मनुष्य का सर्वाधिक घातक पूर्वाग्रह यह होता है कि उसे सभी सामान्य विषयों का ज्ञान है जबकि यथार्थ यह होता है कि हम सभी अल्पज्ञानी होते हैं किन्तु सार्वजनिक स्तर पर इसे स्वीकार नहीं करते. इस पूर्वाग्रह के कारण हम प्रत्येक विषय पर अपने पूर्वाग्रह का पोषण करते रहते हैं तथा सार्वजनिक स्तर पर उसे अभिव्यक्त भी करते हैं. प्रत्येक विषय पर 'इस बारे में मुझे ज्ञान नहीं है' - ऐसा बहुत कम सुनने में आता है, जबकि ज्ञान प्राप्ति का प्रथम सोपान यही है कि हम अपनी अल्पज्ञता को पहचानें.
मानव स्वभाव की एक निर्बलता यह है कि जब हम किसी अपरिचित व्यक्ति से मिलते हैं अथवा किसी नयी वस्तु को देखते हैं तो हमारा प्रथम प्रयास यह होता है कि हम उसके बारे में तुरंत कोई भावना बनाएं और अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त करें, जब कि अपेक्षित यह होता है कि हम शांत भाव से उस व्यक्ति अथवा वस्तु के बारे में सूचनाएं संग्रहित करें, उन्हें विश्लेषित करें और अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए उसके बारे में अपना दृष्टिकोण बनाएं. दृष्टिकोण बनाने से लेकर उसे अभिव्यक्त करने में भी पर्याप्त संयम की आवश्यकता होती है. इसमें महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रत्येक अभिव्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के ग्रहण करने हेतु होती है. अतः अभिव्यक्ति से पूर्व हमें सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हमारा लक्ष्यित व्यक्ति हमारी अभिव्यक्ति को ग्रहण करने हेतु तत्पर है. ऐसा न होने पर हमारी अभिव्यक्ति निरर्थक होती है जो हमारे वाक्-संसाधन का दुरूपयोग है.
हमारे पूर्वाग्रह अन्य व्यक्तियों, वस्तुओं तथा विषयों के बारे में ही नहीं होते, ये हमारे स्वयं के बारे में भी होते हैं तथा ये यथार्थ से सुदूर भी हो सकते हैं. यदा-कदा ऐसा भी होता है कि हम अपनी निर्बलताएँ जानते तो हैं किन्तु उन्हें दूसरों के समक्ष स्वीकार करने से कतराते हैं. ये दोनों स्थितियाँ ही मानवीय निर्बलताएँ हैं जो हमें कृत्रिमता की ओर धकेलती रहती हैं. स्वयं के बारे में इन्हीं कृत्रिमताओं के कारण ही हम अपने प्रयासों में असफल होते हैं जो हमारे अधिकाँश दुखों के कारण होती हैं.
मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी होता है तथापि सार्वजनिक स्तर पर वह स्वयं को परमार्थी दर्शाता है. इसी कृत्रिमता से हमारे पूर्वाग्रह प्रदूषित होते हैं. वस्तुतः हमारे परमार्थ भी दूरगामी स्वार्थ ही होते हैं, इस प्रकार स्वार्थी होना पूर्णतः दोष नहीं है. आवश्यकता बस इतनी है कि हम अपनी स्वार्थपरता को पहचानें, स्वीकारें और इससे किसी अन्य व्यक्ति को आहत न होने दें.
एक अन्य कृत्रिमता जो हमारे मानस में बसा दी गयी है वह है अहंकार के बारे में, जो कोई दोष नहीं है, और प्राकृत है. किन्तु इसे दोष कहकर हम इसे स्वीकार नहीं करते तथापि अहंकारी होते हैं. अहंकार का वास्तविक अर्थ 'मैं कर्ता हूँ' है जिसमें कोई दोष नहीं है और यह हमारे आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का प्रतीक है. वस्तुतः मनुष्य ही कर्ता है, सृष्टा है और विधाता है. आवश्यकता यह है कि हम अपनी प्राकृत क्षमताओं को पहचानें, उनपर अटूट विश्वास करें, और उनका मानव सभ्यता विकास हेतु सदुपयोग करें.
हमारे पूर्वाग्रह और हमारी कृत्रिमताएँ ही हमारे दृष्टिकोणों को प्रदूषित करते हैं और हमारे सम्यक संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने में बाधक होते हैं. इसलिए हमें सम्यक दृष्टिकोण विकसित करने हेतु अपने पूर्वाग्रहों और कृत्रिमताओं से मुक्त होने की आवश्यकता होती है. इसके लिए हमें किसी अन्य के मार्गदर्शन की भी अनिवार्यता नहीं होती, आवश्यकता होती है बस हमारे चिंतन करने की - पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर.
जिस प्रकार हमारे प्रत्येक वार्तालाप का प्रबल पक्ष हमारा श्रवण होता है, उसी प्रकार किसी विषय में संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने का प्रबल बिंदु उस विषयक दूसरे सम्बंधित व्यक्तियों का दृष्टिकोण जानना होता है. यद्यपि हमारे और दूसरों के दृष्टिकोण त्रुटिपूर्ण होने की संभावना रखते हैं, तथापि इन सभी के संश्लेषण से हम यथार्थपरक दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं.