हुआ तो वह व्यक्ति संस्कृत समाज में अवांछित घोषित कर दिया जाएगा. इस के लिए देश के सभी नागरिकों को साथ-साथ सभ्य होना होगा ताकि राष्ट्र अपनी संस्कृति का परित्याग कर सभ्य बन सके. किन्तु भारत में ऐसा होना इस लिए संभव नहीं है क्योंकि यहाँ लोगों के शरीर और मन दोनों में अभाव व्याप्त है. इस अभाव के कारण हम व्यक्तिगत रूप में अपने चेहरों पर से संस्कृति का नकाब उतारने में असफल ही रहेंगे.
इसलिए भारत की विवशता है कि देश में बौद्धिक शासन की स्थापना के लिए बलपूर्वक परिवर्तन किया जाये जिसके लिए आरम्भ में कुछ लोगों की निरंकुश स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाया जाए जिसे उनके व्यवहार में सम्यक परिवर्तन आने पर शनैः-शनैः शिथिल किया जाए. इससे अंततः सभी का सभ्य व्यवहार होने पर सभी को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जा सकेगी. इस निरंकुश स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाना उन लोगों के लिए कष्टकर होगा जो अभी संस्कृत समाज में शोषण कर रहे हैं, इसलिए वे इसका डट कर विरोध करेंगे. अभी देश में इस प्रकार के लोगों की जनसँख्या लगभग १५ प्रतिशत है किन्तु ये राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप में सर्वाधिक शक्तिशाली हैं और देश की लगभग ४० प्रतिशत आर्थिक संपदा और १०० प्रतिशत राजनैतिक सत्ता के स्वामी बने हुए हैं. इसी संपदा और सत्ता के माध्यम से ये जनसाधारण पर अपना शिकंजा कसे रहते हैं.
देश की ६० प्रतिशत जनसँख्या का इतना अधिक शोषण किया जा रहा है कि उनके समक्ष जीवन-मरण का प्रश्न मुंह बाए खड़ा रहता है जिसके कारण उन्हें इस विषय में कोई रूचि नहीं हो सकती कि देश में संस्कृत राजनैतिक शासन हो अथवा सभ्य दार्शनिक व्यवस्था. यह जनसँख्या दूसरों के मार्गदर्शन पर आश्रित रहती है और अभी राजनैतिक शासकों के चंगुल में है. तथापि इस विशाल जनसँख्या को उसके शोषण से अवगत किया जा सकता है जिससे कि वह वर्तमान राजनैतिक षड्यंत्र को समझ सके और परिवर्तन में अपनी भागीदारी बना सके. यही जनसँख्या खेतों और कल-कारखानों में श्रम करने के कारण देश की अर्थव्यवस्था की मेरु है, तथापि देश की केवल ३० प्रतिशत संपदा की स्वामी है.
इस प्रकार देश केवल २५ प्रतिशत जनसँख्या को बौद्धिक जनतंत्र में रूचि होने की संभावना है जो देश की अर्थ-व्यवस्था का सञ्चालन भी करती है तथा जिसकी बौद्धिकता का राजनीतिज्ञों द्वारा शोषण भी किया जा रहा है. इसलिए, यदि देश की दूसरी स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया जाता है तो देश की लगभग ३० प्रतिशत संपदा वाली इसी ३० प्रतिशत जनसँख्या को देश की ४० प्रतिशत संपदा की स्वामी केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या से जूझना होगा. यह संघर्ष मूलतः मनोवैज्ञानिक होगा जिसमें बौद्धिक समुदाय का साथ ६० प्रतिशत सर्वाधिक पीड़ित जनसँख्या भी दे सकती है.
इस संघर्ष में खतरा बड़ा है किन्तु इसके संभावित लाभ खतरे से कई गुणित हैं जिसमें देश की ८५ प्रतिशत जनता लाभान्वित होगी तथा केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या को सामान्य स्तर पर लाया जाएगा. वर्तमान शासकों द्वारा दुष्प्रचारित 'भारत महान', 'विश्वगुरु भारत', 'भारत प्रगति पथ पर' आदि इसी संघर्ष को रोकने के लिए है. जबकि वस्तुस्थिति यह है कि विश्व में भारत को कोई सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं है, तथा विश्व की ३० प्रतिशत निर्धनतम जनसँख्या भारत में बसती है. यहाँ का प्रबुद्ध वर्ग विश्व भर में सस्ते मजदूरों के रूप में विख्यात है, जिसका उपयोग करके विकसित देश तेजी से विकास कर रहे हैं और भारत को उसका कोई लाभ प्राप्त नहीं हो रहा है. इस सबके लिए शासक वर्ग उत्तरदायी है जो स्वयं के शासन पर देश के कराधान का ४० प्रतिशत व्यय कर रहा है जबकि विश्व के अन्य देशों में यह केवल १० प्रतिशत है.
यदि बौद्धिक वर्ग इस मनोवैज्ञानिक क्रांति को नहीं अपनाता है तो निकट भविष्य में भारत में फ्रांस जैसी रक्त-रंजित क्रांति अवश्यम्भावित है जिसमें सत्ता परिवर्तन तो होगा किन्तु विनाश के बाद, और निश्चित रूप में यह भी नहीं कहा जा सकता कि नए सत्ताधारी कौन होंगे, जो कोई विदेशी भी हो सकते हैं जिससे देश पुनः परतंत्रता में जकड लिया जाएगा. आर्थिक रूप में भारत आज भी परतंत्र ही है यह परतंत्रता राजनैतिक भी हो सकती है.
इस संलेख में देश की व्यवस्था के लिए रूपरेखा दी गयी है जिसपर गंभीर विचार मंथन की आवश्यकता है और भारत भविष्य निर्माण के लिए सार्थक कदम उठाये जाने की आवस्यकता है.
सभ्यता और संस्कृति
आज पूरी मानव जाति की बुद्धिहीनता है कि वह सभ्यता और संस्कृति में अंतर कराना भूल बैठी है, और यह भूल ही इस सर्वश्रेष्ठ जाति को पतित कर रही है. यह है इस अंतर को समझने का एक प्रयास.
सभ्यता से हम भली भांति परिचित हैं - मानव की जीवन को बेहतर बनाने की सतत उत्कंठा का परिणाम, जिसके माध्यम से मानव बीहड़ जंगलों की भटकन को त्याग कर शहर और गाँव बनकर उनमें बस गया और स्वयं का समाजीकरण किया. कार्य विभाजन और परस्पर सेवाओं और सामानों का आदान-प्रदान को भी समाजीकरण विकास हेतु माध्यम बनाया.यहाँ तक सब ठीक-ठाक चलता रहा और मानव सभ्यता विकसित होती रही.
समाज में प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे पर निर्भर करता है और एक दूसरे से प्रभावित होता है. नवजात शिशु भी आरम्भ में अपने माता-पिता से तथा बाद में अपने समाज से बहुत कुछ सीखता है और अपने आचार-विचार, चरित्र और व्यवहार का निर्माण करता है. इसी को उसका संस्कारण कहा जाता है, और उसकी समग्र जीवन-शैली उसकी संस्कृति कहलाती है जो उसे समाज के देन होती है. यदि समाज किसी कारण से पथ-भृष्ट है तो उसकी संस्कृति भी प्रदूषित होगी, और यदि समाज सुमार्ग पर चल रहा होता है तो शिशु एक सुसंस्कृत नागरिक बनेगा. इस प्रकार संस्कृति अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है, जिन्हें हम सुसंस्कृति और कुसंस्कृति कह सकते हैं. अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हुए मनुष्य यह भूल गया कि उसकी संस्कृति पथ-भृष्ट भी हो सकती है, जिसके कारण उसने 'संस्कृति' को एक शुभ शब्द के रूप में मान लिया. इसके अशुभ होने की सम्भावना भी उसके मस्तिष्क में प्रवेश नहीं कर पाई.
'संस्कृति' शब्द को शुभ माने जाने के व्यापक प्रभाव हुए - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति शब्दों को भुला गिया गया और संस्कृति का विलोम शब्द 'विकृति' माना गया जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यही कुसंस्कृति का भाव है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी-अपनी संस्कृति पर गौरव अनुभव होने लगा बिना यह जाने कि उसकी संस्कृति वस्तुतः सुसंस्कृति है अथवा कुसंस्कृति. अतः संस्कृति जैसी भी रही, प्रत्येक व्यक्ति उसका विकास करता रहा, जिससे विभिन्न समाजों में ससंस्कृति और कुसंस्कृति दोनों विकसित होती रहीं, और दोनों पर ही उनके पात्रों को गौरव अनुभव होता रहा.
सभ्यता निश्चित रूप से एक शुभ परिकल्पना है - इसके अशुभ होने की कोई संभावना नहीं है, जब कि संस्कृति शुभ अथवा अशुभ हो सकती है. इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सभ्यता और संस्कृति का कोई सुनिश्चित सम्बन्ध नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी संस्कृति पर गौरव की अनुभूति होने के कारण वह सभ्यता लो भूल बैठा और संस्कृति को ही सभ्यता का पर्याय मान लिया. इस भूल के कारण सभ्यता विकास कार्य पर ध्यान देना बंद कर दिया गया, और संस्कृतियों - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति, दोनों का विकास किया जाने लगा जो आज भी किया जा रहा है.
यहाँ तक का यह अध्ययन विश्व मानव के बारे में है. इससे आगे हम इसी अध्ययन को भारत पर केन्द्रित करेंगे और जानने का प्रयास करेंगे कि आज हम सभ्यता और संस्कृति के सापेक्ष कहाँ खड़े हैं. यहाँ यह स्पष्ट कर दूं कि जब हम भारत अथवा भारतीय शब्द का उपयोग करते हैं तो उसका अर्थ जन-सामान्य भारतीय है न कि प्रत्येक भारतीय, जिनमें कुछ जन-सामान्य के सापेक्ष अच्छे अथवा बुरे अपवाद भी हो सकते हैं.
मैं पूरे भारत में अनेक स्थानों पर रहा हूँ और अनेक बार भ्रमण किया है. प्रत्येक स्थान पर वहां के लोगों की मानसिकता का आकलन किया है. अपने चारों तरफ जनसमुदाय देखता रहा हूँ, उनके आचार-विचार आदि का अध्ययन करता रहा हूँ. चोरी-चकोरी, छीना-झपटी, ठगी-डकैती, व्यभिचार-भृष्टाचार, झूठे प्रदर्शन और अभिव्यक्तियाँ, आदि भारतीय चरित्र के अभिन्न अंग बन गए हैं. प्रत्येक समाज में और स्थान पर कुछ आदर्श चरित्र भी होते हैं किन्तु वे समाज द्वारा तिरस्कृत और अपने-अपने जीवन में असफल ही पाए जाते हैं. इस आधार पर मेरी मान्यता है कि भारत में लम्बे समय से कुसंस्कृति ही विकसित होती रही है और इस पर हमें गौरव भी अनुभव होता रहा है. जो हमारे दोष हैं उनपर झूंठे चांदी के मुलम्मे चढ़ाये जाते रहे हैं, जिसके कारण हम अपने घावों को देख नहीं पाते और वे अन्दर ही अन्दर नासूर बन चुके हैं. आज हम इस वास्तविकता को देखना भी नहीं चाहते और ऊपरी मुलाम्मों पर गौरव अनुभव कर स्वयं को संस्कृत मान लेते हैं. लिस रोग को जाना न जाए उसकी चिकित्सा की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती.
भारत की उक्त विकसित एवं परिपक्व कुसंस्कृति का कारण भारत का नेतृत्व रहा है - कल तक की परतंत्रता में और आज की स्वतन्त्रता में भी. इसी दूषित नेतृत्व से उत्प्रेरित है भारत में खास लोगों का समाज जो आम समाज को भी इसी मार्ग पर धकेलता रहता है. आम आदमी के इस कुमार्ग पर जाने की विवशता है, साधनहीनता है, खास लोगों द्वारा उसका निरंतर शोषण है. इसलिए आम आदमी को इसके लिए दोषी नहीं माना जा सकता. ख़ास आदमी साधन संपन्न होते हुए भी लोभ और लालच के वशीभूत है और नेतृत्व की प्रेरणा से कुमार्ग पर चलते रहने हेत सदैव तत्पर रहता है. नेतृत्व को सत्ता चाहिए - सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक - प्रत्येक स्थिति में और किसी भी मूल्य पर. इसी के लिए वह स्वयं ही पतित नहीं है जनमानस को भी पतित कर रहा है.
सभ्यता से हम भली भांति परिचित हैं - मानव की जीवन को बेहतर बनाने की सतत उत्कंठा का परिणाम, जिसके माध्यम से मानव बीहड़ जंगलों की भटकन को त्याग कर शहर और गाँव बनकर उनमें बस गया और स्वयं का समाजीकरण किया. कार्य विभाजन और परस्पर सेवाओं और सामानों का आदान-प्रदान को भी समाजीकरण विकास हेतु माध्यम बनाया.यहाँ तक सब ठीक-ठाक चलता रहा और मानव सभ्यता विकसित होती रही.
समाज में प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे पर निर्भर करता है और एक दूसरे से प्रभावित होता है. नवजात शिशु भी आरम्भ में अपने माता-पिता से तथा बाद में अपने समाज से बहुत कुछ सीखता है और अपने आचार-विचार, चरित्र और व्यवहार का निर्माण करता है. इसी को उसका संस्कारण कहा जाता है, और उसकी समग्र जीवन-शैली उसकी संस्कृति कहलाती है जो उसे समाज के देन होती है. यदि समाज किसी कारण से पथ-भृष्ट है तो उसकी संस्कृति भी प्रदूषित होगी, और यदि समाज सुमार्ग पर चल रहा होता है तो शिशु एक सुसंस्कृत नागरिक बनेगा. इस प्रकार संस्कृति अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है, जिन्हें हम सुसंस्कृति और कुसंस्कृति कह सकते हैं. अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हुए मनुष्य यह भूल गया कि उसकी संस्कृति पथ-भृष्ट भी हो सकती है, जिसके कारण उसने 'संस्कृति' को एक शुभ शब्द के रूप में मान लिया. इसके अशुभ होने की सम्भावना भी उसके मस्तिष्क में प्रवेश नहीं कर पाई.
'संस्कृति' शब्द को शुभ माने जाने के व्यापक प्रभाव हुए - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति शब्दों को भुला गिया गया और संस्कृति का विलोम शब्द 'विकृति' माना गया जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यही कुसंस्कृति का भाव है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी-अपनी संस्कृति पर गौरव अनुभव होने लगा बिना यह जाने कि उसकी संस्कृति वस्तुतः सुसंस्कृति है अथवा कुसंस्कृति. अतः संस्कृति जैसी भी रही, प्रत्येक व्यक्ति उसका विकास करता रहा, जिससे विभिन्न समाजों में ससंस्कृति और कुसंस्कृति दोनों विकसित होती रहीं, और दोनों पर ही उनके पात्रों को गौरव अनुभव होता रहा.
सभ्यता निश्चित रूप से एक शुभ परिकल्पना है - इसके अशुभ होने की कोई संभावना नहीं है, जब कि संस्कृति शुभ अथवा अशुभ हो सकती है. इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सभ्यता और संस्कृति का कोई सुनिश्चित सम्बन्ध नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी संस्कृति पर गौरव की अनुभूति होने के कारण वह सभ्यता लो भूल बैठा और संस्कृति को ही सभ्यता का पर्याय मान लिया. इस भूल के कारण सभ्यता विकास कार्य पर ध्यान देना बंद कर दिया गया, और संस्कृतियों - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति, दोनों का विकास किया जाने लगा जो आज भी किया जा रहा है.
यहाँ तक का यह अध्ययन विश्व मानव के बारे में है. इससे आगे हम इसी अध्ययन को भारत पर केन्द्रित करेंगे और जानने का प्रयास करेंगे कि आज हम सभ्यता और संस्कृति के सापेक्ष कहाँ खड़े हैं. यहाँ यह स्पष्ट कर दूं कि जब हम भारत अथवा भारतीय शब्द का उपयोग करते हैं तो उसका अर्थ जन-सामान्य भारतीय है न कि प्रत्येक भारतीय, जिनमें कुछ जन-सामान्य के सापेक्ष अच्छे अथवा बुरे अपवाद भी हो सकते हैं.
मैं पूरे भारत में अनेक स्थानों पर रहा हूँ और अनेक बार भ्रमण किया है. प्रत्येक स्थान पर वहां के लोगों की मानसिकता का आकलन किया है. अपने चारों तरफ जनसमुदाय देखता रहा हूँ, उनके आचार-विचार आदि का अध्ययन करता रहा हूँ. चोरी-चकोरी, छीना-झपटी, ठगी-डकैती, व्यभिचार-भृष्टाचार, झूठे प्रदर्शन और अभिव्यक्तियाँ, आदि भारतीय चरित्र के अभिन्न अंग बन गए हैं. प्रत्येक समाज में और स्थान पर कुछ आदर्श चरित्र भी होते हैं किन्तु वे समाज द्वारा तिरस्कृत और अपने-अपने जीवन में असफल ही पाए जाते हैं. इस आधार पर मेरी मान्यता है कि भारत में लम्बे समय से कुसंस्कृति ही विकसित होती रही है और इस पर हमें गौरव भी अनुभव होता रहा है. जो हमारे दोष हैं उनपर झूंठे चांदी के मुलम्मे चढ़ाये जाते रहे हैं, जिसके कारण हम अपने घावों को देख नहीं पाते और वे अन्दर ही अन्दर नासूर बन चुके हैं. आज हम इस वास्तविकता को देखना भी नहीं चाहते और ऊपरी मुलाम्मों पर गौरव अनुभव कर स्वयं को संस्कृत मान लेते हैं. लिस रोग को जाना न जाए उसकी चिकित्सा की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती.
भारत की उक्त विकसित एवं परिपक्व कुसंस्कृति का कारण भारत का नेतृत्व रहा है - कल तक की परतंत्रता में और आज की स्वतन्त्रता में भी. इसी दूषित नेतृत्व से उत्प्रेरित है भारत में खास लोगों का समाज जो आम समाज को भी इसी मार्ग पर धकेलता रहता है. आम आदमी के इस कुमार्ग पर जाने की विवशता है, साधनहीनता है, खास लोगों द्वारा उसका निरंतर शोषण है. इसलिए आम आदमी को इसके लिए दोषी नहीं माना जा सकता. ख़ास आदमी साधन संपन्न होते हुए भी लोभ और लालच के वशीभूत है और नेतृत्व की प्रेरणा से कुमार्ग पर चलते रहने हेत सदैव तत्पर रहता है. नेतृत्व को सत्ता चाहिए - सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक - प्रत्येक स्थिति में और किसी भी मूल्य पर. इसी के लिए वह स्वयं ही पतित नहीं है जनमानस को भी पतित कर रहा है.
पूर्वाग्रह और दृष्टिकोण संतुलन
मनुष्य का सर्वाधिक घातक पूर्वाग्रह यह होता है कि उसे सभी सामान्य विषयों का ज्ञान है जबकि यथार्थ यह होता है कि हम सभी अल्पज्ञानी होते हैं किन्तु सार्वजनिक स्तर पर इसे स्वीकार नहीं करते. इस पूर्वाग्रह के कारण हम प्रत्येक विषय पर अपने पूर्वाग्रह का पोषण करते रहते हैं तथा सार्वजनिक स्तर पर उसे अभिव्यक्त भी करते हैं. प्रत्येक विषय पर 'इस बारे में मुझे ज्ञान नहीं है' - ऐसा बहुत कम सुनने में आता है, जबकि ज्ञान प्राप्ति का प्रथम सोपान यही है कि हम अपनी अल्पज्ञता को पहचानें.
मानव स्वभाव की एक निर्बलता यह है कि जब हम किसी अपरिचित व्यक्ति से मिलते हैं अथवा किसी नयी वस्तु को देखते हैं तो हमारा प्रथम प्रयास यह होता है कि हम उसके बारे में तुरंत कोई भावना बनाएं और अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त करें, जब कि अपेक्षित यह होता है कि हम शांत भाव से उस व्यक्ति अथवा वस्तु के बारे में सूचनाएं संग्रहित करें, उन्हें विश्लेषित करें और अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए उसके बारे में अपना दृष्टिकोण बनाएं. दृष्टिकोण बनाने से लेकर उसे अभिव्यक्त करने में भी पर्याप्त संयम की आवश्यकता होती है. इसमें महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रत्येक अभिव्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के ग्रहण करने हेतु होती है. अतः अभिव्यक्ति से पूर्व हमें सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हमारा लक्ष्यित व्यक्ति हमारी अभिव्यक्ति को ग्रहण करने हेतु तत्पर है. ऐसा न होने पर हमारी अभिव्यक्ति निरर्थक होती है जो हमारे वाक्-संसाधन का दुरूपयोग है.
हमारे पूर्वाग्रह अन्य व्यक्तियों, वस्तुओं तथा विषयों के बारे में ही नहीं होते, ये हमारे स्वयं के बारे में भी होते हैं तथा ये यथार्थ से सुदूर भी हो सकते हैं. यदा-कदा ऐसा भी होता है कि हम अपनी निर्बलताएँ जानते तो हैं किन्तु उन्हें दूसरों के समक्ष स्वीकार करने से कतराते हैं. ये दोनों स्थितियाँ ही मानवीय निर्बलताएँ हैं जो हमें कृत्रिमता की ओर धकेलती रहती हैं. स्वयं के बारे में इन्हीं कृत्रिमताओं के कारण ही हम अपने प्रयासों में असफल होते हैं जो हमारे अधिकाँश दुखों के कारण होती हैं.
मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी होता है तथापि सार्वजनिक स्तर पर वह स्वयं को परमार्थी दर्शाता है. इसी कृत्रिमता से हमारे पूर्वाग्रह प्रदूषित होते हैं. वस्तुतः हमारे परमार्थ भी दूरगामी स्वार्थ ही होते हैं, इस प्रकार स्वार्थी होना पूर्णतः दोष नहीं है. आवश्यकता बस इतनी है कि हम अपनी स्वार्थपरता को पहचानें, स्वीकारें और इससे किसी अन्य व्यक्ति को आहत न होने दें.
एक अन्य कृत्रिमता जो हमारे मानस में बसा दी गयी है वह है अहंकार के बारे में, जो कोई दोष नहीं है, और प्राकृत है. किन्तु इसे दोष कहकर हम इसे स्वीकार नहीं करते तथापि अहंकारी होते हैं. अहंकार का वास्तविक अर्थ 'मैं कर्ता हूँ' है जिसमें कोई दोष नहीं है और यह हमारे आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का प्रतीक है. वस्तुतः मनुष्य ही कर्ता है, सृष्टा है और विधाता है. आवश्यकता यह है कि हम अपनी प्राकृत क्षमताओं को पहचानें, उनपर अटूट विश्वास करें, और उनका मानव सभ्यता विकास हेतु सदुपयोग करें.
हमारे पूर्वाग्रह और हमारी कृत्रिमताएँ ही हमारे दृष्टिकोणों को प्रदूषित करते हैं और हमारे सम्यक संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने में बाधक होते हैं. इसलिए हमें सम्यक दृष्टिकोण विकसित करने हेतु अपने पूर्वाग्रहों और कृत्रिमताओं से मुक्त होने की आवश्यकता होती है. इसके लिए हमें किसी अन्य के मार्गदर्शन की भी अनिवार्यता नहीं होती, आवश्यकता होती है बस हमारे चिंतन करने की - पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर.
जिस प्रकार हमारे प्रत्येक वार्तालाप का प्रबल पक्ष हमारा श्रवण होता है, उसी प्रकार किसी विषय में संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने का प्रबल बिंदु उस विषयक दूसरे सम्बंधित व्यक्तियों का दृष्टिकोण जानना होता है. यद्यपि हमारे और दूसरों के दृष्टिकोण त्रुटिपूर्ण होने की संभावना रखते हैं, तथापि इन सभी के संश्लेषण से हम यथार्थपरक दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं.
मानव स्वभाव की एक निर्बलता यह है कि जब हम किसी अपरिचित व्यक्ति से मिलते हैं अथवा किसी नयी वस्तु को देखते हैं तो हमारा प्रथम प्रयास यह होता है कि हम उसके बारे में तुरंत कोई भावना बनाएं और अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त करें, जब कि अपेक्षित यह होता है कि हम शांत भाव से उस व्यक्ति अथवा वस्तु के बारे में सूचनाएं संग्रहित करें, उन्हें विश्लेषित करें और अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए उसके बारे में अपना दृष्टिकोण बनाएं. दृष्टिकोण बनाने से लेकर उसे अभिव्यक्त करने में भी पर्याप्त संयम की आवश्यकता होती है. इसमें महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रत्येक अभिव्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के ग्रहण करने हेतु होती है. अतः अभिव्यक्ति से पूर्व हमें सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हमारा लक्ष्यित व्यक्ति हमारी अभिव्यक्ति को ग्रहण करने हेतु तत्पर है. ऐसा न होने पर हमारी अभिव्यक्ति निरर्थक होती है जो हमारे वाक्-संसाधन का दुरूपयोग है.
हमारे पूर्वाग्रह अन्य व्यक्तियों, वस्तुओं तथा विषयों के बारे में ही नहीं होते, ये हमारे स्वयं के बारे में भी होते हैं तथा ये यथार्थ से सुदूर भी हो सकते हैं. यदा-कदा ऐसा भी होता है कि हम अपनी निर्बलताएँ जानते तो हैं किन्तु उन्हें दूसरों के समक्ष स्वीकार करने से कतराते हैं. ये दोनों स्थितियाँ ही मानवीय निर्बलताएँ हैं जो हमें कृत्रिमता की ओर धकेलती रहती हैं. स्वयं के बारे में इन्हीं कृत्रिमताओं के कारण ही हम अपने प्रयासों में असफल होते हैं जो हमारे अधिकाँश दुखों के कारण होती हैं.
मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी होता है तथापि सार्वजनिक स्तर पर वह स्वयं को परमार्थी दर्शाता है. इसी कृत्रिमता से हमारे पूर्वाग्रह प्रदूषित होते हैं. वस्तुतः हमारे परमार्थ भी दूरगामी स्वार्थ ही होते हैं, इस प्रकार स्वार्थी होना पूर्णतः दोष नहीं है. आवश्यकता बस इतनी है कि हम अपनी स्वार्थपरता को पहचानें, स्वीकारें और इससे किसी अन्य व्यक्ति को आहत न होने दें.
एक अन्य कृत्रिमता जो हमारे मानस में बसा दी गयी है वह है अहंकार के बारे में, जो कोई दोष नहीं है, और प्राकृत है. किन्तु इसे दोष कहकर हम इसे स्वीकार नहीं करते तथापि अहंकारी होते हैं. अहंकार का वास्तविक अर्थ 'मैं कर्ता हूँ' है जिसमें कोई दोष नहीं है और यह हमारे आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का प्रतीक है. वस्तुतः मनुष्य ही कर्ता है, सृष्टा है और विधाता है. आवश्यकता यह है कि हम अपनी प्राकृत क्षमताओं को पहचानें, उनपर अटूट विश्वास करें, और उनका मानव सभ्यता विकास हेतु सदुपयोग करें.
हमारे पूर्वाग्रह और हमारी कृत्रिमताएँ ही हमारे दृष्टिकोणों को प्रदूषित करते हैं और हमारे सम्यक संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने में बाधक होते हैं. इसलिए हमें सम्यक दृष्टिकोण विकसित करने हेतु अपने पूर्वाग्रहों और कृत्रिमताओं से मुक्त होने की आवश्यकता होती है. इसके लिए हमें किसी अन्य के मार्गदर्शन की भी अनिवार्यता नहीं होती, आवश्यकता होती है बस हमारे चिंतन करने की - पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर.
जिस प्रकार हमारे प्रत्येक वार्तालाप का प्रबल पक्ष हमारा श्रवण होता है, उसी प्रकार किसी विषय में संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने का प्रबल बिंदु उस विषयक दूसरे सम्बंधित व्यक्तियों का दृष्टिकोण जानना होता है. यद्यपि हमारे और दूसरों के दृष्टिकोण त्रुटिपूर्ण होने की संभावना रखते हैं, तथापि इन सभी के संश्लेषण से हम यथार्थपरक दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं.
शनिवार, 5 जून 2010
शासन और व्यवस्था का अंतराल
भारत में बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना की दिशा में कदम रखने से पूर्व हम अपने बौद्धिक साथियों को शासन और व्यवस्था के शब्द जाल से परिचित करना चाहेंगे. बहुधा शासन-व्यवस्था शब्द-समूह का उपयोग सहज भाव से कर लिया जाता है किन्तु इस शब्द समूह में एक छल समाहित है. वस्तुतः शासन और व्यवस्था दो प्रथक विषय हैं और दोनों का कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं है. शासन शोषण का पर्याय है जहां समाज को शासक और शासित वर्गों में विभाजित रखा जाता है. यह मानवता को सामंती युग की देन है और भारत में अभी-भी प्रचलित है. इस में अल्पसंख्यक शासक वर्ग अपने छल-बल से बहुसंख्यक शासित वर्ग का निरंतर शोषण करता रहता है ताकि शोषित वर्ग कदापि शोषण का विरोध करने में समर्थ ही न हो सके.
शासक वर्ग कोई उत्पादक कार्य नहीं करता अपितु शासितों द्वारा किये गए उत्पादन का स्वामी बन बैठता है. किन्तु यह स्वामित्व वहीं तक सीमित रखा जाता है जहां तक कि शासित वर्ग जीवित रह सके क्योंकि शासक वर्ग को शासितों की सतत आवश्यकता होती है. भारतीय पांडित्य परंपरा में इसी को दरिद्र नारायण की पूजा कहा जाता है जिसमें दरिद्रों का अस्तित्व आवश्यक होता है.
संपदा का समुचित वितरण और सभी द्वारा इसका उपभोग किया जाना 'व्यवस्था' कहलाता है. व्यवस्था में कोई स्वामी नहीं होता किन्तु सभी उत्पादक एवं उपभोक्ता होते हैं. इसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके उपभोग के अनुसार वस्तुएं उपलब्ध कराई जाती हैं. किसी वस्तु का अभाव होने पर सभी के उपभोग में कमी कर दी जाती है, तथा वस्तु की अधिकता होने पर सभी के उपभोग से शेष राशि भावी उपयोग हेतु सार्वजनिक संपदा के रूप में संचित कर दी जाती है. महाभारत पूर्व भारत में देवों द्वारा ऐसी ही व्यवस्था लागू की गयी थी. व्यवस्था में न कोई शासक होता है और न ही कोई शासित. समाज व्यवस्था हेतु कुछ नागरिकों को व्यवस्थापक नियुक्त कर देता है. लगभग २५०० वर्ष पूर्व एथेंस में स्थापित विश्व का प्रथम जनतंत्र ऐसी ही व्यवस्था थी जिसे देमोक्रितु ने प्रतिपादित किया था. शासन के पक्षधर प्लेटो और अरिस्तु इसके घोर विरोधी थे.
आधुनिक स्वतंत्र समाजों में किसी शासन की आवश्यकता न होकर केवल व्यवस्था की आवश्यकता है. बौद्धिक जनतंत्र भी ऐसी ही व्यवस्था का पक्षधर है.
शासक वर्ग कोई उत्पादक कार्य नहीं करता अपितु शासितों द्वारा किये गए उत्पादन का स्वामी बन बैठता है. किन्तु यह स्वामित्व वहीं तक सीमित रखा जाता है जहां तक कि शासित वर्ग जीवित रह सके क्योंकि शासक वर्ग को शासितों की सतत आवश्यकता होती है. भारतीय पांडित्य परंपरा में इसी को दरिद्र नारायण की पूजा कहा जाता है जिसमें दरिद्रों का अस्तित्व आवश्यक होता है.
संपदा का समुचित वितरण और सभी द्वारा इसका उपभोग किया जाना 'व्यवस्था' कहलाता है. व्यवस्था में कोई स्वामी नहीं होता किन्तु सभी उत्पादक एवं उपभोक्ता होते हैं. इसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके उपभोग के अनुसार वस्तुएं उपलब्ध कराई जाती हैं. किसी वस्तु का अभाव होने पर सभी के उपभोग में कमी कर दी जाती है, तथा वस्तु की अधिकता होने पर सभी के उपभोग से शेष राशि भावी उपयोग हेतु सार्वजनिक संपदा के रूप में संचित कर दी जाती है. महाभारत पूर्व भारत में देवों द्वारा ऐसी ही व्यवस्था लागू की गयी थी. व्यवस्था में न कोई शासक होता है और न ही कोई शासित. समाज व्यवस्था हेतु कुछ नागरिकों को व्यवस्थापक नियुक्त कर देता है. लगभग २५०० वर्ष पूर्व एथेंस में स्थापित विश्व का प्रथम जनतंत्र ऐसी ही व्यवस्था थी जिसे देमोक्रितु ने प्रतिपादित किया था. शासन के पक्षधर प्लेटो और अरिस्तु इसके घोर विरोधी थे.
आधुनिक स्वतंत्र समाजों में किसी शासन की आवश्यकता न होकर केवल व्यवस्था की आवश्यकता है. बौद्धिक जनतंत्र भी ऐसी ही व्यवस्था का पक्षधर है.
बुधवार, 2 जून 2010
ग्राम
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